Thursday, 18 December 2014

सांस्कृतिक साम्राज्यवाद से आज़ाद होंगे युवा?

v     अतुल मोहन सिंह
दुष्प्रवृत्तियों के चक्रव्यूह में फँसे देश के अभिमन्यु की दशा आज बहुत करुण है। अपने दम-खम से असम्भव को सम्भव बना देने वाले, साहस और उत्साह का पर्याय कहे जाने वाले युवाओं की स्थिति बहुत ही दुःख एवं चिंताजनक हो गयी है। दिशाहीन शिक्षापद्धति द्वारा भ्रमित, आदर्शहीन समाज में मार्गदर्शन के अभाव में युवा पीढ़ी दुष्प्रवृत्तियों के दलदल में धंसती जा रही है। वैचारिक शून्यता और दिशाभ्रम की इस स्थिति में पाश्चात्य अपसंस्कृति के भोगवादी हमले ने उसके भटकाव का शिकंजा और बुरी तरह कस दिया है। इस आत्मघाती चक्रव्यूह में फँसे इन युवाओं की तड़प हर संवेदनशील व्यक्ति अपने सीने में अनुभव कर सकता है। 2014 के बीतने के साथ ही इन नकारात्मक आयामों की जकड़न ढ़ीली होने के आसार साफ़ हैं वहीं 2015 निश्चित रूप से सांस्कृतिक गुलामी की बेड़ियां तोड़ते भारतीय युवा के लिए एक मील का पत्थर साबित होगा.
आज अपने देश के सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अराजकता व गिरावट का माहौल व्याप्त है। देश के प्रायः सभी संस्थान, प्रतिष्ठान, दल, संगठन इसकी आग में झुलस रहे हैं लगता है मूल्यों व आदर्शों के प्रति कहीं कोई निष्ठा शेष नहीं बची है। जीवन के प्रायः किसी भी क्षेत्र में सकारात्मक ढंग से कुछ हासिल करने की रचनात्मक तड़प नजर नहीं आती। युवाओं की निर्वाणस्थली विश्वविद्यालयों एवं शिक्षा संस्थानों की स्थिति तो और बदतर है। हमारे राष्ट्रीय एवं सामाजिक भविष्य को विनिर्मित करने वाले इन संस्थानों में अराजकता का माहौल संव्याप्त है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, बिहार के विश्वविद्यालय हों या दिल्ली विश्वविद्यालय अथवा वहीं का जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय हो सभी लगभग एक-सी स्थिति में जा पहुँचे रहे हैं।
अपने देश में लगभग ढाई सौ विश्वविद्यालय और विश्वविद्यालय-नुमा उच्च शिक्षण संस्थानों की बहुत-सी अन्य शिक्षा संस्थाएँ व विश्वविद्यालय से जुड़े लगभग सात हजार कॉलेज है। इनमें पढ़ाने वालों की संख्या करोणों में है। इनमें से प्रत्येक वर्ष 40 प्रतिशत छात्र फेल हो जाते हैं, 30 प्रतिशत तीसरे दर्जे में पास होते हैं। फेल होने वाले और कम नंबर प्राप्त करने वाले ये छात्र-छात्राएँ प्रायः आत्म-हीनता एवं कुण्ठा का शिकार हो जाते हैं। इनकी यह दशा सामाजिक समस्या का भी रूप ले लेती है। लाखों पास-फेल युवा अपने-अपने पुश्तैनी काम-काज में लग जाते हैं, जिनमें इनकी विश्वविद्यालय शिक्षा की कोई आवश्यकता नहीं होती। बहुत सारे स्नातक शहरों में ऑटोरिक्शा चलाते या फिर किसी दफ्तर में चपरासी हो जाते हैं। बहुतों को तो यह भी नसीब नहीं होता। लाखों युवक युवतियाँ हर साल सिविल सर्विस की परीक्षाओं में अपना भाग्य आजमाते हैं, पर यहाँ भी हर साल कुल सात-आठ सौ ही चुने जाते हैं। अतः स्पष्ट स्पष्टतया उच्चशिक्षा का दृश्य कोई उत्साहवर्द्धक नहीं है।
भविष्य के प्रति असुरक्षा का भाव युवाओं में आक्रोश एवं निराशा का एक बड़ा कारण है। भयावह ढंग से बढ़ से रही बेरोजगारी ने युवक-युवतियों को शिक्षा की उपादेयता के प्रति सशंकित बना दिया है। एक सर्वेक्षण के अनुसार बेरोजगार स्नातकोँ की संख्या 1980-88 के बाद 23 फ़ीसदी प्रतिवर्ष की दर से बढ़ी है, जबकि 2013-14 के दौरान यह प्रतिशत और बढ़ गया। डिग्रीधारी बेरोजगारों की संख्या सर्वाधिक पश्चिम बंगाल में पायी गयी, जो कुल बेरोजगारों का 27.21 प्रतिशत थी। इसी तरह कुल बेरोजगारों में डिग्रीधारी बेरोजगारों की संख्या बिहार, केरल, कर्नाटक, पंजाब, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, नागालैण्ड में क्रमशः 24.85 प्रतिशत, 21.100 प्रतिशत, 18.21 प्रतिशत, 13.7 प्रतिशत, 12.16 प्रतिशत, 1.16 प्रतिशत, 1.23 प्रतिशत, 7.68 प्रतिशत, 6.54 प्रतिशत, व 4.42 प्रतिशत पाई गई है। इसी तरह पिछले सालों में अलग अलग शिक्षा वर्गों में बेरोजगारी के बढ़ने की दर को इसी प्रकार पाया गया । कला 26 प्रतिशत प्रतिवर्ष बढ़ी। विज्ञान के बेरोजगार स्नातकों का प्रतिशत 12.9 प्रतिश से 33 प्रतिशत तक रहा। वाणिज्य, इंजीनियरिंग व मेडिकल में बेरोजगारों की संख्या वृद्धि दर क्रमशः 16.4 से 27.4 प्रतिशत 4.6 से से 21 प्रतिशत व 12.2 प्रतिशत से 37 प्रतिशत वार्षिक रही। इनमें पोस्ट ग्रेजुएट की स्थिति तो और भी बदतर देखी गयी। पांचवीं एवं छठी योजनाओं के दौरान दस से मात्र पाँच पोस्ट ग्रेजुएट ही रोजगार उपलब्ध कर पाए।
शिक्षित युवाओं में बेरोजगारी अनेक समस्याओं की जन्मदात्री है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार कुँठित एवं हताश युवा मन का आक्रोश उग्रवाद एवं आतंकवाद को हवा देता है, जो राष्ट्र के लिए खतरा बन जाते हैं। अगस्त-सितम्बर, 2010 में मण्डल आयोग की स्वीकृति के बाद हुआ राष्ट्रव्यापी उग्र छात्र आन्दोलन युवाओं में बेरोजगारी से जुड़ी गहरी भावनात्मक समस्याओं को समेटे था। पंजाब के रोजगार निदेशालय द्वारा बताए गए आंकड़ों के अनुसार दिसम्बर, 2004 तक पंजाब के अमृतसर जिले में 91,360 शिक्षित युवा बेरोजगार थे। इसी तरह अन्य जिलों में बेरोजगार शिक्षित युवाओं की स्थिति व्यापक बेरोजगारी की एक झलक देती है, जो शोधकर्ताओं के अनुसार पंजाब में आतंकवाद के फलने-फूलने का एक अहम कारण रही। काश्मीर में भी आतंकवाद के फलने-फूलने का एक अहम कारण बेरोजगारी रही। काश्मीर में भी गुमराह युवा शक्ति ही सक्रिय है। विश्लेषकों के अनुसार पाकिस्तान में सैन्य प्रशिक्षण के लिए जाने वाले लोगों में अधिकतर 19-24 वर्ष के युवक ही थे।
सन 2013 में देश के 236 शहरों के 2100 युवाओं पर हुए राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण के अनुसार युवाओं के भटकने, दुष्प्रवृत्तियों में फँसने की ज्यादातर कारण रोजगार के सीमित अवसर है। इनमें से 62 प्रतिशत युवाओं का यही मानना था कि रोजगार की स्थिति बदतर हो गयी है। सर्वेक्षण में भागीदारी करने वाले ज्यादातर युवक युवतियाँ न केवल अपने भविष्य व आर्थिक असुरक्षा के प्रति निराश थे, बल्कि देश के आर्थिक भविष्य व सामाजिक विकास को लेकर चिंतित थे।
वर्तमान युवा पीढ़ी में कुछ रोजगार कारणों के चलते और कुछ सही दशा के अभाव में नशे के आदी हो रहे है। इन युवाओं में नशे की लत अलग-अलग शहरों में  40 से 45 प्रतिशत तक देखी गयी है। 2014 में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार अलग-अलग शिक्षा वर्ग में इसका प्रतिशत इस तरह था। वाणिज्य में 31 प्रतिशत, कला व समाज विज्ञान में 27.2 प्रतिशत, मेडिकल 27 प्रतिशत इंजीनियरिंग 26 प्रतिशत व कानून के 17 प्रतिशत छात्र किसी न किसी नशे का शिकार थे। बढ़ते सालों में अध्ययनकर्ताओं के अनुसार इस प्रवृत्ति में भी बढ़ोत्तरी होनी है। अध्ययन में यह पाया गया हैं कि इनमें से 10 प्रतिशत युवक प्रारम्भिक प्रयोगात्मक दौर में चल रहें हैं अर्थात् सप्ताह में एक बार या इससे कम नशा लेते थे। 9 प्रतिशत सप्ताह में कई बार नियमित रूप से सेवन कर रहे थे। 30 प्रतिशत नशे के पूरी तरह शिकार हो गए थे जो बिना नशे के रह नहीं सकते हैं। इनमें से 75 प्रतिशत शराब व तम्बाकू के साथ अन्य नशों का भी सेवन करते थे जबकि 16 से 20 प्रतिशत शराब व तम्बाकू के शिकार थे।
मनोवैज्ञानिक के अनुसार आज की हताश-निराश युवा पीढ़ी में परिस्थितियों से जूझने की क्षमता चूकती जा रही ही। आत्महत्या के बढ़ते आँकड़े इस दुःखद स्थिति की गवाही दे रहे है। 2012 में राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो द्वारा तैयार किए गए आँकड़ों के अनुसार देशभर में प्रतिवर्ष 40,000 आत्महत्याएँ होती हैं आठ लाख लोग गम्भीर प्रयास करते हैं। जिसमें 25 प्रतिशत 30 वर्ष से कम आयु के युवक होते हैं। इनमें से भी 17 से 30 वर्ष के आयु वर्ग में 43.7 प्रतिशत होते हैं। गत तीन वर्षों में युवाओं में आत्महत्या की वृत्ति तेजी से बढ़ी हैं प्राप्त विश्लेषण के अनुसार युवतियों की अपेक्षा युवक अधिक आत्महत्याएँ करते हैं. आत्महत्याओं के साथ ही बढ़ते अपराध में भी युवाओं का हाथ सबसे अधिक देखा गया है। इस क्रम में 17 से 30 वर्ष आयु वर्ग में सबसे अधिक 49 प्रतिशत अपराधी पकड़े गए हैं. शिक्षा संस्थानों में बढ़ता राजनैतिक हस्तक्षेप भी युवा पीढ़ी को दुर्भावनाओं दुष्प्रवृत्तियों के चक्रव्यूह में उलझाता जा रहा हैं. राजनीति के दुष्चक्र में उलझी युवा पीढ़ी अपनी रचनात्मक शक्ति खोती जा रही हैं. शिक्षा केन्द्र पूरी तरह से राजनैतिक द्वन्द्व का अखाड़ा बनते जा रहे हैं. विश्वविद्यालय की व्यवस्था सम्बन्धी इकाइयाँ भी इससे अछूती नहीं हैं. प्रायः कुलपतियों की नियुक्ति के पीछे कोई न कोई राजनैतिक पूर्वाग्रह काम कर रहे होते हैं. इसी के साथ विभिन्न विभागों में प्राध्यापकों, विभागाध्यक्षों की नियुक्ति भी इन्हीं राजनैतिक आग्रहवश होती हैं. राजनीति के कुचक्रों से घिरे ये द्रोणाचार्य मनचाहे अर्जुनों को पालते हैं. नैष्ठिक एकलव्यों का अँगूठा कटवाते रहते हैं. सम्भवतः इसी कारण छात्रों एवं प्राध्यापकों के रिश्ते दिन प्रतिदिन बिगड़ते जा रहें हैं. यही क्यों एक समय था जब विश्वविद्यालयों में पुलिस का प्रवेश एक अनहोनी घटना मानी जाती है। कुलपति व शिक्षकों का दबाव ही विश्वविद्यालय में अनुशासन के लिए पर्याप्त माना जाता था। किन्तु आज वहाँ पुलिस एक अनिवार्य उपस्थिति बन चुकी है।
युवावस्था का प्रारम्भिक दौर शारीरिक व मानसिक परिवर्तन के कारण अत्यन्त उथल-पुथल भरा होता है. जिसके दौरान पूर्वानुमानित प्रतिमान टूटते हैं और नये बनते हैं। इन दिनों युवक अपनी अस्मिता की खोज करता है अपनी ओर से नए प्रतिमान ढूँढ़ने की तलाश में होता है। जिसके अनुरूप वह स्वयं को ढाल सके। अपने आदर्श की खोज की प्रेरणा वह पुस्तकों, फिल्मों, समाचार पत्रों व आस-पास के सामाजिक राजनैतिक माहौल की बीच करता है. पहले इनके आदर्श कोई ऐतिहासिक महापुरुष, वीर, महात्मा एवं कोई सज्जन पुरुष हुआ करते थे. आज नई पीढ़ी के आदर्श एवं प्रतिमान बहुत कुछ बदल गए है। जो टूटती परम्पराओं, मान्यताओं एवं गिरते नैतिक मूल्यों का परिणाम हैं. आज युवाओं के आदर्श टीवी एवं फिल्मों के सतरंगी पर्दों से अवतरित होते हैं, जो हिंसा, फैशनपरस्ती एवं फूहड़ता की प्रेरणा देते हैं। इन आदर्शों का अनुकरण करने वाली युवा पीढ़ी में मस्तिष्क में हिंसा, अश्लीलता की ऊल-जुलूल हरकतों, कुकल्पनाओं व दुर्भावनाओं के अतिरिक्त और क्या कल्पना की जा सकती है।
आज नई पीढ़ी का अर्थ किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनुशासन में उभारती पौध नहीं हैं, बल्कि स्वच्छन्दता की पराकाष्ठा और कृत्रिम आदर्शों की अन्धी दौड़ में शामिल कॉलेज या विश्वविद्यालय की भीड़ है. आकाश से अवतरित होने वाला अपसंस्कृति का आक्रमण स्थिति को और बद से बदतर बनाता जा रहा है। अगणित सेटेलाइट चैनलों ने हमारी लोकसंस्कृति को तोड़-मरोड़ और नंगा करके सरेआम खुली सड़क पर ला पटका है। खान, पान, वेश-भूषा, आचार-व्यवहार, गीत-संगीत सभी क्षेत्रों में युवाओं द्वारा किये जा रहे पाश्चात्य अंधानुकरण ने भारतीय समाज के समक्ष गम्भीर संकट खड़े कर दिए हैं. आज की युवा पीढ़ी भारत की बहुमूल्य साँस्कृतिक धरोहर के प्रति पूर्णतया उदासीन हैं आज के युवक-युवतियों में वेद, उपनिषदों-पुराणों को पढ़ना, उन पर चर्चा करना यहां तक कि उनका नाम लेकर पिछड़ेपन, रूढ़िवादी होने का प्रमाण मान लिया जाता है. शायद देव-संस्कृति की उपेक्षा, भारतीय पहनावे का त्याग, रैप, डिस्कों का प्रचलन इसी का परिणाम है. यही नहीं युवाओं में आदर्श व प्रेरक साहित्य के प्रति अभिरुचि में भारी कमी आयी है. गत कुछ सालों से देखने में आया है कि युवक-युवतियों अश्लील साहित्य को बेहद चाव से पढ़ने लगे हैं. छात्रावासों के प्रायः हर कमरे में डेबोनियर, फैंटसी, चेस्टिटी, पेंटहाउस जैसी ओछी और महँगी पत्रिकाएँ देखने को मिल जाएँगी। चाहे गर्ल्स हास्टल हो या फिर ब्वायज हर कहीं अश्लीलता का बखान करने वाले उपन्यास देखे जा सकते हैं. एक समय था जब कालेज-विश्वविद्यालयों के परिसर में धर्मवीर भारती, वृन्दावन लाल वर्मा, रवीन्द्रनाथ टैगोर, मुल्कराज आनन्द आदि की साहित्यिक रचनाएँ रुचि के साथ पढ़ी जाती थीं. युवकों को आज मालूम ही नहीं कि वे क्या पढ़े।
वैसे भी इन दिनों अपने देश में पत्रिकाओं के नाम पर अश्लीलता से भरी पूरी पत्रिकाओं की बाढ़-सी आ गयी है। एक मोटे अनुमान के अनुसार अकेले दिल्ली में लगभग तीन दर्जन ऐसी पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हैं। अपने नाम के अनुरूप इन पत्रिकाओं में ऐसी कोई पाठ्य सामग्री नहीं होती, जो युवा पीढ़ी को किसी दिशा में जागरुक करने में सक्षम हो या उनकी रचनात्मक क्षमताओं का विकास करें। इसके विपरीत ये तथाकथित जागरुक पत्रिकाएँ युवा पीढ़ी को नैतिक पतन के दलदल में धकेलती जा रही हैं। कहने को तो ये पत्रिकाएँ युवा पीढ़ी में यौन शिक्षा के सम्बन्ध में युवाओं को जागरुक होने का दावा करती हैं परन्तु वास्तविकता इसके ठीक विपरीत हैं इन पत्रिकाओं की कीमत आम पत्रिकाओं से दो से ढाई गुना अधिक होती है. फिर भी ये धड़ल्ले से बिकती हैं इनमें से कइयों की प्रचार संख्या लाखों के आस पास है. इनमें से अधिकाँश वार्षिकाँक भी निकालती हैं जिसका मूल्य कम से कम सौ रुपये होते है. इतना महँगा यह अंक भी बाजार में आते ही हाथो-हाथ बिक जाता है. अति आधुनिक पश्चिमी संस्कृति में रँगी अपने को मॉडल कहने वाली युवतियां कालेज छात्राएँ भी बड़ी संख्या में ऐसी पत्रिकाएँ खरीद कर ले जाती हैं. इतनी आसानी से उपलब्ध होने वाली इन पत्रिकाओं की युवा पीढ़ी में कितनी पैठ है, और उनका कितना प्रभाव पड़ रहा है इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है.
ये पत्रिकाएँ अपने अलग-अलग अंकों में अवैध सम्बन्धों यौन कुण्ठाओं, यौन समस्याओं आदि पर सर्वेक्षणानुसार आलेख भी प्रकाशित करती हैं. सर्वेक्षणों को यदि सच मान लिया जाए तो बड़े ही अफसोस के साथ कहना पड़ेगा कि आज भारतीय समाज विशेष तौर पर युवा पीढ़ी ऐसी कुसंस्कृति अपनाने के लिए अग्रसर है. जहाँ रिश्ते-नातों की पवित्रता और व्यक्तिगत जीवन में नैतिकता कोई अर्थ नहीं रखती है. उसी संस्कृति स्त्री-पुरुष के बीच कामवासना के अतिरिक्त कोई दूसरा सम्बन्ध नहीं समझती। युवाओं में इस मानसिकता और प्रवृत्ति के विकास में ये अश्लील पत्रिकाएँ खास भूमिका निभा रही है. पत्रिकाओं की अति कामोत्तेजक पाठ्य-सामग्री युवकों की यौन सम्बन्धी समस्याओं का न तो समाधान करती हैं. और न ही यौन कुण्ठाओं को शान्त करती हैं. इसके विपरीत उनकी यौनेच्छाओं को इस हद तक उभारती हैं कि वे अप्राकृतिक एवं अनुचित तरीकों से अपनी वासनाओं की पूर्ति के लिए बाधित होते हैं ऐसी स्थिति में युवा वर्ग घृणित अपराधों के चंगुल में भी फँस जाता है।
हाल ही के वर्षों में मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाओं में तेजी से वृद्धि हुई है। इन अपराधों के अभियुक्तों में युवा सबसे अधिक हैं. समाजशास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों ने भी इन घटनाओं में वृद्धि के लिए युवाओं को भ्रमित करने वाले अश्लील साहित्य को ही जिम्मेदारी माना है. अश्लीलता का प्रचार करने वाले इस साहित्य का मायाजाल इस कदर बढ़ा है कि युवतियों भी इसके नागपाश से बच नहीं पायी हैं. गतवर्ष ऐसी ही एक पत्रिका के एक संपादक ने एक टीवी कार्यक्रम में बताया कि प्रतिमाह सैकड़ों पत्र ऐसी लड़कियों के आते हैं. जो पत्रिका के लिए नग्न तस्वीर खिंचवाना चाहती हैं. यदि उक्त सम्पादक की बात सच मानी जाए तो सभी पत्रिकाओं के पास आने वाले पत्रों की संख्या लाखों में होगी। इन आँकड़ों से यह बात स्पष्ट होती है कि इन पत्रिकाओं ने लड़कियों के एक खास वर्ग को उस पश्चिमी संस्कृति में पूरी तरह ढल जाने के लिए प्रेरित किया है, जहां अपने वस्त्र उतारकर पैसा कमाना आम बात है।
देश में एक ऐसी सामाजिक अपसंस्कृति का प्रसार हुआ है, जिससे युवक-युवतियाँ आत्मघाती दुष्चक्र में उलझते जा रहे है। मध्यम व उच्चवर्गीय परिवारों की लड़कियां अपनी ऊर्जा और प्रतिभा को किसी सार्थ कार्य में लगाने के बजाय फैशन शो, सौंदर्य प्रतियोगिता व फिल्मों के प्रलोभन में अपराधी एवं बुरे लोगों के जाल में फंसती जा रही हैं. यह आश्चर्यजनक किन्तु सत्य है कि भारतीय आभूषण उतार फेंककर जिस्म की नुमाइश की होड़ में शामिल हो गयी हैं। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान दिल्ली के दो डाक्टरों ने हाल ही में दक्षिण दिल्ली के सात स्कूलों के 700 छात्र-छात्राओं को जो सर्वेक्षण किया. उससे हमारी शिक्षा व्यवस्था, सामाजिक नैतिकता सम्बन्धी कई नाजुक सवाल खड़े हो गए हैं। सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 60 प्रतिशत छात्र अश्लील गतिविधियों में लिप्त पाए, गए। आश्चर्य की बात तो यह है कि लड़के अपने सहपाठियों-मित्रों के बीच इन सम्बन्धों की खुलकर चर्चा व शेखी बघारते हैं और जो इन कुकृत्यों से दूर रहते हैं, उन्हें बड़े ही हीन व बैकवार्ड समझा जाता है. यह प्रतिशत केन्द्रीय विद्यालयों में 55 प्रतिशत था व पब्लिक स्कूलों में 60 प्रतिशत। सर्वेक्षण यदि सरकारी स्कूलों में किया गया होता तो यह प्रतिशत और कम होता।
बड़े पब्लिक स्कूलों में वीआईपी पारिवारिक-सामाजिक पृष्ठभूमि के कारण यौन उच्छृंखलता को फैशन व आधुनिकता का प्रतीक बना लिया है. कुछ परिवारों ने पिछले कुछ सालों से विदेशी टीवी चैनलों को जिस तरह अपनाया है. उससे एक विकृत अभिरुचि पनपी है. युवा इससे सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं. हमारे परम्परागत व नैतिक मूल्य का ह्रास निराशाजनक है. अपनाए जा रहे पश्चिमी मूल्यों ने युवा पीढ़ी को पतन के गर्त में धकेल दिया है। पाश्चात्य संस्कृति के जीवन मूल्य को अपनाती युवा पीढ़ी अपने देश की संस्कृति को हेय दृष्टि से देखने लगी है. यह पीढ़ी अपनी कुण्ठाओं के हल महानगरों की सड़कों पर तलाशती है. चमक-दमक वाले रेस्त्रा, नाइट क्लबों में ढूंढ़ती है. फैशन शो, सौंदर्य प्रतियोगिताओं में खोजती है। अपने आन्तरिक बिखराव के चलते नशा इस पीढ़ी का अभिन्न अंग बनता जा रहा है. भोगवादी लालसाओं से रँगे सपनों को पाने के जुनून में यह पीढ़ी किसी भी सीमा तक गिरने के लिए तैयार है. आज के युवाओं में प्रगतिशीलता के नाम पर भारतीयता का विरोध , नैतिकता के विरुद्ध उतरना, विवादास्पद हो जाना उपलब्धियों में गिना जाता है।
युवा पीढ़ी में स्वार्थपरायणता की भी बेहद वृद्धि हुई है. युवक-युवतियाँ अपने सामाजिक दायित्व बोध से कट गए हैं। उनके जीवन का प्रयोजन संकुचित हो गया है. उच्च आदर्शों एवं प्रेरणा स्त्रोत के अभाव में ये एक के बाद एक नए कुचक्रों में फँसे उलझते चले जा रहे हैं। अपनी वैचारिक शून्यता के कारण ये अभिमन्यु दुष्प्रवृत्तियों के चक्रव्यूह का बेधन कर पाने में स्वयं को असहाय पा रहे हैं.

वैचारिक शून्यता व साँस्कृतिक संकट की इस विषम घड़ी में युवाओं की शक्ति को रचनात्मक दिशा में नियोजित करने की कोशिश में त्रीवता लानी होगी. युवाओं को उनके सही पथ का दिशाबोध कराया जाय. निश्चित ही जिनमें कुछ भी चेतना बाकी हैं, जो अभी जीवन्त है वे इस आमन्त्रण को हृदय की गहराइयों में सुनेंगे. दुष्प्रवृत्तियों के चक्रव्यूह में फँसे देश के अभिमन्यु को नवयुग के प्रेरक एवं प्रवर्तक की नवीन भूमिका के लिए प्रस्तुत करने के लिए तैयार करना ही होगा। मुझे विश्वास है कि वर्ष 2015 में भारतीय तरुणाई स्थापित विद्रूपताओं को परास्त कर इस दिशा में एक निर्णायक भूमिका तय करेगी. 

Wednesday, 26 November 2014

अवसाद बना रहा अपराधी

अतुल मोहन सिंह 
युवाओं में अपराध के लिए वैसे तो किसी एक कारण को जिम्मेदार नहीं माना जा सकता है पर अवसाद निश्चित तौर पर इसमें एक बड़ी भूमिका निभा रहा है. अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका लांसेट का सर्वे कहता है कि भारत में युवाओं की मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण है आत्महत्या। हालांकि हमारे समाज और परिवारों का विघटन जिस गति से हो रहा है किसी शोध के ऐसे नतीजे चौंकाने वाले नहीं हैं। जीवन का अंत करने वाले इन युवाओं की उम्र है 15 से 29 वर्ष है। यानि कि  वो  आयुवर्ग जो  देश का भविष्य है। एक ऐसी उम्र जो अपने लिए ही नहीं समाज, परिवार और देश के लिए कुछ स्वपन संजोने और उन्हें पूरा करने की ऊर्जा और उत्साह का दौर होती है। पर जो कुछ हो रहा है वो हमारी आशाओं और सोच के बिल्कुल विपरीत है। आमतौर पर माना जाता है कि गरीबी अशिक्षा और असफलता से जूझने वाले युवा ऐसे कदम उठाते हैं। ऐसे में इस सर्वे के परिणाम थोड़ा हैरान करने वाले हैं। इस शोध के मुताबिक उत्तर भारत के बजाय दक्षिण भारत में आत्महत्या करने वाले युवाओं की संख्या अधिक है। इतना ही नहीं देशभर में आत्महत्या से होने वाली कुल मौतों में से चालीस प्रतिशत अकेले चार बड़े दक्षिणी राज्यों में होती हैं। यह बात किसी से छिपी ही नहीं है कि शिक्षा का प्रतिशत दक्षिण भारत में उत्तर भारत से कहीं ज्यादा है। काफी समय पहले से ही वहां रोजगार के बेहतर विकल्प भी मौजूद रहे हैं। ऐसे में देश के इन हिस्सों में भी आए दिन ऐसे समाचार अखबारों में सुर्खियां बनते हैं। इनमें एक बड़ा प्रतिशत जीवन से हमेशा के लिए पराजित होने वाले ऐसे युवाओं का है जो सफल भी हैं, शिक्षित भी और धन दौलत तो इस पीढ़ी ने उम्र से पहले ही बटोर लिया है।
 सच तो यह है कि बीते कुछ बरसों में नई पीढ़ी पढाई अव्वल आने की रेस और फिर अधिक से अधिक वेतन पाने की दौड़ का हिस्सा भर बनकर रह गयी है। परिवार और समाज में आगे बढ़ने और सफल होने के जो मापदंड तय हुए वे सिर्फ आर्थिक सफलता को ही सफलता मानते हैं। इसके लिए शिक्षित होने के भी मायने बदल गए हैं। पढाई सिर्फ मोटी तनख्वाह वाली नौकरी पाने का जरिया बन कर रह गयी है। इस दौड़ में शामिल युवा पीढ़ी परिवार और समाज से इतना दूर हो गयी कि वे किसी की सुनना और अपनी कहना ही भूल गए। समय के साथ उनकी आदतें भी कुछ ऐसी हो चली हैं कि मौका मिलने पर भी वे परिवार के साथ नहीं रहना चाहते। उनके जीवन में ना ही रचनात्मकता बची है और ना ही आपसी लगाव का कोई स्थान रहा है। परिणाम हम सबके सामने हैं। आज जिस आयुवर्ग के युवा आत्महत्या जैसे कदम उठा रहे हैं वे परिवार और समाज के सपोर्ट सिस्टम से काफी दूर ही रहे हैं। इस पीढी का लंबा समय घर से दूर पढाई करने में बीता है और फिर नौकरी करने के लिए भी परिवार से दूर ही रहना पड़ा है। इनमें बड़ी संख्या में ऐसे नौजवान हैं जो घर से दूर रहकर करियर के शिखर पर तो पहुंच जाते हैं पर उनका मन और जीवन दोनों सूनापन लिए है। उम्र के इस पड़ाव पर उनके पास सब कुछ पा लेने का सुख है तो पर कहीं कुछ छूट जाने की टीस भी है। कभी कभी यही अवसाद और अकेलापन जन असहनीय हो जाता है तो वे जाने अनजाने अपने ही जीवन के अंत की राह चुन लेते हैं। देखने में तो यही लगता है कि सफलता के शिखर पर बैठे इन युवाओं के जीवन में ना तो कोई दर्द है और ना ही कोई दुख। ऐसे में ये आँकड़े सोचने को विवश करते हैं कि क्या ये पीढी इतना आगे बढ गयी है कि जीवन ही पीछे छूट गया है? जिस युवा पीढी के भरोसे भारत वैश्विक शक्ति बनने की आशाएं संजोए है वो यूं जिंदगी के बजाय मौत का रास्ता चुन रही है, यह हमारे पूरे समाज और राष्ट्र के लिए दुर्भागयपूर्ण ही कहा जायेगा।
 दिशा से भटकते युवा: कहा जाता है कि बच्चों का सबसे अधिक संवेदनात्मक और आत्मीय सम्बंध अपनी मां से होता है, किन्तु जब वही बच्चे अपनी मां की निर्मम हत्या कर दें तब क्या कहा जाए? कुछ समय पहले दिल्ली के एक प्रतिष्ठित निजी स्कूल के 12वीं कक्षा के छात्र ने अपनी मां की सिर पर हथौड़े से वार करके हत्या कर दी। यह हत्या क्षणिक आक्रोश में आकर नहीं की गई थी, अपितु सोच-समझकर गुपचुप तरीके से की गई थी। हत्या का कारण यह बताया गया कि बच्चे की मां उसे पढ़ाई और उसकी मित्र के कारण डांटा करती थी। यह बात तो पहले ही सामने आ चुकी थी कि आज के युवाओं की असीम ऊर्जा सही दिशा न मिलने के कारण नकारात्मक प्रवृत्तियों की ओर बढ़ रही है। किन्तु किसी ने यह अनुमान भी न लगाया होगा कि यह आक्रोश इतना बढ़ जाएगा कि वह जीवन की डोर थमाने वाली मां को ही अपना शिकार बना लेगा। आखिर क्यों और कहां से आया यह आक्रोश? ऐसी घटनाएं अपने साथ क्या संदेश लाती हैं? क्या आज की युवा पीढ़ी इतनी असंवेदनशील और संस्कारहीन हो गई है कि वह हत्या करने जैसे आत्यंतिक कदम भी उठा ले? इस विकृत मनोवृत्ति के क्या कारण हैं? कहां तक दोषी हैं माता-पिता और क्या भूमिका है आज की शिक्षा पद्धति की? आज की यह भौतिकतावादी और भागदौड़ भरी जिंदगी हमें किस मंजिल पर पहुंचा रही है? ऐसे कुछ प्रश्नों पर हमने दिल्ली में शिक्षा जगत से जुड़े कुछ विशेषज्ञों से बातचीत की। ये घटनाएं इस बात का स्पष्ट प्रमाण हैं कि हमारे युवाओं में हिंसक प्रवृत्ति खतरनाक ढंग से बढ़ रही है। युवाओं का यह रोष पूरी व्यवस्था के विरुद्ध है। उसे अपना भविष्य अनिश्चित नजर आता है। उसके अंदर असीम ऊर्जा भरी हुई है किन्तु उस ऊर्जा के प्रयोग के लिए युवा सही राह नहीं चुन पाता, फलस्वरूप इस ऊर्जा का प्रयोग वह गलत कार्यों में करने लगता है। आज के बच्चों से अभिभावक बहुत अधिक अपेक्षाएं रखते हैं। जिसके कारण उन पर सामाजिक दबाव बहुत बढ़ गया है। समाज की तथाकथित कसौटियों पर खरा न उतर पाने के कारण उनमें हीन भावना भर जाती है। बच्चों के साथ किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए, उनकी भावनाओं को कैसे समझें, इसके लिए अभिभावकों को भी विशेष रूप से शिक्षित होना चाहिए। आजकल माता-पिता अपनी सभी इच्छाएं अपने बच्चों के द्वारा पूरी करवाना चाहते हैं। यह गलत है। दूसरी ओर, मीडिया उन्हें सब्ज-बाग दिखाता है और सपनों की पूर्ति न होने पर वे कुंठित हो जाते हैं। हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली में यह बहुत बड़ी कमी है कि छात्रों को अपने पैरों पर खड़ा होने में बहुत समय लग जाता है। होना यह चाहिए कि दसवीं कक्षा तक छात्र इतना सक्षम हो जाए कि वह स्वयं आगे बढ़कर उच्च स्तर तक पहुंच सके। हमारी शिक्षा से अध्यात्मवाद गायब हो चुका है जबकि अध्यात्मवाद हमारी बहुत-सी समस्याओं का समाधान है। हमें अपनी शिक्षा में लचीलापन लाना चाहिए। छात्रों के भीतर छिपी कलात्मक प्रतिभाओं को उभारना होगा और उन्हें वि·श्वविद्यालय स्तर तक मान्यता देनी होगी। आज इक्कीसवीं सदी में शिक्षा अगर छात्रों को कुछ दे सकती है तो उसे विवेक देना चाहिए। उसमें अच्छे-बुरे की पहचान करने की क्षमता विकसित करे। अध्यापकों को भी समय-समय पर प्रशिक्षण देना चाहिए, उन्हें बाल-मनोविज्ञान से परिचित कराना चाहिए। अध्यापकों को चाहिए कि वह केवल विषय न पढ़ाएं अपितु छात्रों को केन्द्र में रखते हुए उन्हें समझें और समझाएं। आज के भौतिकतावादी युग में हम बच्चों को सार्थक समय नहीं दे पाते। उसकी पूर्ति पैसों से करने का प्रयास करते हैं। यह एक गलत प्रवृत्ति है। माता-पिता के साथ बिताए गए समय की पूर्ति किसी भी वस्तु से नहीं हो सकती। अभिभावकों से मिलने वाले संस्कार, शिक्षा कहीं और से नहीं मिल सकती। मीडिया में बाल-सुलभ क्रीड़ाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। मीडिया में बढ़ती हिंसा को संयमित करने की बहुत आवश्यकता है। बच्चों को यह सिखाया जाता है कि मां-बाप उनके आदर्श हैं। किन्तु उनमें भी अनेक कमियां होती हैं। जब बच्चा उनकी कथनी-करनी में अंतर देखता है तो वह पूरी तरह भ्रमित हो जाता है। इस प्रकरण को ध्यान से देखें तो केवल मां की डांट से नाराज होकर ही बच्चे ने हत्या नहीं की होगी। उसके मन में काफी समय से अवसाद भर रहा होगा। मां की डांट ने तो केवल बारूद में चिंगारी लगाने का काम किया। लेकिन फिर भी उसे चाहे कितना ही अपमान क्यों न मिला हो पर हम बच्चों के इस कृत्य को न्यायोचित नहीं ठहरा सकते। हम बच्चों के अधिकार की बात तो करते हैं लेकिन यह भूल जाते हैं कि मां के भी कुछ अधिकार हैं, अध्यापकों के भी कुछ अधिकार हैं। जहां तक मनोवैज्ञानिक परामर्शों की बात है तो उसकी आवश्यकता केवल बच्चों को ही नहीं, माता-पिता और अध्यापकों को भी है। पाठ्यक्रम के बढ़ते बोझ से बच्चे की निजी जिंदगी भी प्रभावित होती है। किन्तु जब इसमें कमी लाने का प्रयास किया जाता है तो उसे राजनीतिक रंग दे दिया जाता है। यह सही है कि विद्यालय में पढ़ाए जा रहे पाठ्यक्रमों के आधार पर छात्र अपना भविष्य नहीं बना पाते। उन्हें जिस भी कार्य क्षेत्र में जाना होता है उसके लिए वे विशेष पढ़ाई करते हैं। किन्तु हमारे विद्यालय भी दुविधा में फंसे हैं कि वे केन्द्रीय शिक्षा बोर्ड की परीक्षाओं के अनुरूप पढ़ाएं या फिर विभिन्न क्षेत्रों की प्रवेश परीक्षा के अनुरूप। इसके लिए पूरी व्यवस्था में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। हमारे देश में शिक्षा को प्राथमिकता नहीं दी जाती। राजनीतिक व्यवस्था में भी शिक्षा को स्थान नहीं दिया जाता। मीडिया में इस विषय पर विशेष चर्चा नहीं की जाती है। सिर्फ शिक्षाविद के चिल्लाते रहने से कुछ नहीं होता। इस विषय पर समाज के हर वर्ग को खुलकर सामने आना चाहिए। इन छात्रों में बढ़ते रोष का तात्कालिक हल तो यही है कि माता-पिता, विद्यालय और बच्चों में लगातार संवाद बना रहे, शिक्षा में आमूल-चूल परिवर्तन तो बाद की बात है। इस बात से सभी वाकिफ हैं की आज की युवा पीढ़ी अगर बहुत कुशाग्र नहीं है तो उसका रुख अपराधों की ओर अधिक हो रहा है? बैक पर सवार लड़के जंजीर खींचने को सबसे अच्छा कमी का साधन समझ रहे हैं. छोटे बच्चों को अगुआ कर फिरौती माँगना और फिर उनकी हत्या कर देना? सारे बाजार के सामने किसी को भी लूट लेना? ये आम अपराध हैं और इनसे सबको ही दो चार होना पड़ता है. खबरों के माध्यम से, कभी कभी तो आँखों देखि भी बन रहा है. कभी इन युवाओं के इस अपराध मनोविज्ञान के बारे में भी सोचा गया है. अगर पकड़ गए तो पुलिस के हवाले और पुलिस भी कुछ ले देकर मामला रफा-दफा करने में कुशलता का परिचय देती है. ये युवा जो देश का भविष्य है, ये कहाँ जा रहे हैं?  बस हम यह कह कर अपने दायित्व की इतिश्री समझ लेते हैं कि जमाना बड़ा ख़राब हो गया है, इन लड़कों को कुछ काम ही नहीं है. कभी जहाँ हमारी जरूरत है हमने उसे नजर उठाकर देखा, उसको समझने की कोशिश की,  या उनके युवा मन के भड़काने वाले भावों को पढ़ा है. शायद नहीं?  हमने ही समाज का ठेका तो नहीं ले रखा है. हमारे बच्चे तो अच्छे निकल गए यही बहुत है? क्या वाकई एक समाज के सभ्य और समझदार सदस्य होने के नाते हमारे कुछ दायित्व इस समाज में पलने वाले और लोगों के प्रति बनता है कि नहीं ये भटकती हुई युवा पीढ़ी पर नजर सबसे पहले अभिभावक कि होनी चाहिए और अगर अभिभावक कि चूक भी जाती है और आपकी पड़ जाती है उन्हें सतर्क कीजिये? वे भटकने की रह पर जा रहे हैं. आप इस स्वस्थ समाज के सदस्य है और इसको स्वस्थ ही देखना चाहते हैं. बच्चों कई संगति सबसे प्रमुख होती है. अच्छे पढ़े लिखे परिवारों के बच्चे इस दलदल में फँस जाते हैं. क्योंकि अभिभावक इस उम्र कि नाजुकता से अनजान बने रहते हैं. उन्हें सुख सुविधाएँ दीजिये लेकिन उन्हें सीमित दायरे में ही दीजिये. पहले अगर आपने उनको पूरी छूट दे दी तो बाद में शिकंजा कसने पर वे भटक सकते हैं. उनकी जरूरतें यदि पहले बढ़ गयीं तो फिर उन्हें पूरा करने के लिए वह गलत रास्तों पर भी जा सकते हैं. इस पर आपकी नजर बहुत जरूरी है. ये उम्र उड़ने वाली होती है, सारे शौक पूरे करने कि इच्छा भी होती है, लेकिन जब वे सीमित तरीकों में उन्हें पूरा नहीं कर पाते हैं तो दूसरी ओर भी चल देते हैं. फिर न आप कुछ कर पाते हैं और न वे. युवाओं के दोस्तों पर भी नजर रखनी चाहिए उनके जाने अनजाने में क्योंकि सबकी सोच एक जैसी नहीं होती है, कुछ असामाजिक प्रवृत्ति के लोग उसको सीढ़ी बना कर आगे बढ़ना चाहते हैं, तो उनको सब बातों से पहले से ही वाकिफ करवा देना अधिक उचित होता है. वैसे तो माँ बाप को अपने बच्चे के स्वभाव और रूचि का ज्ञान पहले से ही होता है. बस उसकी दिशा जान कर उन्हें गाइड करें, वे सही रास्ते पर चलेंगे.  इसके लिए जिम्मेदार हमारी व्यवस्था भी है और इसके लिए एक और सबसे बड़ा कारण जिसको हम नजरंदाज करते चले आ रहे हैं, वह है आरक्षण का?  ये रोज रोज का बढ़ता हुआ आरक्षण- युवा पीढी के लिए एक अपराध का कारक बन चुका है. अच्छे मेधावी युवक अपनी मेधा के बाद भी इस आरक्षण के कारण उस स्थान तक नहीं पहुँच पाते हैं जहाँ उनको होना चाहिए. ये मेधा अगर सही दिशा में जगह नहीं पाती है तो वह विरोध के रूप में, या फिर कुंठा के रूप में भटक सकती है. जो काबिल नहीं हैं, वे काबिज हैं उस पदों पर जिन पर उनको होना चाहिए. इस वर्ग के लिए कोई रास्ता नहीं बचता है और वे इस तरह से अपना क्रोध और कुंठा को निकालने लगते हैं. इसके लिए कौन दोषी है? हमारी व्यवस्था ही न? इसके बाद भी इस आरक्षण की मांग नित बनी रहती है. वे जो बहुत मेहनत से पढ़े होते हैं. अगर उससे वो नहीं पा रहे हैं जिसके लिए उन्होंने मेहनत की है तो उनके मन में इस व्यवस्था के प्रति जो आक्रोश जाग्रत होता है. वह किसी भी रूप में विस्फोटित हो सकता है. अगर रोज कि खबरों पर नजर डालें तो इनमें इंजीनियर तक होते हैं. नेट का उपयोग करके अपराध करने वाले भी काफी शिक्षित होते हैं. इस ओर सोचने के लिए न सरकार के पास समय है और न हमारे तथाकथित नेताओं  के पास. इस काम में वातावरण उत्पन्न करने में परिवार की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है. वे बेटे या बेटियों को इस उद्देश्य से पढ़ाते हैं कि ये जल्दी ही कमाने लगेंगे और फिर उनको सहारा मिल जायेगा. ये बात है इस मध्यम वर्गीय परिवारों को. जहाँ मशक्कत करके माँ बाप पढ़ाई का खर्च उठाते हैं या फिर कहीं से कर्ज लेकर भी. उनको ब्याज भरने और मूल चुकाने कि चिंता होती है. पर नौकरी क्या है? और कितना संघर्ष है इसको वे देख नहीं पाते है और फिर कब मिलेगी नौकरी? तुम्हें इस लिए पढ़ाया था कि सहारा मिल जाएगा. अब मैं ये खर्च और कर्ज नहीं ढो पा रहा हूँ. सबको तो मिल जाती है तुमको ही क्यों नहीं मिलती नौकरी. जो भी मिले वही करो. इस पढ़ाई से अच्छ तो था कि अनपढ़ होते कम से कम रिक्शा तो चला लेते. घर वाले परेशान होते हैं और वे कभी कभी नहीं समझ पाते हैं कि क्या करें? उनकी मजबूरी, उनके ताने और अपनी बेबसी उनको ऐसे समय में कहीं भी धकेल देती है. वे गलत रास्तों पर भटक सकते हैं. सबमें इतनी विवेकशीलता नहीं होती कि वे धैर्य से विचार कर सकें. युवा कदम ऐसे वातावरण और मजबूरी में ही भटक जाते हैं. अपराध कि दुनियाँ कि चकाचौंध उनको फिर अभ्यस्त बना देती हैं. कुछ तो जबरदस्ती फंसा दिए जाते हैं और फिर पुलिस और जेल के चक्कर लगा कर वे पेशेवर अपराधी बन जाते हैं. इन सब में आप कहाँ बैठे हैं? इस समाज के सदस्य हैं, व्यवस्था से जुड़े हैं या फिर परिवार के सदस्य हैं. जहाँ भी हों, युवाओं के मनोविज्ञान को समझें और फिर जो आपसे संभव हो उन्हें दिशा दें. एक स्वस्थ समाज के सम्माननीय सदस्य बनने के लिए, इस देश की भावी पीढ़ी को क्षय होने से बचाइए. इन स्तंभों  से ही हमें आसमान छूना है. हमें सोचना है और कुछ करना है.

ये दिल मांगे मोर

अतुल मोहन सिंह 

यंग जेनरेशन की अब यही पंचलाइन है. उसके इस अरमान को पूरा कर रहे हैं आए दिन लॉन्च होने वाले नए गैजेट्स। जब बात स्टाइल स्टेटमेंट की हो, तो जेनरेशन-जी यानी गैजेट जेनरेशन के लिए ब्रांडेंड जींस या जूतों से कहीं ज्यादा खास अब टेबलेट, आइपैड, नोटबुक, थिंकपेड और फेबलेट बन गए हैं। पूरी तरह एंटरटेनमेंट का मकसद पूरा करने वाला यह बाजार जेनरेशन-जी के दिमाग पर छाया हुआ है। युवाओं की पूरी लाइफस्टाइल का अंदाज बदल रहा है। ख्वाबों को फौरन पूरा होते देखने की चाहत रखने वाली जेनरेशन की इस नई दीवानगी की नब्ज टटोलना भी आसान नहीं, क्योंकि हर दूसरे हफ्ते ट्रेंड बदल जाता है. जो आज नया है वह कुछ दिन बाद ही आउटडेटेड हो जाता है। अब गैजेट की दुनिया मोबाइल तक ही नहीं सिमटी है। फोन अगर रोजमर्रा की जरूरत में शामिल है. तो दूसरे छोर पर टेबलेट, आइपेड, नोटबुक, थिंकपेड, फेबलेट आदि भी हैं। 

यंग जेनरेशन नई टेक्नालॉजी को सबसे पहले अडॉप्ट करती है. भारत की तेजी में इसका रोल सबसे बड़ा है। जाहिर है, नई टेक्नालॉजी के दीवानों में युवाओं की तादाद सबसे ज्यादा होती है। हर हफ्ते बड़ी कंपनियां बाजार में टेबलेट, आइपेड, नोटबुक, थिंकपेड, फेबलेट आदि जैसे गैजेट्स उतारती रहती हैं. इनका सबसे बड़ा दीवाना युवावर्ग है, सोते जागते युवा पीढ़ी इन्हीं से घिरी रहती है। यह न केवल उनकी दिनचर्या में शामिल है बल्कि उनके मनोरंजन साधनों में भी शुमार है।  लैपटॉप की कीमत पर ही मिल रहे टेबलेट यूजर्स को आकर्षित कर रहे हैं। सिटी स्टोर्स की मानें तो लोग अब लैपटॉप की बजाय टैब लेना ज्यादा पसंद कर रहे हैं. इसकी वजह इसमें दिए गए बेहतरीन फीचर्स हैं। लैपटॉप को धीरे-धीरे टैब रिप्लेस कर रहा है। शहरों में फिलहाल आईपैड और टैब की डिमांड ज्यादा है।  इन दिनों ऐसे कई गैजेट्स है, जो स्टूडेंट्स की स्टडी में बेहद मददगार साबित हो रहे हैं, जिनमें टेबलेट, फेबलेट व आइपेड आदि हैं। खासतौर से विद्यार्थियों के लिए टेबलेट काफी उपयोगी है। टेबलेट न केवल विद्यार्थियों के लिए फायदेमंद हैं बल्कि यह शिक्षकों के लिए भी सुविधाजनक हैं। शिक्षक वीडियो, आडियो, वेब कंटेट, लाइव पोलिंग और अतिथि प्रवक्ताओं की वीडियो कांफ्रेंस को कक्षा में पेश कर सकते हैं, जिससे विद्यार्थियों को समझाना काफी आसान हो सकता है।

तकनीकी में नित हो रहे परिवर्तनों ने गैजेट्स की दुनिया में धमाल मचाया हुआ है। बाजार में नई-नई खूबियों से सुसज्जित आकर्षक गैजेट्स (मोबाइल फोन, लैपटॉप, फेबलेट, टेबलेट डेस्कटॉप, आईपेड, आईफोन, आईपोड) की बाढ़ सी आई हुई है, जो हर किसी को (खासकर युवाओं को) अपनी ओर खींच रहे हैं। साथ ही गैजेट्स बनाने वाली कंपनियां भी अपने उत्पाद में युवाओं की पसंद का खास ख्याल रखती हैं, ताकि उनका उत्पाद बाजार में आते ही छा जाए। युवाओं में गैजेट्स के प्रति बढ़ते रुझान के चलते इस क्षेत्र से जुड़ी देशी-विदेशी कंपनियां समय-समय पर नई खूबियों वाले गैजेट बाजार में उतारती रहती हैं। नैनो टैक्नोलॉजी को पसंद करने वाले यंगस्टर्स का रूझान अब लैपटॉप से शिफ्ट होकर टेबलेट की ओर बढ़ रहा है। स्मार्ट फीचर्स और न्यू लुक में आने वाले यह टेबलेट लैपटॉप से सस्ते होने के कारण इन दिनों यंगस्टर्स में काफी डिमांड में चल रहे हैं। कंप्यूटर और मोबाइल दोनों की महत्ता के चलते यूजर्स ने इस वर्ष टेबलेट्स की ओर रुख किया है। अभी कुछ समय पहले लॉन्च हुए एप्पल आईपेड-2 और सैमसंग गैलेक्सी टेब को यूजर्स द्वारा खासतौर पर पसंद किया गया। इनके अलावा ब्लैकबेरी प्लेबुक, मोटोरोला जूम, एचटीसी, फ्लायर टेबलेट्स की भी मांग रही। 

टेबलेट के साथ-साथ फेबलेट की डिमांड भी बढ़ी है। यह टेबलेट और स्मार्टफोन का मिलता जुलता रूप है, जो टेबलेट और पीसी की जरूरतों को पूरा कर सकता है। यह स्मार्टफोन की तरह काम करता है और टेबलेट की तरह इसमें डिजीटल टाइपिंग, एडिटिंग रिकार्डिंग, ईमेल आदि की सुविधा है। यही कारण है कि इसकी डिमांड में भी इजाफा हो रहा है। आज का यूथ स्टाइल, गैजेट्स, स्टाइल स्टेटमेंट का दीवाना है। लाइफ जीने का उनका फंडा एकदम क्लीयर है। मस्ती-धमाल, तेज बाइक राइडिंग, फ्रेंडस के साथ पार्टी और लिव लाइफ किंग साइज जीने के तरीके के साथ-साथ युवाओं की सबसे बड़ी कमजोरी है गैजेट्स। उनकी अंगुलियां दिनभर मोबाइल और टेबलेट्स पर चलती रहती हैं। बाजार में जो भी हाई फीचर वाले गैजेट्स आते हैं, उनकी जानकारी सबसे पहले युवाओं को होती है और उसे खरीदने के लिए युवा अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ते। आईपैड, लैपटॉप और सोशल नेटवर्किंग साइट्स के दीवाने यूथ इससे एक पल की जुदाई भी बर्दाश्त नहीं कर पाते। 

जितनी अधिक दीवानगी से युवा अपने पसंदीदा गैजेट का चुनाव करते हैं, उससे कहीं अधिक तन्मयता से वे उसका इस्तेमाल भी करते हैं। देखने में आया है कि युवा अपने स्मार्टफोन, आइपैड, टेबलेट और फेबलेट का प्रयोग दोस्तों को एस.एम.एस. भेजने, सोशल नेटवर्किंग साइट्स से जुड़ने, म्यूजिक सुनने,   वीडियो देखने, समाचार पत्र तथा मैगजीन पढ़ने, स्टडी करने आदि के लिए करते हैं।  टेक्नालॉजी की तरक्की की बदौलत युवाओं को कई तरह के नए गैजेट्स मिल रहे हैं। फेबलेट, टेबलेट व आईपैड जैसे गैजेट्स के माध्यम से ई-लर्निंग, ई-बुक्स, जनरल्स, आनलाइन मैटीरियल, क्विज आदि का लाभ कभी भी कहीं भी उठाया जा सकता है। पोर्टेबल डिवाइस होने के कारण क्लॉस के बाहर भी लर्निंग में इसकी मदद ली जा सकती है।
ज्यादातार यंग प्रोफेशनल्स में हैंडी एडवांस एंड्रॉयड टेबलेट की डिमांड है। एडवांस वर्जन से वर्किंग फास्ट होने के साथ ही फीचर्स और एप्लीकेशंस भी एडवांस हुई हैं। जो टेबलेट सबसे ज्यादा पसंद आ रहे हैं उनमें 5 से 15 हजार के टेबलेट की रेंज शामिल है। इन रेंज में मल्टीनेशनल कंपनी से लेकर इंडियन कंपनी तक के टेबलेट का कलेक्शन मौजूद है। 

लेटेस्ट टेक्नालॉजी ने स्टूडेंट्स की पढ़ाई को जहां ईजी बना दिया है, वहीं यंगस्टर्स के लिए यह मनोरंजन का परफेक्ट आइडिया साबित हो रहा है। आजकल टेबलेट का क्रेज काफी देखने को मिल रहा है। इसकी सहायता से स्टूडेंट स्टडी प्लान बना सकते हैं। सामुहिक गतिविधियों जैसे ग्रुप डिस्कशन और प्रेजेंटेशन को रिकॉर्ड कर सकते हैं। देखा जाए तो ये गैजेट्स विद्यार्थियों के लिए फायदेमंद है। यंग इंडिया ने ही भारत को आज मोबाइल का सबसे तेज उभरता बाजार बना दिया है और इस तेजी में चीन भी उसके पीछे है। भारत में 21 करोड़ से ज्यादा फोन कनेक्शन हैं जो 2010 तक 50 करोड़ हो जाएंगे। यंग जेनरेशन नई टेक्नॉलजी को सबसे पहले अडॉप्ट करती है और भारत की तेजी में इसका रोल सबसे बड़ा है। गैजेट की दुनिया मोबाइल तक ही नहीं सिमटी है। फोन अगर रोजमर्रा की जरूरत है तो दूसरे छोर पर गेमिंग सेगमेंट है। पूरी तरह एंटरटेनमेंट का मकसद पूरा करने वाला यह बाजार भी जेनरेशन-जी के दिमाग पर छाने लगा है, एक्सबॉक्स, प्लेस्टेशन और निन्टेंडो जैसे नाम उसके लिए अनजान नहीं हैं। रिसर्च फर्म आईसप्लाई की स्टडी के मुताबिक 2006 में भारत का गेमिंग मार्केट 1.33 करोड़ डॉलर का था जो 2010 तक 12.54 करोड़ डॉलर का हो जाएगा। एक रुपये का सिक्का डालकर विडियो गेम खेलने से लेकर घर में कंसोल लगाकर हाई टेक गेमिंग तक पहुंचने में इंडिया के यूथ ने लंबा सफर तय किया है। भारत में यह इंडस्ट्री तेजी से डिवेलप हो रही है और इसी वजह से उनकी कंपनी ने अपने लेटेस्ट प्रॉडक्ट एक्सबॉक्स-360 पर यहां भारी निवेश किया है।

पिछले 12 महीने में भारत की गेमिंग इंडस्ट्री ने अपने कदम जमाना सीखा है और अब इस ओर लोगों का रुझान इतना बढ़ा है कि जपाक और इंडियाटाइम्स जैसी वेबसाइट्स गेमिंग पर खासा जोर दे रही हैं। वर्ल्ड कप के दौरान माइक्रोसॉफ्ट ने भारत में पहली बार युवराज सिंह को थीम बनाते हुए अपना गेम पेश किया, जो वर्ल्ड कप में भारत की हार के बाद खासा पॉपुलर हुआ। इंडिया स्पेसिफिक गेम्स का चलन बढ़ेगा और वह दिन दूर नहीं जब बॉलिवुड गेमिंग पर आधारित फिल्म भी बनाएगा। उनका कहना है कि गेमिंग कंसोल पर अब भी 54 पर्सेंट टैरिफ है जिस वजह से ये थोड़े महंगे पड़ते हैं, सरकार अगर इसमें भी मोबाइल सेगमेंट की तरह कटौती करे तो गेमिंग का जादू सिर चढ़कर बोलेगा। आईपॉड का क्रेज किसी से छिपा नहीं है और अब भारत भी बेसब्री से एप्पल के लेटेस्ट प्रॉडक्ट आईफोन का इंतजार कर रहा है। आईपॉड वाले इस फोन में कैमरा समेत मिनी कंप्यूटर जैसे तमाम फीचर हैं। वैसे इस बात की पूरी गारंटी है कि आईफोन अमेरिका में चले या नहीं, उसके भारत में हिट होने के चांस ज्यादा है। यूनिवर्सल मैकैन के ग्लोबल सर्वे के मुताबिक एक ही मशीन में सबकुछ हासिल करने की चाहत अमेरिका या जापान से भी ज्यादा भारत में है। अमेरिका में 31 पर्सेंट, जापान में 27 पर्सेंट लोगों ने एक मशीन में ज्यादा फीचर को अपनी पसंद बताया जबकि मेक्सिको के लिए यह तादाद 79 और भारत मे 70 पर्सेंट थी।