Saturday, 29 September 2012

लोकतंत्र, मीडिया और मुसलमान


लोकतंत्र, मीडिया और मुसलमान

-स्वर्णकेतु भारद्वाज
भारतीय लोकतंत्र पद्धति प्रजावत्सल राजतंत्र के गुण से व्यवहार में रही है। अपवादस्वरूप कहीं-कहीं, कभी-कभी, निकृष्ट व्यक्ति  राजा बन जाता है तो वह सामजिक व्यस्था के ताने-बाने, बिखराव, अनाचार, भृष्टाचार का प्रतीक, लुटेरे समाज का, निकृष्ट समाज का राजा माना जाता था। ऐसे राजा को ऋषी, मुनि, तपस्वी, सन्यासीगण, समाज को जागृतकर उस आजा को पदुच्युतकर समाज की सहमती से नए राजा का अभिषेककर, आदर्श व्यवस्थापन के साथ पदारूढ़ करते रहते थे। यह लोकतंत्र की परम्परा महाभारत के पूर्व थी।
       आर्यावर्त वर्तमान एशिया श्रेष्ठ आचार्यों द्वारा सेवित, शिक्षित, प्रशिक्षित था। उन्हीं आचार्यों ने अर्थात आर्यों ने संसार के जंगल आदि के वासी समाज और बर्बर कबीलों हिक्षित, प्रशिक्षित और सभ्य बनाया। जगत विख्यात 'सुकरात काल' तक आर्यों के अव्यवस्थित, और अलिखित सन्दर्भों के पश्चिमी विद्वानों ने पुनर्गठित, व्यवस्थित, लिखित दस्तावेज़ के रूप में ग्रन्थाकार, विचारक अपने चिंतन को लिपिबद्ध करता है तो, अपने महत्व को स्थापित करता है। इसके विचार के मूलस्रोत के सन्दर्भ छिपाकर स्वयं को विचार सृष्टा बनाकर प्रकाशित करता है। यही कारण है की पश्चिमी विचारकों ने सदैव से आर्यावर्त यानी पूर्व के विचारों, अर्थात भारतीय ऋषियों, मुनियों के वैदिक विचारों को अपनी पद्दति में रूपांतरित कर यूरोपियन समाज सभ्यता के विस्तार के लिए प्रीइत किया।
         वर्तमान में जिसे 'मीडिया' अर्थात माध्यम कहा जा रहा है, भारत के ऋषियों, मुनियों ने जब प्रकृति विविध तत्वों, ऊर्जाओं का मानवीकरण किया तो उस निरंतर संचारित तरंगों को 'नारद' संज्ञा में स्थापित किया नारद निरंतर नाद रत, संवाद, ध्वनि, प्रतिध्वनि में संवाद, संचारित समाचार बना। वहीँ पश्चिमी विचार को नार्थ ईस्ट, वेस्ट, साउथ को न्यूज बना दिया। अब जब मुद्रित, इलेक्ट्रानिक विधा को मिलाकर मीडिया बना दिया है। आज का मीडिया यथार्थ को शब्दों से मनोरंजक, तहलका, भड़कीला बनाकर समाज के सामने परोसता है। परिणामतः आर्थिक लाभ, लोभ, लालच और फूहड़ अपसंस्कृति में विस्वा समाज को मायाजाल अर्थात भ्रमतंत्र में फसाकर अपनी मौलिक जड़ों, मूल मानवीय मूल्यों का विनाश कर नव विकासवाद के भस्मासुर के मुह का निवाला बनाकर पदार्थ और उसकी तड़फ प्रोडक्ट के रूप में बेंच रहा है। क्या आप चिंतन नहीं करते ? मानव निर्माण की निर्माणशाला हमारी मां मात्रभूमि के सर्वांग ह्रदय की गहरी गलिओं में सुन्दरतम मानव का नर्मान उसका मूल मूल्य था। वर्तमान मीडिया ने यह सबसे बड़ा विनाश किया है।
         अब मुस्लिम समाज एक ऐसा समाज, जिसमें 'मानव, मानव सबका मालिक एक ' हो ऐसे समाज के सृजन के वैज्ञानिक सूत्र सिद्धांतों का पवित्रतम ग्रन्थ 'कुरआन शरीफ'  को दिया और कहा जा बन्दे मेरी दुनिया को पवित्र बना एवं कुशल बना एवं कुदरत मेरी बनाई है। सबको सुख दे व् सुखों का भोग करे। क्षमा प्रार्थना के साथ कहना चाहूंगा की कम ज्ञानी विद्वानों ने, अपनी बोग लिप्सा में, स्वार्थ प्रेरित हिंसा भय कर्मकांडों, रोजी-रोटी के व्यापारिक प्रतिष्ठान बना लिया। यज कृत्य मानव और दानव दोनों ने किया है। परिणामत परिणामतः हम भाई-भाई निहित स्वार्थों की लिप्साओं में लिपटकर अपने  में अपने बदअमनी के लिए आक्रोश, हिंसा और  कुकृत्यों में लिप्त हैं। यह दरअसल लोकतंत्र की गंगा घोर प्रदूषण करने असुर और शैतानों की नापाक संतानें हैं।            हमारे लिए तो फ़कीर, ऋषियों, मुनियों, के पवित्र स्थान, महाकालेश्वर, महाकाली शिव शिव के सपूतों, आदम हउवा के बेटे शहंशाह अजमेर शरीफ से देवां तक दूर दूर तक हम अपने कर्मों, गुनाह कबूल कर प्रायश्चित अभिलाषाओं का पुलिंदा लेकर अधिक जाते हैं पर जाते तो हैं किन्तु कामाख्या से लेकर हिंगलाज तक, कश्मीर से लेकर वैष्णव माता मंदिर, कैलाश , मानसरोवर, बैजनाथ, काशी, रामेश्वरम, और काबा जैसे स्थानों पर जाते हैं। वहाँ जाकर हम अपने गुनाहों को नहीं, बल्कि अपनी कामनाओं का पुलिंदा रख देते हैं परन्तु वहाँ से लौटकर वतन से कभी भी शैतान को नहीं भगाते। षणयन्त्र के तंत्र का अवसर मिलते ही हम आदमियत भूल जाते हैं। इसलिए कभी अयोध्या में साजिश का शिकार होकर अपनी भूमि और जिस पञ्चतत्व से बने शरीर में आकर सब कुछ भूलकर हवसासुर का निवाला बन रहें हैं। हमारे रूहानी मंदिर यही हुक्म दे रहे हैं हम विश्व वसुन्धरा पर सुखपूर्वक, 100 वर्ष जीने के वसुधैव कुटुम्बकम के समाज की रचना के स्थान विश्व समाज की रचना के स्थान पर विश्व समाज, जिसमें अपराध, हिंसा के साथ लिप्साओं में लोकतंत्र करने वाला व्यापार बाज़ार बाल समाज बनाने के लिए भटक रहें हैं।
         इसके विपरीत नैमिषारण्य से रूहानी शक्तियां कुछ विद्वान्, ऋषि, और फकीरों, वीर मानव मीडिया से लोकतंत्र की रक्षा के लिए आगे आये हैं। परमप्रिय शुक्लाजी एवं डॉ सिद्दीकीजी की टीम को बधाई देता हूँ। "जर्नलिस्ट्स, मीडया एंड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन" की स्थापना से लेकर विविध सेमिनारों के प्रतिफलों, ध्वनियां, में टंकार के 'सर्वे सन्तु निरामया' का वातावरण बनाने आश्रम और मानव-मानव निर्माण निर्मानशालाओं से आदमियत की तहजीब वाले इंसान बनाने के लिए आदमियत की तहजीब वाले इंसान बनाने के लिए भारत की अभिलाषा पूरी करने के लिए समर्पित हिये हैं जन का आशीष इन्हें है। भारत की अभिलाषा, राष्ट्रपिता के ह्रदय में तरंगायत अभिलाषा। राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त के पवित्र वैदिक की वाणी के रूप में प्रस्तुत है।
सन्देश नहीं मैं स्वर्ग लाया इस इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।
(लेखक- भगवान श्रीकृष्ण की नगरी मथुरा में जन्मे स्वर्णकेतु भारद्वाज वरिष्ठ गांधीवादी विचारक, चिन्तक, लेखक, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और मौनक्रान्ति पाक्षिक के संस्थापक/सम्पादक हैं। ) 
सच सियासत से अदालत तक कहीं दिखता नहीं।
झूठ बोलो, झूठ की कीमत बहुत है आजकल।

राजनेताओं के स्वार्थ ने भुला दिया गांधीवाद

      
राजनेताओं के स्वार्थ ने भुला दिया गांधीवाद    
साम्राज्यवाद, सामंतवाद, पूंजीवाद के कुचक्र में गान्धीवाद
ग्राम स्वराज्य के बिना अधूरा है गांधी का भारत- संदीप पाण्डेय
'गांधी दर्शन और वर्तमान लोकतंत्र पर मंथन'
जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन" की और से गांधी की श्रृद्धांजलि
"गांधीजी के सपनों का भारत और वर्तमान लोकतंत्र" विषयक संगोष्ठी संपन्न
लखनऊ। 01 अक्टूबर  2012। राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी व्यक्ति नहीं बल्कि विचार है। उनके सपनों का भारत तो समाज के अंतिम व्यक्ति के चेहरे की मुस्कान के साथ शुरू कोटा है और व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, चारित्रिक तथा नैतिक उत्थान करना ही उनके करना उनके सपनों का भारत बनाने का ध्येय था। उक्त विचार गांधी  जन्मदिवस एवं वैश्विक अहिंसा दिवस  की पूर्व संध्या पर आयोजित गांधीजी के सपनों का भारत और मौजूदा लोकतंत्र विषयक विचार गोष्ठी में बोलते हुए वरिष्ठ गांधीवादी विचारक
और चिन्तक स्वरंकेतु भारद्वाज ने व्यक्त किये। इस संगोष्ठी का आयोजन  करनभाई सभागार, गांधी भवन परिसर, कैसरबाग, लखनऊ में "जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन" की ओर से किया गया।
         "राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी के सपनों का भारत और वर्तमान लोकतंत्र" को श्रद्धान्जलि अर्पित करने के साथ-साथ उनके विचारों को वर्तमान पीढ़ी तथा समाज के विभिन्न वर्गों तक पहुँचना है। उक्त विचार संगोष्ठी में प्रमुख  वक्ताओं में  राजनितिक विश्लेषक, पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता श्री शरमा पूरन ने कहा महत्मा गांधीजी ने जो लड़ाई दक्षिण अफीका से आरम्भ की थी वह आज भी जारी है उनका सपना था कि दुनिया से साम्राज्यवाद, सामंतवाद, पूंजीवाद, तानाशाही और कुटिनीतिक शणयंत्रों को अब ख़त्म हो जाना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता तो उनके आत्मा तडपती रहेगी।  रमण मैग्सेसे पुरुष्कार विजेता एवं लोकप्रिय सामाजिक कार्यकर्ता श्री संदीप पाण्डेय ने जब तक देश में गैर बराबरी, जुल्म, अत्याचार, और सामाजिक आन्दोलनों को हिंसा के बल परदबाने की कोशिश की जाती रहेगी गांधीजी के सपनों का भारत नहीं बन सकता है। मौजूदा लोकतंत्र में सत्ता, शक्ति, और पून्जीका केन्द्रीयकरण करने की बात कही थी। ग्राम स्वाराज्य और नागरिक स्वावलंबन पर आज की सरकारें केवल खानापूर्ति कर रही हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था जर्जर हो चुकी है मगर सरकार को खुदरा व्यापार में भी पूंजे निवेश की जिद पकडे हुए है। शहर काजी लखनऊ  श्री मुफ्ती अबुल इरफ़ान मियाँ फिरंगी महली ने कहा गांधीजी ने हमेशा मजहबी और इत्तेहादी तंजीमों को आपस में मिल्झुलकर कार्य करना सिखाया। आज के सियासतबाज़ मजहबी कट्टरता और साम्प्रदायिकता का ज़हर घोलकर अशांति फैलाने की साजिश रच रहे हैं। वरिष्ठ गांधीवादी चिन्तक और कार्यकर्ता श्री अक्षय कुमार करन भाई की सुपुत्री एवं गांधीवादी विचारक श्रीमती आशा सिंह ने कहा कि गांधीजी के मूल सिद्धांत सत्य और अहिंसा आज भी प्रसांगिक हैं। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा उनके जन्मदिवस को विस्वा अहिंसा दिवस के रूप में घोषित किया जाना ही इस बात का प्रमाण है कि उनके विचारों को आज भी पूरी न सिर्फ मानती है बल्कि उस पर अमल भी करने को मजबूर है। वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता डॉ एस यादव ने इस अवसर पर कहा कि गांधीजी शरीर नहीं एक पुस्तकालय हैं यहतो अध्यनकर्ताओं पर निर्भर करता है वह उनकी किस पुस्तक से सन्दर्भ ग्रहण करता है।गांधी दर्शन पर आक्षेप लगाना गलत है जिस दिन लोगों के मन में उनके प्रति श्रद्धा नहीं रहेगी समाज जंगलराज मेंब बदल जाएगा अयोग्य लोगों की उत्तरजीविता समाप्त हो जायेगी। संगठन के वरिष्ठ पदाधिकारी सुप्रषिद्ध चिकित्सक तथा दैनिक अवध दर्पण के सम्पादक डॉ अजय दत्त शर्मा ने इस अवसर पर कहा कि गांधीजी ने प्राकर्तिक चिकित्सा पद्धति को जीवन प्रदान करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान की।  सहित कई अन्य विचारक गांधीजी के दर्शन पर अपने विचार प्रस्तुत कर रहे हैं।
           इस अवसर पे आयोजन समिति में "जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन" के राष्ट्रीय वरिष्ठ उपाध्यक्ष डॉ हरीराम त्रिपाठी, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्री अशोक सिंह, राष्ट्रीय मुख्य महासचिव श्री एस एन शुक्ल, राष्ट्रीय महासचिव श्री लालता प्रसाद 'आचार्य', राष्ट्रीय सचिव श्री अजमेर अंसारी, डॉ हारिस सिद्दीकी, श्री रविशंकर उपाध्याय, श्री अतुलमोहन 'समदर्शी', राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष श्री सौरभ महावर, राष्ट्रीय कार्यपरिषद के सदस्य डॉ अजय दत्त शर्मा, डॉ अलोक चान्टिया, डॉ आशीष वशिष्ठ, श्री राकेश सक्सेना, श्री अमित श्रीवास्तव, श्री मुकेश वर्मा, श्रीमती बेगम शहनाज़ सिदरत, श्री अनुपम पाण्डेय, श्री विजय कुमार सिंह, श्री रमनलाल अग्रवाल, श्री ब्रजेश तिवारी, श्रीमती नसीम ज़हा, श्रीमती समीना फिरदौस, श्रीमती आलिया अख्तर, श्री अमिताभ नीलम, श्री राजकुमार सिंह, श्री देवेन्द्र शुक्ल, श्री मो रफ़ीक, श्री मो इकबाल, श्री श्याम सिंह, श्री दीप चक्रवर्ती, श्री हिमांशु वशिष्ठ, श्री प्रशांत गौरव, श्री हरिभान यादव, श्री सुशील मौर्य, श्री अरविन्द विद्रोही, श्री अरविन्द जयतिलक, श्री धर्मेन्द्र भारती, सुश्री अमिता शुक्ला, सुश्री संतोषी दास, श्री मिथिलेश धर दूबे, श्री शिवशंकर उपाध्याय, श्री ब्रिजपाल सिंह सहित उत्तर प्रदेश के सैकड़ों पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, शिक्षक, अधिवक्ता, लेखक, धर्मगुरू  एवं गणमान्य प्रबुद्धवर्ग की उपस्थिति होना सुनिश्चित हो रही है। 
                                                                         
                                                                                                                 भवदीय 
                                                                                                           अतुल मोहन सिंह  
                                                                                                             राष्ट्रीय सचिव 
                                                                               जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन 
                                                                                              09451907315, 09793712340
                                                                                      jmwa@in.com, journalistsindia@gmail.com

Monday, 24 September 2012

कितनी जायज़ हैं मुस्लिमों की शिकायतें ?


           भारतीय संविधान में जहां तक अल्पसंख्यकों का जहां तक सवाल है वहा इसके अंतर्गत न तो इसकी कोई परिभाषा दी गई है और न ही उसके अंतर्गत किसी प्रकार की न तो कोई परिभाषा दी गयी है और न ही उसके सम्बन्ध में कोई विशेष प्रावधान किया गया है। केवल अनुच्छेद-29 और 30 में में ही इस शब्द का प्रयोग किया गया है। इस सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय में कहा गया था कि कोई भी समूह जिसकी संख्या 50 % से कम हो वह अल्पसंख्यक वर्ग में आता है। सामान्यतः अल्पसंख्यकों को तीन श्रेणियों में परिभाषित किया गया है। प्रथम वर्ग धार्मिक अल्पसंख्यकों का है जिसके अंतर्गत धार्मिक आस्था या मतावलंबियों की संख्या के आधार पर इसका निएधारण किया जाता है इसके अंतर्गत मुस्लिम, इसाई, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी, यहूदी तथा अन्य धर्मों के मानने वाले जो हिन्दू धर्म के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म में आस्था रखते हैं को शामिल किया गया है। द्वितीय कोटि में भाषाई आधार पर तथा तृतीय प्रकार की कोटि में जाती के आधार पर जिसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, तथा अन्य पिछड़े वर्ग को रखा गया है। यह वर्ग हिदुस्तान के संविधान की विशुद्ध उपज है।
       जनमत एक ऐसी शासन व्यवस्था है जिसमें शासन सत्ता हमेशा बहुसंख्यक वर्ग के पास गुलाम रही है। इसलिए लोकतंत्र में अल्पसंख्यकों को विकास के समुचित अवसर प्रदान करने और उनके अधिकारों को सुरक्षित रखने का विषय अत्यधिक महत्ता रखता है। जनतंत्र के अतिरिक्त किसी अन्य शासन प्रणाली में अल्पसंख्यकों का कोई भी प्रश्न नहीं उठता। जब तक जनतंत्र न होगा तब तक यह समस्या इस रूप में कभी भी नहीं उठेगी। मुस्लिमों की जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार लगभग 23 % हैं यह भारत में सबसे बड़ा धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग है। दूसरे अल्पसंख्यक वर्गों की तुलना में मुस्लिमों की शिकायतें कुछ ज्यादा संवेदनशील हो गयीं हैं। संविधान में राजनीतिक समानता के सिद्धांत को मान्यता दी है, तदनुसार देश की राजनीति में हिन्दुओं की तरह मुसलमानों को भी सक्रिय राजनीति में भाग लेने का अवसर प्राप्त होता रहा है। भारतीय संसद, राज्य विधानमंडल, मंत्रिमंडल, न्यायपालिका, कूतिनितिक, तथा प्रशासनिक पदों पर मुस्लिम सम्प्रदाय के नागरिक आसीन रहे हैं।
        संसद और राज्य विधानमंडलों में में प्रतिनिधित्व प्राप्त करने के अतिरिक्त मंत्रिमंडल तथा उच्च राजनितिक और प्रशासकीय पदों पर भी मुस्लिमों को मौका मिलता रहा है। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, विभिन्न विभागों के मंत्रालयों के प्रमुख तक के पदों पर भी पहुचने का गौरव प्राप्त किया है। तीन राष्ट्रपति डॉ जाकिर हुसैन, फखरुद्दीन अली अहमद, डॉ अबुल पाकिर जैनुद्दीन अब्दुल कलाम पदारूढ़ हुए हैं।
       इसके बावजूद मुस्लिम सम्प्रदाय संसद, मंत्रिमंडलों, राज्य विधानमंडलों मंत्रिपरिषद आदि संस्थाओं में समुचित प्रतिनिधित्व न मिलने के कारण असंतुष्ट रहा है। 1952 के प्रथम आम चुनाव से लेकर 2009 के चुनावों तक लोकसभा की 442 सीटों में से सबसे अधिक (42) 1984 के निर्वाचन में प्राप्त हुईं थी। 1999 में 30, और 2009 में कुल,,,,,,,, मुस्लिम सदस्य निर्वाचित हुए जो अपनी आनुपातक संख्या के हिसाब से काफी कम है। राज्य विधानसभाओं में इनकी स्थिति और ही खराब रही है। 1994 तक मध्य प्रदेश की विधानसभा में इस वर्ग का खाता भी नहीं खुला था। राजस्थान में 1994 तक केवल 2 मुस्लिम ही विधायक बन पाए। हहर के भय से मुस्लिमों को राजनितिक दल टिकट देनें में कभी भी दरियादिली नहीं दिखाते हैं।
      इसी तरह से उक्त वर्ग की एक और शिकायत यह रही है कि विभिन्न लोकसेवाओं में चयन के समय उनके साथ धार्मिक भेदभाव किया जाता है। इसलिए मुसलामानों को अखिल भारतीय सेवाओं में प्रतिनिधित्व का अवसर प्राप्त नहीं हो पाता है। प्राप्त आंकड़ों पर नज़र डालने पर पता चलता है कि 1948 से 1982 तक भारतीय प्रशासनिक सेवा में 3062 व्यक्तियों की प्रत्यक्ष भर्ती हुई जिसमें से सिर्फ 52 उम्मीदवार ही मुस्लिम थे। वहीँ अखिल भारतीय पुलिस सेवा में इस दौरान कुल 1615 नियुक्तियां हुईं थीं जिसमें से इनकी संख्या महज़ 48 थी। 1 जनवरी, 1948 तक इस वर्ग का प्रतिनिधित्व अखिल भारतीय सेवाओं में क्रमशः 2.14 % तथा 3% रहा। यह भी उल्लेखनीय है कि अभी हाल की नियुक्तियों में 1962-64 तथा 1968-69 में एक भी मुसलमान आईएएस नहीं बन सका। वहीँ 1975-76 तथा 1982 की नियुक्तियों में एक भी मुस्लिम आईपीएस की परीक्षा में अपनी सफलता प्राप्त नहीं कर सका।
       मुसलमानों में बहुमत समुदाय के विरुद्ध असुरक्षा की भावना बलवती होने का एक और भी महत्वपूर्ण कारण देश के विभाज़न  के बाद से होने वाले साम्प्रदायिक दंगे हैं। प्राप्त जानकारी यह कहती है कि 1968 में 346, 1969 में 519, 1971 में 521, 1984 में 556, और 1998 में 626 दंगे हुए हैं। हाल ही में घटित गुजरात में हुए साम्प्रदायिक दंगों में इस समुदाय के लोगों को ही भारी जान और माल का नुकसान हुआ है। यह दुएभाग्य की बात है कि आज़ादी मिलने से लेकर आज तक सांप्रदायिक दंगें किसी न किसी राज्य में हर वर्ष देखने को मिल रहे हैं। इतनी बड़ी संख्या में साम्प्रदायिक दंगे होने के कारण मुस्लिम समुदाय में यह भावना विकसित हुई कि इन दंगों के पीछे कहीं न कहीं तत्कालीन सरकारों का भी हाथ रहा है। इस तरह से इस समुदाय के ज़ख़्म भरने के बजाय किसी न किसी सूबे में हर वर्ष हरे हो जाना एक नियति बन चुका है।
       मुस्लिम समुदाय के असंतुष्ट रहने का एक बड़ा कारण उनकी मात्रभाषा के प्रति सरकार का तथाकथित उदासीन रवैया है। कुछ साम्प्रदायिक ज़मातों की ओर से निरंतर इस बात का ढिंढोरा पीटा जाता है कि उर्दू केवल मुसलमानों की भाषा है, इसके परिणामस्वरूप भाषा की समस्या भी एक साम्प्रदायिक समस्या बन गयी है। मुसलमानों की ओर से लगातार उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान आदि सूबों में उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा का दर्ज़ा दिए जाने की मांग की गई और इसके लिए आन्दोलन भी चलाये गए। विपक्षी सियासी ज़मातों ने इसे सियासी रूप दे दिया। परिणामतः यह हुआ की सियासत में पड़कर उर्दू भी दो टीमों के बीच खेली जा रही फ़ुटबाल बनकर रह गयी है।
       मुसलमानों की पर्सनल ला में परिवर्तन का प्रश्न भी आत्याधिक विवादास्पद विषय रहा है। संविधान के नीति दिदेशक तत्वों में सम्पूर्ण भारत के लिए एक ही नागरिक संहिता बनाए जाने के आदर्श का उल्लेख किया गया है। भारत सरकार मुसलमानों की व्यक्तिगत विधि में से कुछ परिवर्तन करना चाहती है। विशेषकर बहुविवाह, तलाक पद्धति, तथा विरासत के मामलों में महिलाओं को कुछ अधिकार देना चाहती है जैसा कि हिन्दू स्त्रियों को पहले से ही प्राप्त हैं। मुस्लिम पर्सनल ला में परिवर्तन के विषय में स्वयं मुसलमानों में भी दो वर्ग पाए जाते हैं। एक प्रगतिशीलता का जो एस परिवर्तन को आवश्यक और दूसरा रूढ़िवादी तथा धर्मानुकूलता के आधार पर इसमें रद्दोबदल करने के शख्त खिलाफ है। उसके पास इसके पीछे तर्क हैं कि मुसलमानों के व्यक्तिगत क़ानून इस्लामी शरीयत पर आधारित हैं जिसमें परिवर्तन करने धर्म के बुनियादी सिद्धांतों पर कुठाराघात के सामान है। यह वर्ग शरीयत के मान्य प्रावधानों से मौका कॉमा फुलस्टॉप भी हटाया जाना खुदा की शान में गुस्ताखी मानता है।
     मई 1965 में भारत सरकार ने एक अध्यादेश के द्वारा अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक स्वरुप का अंत कर दिया इस निर्णय के खिलाफ देशव्यापी आन्दोलन हुआ। फलस्वरूप 1981 में सरकार ने विश्वविद्यालय अधिनियम-1920 में संशोधन करके विश्वविद्यालयों के चरित्र को पुनर्जीवित करने का दावा किया। 1 फरवरी, 2005 में विश्वविद्यालय ने केंद्र सरकार की स्वीकृति से एक नई प्रवेश नीति अपनाई जिसके अंतर्गत मुस्लिम तलबा के लिए विश्वविद्यालय में 50 % सीटें आरक्षित कर दी गईं।सरकार की इस घोषणा की मुसलमानों के ओर से सराहना भी की गयी। वहीँ दूसरी ओर इस नीति के विरुद्ध उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय में एक याचिका दाखिल की गयी। जिसके तहत सितंबर 2005 में दिए गए अपने निर्णय के अंतर्गत अदालत ने यह निर्देश दिया कि अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय एक मुस्लिम संस्था नहीं है। इस प्रकार से  अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक चरित्र का मुद्दा फिर से गंभीर विवाद का विषय बन गया है।
       मुसलामानों की ओर से एक शिकायत शिक्षा, शिक्षा पाठ्यक्रमों में निर्धारित पाठ्य-पुस्तकों के विषय में रही है। शिक्षा संस्थाओं में विभिन्न स्तरों पर पढाई जाने वाली कुछ पुस्तकों में अल्पसंख्यक वर्गों, विशेषकर मुसलामानों के धार्मिक विश्वासों के विरुद्ध सामग्री पाई गयी और कई बार ऐसी पुस्तकों के खिलाफ आन्दोलन भी किये गए। 1966 में राज्यसभा ने ऐसी शिकायतों की जांच के लिए एक समिति का गठन किया, जिसने शिक्षा संस्थाओं में निर्धारित पुस्तकों का अवलोकन करने के बाद यह प्रतिवेदन दिया कि बहुत सी ऐसी पुस्तकें हैं जिनका अधिकाँश भाग हिन्दू पुराणकथाओं पर आधारित है जबकि उनमें सिर्फ हिन्दू देवी-देवताओं की उपलब्धियों पर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया है जबकि इस्लामिक मज़हब के रसूलों की उपेक्षा की गयी है। समिति के अनुसार कुछ पुस्तकों में ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख इस प्रकार मिलता है कि जिससे देश के विभिन्न सम्प्रदायों के बीच एकता उत्पन्न होने के बजाय और ज्यादा भेदभाव बढ़ता है, जो राष्ट्रीय एकीकरण के लिए आत्यधिक हानिकारक है। वर्तमान यूपीए सरकार द्वारा भी सीबीएसई के पाठ्य पुस्तकों का पुनरावलोकन कराया जा रहा है और पाठ्य पुस्तकों से आपत्तिजनक अंशों को निकाल देने का निर्णय लिया गया है।
       6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ज़मीदोज़ होने से मुसलमानों को बहुत बड़ा धक्का पहुँच है। आरएसएस तथा अन्य कट्टर संगठनों द्वारा समय समय पर दी जाने वाली धमकियों से मुसलामानों को अपने ही अपने ही अन्य धार्मिक स्थलों का अस्तित्व भी हमेशा खतरे में दिखाई देता है।

(लेखक- हरदोई, उत्तर प्रदेश में जन्में जो पेशे से शिक्षक, प्रखर वक्ता, लेखक, मानवाधिकार तथा सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार हैं। वर्तमान में आप अखिल भारतीय अधिकार संगठन, के राष्ट्रीय महासचिव, दैनिक जनमत न्यूज़ के समाचार सम्पादक, जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन, के राष्ट्रीय सचिव तथा महर्षि गिरधारानंद गुरुकुल ज्ञानस्थली विद्यापीठ, गोमती का दक्षिणी तट, नैमिषारण्य, हरदोई उत्तर प्रदेश के संस्थापक/प्रबंधक हैं।)

मुसलमानों पर अराष्ट्रीयता का आरोप ?


हिन्दुस्तान की संवैधानिक पंथनिरपेक्षता और यहाँ की सामासिक साझी संस्कृति विश्व के पटल पर अद्वितीय है। उसके पीछे जितना योगदान यहाँ के हिन्दू नागरिक कर रहे हैं उतना ही योगदान अन्य धर्मावलम्बियों का भी है। इस निर्विवाद सत्य को कभी भी नकारा नहीं जा सकता। इसके बावजूद यहाँ के तथाकथित मठाधीश उन पर अक्सर अराष्ट्रीयता का आरोप लगाते हैं उसके पीछे के उनके तर्क भी सतर्क हैं साथ में वो भी अपनी कमान लेकर कि कोई तो तीर लगेगा।अरे जिसके लगेगा वही सही कम से कम एक ही सलाम कम होगी।
            कहा जाता है कि मुसलमानों का दृष्टिकोण राष्ट्रीय नहीं है वे अरब और अन्य देशों से प्रेरणा ग्रहण करते हैं। उनकी धार्मिक आस्था, प्रतिबद्धता, समर्पण, त्याग और निष्ठा खाड़ी के देशों के प्रति ही बनी रहती है। यह धारणा सर्वथा मिथ्या है इससे बढकर शायद और कोई विचारधारा नहीं हो सकती। बल्कि यह कहा जाए तो अधिक सत्य होगा कि इससे बढ़कर अनर्गल और भ्रष्ट बात कोई नहीं हो सकती। इस देश के मुसलमान जिनकी धार्मिक प्रतिबद्धता काबा के प्रति समर्पित है इसलिए वे निष्ठावान नहीं हो सकते। मगर हम उन सभ्य, सुसंस्कृत, उच्च शिक्षित और सिद्धांतों की मिट्टी खोदने वाले हिन्दुओं को क्या कहें जो खुद या अपने बच्चो को पैसे कमाने और भौतिक संपदा के सारे मजे लूटने के लिए विदेश भेज देते हैं। डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन, महा मना मदनमोहन मालवीय, स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंश, ईश्वरचन्द विद्यासागर क्या हिन्दू नहीं थे जो विदेश गए तो मगर हिन्दुस्तान की राष्ट्रीयता की जड़ें सीचनें गए थे उनको खोदने नहीं। आप उस युवा को क्या कहेंगे जिसने यहाँ की सरकारी खर्चे पर शिक्षा हासिल की जब अपने हिस्से के कर्त्तव्यनिर्वहन का सवाल आया तो अमेरिका उनकी पहली पसंद था। अराष्ट्रीयता का लांछन प्रतिभा पलायन पर भी लगना चाहिए।
        इतिहास मुसलमानों की अराष्ट्रीयता के संदेह के एकदम खिलाफ है। भारत में मुसलमानों का स्थाई शासन 712 से 1857 तक रहा तब तक तो वे भारत के लिए जिए भारत के लिए मरे। सामान्य बुद्धिवाला भी यह नहीं समझ सकता कि अराष्ट्रीय लोग किसी राष्ट्र में 1000 साल से न सिर्फ निवास करते हैं बल्कि यहाँ के साशक भी रहे हैं और अगर उस दौरान मुसलमान अराष्ट्रीय थे तो हिन्दुओं ने सामूहिक रूप से उन पर हमला क्यों नहीं कर दिया पूरे 100 दशक में ऐसी घटना कभी भी नहीं घटी।आरम्भ को छोड़कर एक भी ऐसा युद्ध नहीं हुआ जिसमे एक ओर केवल हिन्दू रहें हों और दूसरी ओर केवल मुसलमान। इसके विपरीत हिन्दुओं का रक्षक वर्ग राजपूत, मुस्लिम शासन के स्तंभ थे। काबुल पर मुग़ल साम्राज्य की विजय में मानसिंह द्वारा सेना का नेतृत्व, भारत की ही विजय समझी गयी थी। शिवाजी की सेना में भी मुसलमान थे इसके विपरीत 1857 में भारतीय शासक वर्गों के दुर्बल हो जाने पर  हिन्दू-मुस्लिम दोनों अंग्रेजी शासन के विरुद्ध अपने ढंग से लगातार विरोध करते रहे। 1857 में ही प्रथम स्वाधीनता की लड़ाई मुग़ल सम्राट बहादुरशाह ज़फर के नेतृत्व में लड़ी गयी और हिन्दुओं ने सहर्ष अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध एकमत होकर मुग़ल सम्राट का नेतृत्व स्वीकार किया। संक्षेप में प्रथम स्वतन्त्रता समर में मुसलामानों का योगदान हिन्दुओं के बराबर रहा।
          हम कभी मिट्टी से बगावत नहीं करते,
          हम कभी लाशों की तिजारत नहीं करते।
          वतन की खातिर बहा देते हैं अपना लहू,   
          रहबरों जैसी हम सियासत नहीं करते।
सन 1920-21 तक कांग्रेस की कोई भी चाल अंग्रेजों के ऊपर कामयाब नहीं हुई। उसमें खिलाफत आन्दोलन के विलय के बाद ही नवीन चेतना का संचार हुआ। 1916 में जिन्ना के प्रभाव से कांग्रेस के साथ सम्पूर्ण स्वाधीनता के लिए समझौता हुआ। भारत के स्वतंत्र होने तक विशुद्ध मुस्लिम प्रदेश सीमा प्रांत अब्दुल खान गफ्फार खान के साथ में था। सुभाष चन्द्र बोश की फौज में भी मुसलामानों का योगदान था। क्रांतिकारियों में अशफाकउल्लाह खान स्मरणीय हैं। कांग्रेस की कल्पना बिना अबुल कलाम आज़ाद तथा हिफज़ुर्ररहमान के अधूरी है। पाकिस्तान निर्माण का दायित्व अकेले मुस्लिम नेताओं पर ही नहीं है इसमें हिन्दू कांग्रेसी नेताओं की अदूरदर्शिता, गर्व और धींगा-धांगी और लूट के माल से अपने-अपने द्वारा लिए गए जोखिम और योगदान के बटवारे की जल्दबाजी तथा उसकी जिद भी जिम्मेदार थी। सौदेबाजी और घपलेबाज़ी की भी हद होती है। वस्तुतः पाकिस्तान का निर्माण न तो हिन्दुओं द्वारा हुआ और न ही मुसलमानों द्वारा हुआ। इसका निर्माण अदूरदर्शी नेताओं ने किया। चाहें वो हिन्दू राजनेता रहें हों या फी मुस्लिम, बल्कि इसके लिए कांग्रेस के वो नेता ही जिम्मेदार रहे हैं जिनको सत्ता का सुख प्राप्त करने की अधीरता थी। एक तरफ कांग्रेस अपने समस्त भारत का प्रतिनिधित्व करने की दावेदार थी दूसरी और वह हिन्दुओं का प्रतिनिधि होने का दावा अलग से करती थी अतः जो होना था वह तो हुआ ही।
        भारत ने पाकिस्तान से अब तक 4 युद्ध लडे , लेकिन क्या इसमें भारत के मुसलमानों ने पाकिस्तान का पक्ष लिया ? वीर अब्दुल हमीद का बलिदान क्या ऐतिहासिक बलिदान नहीं है ? मो इकबाल से बढ़कर राष्ट्रगान (कौमी तराना) किसने लिखा ? मालिक मोहम्मद जायसी की कृति पद्मावत साहित्योक दृष्टिकोण से किसी भी मायने में तुलसीदास कृत रामचरितमानस से कम नहीं है। रसखान, कुतबुन, शेख, कबीर, रहीम तथा हिन्दी के सर्वोपरि जनक खुसरो को हिंदी से अलग कर दिया जाए तो हिंदी का क्या महत्व रह जाएगा ? क्या मुसलमानों ने कभी स्वतंत्र भारत में कभी हिन्दी का विरोध किया ? इसके विपरीत जब दक्षिण भारत के हिन्दू एकमत से हिन्दी के विरुद्ध हुए थे तो शेख अब्दुल्ला ने हिन्दी के पक्ष में आवाज़ बुलंद की थी। इसके विपरीत आज़ाद भारत में मुसलमानों की यह उचित मांग कि उर्दू को द्वितिओय भाषा का दर्ज़ा प्रदान कर दिया जाये जो अब तक नहीं मानी गई।
         मक्का-मदीना तो मुसलमानों के तीर्थ हैं। उससे अगर मुसलमान प्रेरणा लेते हैं तो इसमें आपत्तिजनक क्या है। यदि इंग्लॅण्ड का अंग्रेज़ येरूशलम का भक्त है तो तो क्या वह इंग्लैण्ड के लिए अराष्ट्रीय हो गया। भारत में रहने वाले एंग्लोइंडियन भी तो यही करते हैं आखिर उनको मानद जन प्रतिनिधित्व देने के बावजूद उन पर अराष्ट्रीयता का प्रशन क्यों नहीं उठाया जाता है ? क्या श्रीलंका और बर्मा का बौद्ध सारनाथ के प्रति समर्पण रखने भर से ही वह बर्मा और श्रीलंका के लिए अराष्ट्रीय हो गया ? वस्तुतः बहुसंख्यकों का यह आरोप कि मुस्लिम अराष्ट्रीय हैं और अरब तथा अन्य खादी देशों से प्रेरणा ग्रहण करते हैं, इस तथ्य में ही निहित है कि भारत के अलावा किसी देश में उनके (हिंदूओं के) तीर्थ नहीं हैं। नेपाल ही ऐसा राष्ट्र है लेकिन स्वतंत्र भारत में उससे भी सम्बन्ध अच्छे नहीं रहे। क्या भारत के हिन्दू नेपाल के पशुपतिनाथ के दर्शन करने को नहीं जाते हैं ? बस उसमें हज पर जाने वालों के साथ राजनीतिक रोटियां सेकनें वालों का स्वार्थ ही उनको संदिग्धता प्रदान कर रहा है।
(लेखक- हरदोई, उत्तर प्रदेश में जन्में जो पेशे से शिक्षक, प्रखर वक्ता, लेखक, मानवाधिकार तथा सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार हैं। वर्तमान में आप अखिल भारतीय अधिकार संगठन, के राष्ट्रीय महासचिव, दैनिक जनमत न्यूज़ के समाचार सम्पादक, जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन, के राष्ट्रीय सचिव तथा महर्षि गिरधारानंद गुरुकुल ज्ञानस्थली विद्यापीठ, गोमती का दक्षिणी तट, नैमिषारण्य, हरदोई उत्तर प्रदेश के संस्थापक/प्रबंधक हैं।)

सोशल मीडिया के दुरुपयोग

         सोशल मीडिया अर्थात जनसरोकार की इंटरनेट सामाजिक साइट्स जो आम आदमी की अभिव्यक्ति के लिए खुली हैं। इनके प्रशारण की गति इतनी तीव्र है कि एक क्लिक अर्थात पलक झपकते ही आप देश-दुनिया के कारोनों इंटरनेट यूजर तक अपनी बात पहुंचा सकते हैं। विज्ञान का यह आविष्कार दुनिया भर के लिए किसी वरदान से कम नहीं है। वरदान का उपयोग सार्थक प्रयासों और जनहित के लिए ही होना चाहिए लेकिन वही वरदान यदि किसी गलत प्रवृति के, किसी गलत विकृत मानसिकता के व्यक्ति को प्राप्त हो जाये तो उसके अभिशाप बनने में भी क्षण भर की देरी नहीं लगती। ट्विटर, फेसबुक, आर्कुट, और इंटरनेट की ब्लागर साइट्स किसी वरदान से कम नहीं हैं। आप अपनी बात को, अपने प्रयोजन को, अपने क्रतित्वा को इन साइट्स पर पोस्ट करते ही लाखों लोगों के संपर्क में आ जाते हैं। आपके प्रयास और रचनाधर्म से प्रभावित होकर उन साइट्स पर लाखों लोग आपके समर्थक, प्रशंसक, प्रायोजक और मित्र भी बन सकते हैं। विशेषता यह कि प्रायः ये सारी ही साइट्स आपको निशुल्क सेवाएँ प्रदान करती हैं। बात यहीं तक सीमित नहीं है। यदि आपका खाता चर्चित है, आप ज़्यादा लोगों द्वारा, पढ़े और पसंद किये जा रहे हैं तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियां आपको आपके इंटरनेट अकाउंट पर अपने उत्पाद लगाने की पेशकश भी करती हैं। दुनिया के लाखों ब्लॉगर और सोशल साइट्स यूजर बिना कुछ लागत लगाए घर बैठे ऐसी कम्पनियों के अपने अकाउंट पर विज्ञापन लगाकर उतना कमा रहे हैं, जितना कि एक सरकारी अधिकारी वेतन प्राप्त करता है या उससे ज्यादा भी। 
       यह सोशल साइट्स का सदुपयोग है। आप कुछ अच्छा कर रहे हैं तो आप चचित, प्रशंसित और लोकप्रिय तो हो ही रहे हैं, धनार्जन भी कर रहे हैं लेकिन इन साइट्स पर विकृत मानसिकता के लोग भी हैं, जो विचारों से खुद तो गंदे हैं ही दूसरों की साइट्स पर भी गन्दगी परोसने से बाज नहीं आते। वे फर्जी नामों से फर्जी अकाउंट बनाते हैं। फर्जी योजनाओं को प्रसारित कर लोगों को ठगते हैं, अफवाहें फैलाकर सामाजिक वातावरण को विषाक्त करते हैं और कई बार तो दूसरे यूजर्स को ब्लेकमेल भी करते हैं। रमजान के महीने में भारत की आर्थिक राजधानी कहे जाने वाले शहर मुम्बई में मीडिया और पुलिसकर्मियों पर उग्र मुस्लिम समुदाय के हिंसात्मक हमले का सच भी वही था कि किन्हीं खुराफाती मानसिकता के लोगों ने सोशल मीडिया साइट्स पर भड़काऊ ख़बरें और वीडियो अपलोड कर एक समुदाय विशेष की भावनाओं को भड़का दिया। 
       फिर यह आग देश के कई अन्य शहरों में भी दहकी और अलविदा के दिन ठीक ईद के त्यौहार से दो दिन पहले तहजीब का शहर कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ भी उग्रवादियों की हिंसक कार्यवाही से कराह उठी। उग्र भीड़ ने मीडिया वालों पर मारपीट की, उनके कैमरे तोड़ डाले। बात यहीं तक भी सीमित नहीं रही, सार्वाधिक सहिष्णु और शांत माने जाने वाले जैन और बौद्ध धर्म के प्रवर्तकों की मूर्तियों पर ईंट पत्थरों से हमला कर उन्हें अपमानित किया गया। कहा जा रहा है कि इस तरह के हमले के लिए सम्प्रदाय विशेष को भडकानें और उग्र हो उठने के लिए सोशल साइट्स पर प्रसारित की गयी सामग्री ही सबसे अधिक जिम्मेदार है। मुस्लिम समुदाय का शिक्षित तबका ऐसी कार्यवाही का आलोचक है। इसका सीधा सा अर्थ है कि एस प्रकार की उदंडतापूर्ण कार्यवाही में जो भी लोग हिस्सेदारी निभा रहे रहे थे वे अशिक्षित या कम पढ़े-लिखे लोग थे।
        संभव है कि उन्होंने या उनमें से कुछ लोगों ने धार्मिक शिक्षा प्राप्त कर रखी हो, जहां आस्था होती है तर्क नहीं। विवेक का इस्तेमाल करने की गुंजाइस नहीं। अर्थात अविवेकी लोगों का तथाकथित धर्मयुद्ध। क्या ऐसी किसी कार्यवाही को धर्मयुद्ध की संज्ञा दी जा सकती है? जो घटनाएं हुईं वो तो आज की साजिशें ही हैं। आज उस पर बहस हो रही है, संभव है कि मुस्लिम समाज का जो तबका आंदोलित हुआ उसे अब भी समझ में न आ रहा हो कि उसका किस मकसद से और किन लोगों ने इस्तेमाल किया। हो सकता है कि वे फिर किसी बहकावे में आयें, फिर किसी साजिश का हिस्सा बनें, क्योंकि अधिशंख्य अशिक्षित मुस्लिम समाज की यह नियति बन चुकी है। वह लगातार साजिशों का शिकार हो रहा है और उसका इस्तेमाल उसके अपने ही धर्मगुरू तथा सियासतबाज़ मिलकर कर रहे हैं।
        क्या मुस्लिम समाज की भावनाएं उद्वेलित करने के लिए उस समाज के धर्माचार्यों को धार्मिक स्थलों से तकरीरें देनीं पड़ती थीं और सियासत्बाज़ों को सार्वजनिक मंचों का इस्तेमाल करना पड़ता था। तब भीड़ में तर्क-वितर्क की गुन्जाइश भी होती थी लेकिन अब सोशल साइट्स पर जो भी परोस दिया जाता है, उसे सच मान लिया जा  रहा है। वहाँ तर्क और खबर की सच्चाई जानने के मौके भी कम हैं। यही वज़ह है कि अलगाववादी और बाधा उत्पन्न करने वाले लोग उन लोगों को लक्ष्य बनाकर बितन्दावाद फैलाने से बाज़ नहीं आ रहे जो दिन भर की हांडतोड़ मेहनत के बाद बमुश्किल दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर पा रहे हैं।
         सोशल साइट्स पर अनर्गल बात सामग्री प्रसारित होने से बचाव के पक्ष में लम्बे अरसे से बहस जारी है। अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्षधर इस खुले मंच पर किसी प्रतिबन्ध के पक्षधर नहीं हैं, लेकिन देश और दुनिया की कई सरकारें उनमें सुधार की वकालत कर रहीं हैं। ऐसी अपनी समझ से कोई बीच का रास्ता निकाला जाना चाहिए ताकि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता भी बरकरार रह सके और अविस्वस्नीय तथा अनर्गल सामग्री को रोका भी जा सके। यह कैसे संभव हो इसके बारे में इंटरनेट तकनीकी के विशेषज्ञ ही कोई उपयुक्त रास्ता सुझा सकते हैं।
(लेखक- हरदोई, उत्तर प्रदेश में जन्में जो पेशे से शिक्षक, प्रखर वक्ता, लेखक, मानवाधिकार तथा सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार हैं। वर्तमान में आप अखिल भारतीय अधिकार संगठन, के राष्ट्रीय महासचिव, दैनिक जनमत न्यूज़ के समाचार सम्पादक, जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन, के राष्ट्रीय सचिव तथा महर्षि गिरधारानंद गुरुकुल ज्ञानस्थली विद्यापीठ, गोमती का दक्षिणी तट, नैमिषारण्य, हरदोई उत्तर प्रदेश के संस्थापक/प्रबंधक हैं।)

बुद्धिजीवी और धर्मगुरू अपना नज़रिया बदलें


             लोकतंत्र, मीडिया और मुसलमान अर्थात लोकतंत्र में मीडिया और मुसलामानों की भूमिका। किसी भी लोकतांत्रिक देश की व्यवस्था में वहाँ के आम लोगों और स्वतंत्र तथा निष्पक्ष मीडिया तंत्र की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जब आम आदमी की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है तो उसमें हिन्दू मुसलमान, सिख, ईसाई या किसी जाती वर्ग को प्रथक करके देखनें की बात ही कहाँ आती है ? आज की बहस में प्रमुखता से मुसलमान शब्द के प्रयोग की आवश्यकता इसलिए भी है क्योकि मुस्लिम समाज के सबसे बड़े, प्रमुख और महत्वपूर्ण त्योहार ईद से ठीक पहले देश के विभिन्न शहरों में कुछ ऐसी उग्रवादी घटनाएं हुईं जिनमें मुसलामानों की भूमिका पर उंगलियाँ उठा रहीं हैं। मुम्बई और लखनऊ में मीडियावालों से अभ्रद्ता, उनके कैमरे तोड़ देना, उनसे मारपीट करना और धार्मिक मूर्तियों पर ईंट पत्थर बरसाकर साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति पैदा करने का प्रयास करने जैसी घटनाओं से यह सवाल उठाना भी लाज़मी था कि भारतीय लोकतंत्र के प्रति मुसलामानों का नज़रिया क्या है ?
        शायद यह सवाल उठाने की जरूरत नहीं है क्योंकि यह निर्विवाद रूप से प्रमाणित है की मुसलमानों की भारत के लोकतंत्र में किसी अन्य वर्ग से निष्ठा कम नहीं है। कश्मीर जो कई दशक से अलगाववाद की आग में झुलस रहा है और जहां क़ानून व्यवस्था को नियंत्रित करने में केंद्र सरकार को लम्बे समय से ही ज़द्दोज़हद से जूझना पड़ रहा है वहाँ भी पिछले चुनावों में उग्रपंथियों की धमकी के बावजूद भारी मतदान का होना यह प्रमाणित करता है कि देश
 के मुसलामानों की देश के लोकतंत्र में पूर्ण निष्ठा है। और वे किसी भी कीमत पर अलगाववाद के पक्षधर नहीं हैं। वर्ष 2008 में मुम्बई पर हुए आतंकी हमले में पुलिस की गोली से मरे गए आतंकियों के शव जब पाकिस्तान ने लेने से इनकार कर दिया और उन्हें दफनाने की बात उठी तो भारत के मुसलामानों ने उन्हें अपने कब्रिस्तानों में जगह देने से यह कहकर मना कर दिया था की वे देश के दुश्मनों को अपने कब्रिस्तानों में दफनाकर अपनी ज़मीन को नापाक नहीं करना चाहते। क्या इसके बाद भी मुसलमानों की देशभक्ति पर कोई संदेह किया जा सकता है ?
       अब तह बात आती है कि, तो मीडिया को तो अघोषित रूप से ही चौथा स्तम्भ कहा जाता है, फिर उसकी लोकतान्त्रिक निष्ठा पर सवाल कैसे उठ सकता है। मीडियातंत्र ही तो लोकतंत्र का सच्चा प्रहरी और रक्षक है। प्रशन यह है कि बीते मग अगस्त में देश के अनेकों शहरों में जो उग्रपंथी घटनाएं हुईं उनमें मुस्लिम प्रदर्शनकारी मीडिया पर हमलावर क्यों हुए ? इस प्रशन का उत्तर तो वे ही दे सकते हैं जिन्होनें मीडिया पर हमला किया था। वे यहाँ हैं नहीं और आम मुसलमान, प्रदर्शन में अपनी भागीदारी से इनकार करता है, इसका अर्थ यह है कि जो कुछ भी हुआ वह मुसलामानों को बदनाम करने की एक साजिश थी, और यह साजिश जिन लोगों ने भी रची थी उनसे भी मुसलमान अनजान हैं। इसके बावजूद इस बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता है कि उपद्रवियों में मुसलमान शामिल नहीं थे।
        जब मुसलमान उप्रदवों में शामिल नहीं था तो फिर वे कौन से मुसलमान थे जिन्होनें यह सब किया ? सच यह है कि वे निचले तबके के अनपढ़ लोग थे और अफवाहों के कारण बिना सोचें-समझे वह सब कर डाला जो रमजान के पवित्र महीनें में आम मुसलमान भी गुनाह समझता है।अफवाहें म्यांमार और असम में हिंसक वारदातों की फैलाईं गयी। उपद्रव में शामिल 90 % लोग यह शायद जानते भी नहीं होगें कि म्यांमार कोई अलग देश है। अशिक्षित समुदाय से विवेकपूर्ण निर्णय की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती है। ऐसे समय पर समाज के प्रबुद्ध वर्ग और धर्मगुरुओं की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। वजह यह है कि आरोपों की पहली उंगली धर्मगुरुओं की ओर उठाई जाती है।
        समय परिवर्तनशील है। समय के साथ समाज भी बदलता है। नए आविष्कार, नयी जानकारियाँ, युवाओं का जिज्ञासा भरा स्वभाव, दूसरों की बराबरी करने या उनसे आगे निकलने की ललक को न तो मुस्लिम समाज नज़रंदाज़ कर सकता है और न ही मुस्लिम समाज के धर्मगुरु। हमने कई बार धर्मगुरुओं के फतवे जारी होते और फिर खुद ही उन्हें अपने फैसलों से पलटते देखा हैं। तो फी आखिर यह हठधर्मिता क्यों ? क्यों समाज को परिवर्तन से जुड़ते नहीं देखना चाहते ? क्यों उन्हें आधुनिक ज्ञान, विज्ञान  और देश-दुनिया की जानकारी से दूर रखकर कुएं का मेढ़क बनाए रखना चाहते हैं ? मानव मन स्प्रिंग के सामान होता है। वह उछलना चाहता है। तनिक सा दबाव घटा तो स्प्रिंग उछलती है और कभी-कभी तो दबाव बनाने वाले के मुह पर ही हमलावर हो जाती है। साजिश किसी ने भी रची हो और संभव है कि वर्ग विद्वेष फैलाने की योजना पर साजिशकर्ता इस समय आत्ममुग्ध भी हों, लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि उनकी साजिश से जिन हमलावरों का रुख आज मीडिया और समाज की समरसता की और था वे हमलावर ही पलटकर अपने को इस्तेमाल करने वालों पर भी आक्रामक हो सकते हैं। यदि वे इस भ्रम में हैं कि उनकी साजिशों पर से पर्दा नहीं उठेगा, लोगों को वास्तविकता का पता नहीं चलेगा, तो वे शायद सबसे बड़ी भूल कर रहे हैं।
        हम अपने मित्रों और पत्रकार साथिओं की सहिष्णुता की प्रशंसा केते हैं कि अभ्रड़ता सहकर भी उन्होंने आक्रोश की अभिव्यक्ति नहीं की। समाज को आईना दिखानेवाले और सच के लिए लड़ने वालों में यह सहिष्णुता होनी भी चाहिए। पत्रकार वर्ग शिक्षित है इसलिए विवाद नहीं बढ़ा। हम अपेक्षाएं इसीलिये मुस्लिम समुदाय के सभी बुद्धिजीवी और धर्मजीवी वर्ग से ही कर रहे हैं, और हम उनसे यह अपील करते हैं कि वे स्वयं संकीर्णताओं से उबरें और अपने समाज का सार्वजनिक और राष्ट्रहित में पथ प्रशस्त करें, क्योंकि यही उनका दायित्वा भी है।
(लेखक- डॉ हरीराम त्रिपाठी, पीटीआई से अवकाशप्राप्त,लेखक, राजनितिक विश्लेषक, समाचार एजेंसी त्रीवेणी न्यूज़ सर्विस के सम्पादक तथा चौधरी चरणसिंह महाविद्यालय बरदारी, बाराबंकी, उत्तर प्रदेश में बतौर प्राचार्य कार्यरत हैं।)

साजिशों के पीछे सियासत

           सियासत का लक्ष्य सत्ता होता होता है। चुनावों में अरबों रूपये पानी की तरह बहाने वाले राजनैतिक दल न तो अपनी पराजय बर्दाशत कर पाते है और न ही यह कि सत्ता की कुर्सी उनके निचे से खिसककर किसी दूसरे दल के पास पहुँच जाए। जब वे सत्ता में होते हैं तो सत्ता को बचाए रखने, भविष्य में सत्ता पर काबिज रहने की साजिशें, तिकड़में किया करते हैं और जब सत्ता में नहीं होते हैं तो उसे हथियानें, सत्तारूढ़ दल को बदनाम करने की साजिशें किया करते रहतें हैं। वे अपने स्वार्थों के लिए जनता और भीड़ का, उनकी भावनाओं का इश्तेमाल करते हैं। उन्हें इस बात से कोई वास्ता नहीं होता कि उनकी हरकतों से जन-जीवन पर क्या असर पड़ रहा है अथवा देश और समाज का कितना नुकसान हो रहा है।
        उत्तर-प्रदेश के चुनाव में जिनके हाथ से सत्ता जाती रही, या अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई, आप कैसे उम्मीद करते हैं कि वे चुपचाप बैठकर आगामी चुनाव तक जनादेश की प्रतीक्षा कर सकेगें। प्रत्यक्ष भले ही कुछ न दिख रहा हो लेकिन वे आंतरिक तौर पर पूरी तरह सक्रिय हैं। आरोप-प्रत्यारोप के दौर के अलावा वे उन साजिशों में भी अवश्य शामिल हैं जिससे जनभावनाएं भड़कें और सत्ता प्रतिष्ठानों पर उन्हें तोहमतें जड़ने का उन्हें मौका मिले। एक ही माह में इत्तर-प्रदेश की राजधानी लखनऊ में प्रतिमाएं तोदानें की दो घटनाएं किस ओर इशारा
करती हैं। पहले पूर्वमुख्यमंत्री मायावती की मूर्ती का सर धड़ से अलग कर दिया गया। जब एक सिरफिरा पत्रकारों के सामने प्रतिमाएं तोड़ने की घोषणा कर रहा था तो उसे उसी समय पुलिस ने हिरासत में क्यों नहीं लिया ? और जब वह घटना घाट गए तो उससे प्रशासन भविष्य के प्रति सचेत क्यों नहीं हुआ। मायावती की मूर्ती का तोड़ा जाना आकस्मिक घटना माना भी जा सकता है लेकिन जब इंटरनेट की सोसल साइट्स पर भड़काऊ एसएमएस प्रसारित हो रहे थे तो सतर्कता एजेसियाँ और और पुलिस ने उनके संभावित परिणामों के प्रति सतर्कता क्यों नहीं बरती ?
        इसे संयोग नहीं कर सकते। राजनीति सारे देश में व्याप्त है, सारे देश को प्रभावित कर रही है। फिर प्रशासन उससे अछूता कैसे रह सकता है। वह पुलिस विभाग हो या अन्य प्रशासनिक तबका, उनकी आस्थाएं भी किसी न किसी राजनैतिक दल और विचारधारा के साथ जुडी हैं। वे दल सत्ता में हों या न हों लेकिन प्रशासन में बैठे उनके मददगार उनकी योजनाओं और साजिशों को परवान चढाने में उनके अप्रत्यक्ष मददगार  है। प्रायः देखने में आया है कि जब सत्ता बदलती है तो बेमतलब थोक के भाव प्रशासनिक अधिकारियों को इधर से उधर किया जाता है। बहुत से साक्षम अधिकारियों को लम्बे समय तक प्रतीक्षा सूची में डाल देना या उन विभागों में भेज देना या उन विभागों में बिठा दिया जाना जहां उनके लिए कोई काम ही नही है, इसका मतलब क्या है ? मतलब साफ़ है कि हर राजनीतिक दल सत्ता में आने पर अपने पूर्व के शुभचिंतक प्रशासनिक वर्ग को उपक्रत करता है और जो उसकी विचारधारा के समर्थक नहीं रहे उन्हें कम महत्व के पदों पर बिठाकर या प्रतीक्षा सूची में डालकर सजा देता है।
         17 अगस्त को लखनऊ में मीडिया-कर्मियों के साथ कथित मुसलमानों द्वारा की गयी मारपीट या गौतम बुद्ध और स्वामी महावीर की प्रतिमाओं पर पत्थरबाजी के पीछे भी निश्चित तौर पर एक बड़ी राजनैतिक साज़िश थी और यह भी निश्चित है कि उक्त घटना के बारे में प्रशासन के कुछ जिम्मेदार लोगों को पहले से ही जानकारी भी थी। छायाकारों में उन उत्पातियों के फोटो भी खीचे थे और उनमें से बहुत सारे चेहरे स्पस्ट भी है, फिर उनको हिरासत में न लिया जाना और उनसे असली षणयंत्रकारियों की जानकारी प्राप्त कर उन्हें क़ानून के हवाले न किया जाना क्या राजनैतिक रणनीति है या साज़िश ?
      राजनैतिक दलों की भी अपनी ज़रूरतें और बाध्यताएं हैं। वे भी एक दूसरे के साथ सख्ती से पेश आना नहीं चाहते कि जाने कब किसे, किसके सहयोग की दरकार हो, और यदि संबंधों में ज्यादा खटास आ गयी तो भविष्य खतरे में पद सकता है। साफ़ है कि राजनीति में भी चोर-चोर मौसेरे भाई का खेल हो रहा है। न मैं तेरी कहूं और न तू मेरी कह। बस सब मिलकर जनता को मूर्ख बना रहे हैं और जिसे जहां भी मौका मिलता है वह उसका अपने तरीके से उपयोग कर रहा है। देश के जिन शहरों में भी रमजान के महीनें में उपद्रव हुए उनकी सूत्रधार भी राजनीति थी और उसका मकसद  भी राजनैतिक हित साधन था।
         आम मुसलमान से सवाल कीजिये कि ऐसा क्यों हुआ और ऐसा किसने किया तो वह भी उन लोगों और उनके प्रयोजन के बारे में अनभिज्ञता प्रकट करता है। इसका सीधा सा अर्थ है कि मुम्बई, लखनऊ, इलाहाबाद या देश के अन्य जिन भी शहरों में उग्रपंथियों ने तांडव किया उसमें न तो आम मुसलमान की कोई भूमिका थी और न ही आम मुसलमान उसमें शामिल था। फिर यह सवाल अनुत्तरित ही रह जाता है कि जिन्होंने यह सब किया वे वे कौन थे, उनका मकसद क्या था और उनको यह सब करने के लिए प्रेरित लारने वाला कौन था। एस मामले में यदि कोई विदेशी शनयंत्र हो भी, तो भी यह कैसे माना जा सकता है कि वह बिना भारत के सियासतबाजों की साझेदारी को अंजाम दिया गया होगा। वे कौन हैं, उन्हें बेनकाब किये जाने की मांग अब मुस्लिम समुदाय के ही धार्मिक और बिद्धिजीवी वर्ग द्वारा की जानी चाहिए क्योंकि यह मसला समूची मुसलमान कौम का की प्रतिष्ठा से जुदा है।
          (लेखक- आगरा उत्तर प्रदेश में जन्में श्री सरमा पूरन सम्पादक कृषि उत्थान साप्ताहिक समाचार पत्र, वरिष्ठ पत्रकार, स्तंभकार, सामाजिक कार्यकर्ता, कुशल राजनैतिक विशलेषक तथा भारत सरकार द्वारा मनोनीत प्रतिनिधि पीसीएफ लखनऊ, सदस्य परामर्शदात्री समिति उत्तर मध्य रेलवे आगरा, सदस्य प्रबंध समिति राष्ट्रीय कृषि वानिकी केंद्र झांसी, सदस्य भारतीय चारागाह एवं चारा अनुसंधान संस्थान झांसी, सदस्य संयुक्त समिति राष्ट्रीय कृष वानिकी एवं भारतीय चारागाह अनसंधान संस्थान झांसी, सदस्य सलाहकार समिति चौधरी चरण सिंह अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट लखनऊ हैं।)

Sunday, 23 September 2012

जम्हूरियत पर धब्बा है मजहबी फसादात

         
         जम्हूरियत का मतलब सरकार और सियासत में आम इंसान की बराबर की हिस्सेदारी। उस जम्हूरियत में फसादों और झगड़ों की गुंजाइस तभी होती है जब हकों पर डांका पद रहा हो और आम 
इंसान की आवाज़ सुनी न जा रही हो। अपने हक़ के लिए लड़ना चाहिए भी लेकिन वह लड़ाई दूसरों को या देश को नुक्सान पहुचाने वाली नहीं होनी चाहिए। आप जिन्हें नुक्सान पहुंचा रहे हैं, अगर वे आपके हक़ की राह में रूदा नहीं हैं तो आप गुनाह कर रहे हैं। जब आप मुल्क को नुक्सान पहुंचा रहे हैं तब आप और भी गुनाहगार हैं। 17 अगस्त को अलविदा की 
नमाज़ के बाद लखनऊ शहर में जो कुछ भी हुआ वह बेहद शर्मनाक था। ओछी हरकत कुछ सिरफिरों ने की और शर्मसार सारी कौम हो गयी। एक और आप अलविदा की नमाज़ अदा कर रहे हैं सबकी सलामती की दुआ मांग रहे हैं और दूसरी और खुद की सलामती से दुश्मनी निभा रहे हैं। अल्लाह कैसे क़ुबूल करेगा उस दुआ को ?
         मीडियावालों पर हमलावर होना और उससे भी खतरनाक वह मंज़र था जब फसादी भीड़ गौतम बुद्ध और स्वामी महावीर के बुतों पर ईंट पत्थर बरसाकर एक नए फसाद को पैदा करने पर अमादा थी। उफ़ कितना खौफनाक था वह मंज़र और एक बार तो लगा था कि शायद एस बार ईद की खुशियाँ डंडों में बदल जायेंगीं। हम शुक्रगुज़ार हैं लखनऊ कि आवाम के और सभी गैर मुसलामानों के जिन्होनें बदअमनी के लिए आम मुसलामानों को जिम्मेदार नहीं माना और ईद की खुशी में उसी तरह से शरीक हुए जैसे हमेशा होते थे। लखनऊ तहजीब का, अमन का शहर था और रहेगा। यहाँ दंगाएयों, फ़सादियों के मंसूबे आसानी से कामयाब नहीं हो सकते अब तो शायद यह बात उनकी भी समझ में आ चुकी होगी  जो शहर को दंगों में तब्दील करना चाहते थे।  
       ईद की खुशियों को मातम में बदलने की सज़ेशें रचने वाले मुसलमान नहीं हो सकते और मुसलमान ही नहीं वो इन्सान भी नहीं हो सकते। जब आप इन्सानियत को रौदने  पर अमादा हों तो आपको इंसान कहना इंसानियत की बेइज्जती करना है। कुछ लोगो को ऐसी ओछी हरकतों के पीछे विदेशी साजिश नज़र आती है। हो सकता है यह सच हो लेकिन अगर आप उन सजेशों पर नाच रहे हैं, तब तो आप मदारी के बन्दर हुए, इंसान कैसे रह गए। सुनी सुनायी अफवाहें की असं में कुछ लोगों के साथ ऐसा हुआ या म्यांमार में लोगों के साथ कुछ बेजा हुआ तो उसके लिए हिन्दुस्तान क्या करे क्या म्यांमार 
हिन्दुस्तानी हुकूमत का हिस्सा है ? असम जरूर हिन्दुस्तान का एक सूबा है, लेकिन जब आपकी बेजा हरकतों पर लखनऊ में हुकूमत फसाद न बढनें देने या यूँ कहें कि वोटों के लालच में 
सख्ती न करें तो असम की हुकूमत में भी तो वैसे ही लोग होगें जो वहाँ के बाशिंदों को वोटों के लालच में नाराज़ 
नहीं करना चाहते होंगें।   
        अल्लाहताला इंसान बनाता है, कौमें, फिरके और मज़हब नहीं। मज़हब इंसान बनाता है, अपनी पसंद और चाहत के अनुसार। जिसका जिसमे भरोसा हो, लेकिन हर मज़हब का रास्ता कहीं न कहीं आख़िरी मुकाम पर जाकर एक जरूर हो जाता होगा। इस्लाम भी कहता है कि कोई भी रिश्ता इंसानियत के रिश्ते से बड़ा नहीं होता। अगर आप रोजा- नमाज़ के अहद के बावजूद इंसानियत के खिलाफ काम कर रहें हैं तो न तो आप इस्लाम में भरोसा रखते हैं और न ही अप रोज़े और नमाज़ के बदले परवरदिगार की दया के हकदार हैं। नमाज़ से पहले नियत बाधने का मतलब होता है अपनी नियत को, अपने मन को बेजा ख्यालों से साफ़ करना, लेकिन जाब नमाज़ के बाद आप लाठी-डंडों से लैस सडकों पर हंगामा करते घूम रहे थे तो फिर उस सारे बवाल को तो आप उस वक्त भी दिमाग में लिए ही होंगे जाब आप नमाज़ पढ़ रहे थे। मतलब आपकी नियत तब भी खराब थी, फिर आप किस सबाब की और कैसे उम्मीद कर सकते हैं।
        जहां तक मेरी अपनी सोच है तो मुम्बई, लखनऊ या हिन्दुतान के जिन और भी शहरों में इस तरह की बेजा हरकतें हुईं उनकी कड़ियाँ कही न कहीं जुडी हैं और इन सारी हरकतों का मास्टरमाइंड कोई एक ही सख्श, तंजीम या मुल्क होगा। गौर करने की बात है कि जब सरकारें किन्हीं ख़ास मसायल को लेकर विपक्षी पार्टियों और आवाम के गुस्से से जूझ रही होती हैं, उसी वक्त इस तरह के बवाल और हादसे क्यों होते हैं ? बवाल किसी एक सूबे, एक शहर में नहीं हुआ। अलग-अलग शहरों में अलह-अलग दिन और सारी खुफिया पुलिस। सारा सरकारी अमला उनके बारे में पहले से कुछ जान पाने, उन्हें रोक पाने या उन्हें या उन्हें गिरफ्त में ले पाने में नाकाम रहा, इसका क्या मतलब लगाया जाना चाहियी ?
       केंद्र की सरकार भी बढ़ती कीमतों, कोयला ब्लाकों के आबंटन, भृष्टाचार के अनेकों मामलों और हिन्दुस्तान में विदेशी पूंजी निवेश के मसलों पर विपक्षी पार्टियों के निशाने पर है और उत्तर-प्रदेश की सूबाई सरकार भी अपने ही लोगों की धींगामुश्ती, क़ानून व्यवस्था को नियंत्रित नहीं कर पाने के आरोपों से चौतरफा घिरी हुई है। यह सब क्यों हुआ और किसकी साज़िश से हुआ इसके बारे में वे ज्यादा जानते हैं जो देश चलाने के ठेकेदार हैं। मेरी समझ में तो सच बस इतना भर है कि सियासतबाज़ों की मोहब्बत आवाम और मुल्क के बजाय कुर्शी से ज्यादा है और हर सियासत्बाज़ इस मुल्क को फिरकों और टुकड़ों में बांटना चाहते पर अमादा हैं।
    (लेखिका- समीना फिरदौस, स्वतंत्र लेखक, सामाजिक कार्यकत्री हैं।)

भारत के खिलाफ यह एक अमेरिकी साजिश है

             
            हिन्दुस्तान में जब भी कोई विवाद होता है और उसमें मुसलमानों की रत्ती भर भी भूमिका नज़र आती है तो उसे विदेशी साजिश का नाम देना एक चलन सा हो गया है। और जब भी कभी विदेशी साजिश की बात आती है तो सबसे पाले जिम्मेदार पाकिस्तान को ठहराया जाता है। वह मुल्क जो ठीक से अपने पैरों पर ही खडा होने में ही लडखडा रहा हो, जहा भुखमरी से उसकी आधी आबादी जूझ रही हो, जहां मुल्क रोटी के लिए भी किसी और की दया पर आश्रित हो वह किसी दूसरे मुल्क के खिलाफ क्या लडेगा और किस हैसियत से साजिश रचेगा ? यह सच है कि भारत में अनेकों आतंकी गतिविधियों और वारदातों के लिए पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई जिम्मेदार है। यह आईएसआई इतना ताकतवर है कि वह अपने ही मुल्क में समानांतर सरकार है और पाकिस्तानी हकीकत यह है कि वहाँ की सरकार भी आईएसआई के सामने लाचार है। जो वहां हुकूमत कर रहें हैं वे प्यादे हैं और वे उतना भर ही बोलते हैं जितना उनको वहाँ की खुफिया एजेंसी आईएसआई इशारा करती है।
           सवाल यह है कि इस आईएसआई किसने पाला और यह इतनी ताकतवर कैसे बन गयी कि अपने ही देश की सरकार की अघोषित सरकार बन बैठी ? इस आईएसआई को जन्मदेनें वाली अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए है अर्थात अप्रत्यक्ष रूप में आईएसआई अमेरिकी दिशा-निर्देशों पर संचालित पकिस्तान की एक अप्रत्यक्ष सरकार है। उसके पास पकिस्तान की सेना से भी अधिक सामरिक ताकत है जो उसे अमेरिका ने ही बख्शी है। बराक हुसैन ओबामा चाहें कसमें खाकर भारत को अपना स्वाभाविक मित्र बतातें रहें लेकिन हम इतिहास 
को नहीं भूल सकते कि अमेरिका किस तरह हर बढ़ते और ताकतवर बनाते मुल्क का दुश्मन रहा है और 
किस तरह साजिशें रचकर उन्हें तोड़ने, कमजोर करने की चालें चलता रहा है।
        इंदिराजी के साशंकाल तक रूस भाएअत का सबसे विश्वस्त और निकटतम मित्र तथा सहयोगी था। 1971 के बाद भारत-पाक युद्ध के दौरान अमेरिका ने भारत के खिलाफ पाकिस्तान की मदद की लिए
सातवाँ  जहाजी बड़ा भेजने की घोषणा की थी। तब रूस ने धमकी भरे शब्दों में अमेरिका को चेतावनी दी थी कि यदि अमेरिका ने जहाजी बड़ा भेजा तो वह पाकिस्तान पहुचने से पहले ही हिंद महा सागर में डुबो देगा। उस समय रूस और अमेरिका दोनों ही दुनिया की दो महाशक्तियों में कौन ज्यादा ताकतवर है यह तय करना कठिन था इसलिए अमेरिका सातवाँ झाजी बड़ा तो नहीं भेज सका लेकिन भारत और रूस दोनों ही अपना दुश्मन नंबर एक मानने लगा। फिर उसने किस तरह कुचक्र रचकर रूस में गृहयुद्ध के हालात पैदा किये, किस तरह अलगाववादियों को धन और असलहों से मदद देकर रूस के टुकड़े कराये क्या यह किसी से छुपा है ? जिस ओसामा-बिन-लादेन को दुनिया का सबसे बड़ा आतंकी सरगना माना जाता था उसे पैदा करने वाला, उसके लोगों को सैनिक प्रशिक्षण देने वाला, उसे पैसों और हथोयारों से मदद करने वाला तो अमेरिका ही था। जब उसका अमेरिकी हितों के लिए प्रयोजन ख़त्म हो गया और ओसामा खुद अमेरिकी ताकत को चुनौती देने लगा तो अमेरिका ने ही उसे ठिकाने भी लगा दिया।
          1971 में भारत का पक्ष लेकर रूस द्वारा अपमानित किया गया अमेरिका भारत को खुशहाल और समृद्ध तो कभी नहीं देखना चाहेगा। भारत के सिखों में खालिस्तान की परिकल्पना पैदा करने वाला अमेरिका ही था। अलगाववादी सिखों को असलहा, प्रशिक्षण और धन देने वाला अमेरिका था और अमेरिका के भारत विरोधी रुख का इससे बड़ा दूसरा बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि प्रथक खालिस्तान का स्वम्भू नायक जगजीत सिंह आज भी अमेरिका की सरपरस्ती में ऐश की जिन्दगी जी रहा है। फिर भी यदि हमारी सरकार, देश के रहनुमा अमेरिका को भारत का मित्र समझते हैं तो तरस आता है उनकी बुद्धि पर। और यदि वे समझते हुए भी नासमझी का नाटक कर रहे हैं तो वे भी इस देश के खिलाफ हो रही साजिशों में शामिल हैं और देश के गुनाहगार हैं।
           हिन्दुस्तान का मुसलमान यहीं पैदा हुआ , पला- बढ़ा, उसके रिश्ते- नाते , कारोबार सब यहीं हैं। जम्हूरियत में भी देश के सबसे बड़े ओहदे राष्ट्रपति पद पर तक तीन- तीन मुसलमान आसीन रह चुके हैं , फिर मुसलमान इस देश का दुश्मन कैसे हो सकता है ? देश के खिलाफ साजिश का हिस्सा कैसा हो सकता है ? लालची, मौकापरस्त, अपना ईमान बेचनेवाले तो हर कौम में होते हैं। वे हिन्दू भी हो सकते हैं, मुसलमान भी , सिख भी और ईसाई भी। अपने कामों, अपने गुनाहों के लिए करने वाले खुद निजी तौर पर जिम्मेदार और गुनाहगार होते हैं , उनके कामों के प्रति न तो उनकी कौम गुनाहगार मानी जा सकती है और न जवाबदेह। रामजान के महीने में देश के अमन को चुनौती देने वाली जो भी वारदातें हुईं वे यकीनी तौर पर साजिश के तहत हुयी हैं। बदअमनी फैलाने के लिए एस एमएस सन्देश भेजे गए। इन्टरनेट की सोशल साइट्स पर भड़काऊ वीडियो अपलोड
किये गए और देश में विदेशी इशारों पर काम करने वाले उनके एजेंटों ने अपना कारनामा अंजाम दे डाला।
          इतनी बड़ी साजिश अमेरिका जैसा देश ही रच सकता है। वह भारत में भय का वातावरण बनाए रखना चाहता है। कभी खालिस्तानी आन्दोलन को मदद देकर, कभी माओवादियों को परोक्ष हथियारों की मदद पहुंचाकर, कभी आईएसआई के जरिये जम्बू-कश्मीर में आतंकी ज़मातों को असलहा और पैसा भेजकर और कभी सऊदी अरब के माध्यम से अपने भारत स्थिर एजेंटो को हवाला के जरिये पैसा भेजकर अमेरिका भारत विरोधी साजिशों स्व बाज नहीं आ रहा है। शायद सीधे तौर पर अमेरिका सामने आने से बचना चाहता है इसलिए वह सऊदी अरब का भी अपने हक़ में इस्तेमाल कर रहा है। जो हुआ उसके पीछे मीडिया और मुसलमानो के बीच खाई पैदा करने की भी बड़ी साजिश थी, लेकिन देश का आम मुसलमान न तो इस तरह की वारदातों के हक़ में माना जा रहा है और न ही वह जिम्मेदार है। जो लोग फसाद में शामिल थे वे किराए के गुंडे थे, आम मुसलमान नहीं और जो हुया उसके पीछे जमीनी तौर पर अमेरिका और सऊदी अरब की साजिश थी।
         (लेखक- डॉ0 हारिस सिद्दीकी, पेशे से चिकित्सक, सामाजिक कार्यकर्ता, स्तंभकार, तथा जेएमडब्लूए के राष्ट्रीय सचिव हैं।)