सोशल मीडिया अर्थात जनसरोकार की इंटरनेट सामाजिक साइट्स जो आम आदमी की अभिव्यक्ति के लिए खुली हैं। इनके प्रशारण की गति इतनी तीव्र है कि एक क्लिक अर्थात पलक झपकते ही आप देश-दुनिया के कारोनों इंटरनेट यूजर तक अपनी बात पहुंचा सकते हैं। विज्ञान का यह आविष्कार दुनिया भर के लिए किसी वरदान से कम नहीं है। वरदान का उपयोग सार्थक प्रयासों और जनहित के लिए ही होना चाहिए लेकिन वही वरदान यदि किसी गलत प्रवृति के, किसी गलत विकृत मानसिकता के व्यक्ति को प्राप्त हो जाये तो उसके अभिशाप बनने में भी क्षण भर की देरी नहीं लगती। ट्विटर, फेसबुक, आर्कुट, और इंटरनेट की ब्लागर साइट्स किसी वरदान से कम नहीं हैं। आप अपनी बात को, अपने प्रयोजन को, अपने क्रतित्वा को इन साइट्स पर पोस्ट करते ही लाखों लोगों के संपर्क में आ जाते हैं। आपके प्रयास और रचनाधर्म से प्रभावित होकर उन साइट्स पर लाखों लोग आपके समर्थक, प्रशंसक, प्रायोजक और मित्र भी बन सकते हैं। विशेषता यह कि प्रायः ये सारी ही साइट्स आपको निशुल्क सेवाएँ प्रदान करती हैं। बात यहीं तक सीमित नहीं है। यदि आपका खाता चर्चित है, आप ज़्यादा लोगों द्वारा, पढ़े और पसंद किये जा रहे हैं तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियां आपको आपके इंटरनेट अकाउंट पर अपने उत्पाद लगाने की पेशकश भी करती हैं। दुनिया के लाखों ब्लॉगर और सोशल साइट्स यूजर बिना कुछ लागत लगाए घर बैठे ऐसी कम्पनियों के अपने अकाउंट पर विज्ञापन लगाकर उतना कमा रहे हैं, जितना कि एक सरकारी अधिकारी वेतन प्राप्त करता है या उससे ज्यादा भी।
यह सोशल साइट्स का सदुपयोग है। आप कुछ अच्छा कर रहे हैं तो आप चचित, प्रशंसित और लोकप्रिय तो हो ही रहे हैं, धनार्जन भी कर रहे हैं लेकिन इन साइट्स पर विकृत मानसिकता के लोग भी हैं, जो विचारों से खुद तो गंदे हैं ही दूसरों की साइट्स पर भी गन्दगी परोसने से बाज नहीं आते। वे फर्जी नामों से फर्जी अकाउंट बनाते हैं। फर्जी योजनाओं को प्रसारित कर लोगों को ठगते हैं, अफवाहें फैलाकर सामाजिक वातावरण को विषाक्त करते हैं और कई बार तो दूसरे यूजर्स को ब्लेकमेल भी करते हैं। रमजान के महीने में भारत की आर्थिक राजधानी कहे जाने वाले शहर मुम्बई में मीडिया और पुलिसकर्मियों पर उग्र मुस्लिम समुदाय के हिंसात्मक हमले का सच भी वही था कि किन्हीं खुराफाती मानसिकता के लोगों ने सोशल मीडिया साइट्स पर भड़काऊ ख़बरें और वीडियो अपलोड कर एक समुदाय विशेष की भावनाओं को भड़का दिया।
फिर यह आग देश के कई अन्य शहरों में भी दहकी और अलविदा के दिन ठीक ईद के त्यौहार से दो दिन पहले तहजीब का शहर कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ भी उग्रवादियों की हिंसक कार्यवाही से कराह उठी। उग्र भीड़ ने मीडिया वालों पर मारपीट की, उनके कैमरे तोड़ डाले। बात यहीं तक भी सीमित नहीं रही, सार्वाधिक सहिष्णु और शांत माने जाने वाले जैन और बौद्ध धर्म के प्रवर्तकों की मूर्तियों पर ईंट पत्थरों से हमला कर उन्हें अपमानित किया गया। कहा जा रहा है कि इस तरह के हमले के लिए सम्प्रदाय विशेष को भडकानें और उग्र हो उठने के लिए सोशल साइट्स पर प्रसारित की गयी सामग्री ही सबसे अधिक जिम्मेदार है। मुस्लिम समुदाय का शिक्षित तबका ऐसी कार्यवाही का आलोचक है। इसका सीधा सा अर्थ है कि एस प्रकार की उदंडतापूर्ण कार्यवाही में जो भी लोग हिस्सेदारी निभा रहे रहे थे वे अशिक्षित या कम पढ़े-लिखे लोग थे।
संभव है कि उन्होंने या उनमें से कुछ लोगों ने धार्मिक शिक्षा प्राप्त कर रखी हो, जहां आस्था होती है तर्क नहीं। विवेक का इस्तेमाल करने की गुंजाइस नहीं। अर्थात अविवेकी लोगों का तथाकथित धर्मयुद्ध। क्या ऐसी किसी कार्यवाही को धर्मयुद्ध की संज्ञा दी जा सकती है? जो घटनाएं हुईं वो तो आज की साजिशें ही हैं। आज उस पर बहस हो रही है, संभव है कि मुस्लिम समाज का जो तबका आंदोलित हुआ उसे अब भी समझ में न आ रहा हो कि उसका किस मकसद से और किन लोगों ने इस्तेमाल किया। हो सकता है कि वे फिर किसी बहकावे में आयें, फिर किसी साजिश का हिस्सा बनें, क्योंकि अधिशंख्य अशिक्षित मुस्लिम समाज की यह नियति बन चुकी है। वह लगातार साजिशों का शिकार हो रहा है और उसका इस्तेमाल उसके अपने ही धर्मगुरू तथा सियासतबाज़ मिलकर कर रहे हैं।
क्या मुस्लिम समाज की भावनाएं उद्वेलित करने के लिए उस समाज के धर्माचार्यों को धार्मिक स्थलों से तकरीरें देनीं पड़ती थीं और सियासत्बाज़ों को सार्वजनिक मंचों का इस्तेमाल करना पड़ता था। तब भीड़ में तर्क-वितर्क की गुन्जाइश भी होती थी लेकिन अब सोशल साइट्स पर जो भी परोस दिया जाता है, उसे सच मान लिया जा रहा है। वहाँ तर्क और खबर की सच्चाई जानने के मौके भी कम हैं। यही वज़ह है कि अलगाववादी और बाधा उत्पन्न करने वाले लोग उन लोगों को लक्ष्य बनाकर बितन्दावाद फैलाने से बाज़ नहीं आ रहे जो दिन भर की हांडतोड़ मेहनत के बाद बमुश्किल दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर पा रहे हैं।
सोशल साइट्स पर अनर्गल बात सामग्री प्रसारित होने से बचाव के पक्ष में लम्बे अरसे से बहस जारी है। अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्षधर इस खुले मंच पर किसी प्रतिबन्ध के पक्षधर नहीं हैं, लेकिन देश और दुनिया की कई सरकारें उनमें सुधार की वकालत कर रहीं हैं। ऐसी अपनी समझ से कोई बीच का रास्ता निकाला जाना चाहिए ताकि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता भी बरकरार रह सके और अविस्वस्नीय तथा अनर्गल सामग्री को रोका भी जा सके। यह कैसे संभव हो इसके बारे में इंटरनेट तकनीकी के विशेषज्ञ ही कोई उपयुक्त रास्ता सुझा सकते हैं।
(लेखक- हरदोई, उत्तर प्रदेश में जन्में जो पेशे से शिक्षक, प्रखर वक्ता, लेखक, मानवाधिकार तथा सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार हैं। वर्तमान में आप अखिल भारतीय अधिकार संगठन, के राष्ट्रीय महासचिव, दैनिक जनमत न्यूज़ के समाचार सम्पादक, जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन, के राष्ट्रीय सचिव तथा महर्षि गिरधारानंद गुरुकुल ज्ञानस्थली विद्यापीठ, गोमती का दक्षिणी तट, नैमिषारण्य, हरदोई उत्तर प्रदेश के संस्थापक/प्रबंधक हैं।)
(लेखक- हरदोई, उत्तर प्रदेश में जन्में जो पेशे से शिक्षक, प्रखर वक्ता, लेखक, मानवाधिकार तथा सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार हैं। वर्तमान में आप अखिल भारतीय अधिकार संगठन, के राष्ट्रीय महासचिव, दैनिक जनमत न्यूज़ के समाचार सम्पादक, जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन, के राष्ट्रीय सचिव तथा महर्षि गिरधारानंद गुरुकुल ज्ञानस्थली विद्यापीठ, गोमती का दक्षिणी तट, नैमिषारण्य, हरदोई उत्तर प्रदेश के संस्थापक/प्रबंधक हैं।)
No comments:
Post a Comment