दुराचार : व्यवस्था की नाकामी से हुए हालात बेकाबू
लेखक-डॉ अंजना सिंह तथा अतुल कुमार सिंह
समाज तथा सामाजिक संम्स्थाओं ने हमेशा ही अपराध तथा अपराधियों के खिलाफ नकारात्मक रवैया ही अखितियार किया है। प्रत्येक प्रकार का अपराध समाज की स्थाई अस्वीकृति का परिणाम प्राप्त करता है। वहीं जब अपराधों के मध्य तुलनात्मक विश्लेषण किया जाता है तो एकमात्र निर्विवाद तथ्य के साथ यौन हिंसा के तहत होने वाले दुष्कर्म की ओर ही हर उंगली प्रमुखता से उठती है। कामोत्तेजकों द्वारा कारित अपराधों में से दुराचार पतितम अपराधों में सर्वोच्च निकृष्ट कृत्य है। इसमें पीड़ित पक्षकार को न सिर्फ शारीरिक हानि उठानी पड़ती है बल्कि उसकी सामाजिक, मानसिक, धार्मिक, नैतिक और मानवीय हत्या भी की जाती है। उसके साथ उसके अपने भी अपने आपको अपराधी महसूस करते हैं। पीडिता की सामाजिक हत्या की गंभीरता को आज तक न्यायतंत्र या कानूनविद भरपाई करने या सादृश्य सजा का प्रावधान निश्चित नहीं कर पाए हैं। यह पतिततम, घ्रणिततम अपराधों में निर्विवाद रूप से चोटी पर काबिज है। यह घ्रणित अपराधों के भयावाहपन को अधिशासित करता है। इतना ही नहीं यह सम्पूर्ण नारी जाति, स्त्रीत्व तथा मानवता के प्रति एक महान असम्मान है। वैसे तो यह अपराध दुनिया के प्रत्येक देश तथा समाज के हर एक युग में किसी न किसी रूप में विद्दमान रहा है। आज के समय में फर्क सिर्फ इतना आया है कि आज सूचना तकनिकी के इस युग में इस तरह के अपराधों पर त्वरित संज्ञान लेने की मजबूरी भी हावी दिखाई पड़ती है और टीआरपी की प्रतिस्पर्धा में आगे निकलने की जल्दबाजी भी।
सामंतवादी व्यवस्था के अंतर्गत, निर्धनता और निरक्षरता लोगों के लिए अभिशाप थी जिनका तथाकथित समाज के झंडाबरदारों तथा महाराजों द्वारा शोषण इस सीमा तक किया जा सकता था कि उन्हें स्त्रियों को यौन तुष्टि के लिए तथाकथित प्रभुओं के पास भेजने का आदेश भी दिया जा सकता था। इसका अर्थ यह नहीं है कि उस समय विधियां नहीं थीं किन्तु विधियों का उपयोग तब तक नहीं है जब तक लोग इन विधियों की प्रासंगिकता को खुद ही स्वीकार न कर लें। इस प्रकार की प्रवृत्ति अधिकारवादी दृष्टिकोण के कम होने तथा शिक्षा के स्तर में बढ़ोत्तरी होने के कारण कम हो रही है। कुछ दुराचारी वासनात्मक तुष्टि के बाद अपने उत्पीड़ितों की ह्त्या कर देने के अभ्यस्त होते हैं। कुछ लोग चोटी बच्चियों से मित्रता करके उन पर भी लैंगिक हमला करते हैं। प्राचीन काल में भी दुराचार कठोरता से दंडनीय था। वर्तमान काल में भी भारतीय दंड संहिता में इसे क्रूरतम अपराधों की श्रेणी में शीर्ष पर रखा गया है।
दुनिया के सामाजिक खाके पर सबसे सुसंकृत और राजनीतिक मानचित्र पर सबसे म्हाम्तम लोकतंत्र एक अरब इक्कीस करोड़ की जनसंख्या वाले देश में दुराचार सबसे तेजी से बढ़ने वाले अपराधों की श्रेणी में शामिल है। हालांकि दुष्कर्म करने वालों के खिलाफ सजा-ए-मौत तक पर विचार और बहस का बाजार हमेशा से ही गर्म रहा है। वहीं व्यवहारिक और बुनियादी स्तर पर किसी मजबूत और सर्वमान्य नींव का भरान अभी तक शेष पड़ा है। जिसके शिलान्यास से ही सही उक्त आसामाजिक कोढ़ पर काबू पाने की एक ठोस कवायद शुरू की जा सके। हकीकत यह है कि अमूमन एक भारतीय महिला के साथ दुराचार होने की आशंका पिछले २० सालों में दुगुनी को लांघ गई है। वहीं दूसरी और अपराधी को दण्डित किये जाने और न्याय सुलभता की दर नीचे गिरती जा रही है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के तथ्य इस बात की तस्दीक भी करते हैं। जिसका एक सीधा सा मौजू है कि भारत महिलाओं के लिए एक खतरनाक और जोखिमभरा देश बनता बनता जा रहा है। फिर चाहें वह खाप के खौफ में जीते हरियाणा के गाँव हों या फिर तरक्कीपसंद और स्त्रीशक्ति के प्रतीक पश्चिम बंगाल के महानगर हों। दुराचार और यौन उन्पीड़न से सम्बंधित अपराध इन सबके लिए वास्तविक आइना है, वैसे ही जैसे सामाजिक और आर्थिक विपन्नता इस देश की सांस्कृतिक तथा जमीनी वास्तविकता है।
हकीकत इतनी भयावह है कि प्रत्येक २० मिनट में किसी न किसी भारतीय महिला की इज्जत तार तार की जाती है। इन पीडितों में से एक तिहाई अबोध बच्चियां होती हैं। उक्त आंकड़ों का सन्दर्भ २०११ की राष्ट्रीय काइम रिकार्ड ब्यूरो की तत्कालीन रिपोर्ट से भी लिया जा सकता है। न्याय की हालत यह है कि केवल एक मामले में ही सुनवाई हो पाती है उसमे भी वर्षों तक समय खिचता रहता है। पिछले २ दशकों में लंबित मामलों की संख्या में आशातीत इजाफा हुआ है। पहले यह दर ७८ फीसदी थी मौजूदा समय में यह दर अब ८३ फीसदी को भी पार कर गयी है। संस्कृतिनिष्ठता के साथ-साथ दुराचार के मामलों में भी मध्य प्रदेश शीर्ष स्थान पर दर्ज है। वर्ष २०१२ में वहां पर सबसे ज्यादा मामले पंजीकृत किये गए। हरियाणा की स्थिति भी काफी चिंताजनक है वहां पर लगातार इस तरह के मामलों की संख्या बढ़ रही है। इस कड़ी में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली और सबसे बड़ा प्रदेश, उत्तर प्रदेश की हालत भी लगातार पटरी से उतरती जा रही है।
अगर हम आंकड़ों से इतर देखें या सोचें तो राष्ट्रीय क्राइम रिकार्ड ब्यूरो केवल उन मामलों की ही बात करता है जो मामले पुलिस के रजिस्टर में ही उपलब्ध होते हैं। जबकि ऐसी घटनाओं की संख्या इनसे कई गुना ज्यादा है जिनमे पीडिता या तो पुलिस थाणे या न्यायालय के चक्कर में पड़ती ही नहीं है या फिर किसी न किसी दबाव के चलते उसका मामला भी सम्बंधित थाने में पंजीकृत तक नहीं हो पाती है। अधिकांश मामले तो ऐसे भी होते हैं जिनमें तो पुलिस सम्बंधित अपराधी के साथ बराबर की शरीक होती है फी ऐसे मामले में प्राथमिकी दर्ज होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता है। पीड़िता को डरा-धमकाकर, समझा-बुझाकर या सुलहनामा लगाकर पुलिस पीड़िता और उसका साथ देने वालों को बैरंग वापस भेज देती है। कई मामले तो ऐसे भी प्रकाश में आये हैं जिनमें पुलिस भी अपराध्यों से डरी या प्रभावित अथवा संचालित होती है। दुराचार के अधिकतर मामले तो ऐसे होते हैं जिसमे पीड़िता पक्षकार को दारा धमकाकर चुप करा दिया जाता है। वहीं या तो तहकीकात करने वाले ही अपना काम ठीक तरह से अंजाम तक नहीं पहुंचाते, गवाहों और तथ्यों की पड़ताल ठीक तरह से नहीं करते हैं। सुबूतों को जुटाने में भी घोर लापरवाही बरती जा रही है। नतीजा फिर वही ढाक के तीन पात कि ज्यादातर लोग न्याय की उम्मीद में अदालत के दरवाजे पर ही सालों तक अपनी बारी आने का इन्तजार करते रहते हैं। या थककर टूट जाते हैं और मामले को व्यक्तिगत स्तर पर ही निपटाने की रश्म अदाइगी करते हुए औपचारिकता पूरी करते हुए खानापूर्ति कर ली जाती है। मिशाल के तौर पर अगर आंकड़ों पर नजर डाले तो हम पायेंगे कि १९९० में मात्र ४१ फीसदी मामलों में ही अपराधी का अपराध साबित हुआ। ५९ फीसदी मामलों में दोषी को अपराधी साबित कर पाने में न्यायालय को लकवा मार गया। वर्ष २००० में यह सीमा घटकर ३० फीसदी पर आ पहुंची। वहीँ अगर गत वर्ष २०१२ की बात करें तो दर्ज किये गये कुल मामलों की ही सुनवाई हुई जिसमे से एक मामले का अपराधी जेल भेजा गया वहीँ तीन अपराधी सुबूतों और गवाहों की गैरमौजूदगी के चलते न्यायालय से बाइज्जत आराम से रिहा हो गए। गौरतलब बात यह है कि अदालतों से फैसला आने में लगने वाला समय काफी संवेदनशील और महत्वपूर्ण होता है। राष्ट्रीय क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों में १ लाख, २७ हजार पीड़ित दुराचार के मामले में विधिक प्रक्रिया का सामना कर रहे हैं। यह आंकडा इतना बड़ा है कि न्याय की उम्मीद पर सफलता की मुहर इतनी आसानी से नहीं लग सकती है।
वर्ष २०११ में लाडली और किशोरियों के साथ होने वाली इस तरह की घटनाओं पर अगर नजर डालें जिनमें बच्चियां भी शामिल हैं तो इसमें अकेले मध्य प्रदेश में ही १२६२ मामले दर्ज किये गए। वहीं दूसरे पायदान पर रहा उत्तर प्रदेश जिसमे कुल १८८८ अवयस्क बच्चियों की जिन्दगी नर्क बना दी गई।तीसरे नंबर पर रहा महाराष्ट्र जिसमे ८१८ मात्रशक्ति को अपवित्र करने का सफलतम दुस्साहस किया गया। चौथी संख्या हरियाणा की रही जहां ७२३ मामलों में किशोरियों का शीलहरण किया गया। इस तरह आज कामोत्तेजना की उन्मुक्तता देश और भारतीय समाज को लगातार पतन के गर्त में गिराती जा रही है।
और अंत में वर्ष २०१२ की उन घटनाओं पर नजर डालते हैं जिनमें मीडिया जगत के साथ-साथ आम आदमी को भी सोचने पर मजबूर कर दिया है। आज प्रत्येक मां बाप जिसकी बेटी बाहर जाती है जब तक वापस नहीं आ जाती एक अनायाश डर स्थायित्व पकड़ता जा रहा है। ५ फरवरी, २०१२ को कोलकाता के एक पब यानी (आधुनिक सुविधा सम्पन्नता का नया प्रतिमान) में ३७ साल की एक महिला के साथ बन्दूक की नोक पर कई लोगों ने सामूहिक दुष्कर्म को अंजाम दिया। दूसरी शर्मसार करती घटना १३ अप्रैल, २०१२ की है जब देश की राजधानी दिल्ली में एक घर में काम करने वाली सिर्फ १४ साल की एक किशोरी से उसका मालिक घर में ही मुसलसल २ साल तक दुराचार करता रहा। वहीँ १४ जून, २०१२ को पटना में एक स्कूली छात्रा के साथ उसके सहपाठी ने दूसरे सहपाठियों के साथ मिलकर सामूहिक दुष्कर्म किया। इतना ही नहीं उन लोंगो ने उसका एमएमएस भी बनाया गया ताकि उसको ब्लेकमेल किया जाय और भविष्य में भी उसका शारीरिक शोषण किया जाता रहे। १५ जून, २०१२ को कर्नाटक में एक अनहोनी घटती है जब फ्रांसीसी काउंसलेट अधिकारी पास्कल माजुरियर को अपनी सगी साधे तीन साल की बेटी के साथ दुराचार करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। उसकी पत्नी ने खुद उसके खिलाफ पता चलने पर प्राथमिकी दर्ज कराई थी। मौसम ने करवट बदली और बारिश के साथ ही इसका अपराधी ग्राफ भी काफी तेज हो गया। अगस्त महीने में दो बड़ी घटनाओं ने मानवता को शर्मसार किया, जिसमे पहली घटना ९ अगस्त, २०१२ को आर्थिक राजधानी कहे जाने वाले शहर मुम्बई में होती है जिसमें पेशे से अधिवक्ता २५ वर्षीय पल्लवी नामक महिला को उनके बडाला स्थित फ़्लैट में सुरक्षा गार्ड ने ही मार डाला क्योंकि वह पल्लवी के साथ दुष्कर्म करना चाहता था जिसमें वह पल्लवी के विरोध के कारण सफल नहीं हो पा रहा था। वहीं दूसरी घटना ११ अगस्त, २०१२ को फरीदाबाद शहर में घटित हुई जब दिल्ली बोर्ड में कार्यरत २१ वर्षीय युवती के साथ ८ युवाओं ने दुराचार किया। उसे जबरन एक कार के अन्दर उठा लिया गया उसके बाद उसके आबरू की बखिया उधेड़ दी गयी। अगस्त माह को मात देकर सितम्बर आगे निकल गया। इस महीने में चार ऐसी घटनाएं हुईं जिनसे पूरी मानवता कलंकित हो गयी। ९ सितम्बर, २०१२ को हरियाणा में एक १६ वर्षीया दलित किशोरी के साथ सामूहिक दुराचार किया गया। इसका वीडियो बनाकर बड़ी संख्या में लोगों को बांटा गया। इसी इलाके में २१ सितम्बर, २०१२ को दो बच्चों की मां को भी दरिंदों ने नहीं बक्शा हरियाणा में यह केवल सितम्बर, २०१२ की १२वीं घटना थी। वहीं तीसरा मामला २४ सितम्बर, २०१२ का है जब दिल्ली विश्वविद्यालय की दो छात्राओं को नशीला पदार्थ खिलाकर उनके तीन साथियों ने उसको बेआबरू कर डाला। २५ सितम्बर, २०१२ को एक बार फिर कोलकाता में एक १८ माह की एक बची के साथ उसके रिश्तेदार ने दुराचार किया। खून से लथपथ बची उसकी मां को रायद गली में मिली। इस घटना ने मनुष्य की मानसिकता की हवा ही निकाल दी। सबसे ताजी और ह्रदय विदीर्ण कर देने वाली घटना ७ अक्टूबर, अभी थोड़ा बाकि है ................
.......आखिर कब तक पैदा पैदा होती रहेगी दामिनी
इस बिल को छह हफ्तों के अंदर सरकार की मंजूरी मिलना अनिवार्य है। 16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में चलती बस के दौरान छह दरिंदों की दरिंदगी की शिकार बनी दामिनी की रूह आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर यही सोच रही होगी कि आज मुझे इंसाफ मिलना था, लेकिन राजनीति के ठेकेदारों की वजह से मेरी रूह फिर इंसाफ की तलाश में कभी फास्ट ट्रैक कोर्ट तो कभी संसद में भटकती रहेगी।
गृह मंत्रालय सहमति से शारीरिक संबंध बनाने की उम्र 16 वर्ष करने को तैयार है, जिस पर काूनन मंत्रालय को आपत्ति है। क्या सहमति से सैक्स करने पर ऐसी दामिनियां मरने से बच जाएंगी या फिर और इस फैसले से अपनी आबरू लुटाने पर मजबूर होंगी। ये तो आने वाला वक्त ही बता सकता है। सरकार की बनाई जस्टिस वर्मा कमेटी ने इस मसौदे को लेकर 23 फरवरी को अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी। कमेटी की सिफारिशों के आधार पर नए कानून के लिए 3 फरवरी को अध्यादेश भी जारी हो गया था, लेकिन इस बिल पर सरकार के करिंदों को ही एतराज है।
गृह मंत्रालय और कानून मंत्रालय को इस बिल की सिफारिशों में खोट नजर आ रहा है। इस बिल को 7 फरवरी को लिस्ट से आखिर मौके पर हटाना पड़ा। अतंरराष्ट्रीय महिला दिवस पर अगर ये बिल पेश हो जाता, तो दामिनी की रूह को शांति मिल जानी थी। महिला दिवस पर हम उस शक्तिशाली युवती को सलाम करते हैं और पंजाब केसरी ग्रुप नारी दिवस पर प्रत्येक नारी से ये वादा भी करता है कि दब रही नारी शक्ति की यह ग्रुप आवाज बनेगा। आज हम उन महान नारियों को भी नम्र करते हैं जिन्होंने राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए खुद का वजूद तक मिटा दिया। आज हम कुछ हस्तियों के नाम आपके समक्ष ला रहे हैं जिन्होंने घना अंधेरा होते भी एक लो जलाई और नारी जाति के समक्ष प्रमाण के रूप में पेश हुईं। इनमें किरण बेदी, अमृत बराड़, सुमन गुर्जर(एडीशनल एसपी) सांगवान, भावना राणा (समुद्री सीमा चौकसी) प्रमुख हैं। जिन्होंने अपने मजबूत इरादों से अपनी जगह बनाई है।
भारत सरकार के ही आंकड़े करते हैं तस्दीक थॉमसन एंड रायटर्स ने भारत में महिलाओं के अधिकारों पर शोध करने वाले 213 लोगों से बातचीत के आधार पर और भारत सरकार के आंकड़ों के हवाले से ये अध्ययन किया रिपोर्ट दी। शोध में यह पाया गया कि मानव तस्करी और कन्या भ्रूण हत्या के कारण भारत महिलाओं के लिए विश्व का सबसे चौथा असुरक्षित देश है। इस फेहरिस्त में सबसे पहले स्थान पर अफगानिस्तान है। अफ्रीकी देश कांगो महिलाओं के लिए दूसरा सबसे खतरनाक स्थान है। इस सूची में तीसरे नंबर पर पाकिस्तान है, भारत के बाद सोमालिया ऐसा देश है, जहां महिलाओं की स्थिती अच्छी नहीं है। इस शोध में पांच मुद्दों को ध्यान में रखा गया है और महिलाओं के स्वास्थ्य, शोषण, संस्कृति, यौन हिंसा, हिंसा और मानव तस्करी से जुड़े सवाल पूछे गए थे।
मानव तस्करी में तो सबसे बदतर संस्कृति और धर्म के मुद्दे पर 13 प्रतिशत लोगों ने भारत को महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश माना। 12 प्रतिशत लोगों ने माना की मानव तस्करी के कारण भारत की यह स्थिती है। 7 प्रतिशत लोगों का मानना था कि भारत में महिलाओं का स्वास्थ्य चिंतनीय है। 8 प्रतिशत लोगों ने माना कि भारत में महिलाएं काफी ज्यादा हिंसा का शिकार हो जाती है। वहीं 4 प्रतिशत लोगों का कहना था कि भारत की यह स्थिती महिलाओं के यौन शोषण के कारण हुई है। दूसरी ओर शोध के नतीज यह भी बताते हैं कि मानव तस्करी में कुछ लोग भारत को पाकिस्तान और सोमालिया से भी बदतर बताते हैं। 12 प्रतिशत लोगों ने माना कि भारत में मानव तस्करी सबसे ज्यादा हो रही है, जबकि पाकिस्तान, कांगो के लिए ऐसा सोचने वाले सिर्फ 3 प्रतिशत लोग थे।
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