Wednesday, 3 July 2013
प्रदेश की चौपट यातायात व्यवस्था गंभीर समस्या
प्रदेश की चौपट यातायात व्यवस्था गंभीर समस्या
वीआईपी मूवमेंट के दौरान तो सूने रहते हैं तमाम चौराहे
कछुवा चाल से चल रहे हैं यातायात व्यवस्था को सुधारने के प्रयास
अतुल मोहन सिंह
लखनऊ। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ 15 लाख वाहनों की भारी भरकम संख्या और यातायात नियंत्रण के लिए मात्र चार सौ से कम यातायात पुलिसकर्मी। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजधानी की यातायात व्यवस्था क्यों नहीं चौपट होगी। दरअसल, यातायात और शहर में वाहनों के प्रयोग की संख्या तो अपने वेग से ही बढ़ रही है लेकिन यातायात नियंत्रण की व्यवस्था किस वेग से चल रही है यह सुनकर भी आश्चर्य हो जाता है। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि सरकार ने राजधानी लखनऊ समेत सूबे की यातायात व्यवस्था को सुधारने का प्रयास नहीं किया है, लेकिन जो भी प्रयास हुए हैं वे कछुवा चाल से चल रहे हैं। इससे जनता को भारी समस्या का सामना करना पड़ रहा है।
दरअसल, कमी के चलते लगभग आधे शहर में ट्रैफिक पुलिसकर्मियों की ड्यूटी लग ही नहीं पाती है। जहां लगती है, वहां से कर्मियों को वीआईपी मूवमेंट के मद्देनजर हटना पड़ता है। यातायात व्यवस्था सुगम बनाने के लिए हर साल तमाम योजनाएं बनाई जाती हैं, लेकिन धरातल पर आने से पहले ही ये योजनाएं दाखिल दफ्तर हो जाती हैं। इसकी बड़ी वजह चाक चौबंद ट्रैफिक व्यवस्था के जिम्मेदार विभागों के बीच आपसी तालमेल न होना है। अशोक मार्ग पर अस्थाई बैरीकेडिंग, शहीद पथ पर बदहाल डिवाइडर और जानलेवा कट तालमेल के अभाव को दर्शाते हैं। कागजी कार्रवाई खूब हुई, लेकिन मुख्य मार्गों से कट ही स्थाई रूप से बंद कराए गए न ही शहीद पथ पर खतरनाक मोड़ व डिवाइडर ठीक हो पाए। इसके लिए ट्रैफिक पुलिस राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण का दायित्व बताती है तो राजधानी में मुख्य मार्गों पर स्थाई रूप से डिवाइडर बंद करने के लिए लोक निर्माण विभाग। बदरंग हो चुकी जेब्रा लाइनों और पीली पट्टी की जिम्मेदारी नगर निगम पर डाल दी जाती है। सिग्नल के लिए भी ट्रैफिक पुलिस नगर निगम पर ही आश्रित रहती है। नतीजा यह है कि राजधानी में ट्रैफिक जाम की समस्या लगातार बढ़ती जा रही है। रही सही कसर मुख्य मार्गों पर बिना पार्किंग के बन रहे व्यावसायिक भवनों से पूरी हो जाती है। ट्रैफिक पुलिस अधिकारी इसके लिए राजधानी क्षेत्र के विस्तार के सापेक्ष में कर्मचारी व संसाधनों की अनुपलब्धता को कारण मानते हैं। इसके अलावा राजधानी में कई जगहों पर फ्लाई ओवर बनने के कारण भी कई मार्गों पर डायवर्जन के कारण ट्रैफिक लोड बढ़ गया है जिससे जाम की समस्या पैदा हो रही है। वीआइपी मूवमेंट के चलते उपलब्ध कर्मचारियों का बीस फीसद हिस्सा उसी में लग जाता हैं, और जिन स्थानों पर अन्य पुलिसकर्मियों की ड्यूटी लग भी जाती है, वहां पर कर्मचारी नहीं दिखते।
उल्लेखनीय है कि सरकार ने यातायात सुधार के लिए गाजियाबाद, लखनऊ और आगरा के लिए शासन ने 22.50 करोड़ रुपए दिए। राजधानी के चौराहों पर 70 सीसीटीवी कैमरे लगाने का फैसला हुआ। इसके लिए चार महीने का मौका दिया गया। अवधि बीत गई। फिर मार्च 2013 तक की अंतिम अवधि तय की गई, फिर भी बात नहीं बनी। अब नए सिरे से एक निजी कंपनी से समझौता किया गया है। 70 की बजाय 100 चौराहों पर सीसीटीवी कैमरे लगने की बात कही जा रही है। योजना कब पूरी होगी, यह किसी को पता नहीं है। शहरों में बढ़ रही भारी भीड़, नियोजित योजनाओं का अभाव, अतिक्रमण और यातायात पुलिसकर्मियों के कार्य-संस्कार में कमी ने पूरी व्यवस्था चौपट कर दिया है। महानगर के साथ छोटे शहरों के लिए जो भी यातायात योजनाएं बनाई गई हैं वे आज बेकार हो चुकी हैं।
यातायात को नियंत्रित करने के लिए यातायात पुलिसकर्मियों की संख्या ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। अभी यातायात विभाग में अधिकारियों से लेकर सिपाहियों तक कुल संख्या 3600 है, जबकि दो साल पहले से यातायात निदेशालय ने व्यवस्था में सुधार के लिए 86 टैªफिक इंस्पेक्टर, 1056 ट्रैफिक सब इंस्पेक्टर, 3500 हेड कांस्टेबिल और 8000 कांस्टेबिल मांगे हैं, लेकिन यातायात विभाग के उस प्रस्ताव पर आज तक कोई फैसला नहीं हो सका। 35 हजार पुलिस कर्मियों की भर्ती होने के बाद दिक्कत दूर करने का दावा है, लेकिन सच यह भी कि पिछली बार भर्ती होने के बावजूद यातायात विभाग को पुलिसकर्मी नहीं मिल सके। वजह यहां लोग आना ही नहीं चाहते हैं।
सूबे में प्रतिवर्ष साढ़े आठ से नौ लाख वाहनों का पंजीकरण हो रहा है, लेकिन पार्किंग की चुनौती जस की तस है। पिछली बसपा सरकार में प्रदेश के महानगरों में बहुमंजिला पार्किंग की योजना बनी, वह भी अपना स्वरूप नहीं पा सकी। अगर लखनऊ और गाजियाबाद जैसे महानगरों की बात छोड़ दें तो योजना बनने के बावजूद सूबे के कई बड़े जिलों में पार्किंग का कार्य शुरू नहीं हो सका। राज्य के अधिकांश शहरों में वाहन पार्किंग सड़कों पर ही होती है। राजधानी के हजरतगंज जैसे व्यस्ततम इलाके में भी सड़क पर ही वाहन खड़ा कर खरीददारी करते देखा जा सकता है। खास बात यह कि महानगरों में फुटपाथ भी खाली नहीं रह गए हैं। ऊपर से आटो चालक भी अपनी सवारियां भरने और उतारने के लिए कुछ मिनटों तक इन चौराहों को अपनी ही जागीर समझते हैं।
यातायात में सुधार के लिए सम्बंधित विभागों के अधिकारियों-कर्मचारियों की माह दो माह में एक बार जुटान जरूर होती है। कभी मुख्य सचिव स्तर पर तो कभी डीजीपी स्तर पर। मगर यह भी सच है कि इन बैठकों से बाहर निकलते ही सभी विभागों का समन्वय टूट जाता है। यातायात व्यवस्था में सुधार की धुरी नगर निगम, पीडब्लूडी व पुलिस के समन्वय पर टिकी है, लेकिन कभी यातायात सुधारने के लिए इन विभागों ने साझा पहल नहीं की। सूबे में ट्रैफिक सिग्नल काम नहीं करते हैं। राष्ट्रीय राजमार्गो और कुछ बड़े महानगरों की बात छोड़ दें तो बाकी सड़कों से अधिकारियों ने मुंह मोड़ लिया है। यहां बड़े-बड़े महानगरों में भी न ट्रैफिक संकेत है और न ही फुट ओवरब्रिज। लखनऊ में चारबाग और पालिटेक्निक चौराहे जैसे स्थानों पर फुट ओवरब्रिज बने भी तो एस्केलेटर की व्यवस्था नहीं की गयी। ऐसे में बहुत से लोग सीढ़ी चढ़ने की बजाय सड़क पार करना ही मुनासिब समझते हैं। इससे भी काफी अवरोध उत्पन्न होता है। यहां पर आपात सेवा भी नहीं है। विभाग के पास 50 एंबुलेंस है, जिसे हाइवे पर खड़ा करते हैं।
इस संबंध में यातायात के अपर पुलिस महानिदेशक ए.के.धर द्विवेदी ने बताया कि हमारे लिए कम संसाधन में बेहतर काम की चुनौती है। लगातार प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित कर इन कर्मचारियों को गुणवत्ता परक व्यवस्था स्थापित करने की सीख दी जा रही है। सरकार ने जो भी योजनाएं बनाई हैं, उसे पूरा करने की कोशिश जारी है। हमारे कई कार्यक्रम प्रस्तावित हैं। इनके पूरा होने से व्यवस्था में निश्चित रूप से सुधार होगा।
चरमरायी यातायात व्यवस्था और उसके निदान के लिए सरकार द्वारा की जा रही पहल समेत तमाम बिन्दुओं पर यदि नज़र डाली जाये तो ऐसा भी नहीं है कि सरकार इस समस्या पर गंभीर नहीं है। और होगी भी क्यों नहीं, आखिर उसे भी तो अपनी लम्बी चौड़ी फौज के साद यातायात का हिस्सा बनकर तमाम समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है। यही कारण है कि सूबे में यातायात को बेहतर बनाने के लिए सोमवार को चार दिवसीय यातायात उपकरण प्रशिक्षण कार्यक्रम की शुरूआत की गयी है। इस कार्यक्रम का उद्घाटन भी प्रदेश के डीजीपी देवराज नागर ने किया है। एडीजी ट्रैफिक एकेडी द्विवेदी का कहना है कि यातायात विभाग में पीएसी और आर्म्ड पुलिस से लोग आते हैं। इन लोगों को यातायात विभाग के पास मौजूद उपकरणों की जानकारी नहीं होती है। ऐसे लोगों को यातायात विभाग के पास मौजूद उपकरणों का प्रशिक्षण देना बहुत जरुरी है।
प्रशिक्षण कार्यक्रम में मौजूद डीजीपी देवराज नागर ने भी लगे हाथ इस मौके पर यातायात विभाग में तैनात पुलिस कर्मियों को वसूली न करने की हिदायत दी है। साथ ही यह आदेश भी दिया है कि नियम का उल्लघन करने वाला चाहे जो हो उसका चालान किया जाये। डीजीपी ने स्कूल में छात्र-छात्राओं को यातायात नियमों की जानकारी के लिए जागरूक करने पर भी बल दिया है।
सेकुलर बुद्धिजीवी गैंग का उतरता नकाब
सेकुलर बुद्धिजीवी गैंग का उतरता नकाब
अतुल मोहन सिंह
हाल ही में अमेरिका ने दो आईएसआई एजेंटों गुलाम नबी फाई और उसके एक साथी को गिरफ्तार किया। ये दोनों पाकिस्तान से रूपये लेकर पूरे विश्व में कश्मीर मामले पर पाकिस्तान के लिए लॉबिंग और सेमिनार आयोजित करते थे। इसमें होने वाले तमाम खर्चों का आदान प्रदान हवाला के जरिये होता था। इन सेमिनारों में बोलने वाले वक्ताओ और सेलिब्रिटीज को खूब पैसे दिए जाते थे। ये एजेंट उनको भारी धनराशि देकर कश्मीर पर पाकिस्तान का पक्ष मजबूत करते थे। अमेरिका ने उनसे पूछताछ के बाद उनके भारतीय दलालों के नाम भारत सरकार को बताए हैं। इन भारतीय "दलालों" के नाम सुनकर भारत सरकार के हाथ पांव फ़ूल गए हैं, ना तो भारत सरकार में इतनी हिम्मत है कि इन देशद्रोहियों को गिरफ्तार करे और ना ही इतनी हिम्मत है कि इन दलालों पर रोक लगाये। जो हिम्मत कांग्रेस ने रामलीला मैदान में दिखाई थी, वही हिम्मत इन दलालो को गिरफ्तार करने में नहीं दिखाई जा सकती, क्योंकि ये लोग बेहद “प्रभावशाली” हैं।
पहले जरा आप उन तथाकथित बुद्धिजीवियों, सफेदपोशो एवं परजीवियों"के नाम जान लीजिए जो आईएसआई से पैसे लेकर भारत में कश्मीर, मानवाधिकार, नक्सलवाद इत्यादि पर सेमिनारों में भाषणबाजी किया करते थे। ये लोग पैसे के आगे इतने अंधे थे कि इन्होंने कभी यह जाँचने की कोशिश भी नहीं की, कि इन सेमिनारों को आयोजित करने वाले, इनके हवाई जहाजों के टिकट और होटलों के खर्चे उठाने वाले लोग कौन हैं, इनके क्या मंसूबे हैं। इन लोगों को कश्मीर पर पाकिस्तान का पक्ष लेने में भी जरा भी संकोच नहीं होता था। हो सकता है कि इन महानुभावों में से एक-दो, को यह पता न हो कि इन सेमिनारों में आईएसआई का पैसा लगा है और गुलाम नबी फ़ई एक पाकिस्तानी एजेण्ट है लेकिन ये इतने विद्वान तो हैं ना कि इन्हें यह निश्चित ही पता होगा कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। तब भी ऐसे देशद्रोही प्रायोजित सेमिनारों में ये लोग लगातार कश्मीर के "पत्थर-फ़ेंकुओं" के प्रति सहानुभूति जताते रहते, कश्मीर के आतंकवाद को "भटके हुए नौजवानों" की करतूत बताते एवं बस्तर व झारखण्ड के जंगलों में एके 47 खरीदने लायक औकात रखने वाले, एवं अवैध खनन एवं ठेकेदारों से "रंगदारी" वसूलने वाले नक्सलियों को "गरीब", "सताया हुआ", "शोषित आदिवासी" बताते रहे और यह सब रुदालियाँ वे अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर गाते थे।
लेखक और संपादक कुलदीप नैयर :-
(पाकिस्तान को लेकर हमेशा नॉस्टैल्जिक मूड में रहने वाले "महान" पत्रकार)। इन साहब को 1947 से ही लगता रहा है कि पाकिस्तान भारत का छोटा "शैतान" भाई है, जो कभी न कभी "बड़े भाई" से सुलह कर लेगा और प्यार-मोहब्बत से रहेगा।स्वामी अग्निवेश :-
महंगे होटलों में ठहरते हैं। हवाई जहाज में सफ़र करते हैं। कश्मीर नीति पर हमेशा भारत-विरोधी सुर अलापते हैं। नक्सलवादियों और सरकार के बीच हमेशा "दलाल" की भूमिका में दिखते हैं।
दिलीप पडगांवकर :-
(कश्मीर समस्या के हल हेतु मनमोहन सिंह द्वारा नियुक्त विशेष समिति के अध्यक्ष) यह साहब अपने बयान में फ़रमाते हैं कि मुझे पता नहीं था कि गुलाम नबी फ़ाई आईएसआई का मोहरा है। अब इन पर लानत भेजने के अलावा और क्या किया जाए? टाइम्स ऑफ़ इण्डिया जैसे "प्रतिष्ठित" अखबार के सम्पादक को यह नहीं पता तो किसे पता होगा? वह भी उस स्थिति में जबकि टाइम्स अखबार में आईएसआई कश्मीरी आतंकवादियों और केएसी (कश्मीर अमेरिकन सेण्टर) के "संदिग्ध रिश्तों" के बारे में हजारों पेज सामग्री छप चुकी है। क्या पडगाँवकर साहब अपना ही अखबार नहीं पढ़ते?
मीरवाइज उमर फारूक-
ये तो घोषित रूप से भारत विरोधी हैं, इसलिए ये तो ऐसे सेमिनारों में रहेंगे ही, हालांकि इन्हें भारतीय पासपोर्ट पर यात्रा करने में शर्म नहीं आती।
राजेंद्र सच्चर :-
ये सज्जन ही "सच्चर कमिटी" के चीफ है, जिन्होंने एक तरह से ये पूरा देश मुसलमानों को देने की सिफ़ारिश की है। अब पता चला कि गुलाम फ़ई के ऐसे सेमिनारों और कान्फ़्रेंसों में जा-जाकर ही इनकी यह "हालत" हुई।
पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता गौतम नवलखा-
"सो-कॉल्ड" सेकुलरिज़्म के एक और झण्डाबरदार। जिन्हें भारत का सत्ता-तंत्र और केन्द्रीय शासन पसन्द नहीं है। ये साहब अक्सर अरुंधती रॉय के साथ विभिन्न सेमिनारों में दुनिया को बताते फ़िरते हैं कि कैसे दिल्ली की सरकार कश्मीर, नागालैण्ड, मणिपुर इत्यादि जगहों पर "अत्याचार" कर रही है। ये साहब चाहते हैं कि पूरा भारत माओवादियों के कब्जे में आ जाए तो "स्वर्ग" बन जाए। कश्मीर पर कोई सेमिनार गुलाम नबी फ़ई आयोजित करें। भारत को गरियाएं और दुनिया के सामने "रोना-धोना" करें तो वहाँ नवलखा-अरुंधती की उपस्थिति अनिवार्य हो जाती है।
यासीन मालिक :-
आईएसआई का सेमिनार हो, पाकिस्तान का गुणगान हो, कश्मीर की बात हो और उसमें यासीन मलिक न जाए, ऐसा कैसे हो सकता है? ये साहब तो भारत सरकार की "मेहरबानी" से ठेठ दिल्ली में, फ़ाइव स्टार होटलों में पत्रकार वार्ता करके, सरकार की नाक के नीचे आकर गरिया जाते हैं और भारत सरकार सिर्फ़ हें-हें-हें-हें करके रह जाती है।
तात्पर्य यह है कि ऊपर उल्लिखित "महानुभावों" के अलावा भी ऐसे कई "चेहरे" हैं जो सरेआम भारत सरकार की विदेश नीतियों के खिलाफ़ बोलते रहते हैं। परन्तु अब जबकि अमेरिका ने इस राज़ का पर्दाफ़ाश कर दिया है तथा गिरफ़्तार करके बताया कि गुलाम नबी फ़ाई को पाकिस्तान से प्रतिवर्ष लगभग पाँच से सात लाख डॉलर प्राप्त होते थे जिसका एक बड़ा हिस्सा अमेरिकी सांसदों को खरीदने, कश्मीर पर पाकिस्तानी "राग" अलापने और "विद्वानों" की आवभगत में खर्च किया जाता था। भारत के ये तथाकथित बुद्धिजीवी और “थिंक टैंक” कहे जाने वाले महानुभाव यूरोप-अमेरिका घूमने, फ़ाइव स्टार होटलों के मजे लेने और गुलाम नबी फ़ई की आवभगत के ऐसे “आदी” हो चुके थे कि देश के इन लगभग सभी “बड़े नामों” को कश्मीर पर बोलना जरूरी लगने लगा था। इन सभी महानुभावों को "अमन की आशा" का हिस्सा बनने में मजा आता है, गाँधी की तर्ज पर शान्ति के ये पैरोकार चाहते हैं कि, "एक शहर में बम विस्फ़ोट होने पर हमें दूसरा शहर आगे कर देना चाहिए।
ऊपर तो चन्द नाम ही गिनाए गये हैं, जबकि गुलाम नबी फ़ई के सेमिनारों, कान्फ़्रेंसों और गोष्ठियों में जाने वालों की लिस्ट दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है, कश्मीर में मानवाधिकार के उल्लंघन और भारत-पाकिस्तान के बीच “शान्ति” की खोज करने वालों में हरीश खरे (प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार), रीता मनचन्दा, वेद भसीन (कश्मीर टाइम्स के प्रमुख), हरिन्दर बवेजा (हेडलाइन्स टुडे), प्रफ़ुल्ल बिदवई (वरिष्ठ पत्रकार), अंगना चटर्जी, कमल मित्रा के अलावा संदीप पाण्डेय, अखिला रमन जैसे एक से बढ़कर एक “बुद्धिजीवी” शामिल हैं। चिंता की बात यह है कि इन्हीं में से अधिकतर बुद्धिजीवी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन-२ की नीतियों, विदेश नीतियों, कश्मीर निर्णयों को प्रभावित करते हैं। इन्हीं में से अधिकांश बुद्धिजीवी, हमें सेकुलरिज़्म और साम्प्रदायिकता का मतलब समझाते नज़र आते हैं, इन्हीं बुद्धिजीवियों के लगुए-भगुए अक्सर हिन्दुत्व और नरेन्द्र मोदी को गरियाते मिल जाएंगे, लेकिन पिछले दस साल में कश्मीर को “विवादित क्षेत्र” के रूप में प्रचारित करने में, भारतीय सेना के बलिदानों को नज़रअंदाज़ करके अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर बार-बार सेना के “कथित दमन” को हाइलाईट करने में यह गैंग सदा आगे रही है। ये वही “गैंग” है जिसे कश्मीर के विस्थापित पंडितों से ज्यादा फ़िलीस्तीन के मुसलमानों की चिन्ता रहती है।
इनके अलावा जेएनयू एवं कश्मीर विश्वविद्यालय के कई प्रोफ़ेसर भी गुलाम नबी फ़ई द्वारा आयोजित मजमों में शामिल हो चुके हैं। अमेरिकी सरकार एवं एफबीआई का कहना है कि गुलाम नबी के आईएसआई सम्बन्धों पर पिछले तीन साल से निगाह रखी जा रही थी, ऐसे में सवाल उठता है कि क्या अमेरिकी सरकार ने भारत सरकार से यह सूचना शेयर की थी? मान लें कि भारत सरकार को यह सूचना थी कि फ़ई पाकिस्तानी एजेण्ट है तो फ़िर सरकार ने “शासकीय सेवकों” यानी जेएनयू और अन्य विवि के प्रोफ़ेसरों को ऐसे सेमिनारों में विदेश जाने की अनुमति कैसे और क्यों दी? बुरका हसीब दत्त, वीर संघवी तथा हेंहेंहेंहेंहेंहें उर्फ़ प्रभु चावला जैसे लोग तो पहले ही नीरा राडिया केस में बेनकाब हो चुके हैं, अब गुलाम नबी फ़ई मामले में भारत के दूसरे “जैश-ए-सेकुलर पत्रकार” भी बेनकाब हो रहे हैं।
यदि देश में काम कर रहे विभिन्न संदिग्ध स्वयंसेवी संगठनों के साथ-साथ “स्वघोषित एवं बड़े-बड़े नामों” से सुसज्जित स्वयंसेवी संगठनों जैसे एआईडी, एफओआईएल, एफओएसए, आईएमयूएसए की गम्भीरता से जाँच की जाए तो भारत के ये “लश्कर-ए-बुद्धिजीवी” भी नंगे हो जाएंगे। ये बात और है कि पद्मश्री, पद्मभूषण आदि पुरस्कारों की लाइन में यही चेहरे आगे-आगे दिखेंगे।
Saturday, 22 June 2013
साम्प्रदायिकता: मोदी बनाम गांधी परिवार
अतुल मोहन सिंह
अगर मोदी के हाथ खून से रंगे है तो क्या मोहनदास करमचंद गाँधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, जिन्ना, राजीव गांधी और कांग्रेस के हाथ दूध से रंगे थे ? इन साम्प्रदायिकों के बारे में आप लोगो का क्या सोचना है ?
इस गंभीर बहस के सिंहावलोकन के लिए हमें इतिहास के पन्नों को पलटने की जरूरत है। सनद रहे कि जुलाई, 1946 में मंत्रिमंडलीय मिशन योजना के अनुसार भारत में चुनाव हुए और 2 सितम्बर, 1946 को नेहरू ने अंतरिम सरकार का गठन किया और 26 अक्टूबर, 1946 को मुस्लिम लीग भी सरकार में शामिल हो गयी, लेकिन इससे पहले ही 16 अगस्त, 1946 को मुसलिम लीग ने अलग पाकिस्तान की मांग के लिए सीधी कार्यवाही दिवस मनाया और देश में सांप्रदायिक दंगों की शुरुआत नोवाखली (वर्तमान बांग्लादेश) से हुआ और 1948 के अंत तक लगभग पांच लाख लोग मारे गये। उस समय नेहरू और जिन्ना की टीम देश के अन्तरिम सरकार का नेतृत्व कर रही थी तो क्या दंगे में मारे गए पांच लाख के मौत के जिम्मेदार नेहरू और जिन्ना थे। यदि नहीं तो फिर गुज़रात दंगे के लिए मोदी क्यों ? उस समय गाँधी की मर्ज़ी के बिना देश में एक पत्ता भी नहीं हिलता था फिर दंगों के लिए गाँधी कितना जिम्मेदार थे ? और गाँधी दंगा रोक पाने में क्यों नहीं कामयाब हुए ? तो क्या गाँधी सांप्रदायिक थे ? यदि नहीं तो दंगा न रोक पाने के लिए मोदी सांप्रदायिक कैसे ?
इंदिरा और नेहरू की हत्या के बाद सिख विरोधी दंगे कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने किये और चालीस हज़ार सिख मारे गए। यह न भूलें कि दंगे सिख, हिन्दू या मुस्लमान के बीच नहीं हुए थे बल्कि यह सीधे तौर पर कांग्रेस पार्टी द्वारा किया गया सिक्खों का स्वतंत्रता के बाद का सबसे बड़ा नर संहार था। तो क्यों नहीं इसके लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और पंडित नेहरू को जिम्मेदार ठहराया गया। सिर्फ मोदी को ही क्यों गुजरात दंगों के लिए बतौर कातिल के रूप में प्रस्तुत करने की बार-बार घटिया हरकतें की जा रही हैं।
अभी हाल ही में ह्रदयविदीर्ण कर देने वाले असम दंगे के लिए मुख्यमंत्री तरुण गोगोई, कांग्रेस और सोनिया गांधी की जिम्मेदार कब तक तय होगी जिसमें हजारों लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। आज़ादी से लेकर आज तक सैकड़ों दंगों में लाखों लोगों की जान कांग्रेस के शासनकाल में ही गयी है लेकिन अभी तक कोई जिम्मेदारी तक तय नहीं की जा सकी है। वहीं हमेशा मंच और भाषण में यही लोग सबसे बड़े सेक्युलर कहलाते हैं। आखिर उनकी इस छद्म धर्मनिरपेक्षता का कोरा राग और कितने दंगों की जमीन तैयार करेगा।
जहां तक सवाल गुज़रात में हुए दंगों का है, जिसमे ८०० मुसलमान और ३०० हिन्दू मारे गए थे। जिसके लिए सिर्फ नरेन्द्र मोदी को ही क्यों जिम्मेदार ठहराया जा रहा है ? और बतौर मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को मानवता का दुश्मन, घोर सांप्रदायिक और न जाने क्या-क्या कहा जाने लगा। हम मानते हैं कि इस देश में जिस तरह की राजनीतिक संस्कृति विकसित हो रही है ऐसे हालातों में दंगों के लिए एक व्यक्ति जिम्मेदार नहीं हो सकता है बल्कि जाति और धर्म की घटिया राज़नीति जिम्मेदार है। समाज में तह तक व्याप्त कट्टरपंथी सोच व ताकतें काम कर रही हैं। जिन्हें राज़नीतिक दल अपने फायदे के लिए संरक्षण देते हैं।
आज़ादी से आज तक हुए दंगों को याद करके हिन्दू और मुसलमान आपस में सिर्फ नफ़रत ही बाँट सकते हैं और राज़नीतिक दल यही चाहते भी हैं। दंगों पर आधारित मोदी विरोध खुद में एक घोर सांप्रदायिक विचारधारा है। जिसका प्रचार कांग्रेस, सपा, बसपा और तमाम तथाकथित सेकुलर दल रहे हैं।
वास्तव में मोदी विरोध विकास विरोध जैसा है, और विकास विरोध राष्ट्र विरोध जैसा होता है। आगे का फैसला इस देश के उन तमाम बुद्धिजीवी मतदाताओं को करना है कि देश को सोनिया गांधी चाहिए या नरेन्द्र मोदी।
क्षत्रियों से भाजपा को मिल सकती है संजीवनी
क्षत्रियों से भाजपा को मिल सकती है संजीवनी
ठाकुर लॉबी दे सकती है मुलायम को झटका!
अतुल मोहन सिंह
लखनऊ। उत्तर प्रदेश की सियासी ‘पिच’ पर राजनीति पल-पल करवट बदल रही है। सियासी उठापटक तथा सह और मात के इस खेल में इस बार बाजी भारतीय जनता पार्टी के हाथों में लगने की उम्मीद जताई जा रही है। इसके पीछे उत्तर प्रदेश के जातीय समीकरणों और समाजवादी पार्टी से लगातार खुद को उपेक्षित महसूस करने के चलते क्षत्रिय लॉबी एक बार फिर से गोलबंद होने की कोशिश कर रही है। इस बार समाजवादी पार्टी के क्षत्रिय नेता कुंडा से विधायक और प्रदेश सरकार में कई बार मंत्री रह चुके रघुराज प्रताप सिंह राजा भैया के नेतृत्व में मुलायम को जोर का झटका धीरे से दे सकती है।
सपा सरकार द्वारा मुसलमानों को जरूरत से ज्यादा दी जा रही अहमियत के बीच अंदरखाने अब यह भी चर्चा जोर पकड़ रही है कि विधानसभा चुनाव के दौरान मुलायम सिंह के साथ खड़ी दिखने वाली उत्तर प्रदेश की क्षत्रिय लॉबी आम चुनाव से पहले मुलायम से किनारा कर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का दामन पकड़ सकती है।
दरअसल, उत्तर प्रदेश की क्षत्रिय लॉबी को लगता है कि सपा सरकार में मुसलमानों के आगे अब उनकी पूछ नहीं रह गई है। कुंडा में हुए जियाउल हत्याकांड के बाद क्षत्रिय नेताओं के सरताज माने जाने वाले पूर्व मंत्री राजा भैया के खिलाफ जिस तरह से सूबे के एक कद्दावर मुस्लिम मंत्री ने क्षत्रियों के खिलाफ मोर्चा खोला था और उसके बाद अखिलेश सरकार ने बैकफुट पर आते हुए राजा भैया पर दबाव बनाकर जिस तरह से इस्तीफा दिलवाया, उससे यह लॉबी बेहद आहत है।
राजा भैया लगातार अपनी बेकसूरी का हवाला देते रहे लेकिन मुस्लिम तुष्टीकरण नीति के आगे सपा सरकार ने राजा भैया की एक न सुनी। सीबीआई जांच में भी हालांकि अब यह बात धीरे-धीरे निकल कर सामने आ रही है कि राजा भैया निर्दोष हैं।
मुलायम और अखिलेश के इस रवैये से खुन्नस खाई क्षत्रिय लॉबी आम चुनाव से पहले मुलायम को तगड़ा झटका दे सकती है।
सूत्रों के मुताबिक, सूबे के करीब आधा दर्जन कद्दावर क्षत्रिय नेता, चाहे वह समाजवादी पार्टी से जुड़े हों या अन्य पार्टियों से, राजा भैया के नेतृत्व में अलग ठौर की तलाश में जुटे हुए हैं और भाजपा में भी परिस्थतियां उनके अनुकूल बताई जा रही हैं।
भाजपा के सूत्र बताते हैं कि राजनाथ सिंह के भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद से ही करीब आधा दर्जन भर क्षत्रिय नेताओं की राजा भैया के नेतृत्व में भाजपा शामिल होने की जमीन तैयार हो रही है और सबकुछ ठीकठाक रहा तो आम चुनाव से पहले उप्र में बड़ा बदलाव हो सकता है।
भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व भी यह सोच रखता है कि सूबे में सीटों के संकट से जूझ रही पार्टी के लिए बड़े रसूख वाले ये नेता अहम साबित हो सकते हैं।
राजा भैया के नेतृत्व में जिन क्षत्रिय नेताओं की अलग होने की अंदरखाने चर्चा है, उसमें संजय सिंह, ब्रजभूषण शरण सिंह, वर्तमान सपा सरकार में मंत्री राजा महेंद्र अरिदमन सिंह, धनंजय सिंह, चुलबुल सिंह के भतीजे सुशील सिंह तथा गोंडा से सांसदी का टिकट काटने से नाराज राजा किर्तिवर्धन सिंह के नाम समाने आ रहे हैं। इनमें से कई नेताओं का कभी न कभी भाजपा से नाता रहा है।
रायबरेली से जुड़े एक क्षत्रिय ब्लॉक प्रमुख ने भी कहा कि अंदरखाने इस बात की चर्चा है कि इनमें से कई लोग आम चुनाव से पहले भाजपा का दामन पकड़ सकते हैं।
वर्तमान समाजवादी पार्टी सरकार में राज्यमंत्री का दर्जा पाए एक सपा नेता ने साफतौर पर कहा कि आजम खां की वजह से पार्टी को नुकसान हो रहा है। आजम का यही रुख रहा तो आने वाले समय में क्षत्रियों का सपा से मोहभंग हो सकता है। समय रहते मुलायम को आजम पर नकेल कसनी ही होगी।
सपा सरकार के इस मंत्री के बयान के बाद इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि अखिलेश सरकार मुसलमानों के आगे किस तरह घुटने टेक रही है। इस नेता ने हालांकि यह भी कहा कि इस बात की गारंटी नहीं दी जा सकती है कि मोदी के उप्र में आने के बाद मुसलमान उसी तरह सपा के साथ खड़े हो सकते हैं, जिस तरह वे विधानसभा चुनाव के दौरान खड़े हुए थे। मोदी के आने के बाद मुसलमानों का ध्रुवीकरण यदि कांग्रेस की तरफ गया और क्षत्रियों का नाता सपा से टूटा तो ‘नेताजी’ के सपने पर पूरी तरह से पानी फिर सकता है।
सूबे की क्षत्रिय राजनीति में अंदरखाने एक बड़े बदलाव की आहट सुनाई दे रही है।
हाल ही में राज्यमंत्री का दर्जा पाए इस नेता ने कहा कि आजम की अदावत न केवल क्षत्रियों से है, बल्कि अपनी बिरादरी के लोगों से भी है। इमाम बुखारी मामले में भी यह बात सामने आ चुकी है। आजम अपने आपको मुसलमानों का बड़ा नेता मानते हैं, लेकिन उनके रहने और न रहने से कोई खास असर पड़ने वाला नहीं है।
इस बीच, भाजपा के नेता खुलेतौर पर तो इस बारे में कुछ बोलने से कतरा रहे हैं लेकिन इतना जरूर संकेत दे रहे हैं कि इनमें से कई नेताओं का भाजपा से पहले से ही रिश्ता रहा है। इनमें से कई लोगों ने मोदी से संपर्क भी साधा है। ये लोग यदि भाजपा के साथ जुड़ते हैं तो इसमें कोई बड़े आश्चर्य वाली बात नहीं होगी।
भाजपा सूत्रों की मानें तो क्षत्रियों का मुलायम के प्रति इस बेरुखी का लाभ पार्टी उठा सकती है। ये सभी बड़े नाम हैं और ये लोग यदि भाजपा से जुड़ते हैं तो सपा के लिए करारा झटका ही होगा।
आपदा अनायास नहीं
आपदा अनायास नहीं
अतुल मोहन सिंह
पहाड़ों पर प्रलय। भीषण वर्षा, बाढ़ और चट्टानों के खिसकने से कितने लोग मारे गए इसका सटीक आंकडा शायद कभी नहीं मिल पायेगा। वजह यह है कि बरसात ने तांडव उस वक्त किया जब यमुनोत्री, गंगोत्री और बैजनाथ धाम श्रद्धालु यात्रियों से पते पड़े थे। अभी लोग फंसे हैं, निकाले जा रहे हैं लेकिन बचे हुए लोगों की सही सलामत वापसी के बाद भी विभिन्न राज्यों से गए और गायब हुए श्रद्धालुओं की संख्या जुटाना भले ही संभव हो जाय, लेकिन उन हजारों श्रद्धालु साधुओं की संख्या का पता कैसे चल पायेगा जो पारिवारिक नहीं हैं और इन स्थानों पर हादसे के समय थे तथा पहाड़ों की तबाही में वे भी काल कवलित हो गए ?
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। प्रकृति हमें इससे पहले कई बार चेतावनियां देती रही है। वे हादसे छोटे थे कम जनहानि हुई थी इसलिए वे बहुत अधिक चिंता का विषय भी नहीं बन पाए, लेकिन इस बार कुछ भी हुआ और जिनती विकरालता के साथ प्रकृति ने अपने गुस्से का कहर बरपाया और उससे केवल उत्तराखंण्ड ही नहीं देश के अन्य राज्यों को जितने घहरे घाव लगे क्या उन घावों की टीस को कई वर्षों बाद भी भुला पाना संभव हो सकेगा ?
उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश को देवभूमि खा जाता है। यहां पर ही हिन्दुओं के सबसे अधिक आस्था केंद्र हैं। पहाड़ों पर मार्ग दुरूह हैं लेकिन आस्था ऎसी कि युवा ही नहीं बुजुर्ग भी गंगा-यमुना तथा विभिन्न देवी देवताओं के जयकारे लगाते हुए खतरों और कठिनाइयों को ललकारते हुए अपने आराध्य और अपने आस्था स्थल तक पहुंचने को बेताब रहते हैं। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश राज्यों की आय का प्रमुख स्रोत भी पर्यटकों की आमद है लेकिन उन पर्यटकों की सुविधा और सुरक्षा के लिए जो किया जाना चाहिए, उसकी ओर सरकार न्र कभी गंभीरतापूर्वक ध्यान नहीं दिया। कुछ वर्ष पूर्व हरिद्वार में कुम्भ के दौरान हुआ हादसा और बाते वर्ष गायत्री परिवार द्वारा आयोजित सामूहिक यज्ञ के दौरान हुआ हादसा अभी भी विस्मृत नहीं किये जा सके हैं। यद्यपि वे हादसे प्राकृतिक नहीं थे लेकिन जब आस्था का सैलाब उमड़ रहा हो, सारे देश के श्रद्धालु आ रहे हों तो क्या उनकी व्यवस्था करने और उन्हें उचित आश्रय तथा सुविधाओं की जिम्मेदारी सरकार की नहीं है।
एक और बात उल्लेखनीय है कि प्रत्येक बारह वर्ष बाद आयोजित होने वाली चमोली की नंदादेवी यात्रा का आयोजन भी इस वर्ष अगस्त में होना है। पहाड़ों पर इस यात्रा को कुम्भ पर्व जैसा ही महत्व प्राप्त है तो राज्य सरकार भी इस भावी यात्रा का जमकर प्रचार कर चुकी है। नौटी से होमकुंड जाने वाला यह मार्ग आज भी बहुत दुर्गम ही है। 17, 500 फीट तक की उंचाई वाली इस यात्रा से पहले यात्रा मार्ग का दुरुस्त किया जाना शायद संभव ही नहीं हो सकेगा। पिछली यात्रा में पचास हजार से भी अधिक लोह शामिल हुए थे जिनमे से 10, 000 से अधिक श्रद्धालु अंतिम पड़ाव तक पहुंचे भी थे। क्या राज्य सरकार केदारनाथ धाम यात्रा के दौरान आई प्राकृतिक यात्रा और हादसे से सबक लेगी और नंदादेवी यात्रा की निर्बाधता के प्रति लोगों को आश्वस्त कर पायेगी ?
राज्य सरकार नहीं जानती कि उसके यहां देश भर से कितने श्रद्धालु केदारनाथ यात्रा पर आये थे, वजह यह कि यात्रियों के पंजीकरण जैसी यहां कोई व्यवस्था नहीं है। मौन, कहां और क्या कर रहा है शायद इस बात को जानने की आवश्यकता सरकार ने महसूस भी नहीं की। जंगलों का दोहन और पेड़ों की कटान अनवरत जारी है। वहां भी पेड़ काटे जा रहे हैं जहां मार्ग आदि नहीं बनाये जाने हैं। जड़ें मिट्टी को जकड़कर रखती हैं और वर्षा के दौरान भूस्खलन की संभावनाओं को बहुत हद तक कम कर देती है। सरकार के ढुलमुल रवैये और खनन माफियाओं की सरकार में गहरी पैठ के चलते न तो खनन पर अंकुश लग पा रहा है और न ही पेड़ों की कटान पर। इसी खनन के चलते पहाड़ों की मिट्टी में पानी प्रवेश करने के रास्ते बने और उसी के परिणामस्वरुप तेज वर्षा के दौरान पहाड़ों के फटने, चट्टानों के खिसकने तथा भूस्खलन से प्रलय जैसी स्थिति बनी और हजारों लोग मलवे में दबकर मौत का शिकार हो गए।
स्पष्ट है कि यह हादसा अनायास नहीं था। प्रकृति के साथ मनुष्यों द्वारा लम्बे कोर्स से किया जा रहा खिलवाड़ ही इतने बड़ों और भयावह त्रासदी का कारण बना। प्रकृति के साथ खिलवाड़ और प्राकृतिक सम्पदा के लगातार दोहन के कारण प्राकृतिक संतुलन गड़बड़ा गया है। देश के विभिन्न क्षेत्रों ही नहीं दुनिया भर में इस छेड़छाड़ के प्रति प्रकृति अपनी नाराजगी जाहिर कर कई बार चेतावनी दे चुकी है। यह हादसा भी ऎसी ही चेतावनियों में से एक है लेकिन क्या देश के नीति नियंता इस हादसे के बाद भी गम्भीरतापूर्वक सोचने और सबक लेने को तैयार होंगे ?
Monday, 17 June 2013
दिल में है तू ही तू, अए हंसी लखनऊ
दिल में है तू ही तू
अए हंसी लखनऊ
तेरे दामन में है
तेरे आँगन में है
जिन्दगी की खुशी
प्यार की रोशनी
फिर न कैसे करें
हम तेरी आरजू
अए हंसी लखनऊ
दिल से जब दिल मिले
प्यार के गुल खिले
हम रहे होश में
तेरे आगोश में
हमने की है सदा
प्यार की जुस्तजू
तेरी बाहों में है
तेरी आंखों में है
मयकशी का भरम
आशिकी का भरम
तेरे दम से ही है
मोहब्बत की आबरू
एकता का जहां
तेरा दिल जाने जां
प्यार ही प्यार है
तू वो गुलजार है
जिसमे हमको मिली
प्यार की रंगों बू
-रचनाकार अज़मेर अंसारी कशिश, लोकप्रिय पत्रकार हैं और तहजीब के शहर लखनऊ से ताल्लुक रखते हैं
Monday, 3 June 2013
पत्रकारिता एक पब्लिक ट्रस्ट है
पत्रकारिता एक पब्लिक ट्रस्ट है
बी.जी. वर्गीज की गिनती देश के बड़े पत्रकारों में होती है। सन् 1927 में जन्मे वर्गीज की स्कूली शिक्षा देहरादून के बहुचर्चित दून स्कूल में हुयी। उन्होंने दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से स्नातक करने के बाद, कैंब्रिज विश्वविद्यालय से पढ़ाई की। जिसके बाद, बतौर पत्रकार अपने कॅरियर की शुरुआत 1949 में टाइम्स ऑफ इंडिया से की।
वर्गीज ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सूचना सलाहाकार के तौर पर उनके साथ 1966 से लेकर 1969 तक काम किया फिर 1969 में हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादक बने और इस पद 1975 तक रहे। इसके बाद 1982 में इंडियन एक्सप्रेस के संपादक बने और इस पद पर 1986 तक रहे। 2001 में वे रक्षा मंत्रालय में सूचना सलाहकार के तौर पर जुड़ गए।
वर्गीज को पत्रकारिता के क्षेत्र में कई पुरस्कार मिल चुके हैं। 1975 में उन्हे मैग्सेसे पुरस्कार मिला। साथ ही उन्हें 2005 का शंकरदेव पुरस्कर भी मिला। बी.जी. वर्गीज ने कई किताबें भी लिखी हैं, जिसमें मुख्य ‘डिजाइन फॉर टुमॉरो’, ‘वाटर्स ऑफ होप’, ‘विनिंग द फ्यूचर’, ‘इंडियाज नार्थईस्ट रिसर्जेंट’, ‘रिओरियेंटिंग इंडिया’, ‘वॉरियर ऑफ द फोर्थ एस्टेट’ और ‘फस्ट ड्राफ्ट’ हैं। पढ़िए समाचार4मीडिया से बी.जी.वर्गिस की विशेष बातचीत ...
पिछले तकरीबन चालीस साल से आप मीडिया से जुड़े हैं। जब आप सक्रिय रूप से जुड़े थे और आज के दौर में क्या फर्क महसूस करते हैं?
देखिए, आज मीडिया बहुत बड़ा हो गया है। साथ ही यह पावरफुल भी हुआ है, लेकिन जितना ही इसका विस्तार हुआ है इसकी विश्वसनीयता उतनी ही घटी है। पावर का बढ़ना और विश्वसनीयता का घटना यह खतरे की निशानी है। लेकिन इसके इतर संभावनाएं भी खूब बढ़ी हैं। खासकर तकनीकि में जो बड़ा बदलाव आया उसने आपके हाथों में काफी सहूलियत और ताकत दी।
मीडिया का मतलब है मीडियम। लेकिन आज के समय में मीडिया में मीडिएशन बिल्कुल नहीं है। आज मीडिया के काम-काज में सोचने-समझने का वक्त ही नहीं है। पहले के समय में चौबीस घंटे के दौरान प्रिन्ट का जो सर्कल होता था, अब वह चला गया है। अब इन्स्टैंट मीडिया का दौर आ गया है। इसमें किसी का दोष नहीं है। ऐसा नहीं है कि आज के दौर के पत्रकारों में प्रतिभा की कमी है या अपने काम को लेकर वे गंभीर नहीं हैं, मुश्किल केवल यह है कि प्रतिस्पर्धा इतनी बढ़ गई है कि ब्रेकिंग न्यूज़ जैसी चिंतायें इन हदों तक जाने के लिए मजबूर कर रही हैं। इसीलिए मैं कह रहां हूं कि मीडिया की ताकत तो बढ़ी है, लेकन स्तर घटा है।
लेकिन तकनीक ने जो तेजी दी है, उससे कई स्तरों में सुधार भी तो हुआ है?
हां, बिल्कुल सुधार हुआ है। मैं तकनीक के खिलाफ नहीं हूं। मैं यह कह रहा था कि मीडिएशन अब दूसरे तरफ से हो रहा है। ट्रेनिंग, जिम्मेदारी घट रही है। उदाहरण के तौर पर देखें,टीवी पर ख़बर आती है कि ब्रह्मपुत्र नदी में नाव के डूबने से 500 लोगों की मृत्यु हो गयी। शायद हकीकत में नाव में 300 यात्री ही हों, लेकिन पहले ख़बर देने की हड़बड़ी में 300 को 500 भी बना देते हैं। तो मीडिएशन अपनी ट्रेनिंग से, अपने स्टैण्ड से आना चाहिये, यही नहीं हो रहा है। रिर्पोटर 300 बोल रहा है, एंकर 500 बोल रहा है। कहने का मतलब क्रॉस चेक नहीं है। दरअसल, ब्रेकिंग न्यूज़ के चक्कर में आप एक नया नाटक करते जा रहे हैं। यह बहुत गलत है, इससे देश का समाज का बड़ा नुकसान हो रहा है।
आपने कहा कि अब मीडिया उतना विश्वसनीय नहीं रहा है। क्या आप कोई उदाहरण देना चाहेंगे कि यह होना चाहिये था और मीडिया ने अपनी जिम्मेदारी यहां पर नहीं निभाई?
ऐसे बहुत सारे उदाहरण हैं। आप देखिये कि अन्ना हजारे का पिछले साल जुलाई, अगस्त के दौरान जो अनशन रामलीला मैदान, दिल्ली में हुआ। सारे टीवी चैनल और प्रेस के लोग वहीं पर सोये, उनका इंतजाम कर दिया गया। उनके लिए वहीं खाने-पीने की व्यवस्था की गई। सब एम्बेडेड न्यूज़ थी।
ऐसे बहुत साऱे उदाहरण हैं। मीडिया बिल्कुल भेड़-चाल की तरह काम करने लगा है। ऐसा गल्फ वार में शुरू हुआ था क्योंकि अमेरिका ने कहा इस युद्ध में बहुत खतरा है, तो इराक में कोई ख़बर नहीं जानी चाहिये। मीडिया को कहा गया अमेरिकन फोर्स के साथ उनकी गाड़ी में जाना है। आप जो कॉपी लिखेंगे वो पहले अमेरिकी फौजी देखेंगे। वे सेंसर करेंगे। सिर्फ वो जो उन्होंने देखा है, उन्हें ठीक लगा, वही ख़बरें आप लिख सकते हैं। लोगों को दिखा सकते हैं। वहीं से‘एम्बेडेड जर्नलिज्म’ शब्द आ गया ।
पत्रकारिता एक पब्लिक ट्रस्ट है, उसकी अपनी जिम्मेदारी है। एडिटोरियल और पेड न्यूज़ सबको आप एडवरटोरियल कहकर अपना दामन बचा रहे हैं। आप बस यह कहकर कि यह विज्ञापन है, कुछ भी छाप दीजिये। यह एक मिलावट है। तब पाठकों को लगता है कि यह विज्ञापन और संपादकीय की मिली हुई ख़बरें हैं। वहीं से गड़बड़ी की शुरुआत होती है। जो विज्ञापन है उसे विज्ञापन कह कर ही छापें ।
लेकिन एक तर्क यह भी तो है कि जनता जो देखती-पढ़ती है, हम वही दिखा रहे हैं?
जो लोग यह कह रहे हैं। वो पत्रकारिता में क्यों हैं? वो कहीं और जैसे शिक्षा के क्षेत्र में जाए और बोलें कि जो छात्रों को पसंद है हम वही पढ़ायेंगे। यह सिद्धांत तो हम सभी जगह लागू कर सकते हैं। डॉक्टर कहेगा कि जो दवा मरीज को पसंद है, हम वही लिखेंगे। यह बस अपनी जिम्मेदारियों से भागना है। और पत्रकारिता क्या आज की है। जिस जमाने में पत्रकारिता अपने प्रतिमान गढ़ रही थी, तब भला कोई यह क्यों नहीं कहता था। क्या तब काबिल लोगों की कमी थी। आज ज्यादातर पत्रकारों का बस एक उद्देश्य रह गया है,राजनीतिज्ञों के करीब पहुंचना और उनके माध्यम से अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना।
लेकिन जो पत्रकार पॉलिटिकल बीट कवर कर रहे हैं वह तो नेताओं से संबंध बनाएंगे ही। अगर आप उनके नजदीक नहीं रहेगे तो ख़बरें कहां से लायेंगे?
देखिए नेताओं को भी पता है कि अंदरखाने की ख़बर यह छापते नहीं, क्योंकि वह ख़बरें मैनेज कर ली जाती हैं और जिन राजनीतिक ख़बरों को पत्रकार छाप रहे हैं उनका कोई असर है नहीं। आज अमर सिंह को छापते हैं, कल को उनका कोई अस्तित्व नहीं रहता, तो उनके खिलाफ हो जाते हैं। मैं राजनेताओं से संबंधों के खिलाफ नहीं हूं, लेकिन पत्रकारिता राजनीतिक हस्तक्षेपों से प्रभावित हो, इसके खिलाफ हूं।
पत्रकारिता के अपने एथिक्स हैं उन्हें बचाए रखना बेहद जरूरी है।
सारे एथिक्स की उम्मीद मीडिया से ही क्यों की जाती है?
देखिये, यह बात सही है कि एथिक्स सब जगह है। मीडिया में एथिक्स है, बिजनेस में एथिक्स है। राजनीति में एथिक्स है। सब जगह है। अगर एथिक्स नहीं होगा, तो हर जगह गुंडागर्दी फैल जाएगी। लेकिन एथिक्स की चिंता इसलिए की जा रही है क्योंकि समाज में हर स्तर और हर स्तंभों के एथिक्स में गिरावट आई है।
मीडिया से उम्मीद इसलिए की जाती है क्योंकि मीडिया की भूमिका वॉचडॉग की रही है। जब रात को कुत्ता भौंकता है तो घर वाले सब जाग जाते हैं कहते है भाई कुछ न कुछ हो रहा है। देखो क्या बात है? लेकिन वही भूमिका अगर लैपडॉग में ढल रही है, तो चिंता जायज है। मैं यह नहीं कहता कि मीडिया में अच्छे लोग नहीं हैं। लेकिन कुछ लोगों ने गंदगी फैला रखी है, जिसके छींटे सबके ऊपर पड़ रहे हैं। कॉरपोरेट कल्चर ने इसकी गंदगी को बढ़ाने में और मदद की है।
तो क्या आप चाहते हैं कि कॉरपोरेट मीडिया में न आए और पत्रकार कुर्ता-पायजामा और साईकिल वाले पर चलने वाली पारंपरिक छवि के भीतर ही रहे। जबकि उसके बगल, दूसरे अन्य संस्थानों में लोग लाखों सैलरी पा रहे हैं। तो क्या आपको नहीं लगता कि पत्रकारों के लिए कॉरपोरेट सुखद परिणाम भी लेकर आया है?
मैं यह नहीं कहता कि लाभ ना मिले, लोगों को अच्छी सैलरी ना मिले। लेकिन केवल सैलरी के लिए ही पत्रकारिता को चौराहे पर खड़े कर देना चिंता की बात है। और ये केवल आज की ही बात नहीं है। मेरे जमाने में भी कई पत्रकारों को एक साल में उतनी सैलरी मिली, जितनी मुझे पूरे कॅरियर में मिली। आदमी की जरूरतें पूरी हों इसके लिए उसे पैसा मिलना चाहिए। पत्रकार भी काम करता है,तनख्वाह के लिए। लेकिन उसका काम केवल काम भर नहीं है। उसके साथ कई नैतिक जिम्मेदारियां जुड़ी हुई हैं। इसलिए जब वह पत्रकारिता और नैतिकता के इस दायरे से बाहर निकलकर लाभ के दूसरे हथकंडे अपनाता है तो कॉरपोरेट सवालों के घेरे में आने लगता है।
कभी दबाव के क्षणों में आपने यह महसूस किया कि मुझे भी उसी राह पर चलना चाहिए। जिसे आप लाभ का रास्ता कहते हैं?
देखिए, आदमी का व्यक्तित्व अपने परिवार से मिली शिक्षाओं से बनता है। मैं एक बेहद सेकुलर पारिवारिक पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखता हूं। मैं एक गरीब वेस्टरनाइज्ड इंडियन हूं। और मैंने अपने परिवार से सीखा है कि दबाव मे अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन कैसे करें। अगर दबावों में झुका होता तो शायद मैं भी आज धन कुबेर होता, लेकिन मैंने हमेशा पत्रकारिता की नैतिकता को आगे रखा और दबावों को पीछे।
पत्रकारिता में कैसे आना हुआ?
कॉलेज के दिनों में मेरी प्राथमिकता थी, टीचर बनूं। बाद में सोचा कि सिविल सर्विस में जाना चाहिए और उसकी तैयारी मैंने शुरू भी कर दी थी। कॉलेज में कैंपस प्लेसमेंट होता था। एक दिन, हमें बताया गया कि ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के एडिटर यहां आयेंगे, उन्हें दो लोगों का सेलेक्शन अपने अखबार के लिए करना है। कॉलेज की ओर से मुझे इंटरव्यू में शामिल होने के लिए कहा गया। लेकिन मैंने मना कर दिया। मैंने कहा कि पत्रकारिता क्या होती है, यह तो मुझे पता ही नहीं है। लेकिन मेरे अध्यापक दूरदर्शी थे, उन्होंने कहा कि अभी आप हां या ना मत कीजिए, आप अभी सोचिए। जब वो इंटरव्यू के लिए आयेंगे, तो हम आपको सूचना दे देंगे। आखिर में मैं तैयार हो गया। ‘टाइम्स’ वालों को ऐसे लोग चाहिए थे जो ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के ट्रेडिशन में फिट हों और उनकी वैल्यू को बनाए रखे। इंटरव्यू हुआ और मुझे चुन लिया गया। फिर, मैं वहां से एक साल के लिए इंग्लैंड में ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’की तरफ से ट्रैनिंग पर चला गया। और लौटने के बाद‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ मुंबई ज्वाइन किया।
भावी पीढ़ी के लिए खासकर उन युवाओं को जो पत्रकारिता में आना चाहते हैं, उन्हें आप क्या संदेश देंगे?
जिम्मेदार बनें। पत्रकारिता को समझें, फिर आएं। जिस तरह से अध्यापक अपने छात्रों को गढ़ता है। उसी तरह, पत्रकार समाज को गढ़ता है। इसलिए पहले आप वह तैयारी करिए। ऐसी ख़बरों को खोजिए, उनकी समझ विकसित करिए, जो असरकारक हों। जिनका प्रभाव ज्यादा लोगों पर पड़े।
शहीद सरबजीत को शब्दांजलि
आखिरकार देश का एक सपूत चला गया...
भारतीय दहशतगर्द सरबजीत का इंतकाल हो गया...
पाकिस्तान की कैद में बंद भारतीय नागरिक को आखिरकार मार ही दिया गया। आखिर पकिस्तान ने अपनी असली औकात दिखा दी। उसने ये बता दिया कि तुम भले ही हम पर मेहरबान रहो हम तो तुमको किसी भी सूरत में बकसने वाले नहीं है। अभी सरबजीत और हेमराज को शहीद किया है देखते जाना दोस्ती की आड़ में हम तुम्हारा कितना खून बहायेंगे। पकिस्तान की अब तक की नापाक हरकतों पर मुझे पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की याद आती है। लोकसभा में अमूमन सभी दलों के सांसदों ने शहीद सरबजीत को अकीदत पेश की। काश इस सभा में पूर्व प्रधानमंत्री भी ज़िंदा होती तो इसी कांग्रेसी सरकार की प्रतिक्रिया भी क्या यही होती। अगर इंदिरा जिन्दा होती तो शायद भारत के दिल पर कभी न भरने वाला जख्म देने वाला पकिस्तान ऐसा करने की हिमाकत कभी न करता क्योकि उसे पता होता भारत में मरदाना सरकार है जो अपने ऊपर आने वाली एक खरोज का बदला भी जख्म देकर निकालेगी लेकिन हाय रे दुर्भाग्य उसी शेर दिल इंदिरा के वंसज आज नपुंशक हो गए। शायद इंदिरा ने भी ये नहीं सोचा होगा कि उनके वंशज उनके खून को पानी बना देंगे। आज ऊपर बैठी इंदिरा की आत्मा भी कह रही होगी कि गांधी खानदान के आज की चिरागों तुम गाँधी खानदान पैदा ही न होते। जिनमे इतनी भी ताक़त नहीं कि अपने बाप दादा की विरासत को संभाल कर रखे। उस विरासत को जिसने इस देश को आजादी दिलाई, उस विरासत को जिसने हर बार पकिस्तान को ये बताया कि बाप बाप होता और बेटा बेटा। भारत के लिए वह एक इमोशनल मुद्दा था, एक ऐसा नागरिक जो 'गलती से' सीमा पार कर गया था और पाक जाकर फंस गया। उसे गलत आरोप में फंसाया गया लेकिन पाकिस्तान के लिए वह एक दहशतगर्द और आतंकवादी था। जिसने बम धमाके करके कई पाकिस्तानियों की जान ले ली थी। सचाई हमें नहीं मालूम लेकिन ये पता है कि सरबजीत एक इंसान था, जिसे इस इंसानी सभ्यता में जंगल के जानवरों वाले कानून की तरह मारा गया। यानी ताकतवरों ने जेल में घात लगाकर एक कमजोर को मौत के घाट उतार दिया। कल देर रात ही खबर आई थी कि पाकिस्तान सरबजीत को इलाज के लिए भारत भेजने पर विचार कर रहा है। उसे पता था कि अगर सरबजीत पाकिस्तान की जमीन पर मर गए तो दुनियाभर में, खासकर भारत में इसका अच्छा मैसेज नहीं जाएगा...लेकिन वक्त किसी को ज्यादा सोचने का मौका नहीं देता। दोनों देशों की दुश्मनी में एक और अध्याय जुट गया। मुझे सबसे ज्यादा दुख सरबजीत की बेटियों को देखकर होता है। उन्हें दोनों देशों की दुश्मनी से कोई वास्ता नहीं। राजनीति से कोई मतलब नहीं। उनका तो सबकुछ लुट गया। बाप चला गया। भले ही पाकिस्तान की जेल में था, लेकिन जिंदा तो था। अब तो वह आस भी नहीं रही। एक बार फिर इंसानियत से सियासत जीत गई। पता नहीं, ऐसे कितने सरबजीत होंगे, जिनके किस्से मीडिया में लोकप्रिय नहीं हुए। हमें उनका दर्द नहीं मालूम लेकिन वो कहते हैं ना कि 'आह' बड़ी चीज होती है। बड़े-बड़े बादशाह मिट गए। कौमें जमींदोज हो गईं। तो आह मत लीजिए। ना इधर की-ना उधर की। हमने आजादी की लड़ाई लड़ी थी। हमें एक वतन चाहिए था। हमें हिन्दुस्तान और पाकिस्तान नहीं चाहिए था। हमें सियासत नहीं करनी थी। हमें कुर्सी नहीं चाहिए थी। वो आप लोगों ने बनाया। बॉर्डर पर लकीर आपने खींची, जो आज तक दोनों मुल्कों की आवामों को फांसी का फंदा बनकर लटकाता रहता है। कभी फांसी पर टांगते हो तो घरवालों को चिट्ठी तक नहीं भेजते। र कभी घात लगाकर मारते हो तो अस्पताल में भी घरवालों को नजर भरके देखने नहीं देते। अगर चैन से जीने नहीं दे सकते आप लोग तो चैन से मरने दो भाई। ये भी क्या मौत हुई कि जीभरके अपनों को भी नहीं देख पाए। सरबजीत की मौत पर सब बोल रहे हैं। नरेंद्र मोदी से लेकर राहुल गांधी तक। सबको चिंता है। पाकिस्तान की फिक्र सबको है, लेकिन चीन के बारे में कोई मुंह नहीं खोल रहा। मीडिया भी दबी जबान में फुसफुसा रहा है। ये पता चल रहा है कि चीन महज 18-19 किमी तक हमारी धरती पर नहीं आया है। वह कोई 750-800 क्षेत्रफल के हमारे इलाके पर रणनीतिक कब्जा कर चुका है लेकिन हम सब मौन हैं। सिर्फ पुचकार करके ड्रैगन को कह रहे हैं कि भाई, चला जा, क्यों पंगा कर रहा है। ठीक उसी तरह, जैसे मुहल्ले का कोई कमजोर बालक एक दबंग पहलवान से मिमियाकर कहता है कि अगर तुमने मेरी बात नहीं मानी तो 'मैं टुमको मालूंगा' और पहलवान मुस्कुराकर मजे लेता रहता है। आर्मी चीफ भी कुछ नहीं बोल रहे। बीजेपी भी चुप है। मोदी भी चुप। कांग्रेस के पीएम तो शुरु से खैर चुप ही हैं। लेफ्ट वालों को भी देश वैसा संकट में नहीं दिख रहा, जैसा अमेरिका से एटमी करार वाले मौके पर दिख रहा था। क्या हम सब जोकर हैं ? सरबजीत को मार दिया गया और पाकिस्तान के खिलाफ सीबीआई जांच भी नहीं बिठा सकते लेकिन यूपी और दिल्ली के कोई पत्रकार मित्र ये बता पाएंगे क्या कि डीएसपी जिया की हत्या मामले में सीबीआई की जांच कहां तक पहुंची है। राजा भैया के खिलाफ उसे कोई सबूत मिला या नहीं और डीएसपी की विधवा पत्नी कैसी हैं, इस सुस्त जांच के बारे में उनका क्या कहना है ? और दिल्ली में निर्भया गैंगरेप के आरोपियों की सुनवाई कहां तक पहुंची ? कब तक इंसाफ मिल पाएगा ? और सरबजीत के परिवार को इंसाफ दिलाने के लिए सरकार क्या-क्या करेगी और कर रही है ? सरबजीत को शहीद घोषित कर दीजिए, राजकीय सम्मान से उसका अंतिम संस्कार कर दीजिए लेकिन उस बंदे को कहां से लाओगे, जो अपनी बेटियों की शादी में उनका कन्यादान करता। उस विश्वास को कहां से लाओगे जिसकी गर्माहट दोनों मुल्कों की आवाम में अब तक महसूस की जाती रही थी। लाख दुश्मनी के बावजूद दोस्ती की उस पतली गली को कहां से ढूंढोगे, जो दो बिछुड़े भाइयों को गले मिलने का रास्ता देती रहती थी। ये ठीक है कि ये गली अभी बंद नहीं हुई है लेकिन अगली दफा जब तपाक से गले मिलोगे तो नज़र मिला पाओगे ? सरबजीत की मौत पर बेटियों से पूछा गया की आपको सरकार से क्या चाहिए तो सरबजीत की बेटियों ने कुछ भी मांगने से मना कर दिया और बोला की बाकि जो कैदी पाकिस्तान में कैद है उनके लिए कुछ किया जाये। ये फर्क है सरबजीत के परिवार में और उनमे जो अपने परिवार के किसी बन्दे के मरने पर अपने पूरे परिवार के लिए नौकरिया और पैसे मांग कर मौत का सौदा करने लगते हैं। सैल्यूट है इन बच्चियों को..
अतुल मोहन सिंह
भारत-पाक विभाजन की त्रासदी देखिए कि एक पाकिस्तानी चैनल कह रहा है... भारतीय दहशतगर्द सरबजीत का इंतकाल हो गया...
पाकिस्तान की कैद में बंद भारतीय नागरिक को आखिरकार मार ही दिया गया। आखिर पकिस्तान ने अपनी असली औकात दिखा दी। उसने ये बता दिया कि तुम भले ही हम पर मेहरबान रहो हम तो तुमको किसी भी सूरत में बकसने वाले नहीं है। अभी सरबजीत और हेमराज को शहीद किया है देखते जाना दोस्ती की आड़ में हम तुम्हारा कितना खून बहायेंगे। पकिस्तान की अब तक की नापाक हरकतों पर मुझे पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की याद आती है। लोकसभा में अमूमन सभी दलों के सांसदों ने शहीद सरबजीत को अकीदत पेश की। काश इस सभा में पूर्व प्रधानमंत्री भी ज़िंदा होती तो इसी कांग्रेसी सरकार की प्रतिक्रिया भी क्या यही होती। अगर इंदिरा जिन्दा होती तो शायद भारत के दिल पर कभी न भरने वाला जख्म देने वाला पकिस्तान ऐसा करने की हिमाकत कभी न करता क्योकि उसे पता होता भारत में मरदाना सरकार है जो अपने ऊपर आने वाली एक खरोज का बदला भी जख्म देकर निकालेगी लेकिन हाय रे दुर्भाग्य उसी शेर दिल इंदिरा के वंसज आज नपुंशक हो गए। शायद इंदिरा ने भी ये नहीं सोचा होगा कि उनके वंशज उनके खून को पानी बना देंगे। आज ऊपर बैठी इंदिरा की आत्मा भी कह रही होगी कि गांधी खानदान के आज की चिरागों तुम गाँधी खानदान पैदा ही न होते। जिनमे इतनी भी ताक़त नहीं कि अपने बाप दादा की विरासत को संभाल कर रखे। उस विरासत को जिसने इस देश को आजादी दिलाई, उस विरासत को जिसने हर बार पकिस्तान को ये बताया कि बाप बाप होता और बेटा बेटा। भारत के लिए वह एक इमोशनल मुद्दा था, एक ऐसा नागरिक जो 'गलती से' सीमा पार कर गया था और पाक जाकर फंस गया। उसे गलत आरोप में फंसाया गया लेकिन पाकिस्तान के लिए वह एक दहशतगर्द और आतंकवादी था। जिसने बम धमाके करके कई पाकिस्तानियों की जान ले ली थी। सचाई हमें नहीं मालूम लेकिन ये पता है कि सरबजीत एक इंसान था, जिसे इस इंसानी सभ्यता में जंगल के जानवरों वाले कानून की तरह मारा गया। यानी ताकतवरों ने जेल में घात लगाकर एक कमजोर को मौत के घाट उतार दिया। कल देर रात ही खबर आई थी कि पाकिस्तान सरबजीत को इलाज के लिए भारत भेजने पर विचार कर रहा है। उसे पता था कि अगर सरबजीत पाकिस्तान की जमीन पर मर गए तो दुनियाभर में, खासकर भारत में इसका अच्छा मैसेज नहीं जाएगा...लेकिन वक्त किसी को ज्यादा सोचने का मौका नहीं देता। दोनों देशों की दुश्मनी में एक और अध्याय जुट गया। मुझे सबसे ज्यादा दुख सरबजीत की बेटियों को देखकर होता है। उन्हें दोनों देशों की दुश्मनी से कोई वास्ता नहीं। राजनीति से कोई मतलब नहीं। उनका तो सबकुछ लुट गया। बाप चला गया। भले ही पाकिस्तान की जेल में था, लेकिन जिंदा तो था। अब तो वह आस भी नहीं रही। एक बार फिर इंसानियत से सियासत जीत गई। पता नहीं, ऐसे कितने सरबजीत होंगे, जिनके किस्से मीडिया में लोकप्रिय नहीं हुए। हमें उनका दर्द नहीं मालूम लेकिन वो कहते हैं ना कि 'आह' बड़ी चीज होती है। बड़े-बड़े बादशाह मिट गए। कौमें जमींदोज हो गईं। तो आह मत लीजिए। ना इधर की-ना उधर की। हमने आजादी की लड़ाई लड़ी थी। हमें एक वतन चाहिए था। हमें हिन्दुस्तान और पाकिस्तान नहीं चाहिए था। हमें सियासत नहीं करनी थी। हमें कुर्सी नहीं चाहिए थी। वो आप लोगों ने बनाया। बॉर्डर पर लकीर आपने खींची, जो आज तक दोनों मुल्कों की आवामों को फांसी का फंदा बनकर लटकाता रहता है। कभी फांसी पर टांगते हो तो घरवालों को चिट्ठी तक नहीं भेजते। र कभी घात लगाकर मारते हो तो अस्पताल में भी घरवालों को नजर भरके देखने नहीं देते। अगर चैन से जीने नहीं दे सकते आप लोग तो चैन से मरने दो भाई। ये भी क्या मौत हुई कि जीभरके अपनों को भी नहीं देख पाए। सरबजीत की मौत पर सब बोल रहे हैं। नरेंद्र मोदी से लेकर राहुल गांधी तक। सबको चिंता है। पाकिस्तान की फिक्र सबको है, लेकिन चीन के बारे में कोई मुंह नहीं खोल रहा। मीडिया भी दबी जबान में फुसफुसा रहा है। ये पता चल रहा है कि चीन महज 18-19 किमी तक हमारी धरती पर नहीं आया है। वह कोई 750-800 क्षेत्रफल के हमारे इलाके पर रणनीतिक कब्जा कर चुका है लेकिन हम सब मौन हैं। सिर्फ पुचकार करके ड्रैगन को कह रहे हैं कि भाई, चला जा, क्यों पंगा कर रहा है। ठीक उसी तरह, जैसे मुहल्ले का कोई कमजोर बालक एक दबंग पहलवान से मिमियाकर कहता है कि अगर तुमने मेरी बात नहीं मानी तो 'मैं टुमको मालूंगा' और पहलवान मुस्कुराकर मजे लेता रहता है। आर्मी चीफ भी कुछ नहीं बोल रहे। बीजेपी भी चुप है। मोदी भी चुप। कांग्रेस के पीएम तो शुरु से खैर चुप ही हैं। लेफ्ट वालों को भी देश वैसा संकट में नहीं दिख रहा, जैसा अमेरिका से एटमी करार वाले मौके पर दिख रहा था। क्या हम सब जोकर हैं ? सरबजीत को मार दिया गया और पाकिस्तान के खिलाफ सीबीआई जांच भी नहीं बिठा सकते लेकिन यूपी और दिल्ली के कोई पत्रकार मित्र ये बता पाएंगे क्या कि डीएसपी जिया की हत्या मामले में सीबीआई की जांच कहां तक पहुंची है। राजा भैया के खिलाफ उसे कोई सबूत मिला या नहीं और डीएसपी की विधवा पत्नी कैसी हैं, इस सुस्त जांच के बारे में उनका क्या कहना है ? और दिल्ली में निर्भया गैंगरेप के आरोपियों की सुनवाई कहां तक पहुंची ? कब तक इंसाफ मिल पाएगा ? और सरबजीत के परिवार को इंसाफ दिलाने के लिए सरकार क्या-क्या करेगी और कर रही है ? सरबजीत को शहीद घोषित कर दीजिए, राजकीय सम्मान से उसका अंतिम संस्कार कर दीजिए लेकिन उस बंदे को कहां से लाओगे, जो अपनी बेटियों की शादी में उनका कन्यादान करता। उस विश्वास को कहां से लाओगे जिसकी गर्माहट दोनों मुल्कों की आवाम में अब तक महसूस की जाती रही थी। लाख दुश्मनी के बावजूद दोस्ती की उस पतली गली को कहां से ढूंढोगे, जो दो बिछुड़े भाइयों को गले मिलने का रास्ता देती रहती थी। ये ठीक है कि ये गली अभी बंद नहीं हुई है लेकिन अगली दफा जब तपाक से गले मिलोगे तो नज़र मिला पाओगे ? सरबजीत की मौत पर बेटियों से पूछा गया की आपको सरकार से क्या चाहिए तो सरबजीत की बेटियों ने कुछ भी मांगने से मना कर दिया और बोला की बाकि जो कैदी पाकिस्तान में कैद है उनके लिए कुछ किया जाये। ये फर्क है सरबजीत के परिवार में और उनमे जो अपने परिवार के किसी बन्दे के मरने पर अपने पूरे परिवार के लिए नौकरिया और पैसे मांग कर मौत का सौदा करने लगते हैं। सैल्यूट है इन बच्चियों को..
Sunday, 24 March 2013
दुराचार : व्यवस्था की नाकामी से हुए हालात बेकाबू
दुराचार : व्यवस्था की नाकामी से हुए हालात बेकाबू
लेखक-डॉ अंजना सिंह तथा अतुल कुमार सिंह
समाज तथा सामाजिक संम्स्थाओं ने हमेशा ही अपराध तथा अपराधियों के खिलाफ नकारात्मक रवैया ही अखितियार किया है। प्रत्येक प्रकार का अपराध समाज की स्थाई अस्वीकृति का परिणाम प्राप्त करता है। वहीं जब अपराधों के मध्य तुलनात्मक विश्लेषण किया जाता है तो एकमात्र निर्विवाद तथ्य के साथ यौन हिंसा के तहत होने वाले दुष्कर्म की ओर ही हर उंगली प्रमुखता से उठती है। कामोत्तेजकों द्वारा कारित अपराधों में से दुराचार पतितम अपराधों में सर्वोच्च निकृष्ट कृत्य है। इसमें पीड़ित पक्षकार को न सिर्फ शारीरिक हानि उठानी पड़ती है बल्कि उसकी सामाजिक, मानसिक, धार्मिक, नैतिक और मानवीय हत्या भी की जाती है। उसके साथ उसके अपने भी अपने आपको अपराधी महसूस करते हैं। पीडिता की सामाजिक हत्या की गंभीरता को आज तक न्यायतंत्र या कानूनविद भरपाई करने या सादृश्य सजा का प्रावधान निश्चित नहीं कर पाए हैं। यह पतिततम, घ्रणिततम अपराधों में निर्विवाद रूप से चोटी पर काबिज है। यह घ्रणित अपराधों के भयावाहपन को अधिशासित करता है। इतना ही नहीं यह सम्पूर्ण नारी जाति, स्त्रीत्व तथा मानवता के प्रति एक महान असम्मान है। वैसे तो यह अपराध दुनिया के प्रत्येक देश तथा समाज के हर एक युग में किसी न किसी रूप में विद्दमान रहा है। आज के समय में फर्क सिर्फ इतना आया है कि आज सूचना तकनिकी के इस युग में इस तरह के अपराधों पर त्वरित संज्ञान लेने की मजबूरी भी हावी दिखाई पड़ती है और टीआरपी की प्रतिस्पर्धा में आगे निकलने की जल्दबाजी भी।
सामंतवादी व्यवस्था के अंतर्गत, निर्धनता और निरक्षरता लोगों के लिए अभिशाप थी जिनका तथाकथित समाज के झंडाबरदारों तथा महाराजों द्वारा शोषण इस सीमा तक किया जा सकता था कि उन्हें स्त्रियों को यौन तुष्टि के लिए तथाकथित प्रभुओं के पास भेजने का आदेश भी दिया जा सकता था। इसका अर्थ यह नहीं है कि उस समय विधियां नहीं थीं किन्तु विधियों का उपयोग तब तक नहीं है जब तक लोग इन विधियों की प्रासंगिकता को खुद ही स्वीकार न कर लें। इस प्रकार की प्रवृत्ति अधिकारवादी दृष्टिकोण के कम होने तथा शिक्षा के स्तर में बढ़ोत्तरी होने के कारण कम हो रही है। कुछ दुराचारी वासनात्मक तुष्टि के बाद अपने उत्पीड़ितों की ह्त्या कर देने के अभ्यस्त होते हैं। कुछ लोग चोटी बच्चियों से मित्रता करके उन पर भी लैंगिक हमला करते हैं। प्राचीन काल में भी दुराचार कठोरता से दंडनीय था। वर्तमान काल में भी भारतीय दंड संहिता में इसे क्रूरतम अपराधों की श्रेणी में शीर्ष पर रखा गया है।
दुनिया के सामाजिक खाके पर सबसे सुसंकृत और राजनीतिक मानचित्र पर सबसे म्हाम्तम लोकतंत्र एक अरब इक्कीस करोड़ की जनसंख्या वाले देश में दुराचार सबसे तेजी से बढ़ने वाले अपराधों की श्रेणी में शामिल है। हालांकि दुष्कर्म करने वालों के खिलाफ सजा-ए-मौत तक पर विचार और बहस का बाजार हमेशा से ही गर्म रहा है। वहीं व्यवहारिक और बुनियादी स्तर पर किसी मजबूत और सर्वमान्य नींव का भरान अभी तक शेष पड़ा है। जिसके शिलान्यास से ही सही उक्त आसामाजिक कोढ़ पर काबू पाने की एक ठोस कवायद शुरू की जा सके। हकीकत यह है कि अमूमन एक भारतीय महिला के साथ दुराचार होने की आशंका पिछले २० सालों में दुगुनी को लांघ गई है। वहीं दूसरी और अपराधी को दण्डित किये जाने और न्याय सुलभता की दर नीचे गिरती जा रही है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के तथ्य इस बात की तस्दीक भी करते हैं। जिसका एक सीधा सा मौजू है कि भारत महिलाओं के लिए एक खतरनाक और जोखिमभरा देश बनता बनता जा रहा है। फिर चाहें वह खाप के खौफ में जीते हरियाणा के गाँव हों या फिर तरक्कीपसंद और स्त्रीशक्ति के प्रतीक पश्चिम बंगाल के महानगर हों। दुराचार और यौन उन्पीड़न से सम्बंधित अपराध इन सबके लिए वास्तविक आइना है, वैसे ही जैसे सामाजिक और आर्थिक विपन्नता इस देश की सांस्कृतिक तथा जमीनी वास्तविकता है।
हकीकत इतनी भयावह है कि प्रत्येक २० मिनट में किसी न किसी भारतीय महिला की इज्जत तार तार की जाती है। इन पीडितों में से एक तिहाई अबोध बच्चियां होती हैं। उक्त आंकड़ों का सन्दर्भ २०११ की राष्ट्रीय काइम रिकार्ड ब्यूरो की तत्कालीन रिपोर्ट से भी लिया जा सकता है। न्याय की हालत यह है कि केवल एक मामले में ही सुनवाई हो पाती है उसमे भी वर्षों तक समय खिचता रहता है। पिछले २ दशकों में लंबित मामलों की संख्या में आशातीत इजाफा हुआ है। पहले यह दर ७८ फीसदी थी मौजूदा समय में यह दर अब ८३ फीसदी को भी पार कर गयी है। संस्कृतिनिष्ठता के साथ-साथ दुराचार के मामलों में भी मध्य प्रदेश शीर्ष स्थान पर दर्ज है। वर्ष २०१२ में वहां पर सबसे ज्यादा मामले पंजीकृत किये गए। हरियाणा की स्थिति भी काफी चिंताजनक है वहां पर लगातार इस तरह के मामलों की संख्या बढ़ रही है। इस कड़ी में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली और सबसे बड़ा प्रदेश, उत्तर प्रदेश की हालत भी लगातार पटरी से उतरती जा रही है।
अगर हम आंकड़ों से इतर देखें या सोचें तो राष्ट्रीय क्राइम रिकार्ड ब्यूरो केवल उन मामलों की ही बात करता है जो मामले पुलिस के रजिस्टर में ही उपलब्ध होते हैं। जबकि ऐसी घटनाओं की संख्या इनसे कई गुना ज्यादा है जिनमे पीडिता या तो पुलिस थाणे या न्यायालय के चक्कर में पड़ती ही नहीं है या फिर किसी न किसी दबाव के चलते उसका मामला भी सम्बंधित थाने में पंजीकृत तक नहीं हो पाती है। अधिकांश मामले तो ऐसे भी होते हैं जिनमें तो पुलिस सम्बंधित अपराधी के साथ बराबर की शरीक होती है फी ऐसे मामले में प्राथमिकी दर्ज होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता है। पीड़िता को डरा-धमकाकर, समझा-बुझाकर या सुलहनामा लगाकर पुलिस पीड़िता और उसका साथ देने वालों को बैरंग वापस भेज देती है। कई मामले तो ऐसे भी प्रकाश में आये हैं जिनमें पुलिस भी अपराध्यों से डरी या प्रभावित अथवा संचालित होती है। दुराचार के अधिकतर मामले तो ऐसे होते हैं जिसमे पीड़िता पक्षकार को दारा धमकाकर चुप करा दिया जाता है। वहीं या तो तहकीकात करने वाले ही अपना काम ठीक तरह से अंजाम तक नहीं पहुंचाते, गवाहों और तथ्यों की पड़ताल ठीक तरह से नहीं करते हैं। सुबूतों को जुटाने में भी घोर लापरवाही बरती जा रही है। नतीजा फिर वही ढाक के तीन पात कि ज्यादातर लोग न्याय की उम्मीद में अदालत के दरवाजे पर ही सालों तक अपनी बारी आने का इन्तजार करते रहते हैं। या थककर टूट जाते हैं और मामले को व्यक्तिगत स्तर पर ही निपटाने की रश्म अदाइगी करते हुए औपचारिकता पूरी करते हुए खानापूर्ति कर ली जाती है। मिशाल के तौर पर अगर आंकड़ों पर नजर डाले तो हम पायेंगे कि १९९० में मात्र ४१ फीसदी मामलों में ही अपराधी का अपराध साबित हुआ। ५९ फीसदी मामलों में दोषी को अपराधी साबित कर पाने में न्यायालय को लकवा मार गया। वर्ष २००० में यह सीमा घटकर ३० फीसदी पर आ पहुंची। वहीँ अगर गत वर्ष २०१२ की बात करें तो दर्ज किये गये कुल मामलों की ही सुनवाई हुई जिसमे से एक मामले का अपराधी जेल भेजा गया वहीँ तीन अपराधी सुबूतों और गवाहों की गैरमौजूदगी के चलते न्यायालय से बाइज्जत आराम से रिहा हो गए। गौरतलब बात यह है कि अदालतों से फैसला आने में लगने वाला समय काफी संवेदनशील और महत्वपूर्ण होता है। राष्ट्रीय क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों में १ लाख, २७ हजार पीड़ित दुराचार के मामले में विधिक प्रक्रिया का सामना कर रहे हैं। यह आंकडा इतना बड़ा है कि न्याय की उम्मीद पर सफलता की मुहर इतनी आसानी से नहीं लग सकती है।
वर्ष २०११ में लाडली और किशोरियों के साथ होने वाली इस तरह की घटनाओं पर अगर नजर डालें जिनमें बच्चियां भी शामिल हैं तो इसमें अकेले मध्य प्रदेश में ही १२६२ मामले दर्ज किये गए। वहीं दूसरे पायदान पर रहा उत्तर प्रदेश जिसमे कुल १८८८ अवयस्क बच्चियों की जिन्दगी नर्क बना दी गई।तीसरे नंबर पर रहा महाराष्ट्र जिसमे ८१८ मात्रशक्ति को अपवित्र करने का सफलतम दुस्साहस किया गया। चौथी संख्या हरियाणा की रही जहां ७२३ मामलों में किशोरियों का शीलहरण किया गया। इस तरह आज कामोत्तेजना की उन्मुक्तता देश और भारतीय समाज को लगातार पतन के गर्त में गिराती जा रही है।
और अंत में वर्ष २०१२ की उन घटनाओं पर नजर डालते हैं जिनमें मीडिया जगत के साथ-साथ आम आदमी को भी सोचने पर मजबूर कर दिया है। आज प्रत्येक मां बाप जिसकी बेटी बाहर जाती है जब तक वापस नहीं आ जाती एक अनायाश डर स्थायित्व पकड़ता जा रहा है। ५ फरवरी, २०१२ को कोलकाता के एक पब यानी (आधुनिक सुविधा सम्पन्नता का नया प्रतिमान) में ३७ साल की एक महिला के साथ बन्दूक की नोक पर कई लोगों ने सामूहिक दुष्कर्म को अंजाम दिया। दूसरी शर्मसार करती घटना १३ अप्रैल, २०१२ की है जब देश की राजधानी दिल्ली में एक घर में काम करने वाली सिर्फ १४ साल की एक किशोरी से उसका मालिक घर में ही मुसलसल २ साल तक दुराचार करता रहा। वहीँ १४ जून, २०१२ को पटना में एक स्कूली छात्रा के साथ उसके सहपाठी ने दूसरे सहपाठियों के साथ मिलकर सामूहिक दुष्कर्म किया। इतना ही नहीं उन लोंगो ने उसका एमएमएस भी बनाया गया ताकि उसको ब्लेकमेल किया जाय और भविष्य में भी उसका शारीरिक शोषण किया जाता रहे। १५ जून, २०१२ को कर्नाटक में एक अनहोनी घटती है जब फ्रांसीसी काउंसलेट अधिकारी पास्कल माजुरियर को अपनी सगी साधे तीन साल की बेटी के साथ दुराचार करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। उसकी पत्नी ने खुद उसके खिलाफ पता चलने पर प्राथमिकी दर्ज कराई थी। मौसम ने करवट बदली और बारिश के साथ ही इसका अपराधी ग्राफ भी काफी तेज हो गया। अगस्त महीने में दो बड़ी घटनाओं ने मानवता को शर्मसार किया, जिसमे पहली घटना ९ अगस्त, २०१२ को आर्थिक राजधानी कहे जाने वाले शहर मुम्बई में होती है जिसमें पेशे से अधिवक्ता २५ वर्षीय पल्लवी नामक महिला को उनके बडाला स्थित फ़्लैट में सुरक्षा गार्ड ने ही मार डाला क्योंकि वह पल्लवी के साथ दुष्कर्म करना चाहता था जिसमें वह पल्लवी के विरोध के कारण सफल नहीं हो पा रहा था। वहीं दूसरी घटना ११ अगस्त, २०१२ को फरीदाबाद शहर में घटित हुई जब दिल्ली बोर्ड में कार्यरत २१ वर्षीय युवती के साथ ८ युवाओं ने दुराचार किया। उसे जबरन एक कार के अन्दर उठा लिया गया उसके बाद उसके आबरू की बखिया उधेड़ दी गयी। अगस्त माह को मात देकर सितम्बर आगे निकल गया। इस महीने में चार ऐसी घटनाएं हुईं जिनसे पूरी मानवता कलंकित हो गयी। ९ सितम्बर, २०१२ को हरियाणा में एक १६ वर्षीया दलित किशोरी के साथ सामूहिक दुराचार किया गया। इसका वीडियो बनाकर बड़ी संख्या में लोगों को बांटा गया। इसी इलाके में २१ सितम्बर, २०१२ को दो बच्चों की मां को भी दरिंदों ने नहीं बक्शा हरियाणा में यह केवल सितम्बर, २०१२ की १२वीं घटना थी। वहीं तीसरा मामला २४ सितम्बर, २०१२ का है जब दिल्ली विश्वविद्यालय की दो छात्राओं को नशीला पदार्थ खिलाकर उनके तीन साथियों ने उसको बेआबरू कर डाला। २५ सितम्बर, २०१२ को एक बार फिर कोलकाता में एक १८ माह की एक बची के साथ उसके रिश्तेदार ने दुराचार किया। खून से लथपथ बची उसकी मां को रायद गली में मिली। इस घटना ने मनुष्य की मानसिकता की हवा ही निकाल दी। सबसे ताजी और ह्रदय विदीर्ण कर देने वाली घटना ७ अक्टूबर, अभी थोड़ा बाकि है ................
.......आखिर कब तक पैदा पैदा होती रहेगी दामिनी
इस बिल को छह हफ्तों के अंदर सरकार की मंजूरी मिलना अनिवार्य है। 16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में चलती बस के दौरान छह दरिंदों की दरिंदगी की शिकार बनी दामिनी की रूह आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर यही सोच रही होगी कि आज मुझे इंसाफ मिलना था, लेकिन राजनीति के ठेकेदारों की वजह से मेरी रूह फिर इंसाफ की तलाश में कभी फास्ट ट्रैक कोर्ट तो कभी संसद में भटकती रहेगी।
गृह मंत्रालय सहमति से शारीरिक संबंध बनाने की उम्र 16 वर्ष करने को तैयार है, जिस पर काूनन मंत्रालय को आपत्ति है। क्या सहमति से सैक्स करने पर ऐसी दामिनियां मरने से बच जाएंगी या फिर और इस फैसले से अपनी आबरू लुटाने पर मजबूर होंगी। ये तो आने वाला वक्त ही बता सकता है। सरकार की बनाई जस्टिस वर्मा कमेटी ने इस मसौदे को लेकर 23 फरवरी को अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी। कमेटी की सिफारिशों के आधार पर नए कानून के लिए 3 फरवरी को अध्यादेश भी जारी हो गया था, लेकिन इस बिल पर सरकार के करिंदों को ही एतराज है।
गृह मंत्रालय और कानून मंत्रालय को इस बिल की सिफारिशों में खोट नजर आ रहा है। इस बिल को 7 फरवरी को लिस्ट से आखिर मौके पर हटाना पड़ा। अतंरराष्ट्रीय महिला दिवस पर अगर ये बिल पेश हो जाता, तो दामिनी की रूह को शांति मिल जानी थी। महिला दिवस पर हम उस शक्तिशाली युवती को सलाम करते हैं और पंजाब केसरी ग्रुप नारी दिवस पर प्रत्येक नारी से ये वादा भी करता है कि दब रही नारी शक्ति की यह ग्रुप आवाज बनेगा। आज हम उन महान नारियों को भी नम्र करते हैं जिन्होंने राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए खुद का वजूद तक मिटा दिया। आज हम कुछ हस्तियों के नाम आपके समक्ष ला रहे हैं जिन्होंने घना अंधेरा होते भी एक लो जलाई और नारी जाति के समक्ष प्रमाण के रूप में पेश हुईं। इनमें किरण बेदी, अमृत बराड़, सुमन गुर्जर(एडीशनल एसपी) सांगवान, भावना राणा (समुद्री सीमा चौकसी) प्रमुख हैं। जिन्होंने अपने मजबूत इरादों से अपनी जगह बनाई है।
भारत सरकार के ही आंकड़े करते हैं तस्दीक थॉमसन एंड रायटर्स ने भारत में महिलाओं के अधिकारों पर शोध करने वाले 213 लोगों से बातचीत के आधार पर और भारत सरकार के आंकड़ों के हवाले से ये अध्ययन किया रिपोर्ट दी। शोध में यह पाया गया कि मानव तस्करी और कन्या भ्रूण हत्या के कारण भारत महिलाओं के लिए विश्व का सबसे चौथा असुरक्षित देश है। इस फेहरिस्त में सबसे पहले स्थान पर अफगानिस्तान है। अफ्रीकी देश कांगो महिलाओं के लिए दूसरा सबसे खतरनाक स्थान है। इस सूची में तीसरे नंबर पर पाकिस्तान है, भारत के बाद सोमालिया ऐसा देश है, जहां महिलाओं की स्थिती अच्छी नहीं है। इस शोध में पांच मुद्दों को ध्यान में रखा गया है और महिलाओं के स्वास्थ्य, शोषण, संस्कृति, यौन हिंसा, हिंसा और मानव तस्करी से जुड़े सवाल पूछे गए थे।
मानव तस्करी में तो सबसे बदतर संस्कृति और धर्म के मुद्दे पर 13 प्रतिशत लोगों ने भारत को महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश माना। 12 प्रतिशत लोगों ने माना की मानव तस्करी के कारण भारत की यह स्थिती है। 7 प्रतिशत लोगों का मानना था कि भारत में महिलाओं का स्वास्थ्य चिंतनीय है। 8 प्रतिशत लोगों ने माना कि भारत में महिलाएं काफी ज्यादा हिंसा का शिकार हो जाती है। वहीं 4 प्रतिशत लोगों का कहना था कि भारत की यह स्थिती महिलाओं के यौन शोषण के कारण हुई है। दूसरी ओर शोध के नतीज यह भी बताते हैं कि मानव तस्करी में कुछ लोग भारत को पाकिस्तान और सोमालिया से भी बदतर बताते हैं। 12 प्रतिशत लोगों ने माना कि भारत में मानव तस्करी सबसे ज्यादा हो रही है, जबकि पाकिस्तान, कांगो के लिए ऐसा सोचने वाले सिर्फ 3 प्रतिशत लोग थे।
Wednesday, 9 January 2013
" दस्तावेज "
"श्रम साधना"
स्मारिका के
सफल प्रकाशन के
बाद
हम ला रहे हैं .....
स्वाधीनता के पैंसठ वर्ष और भारतीय संसद के छः दशकों की गति-प्रगति, उत्कर्ष-पराभव, गुण-दोष, लाभ-हानि और सुधार के उपायों पर आधारित सम्पूर्ण विवेचन, विश्लेषण अर्थात ...
" दस्तावेज "
जिसमें स्वतन्त्रता संग्राम के वीर शहीदों की स्मृति एवं संघर्ष गाथाओं, विजय के सोल्लास और विभाजन की पीड़ा के साथ-साथ भारतीय लोकतंत्र की यात्रा कथा, उपलब्धियों, विसंगतियों, राजनैतिक दुरागृह, विरोधाभाष, दागियों-बागियों का राजनीति में बढ़ता वर्चस्व, अवसरवादी दांव-पेच तथा गठजोड़ के दुष्परिणामों, व्यवस्थागत दोषों, लोकतंत्र के सजग प्रहरियों के सदप्रयासों, ज्वलंत मुद्दों तथा समस्याओं के निराकरण एवं सुधारात्मक उपायों सहित वह समस्त विषय सामग्री समाहित करने का प्रयास किया जाएगा, जिसकी कि इस प्रकार के दस्तावेज में अपेक्षा की जा सकती है.
इस दस्तावेज में देश भर के चर्तित राजनेताओं, ख्यातिनामा लेखकों, विद्वानों के लेख आमंत्रित किये गए है. स्मारिका का आकार ए-फोर (11गुणे 9 इंच) होगा तथा प्रष्टों की संख्या 1000 के आस-पास. इस अप्रतिम, अभिनव अभियान के साझीदार आप भी हो सकते हैं. विषयानुकूल लेख, रचनाएँ भेजें तथा साथ में प्रकाशन अनुमति, अपना पूरा पता एवं चित्र भी. विषय सामग्री केवल हिन्दी, उर्दू अंगरेजी भाषा में ही स्वीकार की जायेगी. लेख हमें हर हालत में 31/12/ 2012 तक प्राप्त हो जाने चाहिए ताकि उन्हें यथोचित स्थान दिया जा सके.
- हमारा पता -
जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड राइटर्स वेलफेयर एसोसिएशन
19/256 इंदिरा नगर, लखनऊ-226016
ई-मेल : journalistsindia@gmail.com,
atulcreativeindia@gmail.com,
Please Contect- Atul Mohan Singh
मोबाइल 09455038215, 9451907315, 9793712340
हम ला रहे हैं .....
स्वाधीनता के पैंसठ वर्ष और भारतीय संसद के छः दशकों की गति-प्रगति, उत्कर्ष-पराभव, गुण-दोष, लाभ-हानि और सुधार के उपायों पर आधारित सम्पूर्ण विवेचन, विश्लेषण अर्थात ...
" दस्तावेज "
जिसमें स्वतन्त्रता संग्राम के वीर शहीदों की स्मृति एवं संघर्ष गाथाओं, विजय के सोल्लास और विभाजन की पीड़ा के साथ-साथ भारतीय लोकतंत्र की यात्रा कथा, उपलब्धियों, विसंगतियों, राजनैतिक दुरागृह, विरोधाभाष, दागियों-बागियों का राजनीति में बढ़ता वर्चस्व, अवसरवादी दांव-पेच तथा गठजोड़ के दुष्परिणामों, व्यवस्थागत दोषों, लोकतंत्र के सजग प्रहरियों के सदप्रयासों, ज्वलंत मुद्दों तथा समस्याओं के निराकरण एवं सुधारात्मक उपायों सहित वह समस्त विषय सामग्री समाहित करने का प्रयास किया जाएगा, जिसकी कि इस प्रकार के दस्तावेज में अपेक्षा की जा सकती है.
इस दस्तावेज में देश भर के चर्तित राजनेताओं, ख्यातिनामा लेखकों, विद्वानों के लेख आमंत्रित किये गए है. स्मारिका का आकार ए-फोर (11गुणे 9 इंच) होगा तथा प्रष्टों की संख्या 1000 के आस-पास. इस अप्रतिम, अभिनव अभियान के साझीदार आप भी हो सकते हैं. विषयानुकूल लेख, रचनाएँ भेजें तथा साथ में प्रकाशन अनुमति, अपना पूरा पता एवं चित्र भी. विषय सामग्री केवल हिन्दी, उर्दू अंगरेजी भाषा में ही स्वीकार की जायेगी. लेख हमें हर हालत में 31/12/ 2012 तक प्राप्त हो जाने चाहिए ताकि उन्हें यथोचित स्थान दिया जा सके.
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प्रिय
महोदय/महोदया,
जर्नलिस्ट्स, मीडिया एण्ड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन द्वारा पूर्व में प्रकाशित स्मारिका "श्रम साधना" की अपार लोकप्रियता के बाद हम "स्वाधीनता के 65 वर्ष और भारतीय संसद के 6 दशक" की गति-प्रगति, उत्कर्ष-पराभव, गुण-दोष, लाभ-हानि, समस्याओं तथा सुधारात्मक उपाओं पर आधारित विवेचन-विश्लेषण को हम
"दस्तावेज़"
के रूप में प्रकाशित करने जा रहे हैं। प्रष्टों की संख्या 1000 से भी अधिक होने का अनुमान है और आकार ए-4 साइज (11गुणे 8 इंच)
दस्तावेज़ में समाहित विषय सामग्री :-
1.भारत एक दृष्टि में :-
महत्वपूर्ण तथ्य, भारत का राजनैतिक स्वरूप, जनगणना के आंकड़े, राज्य, कृषि , खनिज, उद्यम, परिवहन, प्राचीन इतिहास, प्राचीन भारत, मध्यकालीन भारत, युरॊपिओन का भारत में प्रवेश और आधिपत्य स्थापन, विद्रोह और उनके नायक, प्रमुख धार्मिक, सामाजिक और जनजातीय आन्दोलन, स्वाधीनता आन्दोलन, मुक्ति संघर्ष की प्रमुख घटनाएँ, राष्ट्र विभाजन की पीड़ा, लोकतंत्र की स्थापना, गांधीजी की हत्या, गणतंत्र बना भारत, अपना संविधान, भारत के राष्ट्रपति , प्रधानमंत्री, उप प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष, लोकसभा अध्यक्ष, मुख्या न्याधीश और उनके कार्यकाल।
2.जिनके कुशल नेतृत्व में की ओर बढ़ा भारत :-
समाजसेवा और सामाजिक चेतना के नायक, ज्ञान के वाहक, दुश्मनों के बार-बार के आक्रमण, अन्न संकट का दौर, पाकिस्तान का विभाजन और बंगलादेश का उदय, जनरल मानेक्शान, जब इंदिरा गांधी दुर्गा का प्रतिमान बनीं, संजय गांधी का राजनैतिक क्षितिज पर उदय, जयप्रकाश आन्दोलन, आक़्पात्काल, केंद्र में प्रथम गैर कान्ग्रेशी सरकार, जनता पार्टी का बिखराव, केंद्र में पुनः कांग्रेश की वापसी, खालशा आंदोलन और आपरेशन ब्लू स्टार, इंदिराजी की ह्त्या और सिख विरोधी दंगे, युवा प्रधानमंत्री राजिव, दलित चेतना के महानायक कांशीराम, किसानों के अगुवा महेंद्र सिंह टिकैत, राम मंदिर आन्दोलन की उग्रता, साम्प्रदायिक तनाव का दौर, बाबरी ध्वंश और उसके बाद की राष्ट्रीय पीड़ा, पी वी नरसिंह राव, निर्वाचन आयोग की सक्रियता, गोधरा और गुजरात दंगें, आतंकी घटनाओं से जूझता देश, सियासत का चारित्रिक पतन, धरमनिर्पेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता, सामाजिक सरोकारों के योद्धा राजनीति में क्षत्रपों का उदय, विदेशी बैंकों में जमा स्वदेशी कालाधन, पॊञ्जिवादिओन के गुलाम मीडिया समूह, चारण और भाटों की भूमिका में कारपोरेट मीडिया, जनाक्रोश, न्याय व्यवस्था की दुरिह्ताएं, अव्यवस्थित पंचायतीराज व्यवस्था, सता और पूंजी का घालमेल, क्षेत्रीयता की संकुचित राजनीति , नापाक सियासी गठजोड़, स्वाधीन भारत की मफ्त्वापुरण उपलब्धियां, उम्मीद भरे नेत्रत्वकर्ता।
3.ज्वलंत मुद्दे :-
मूल अधिकारों से वंचित आम आदमी, साम्प्रदायिकता और जातीयता, अनवरत भ्रष्टाचार, वैश्विक बिरादरी में भारत की गिरती साख, दोष्पुरण न्याय व्यवस्था, राजनीति का आप्राधीहरण, कुनबों की गिरफ्त में सियासत, लोकतंत्र बनाम लूटतंत्र, योजनागत लाभों का असंगत वितरण, आस्मां और महंगी शिक्षा, प्रतिभा और योग्यता की उपेक्षा, अमानवीय पुलिसतंत्र, असहाय न्याय व्यवस्था, आरक्षण की दिश्पूरण व्यवस्था, नैतिकता ताख पर, उपेक्षित अन्नदाता, अपसंस्क्रित के मकडजाल में युवा, शिक्षित बेरोजगारों की बद्ज्ती जमात, सेवक नहीं शासक की भूमिका में नौकरशाही, घटती बेटियाँ, उपेक्षित आधी आबादी, उच्च और तकनीकी शिक्षा का व्यवसायीकरण, उपेल्स्कित गाँव, असंवैधानिक जन्प्रतिनिधित्व, अपात्रों के हवाले योजनाओं का लाभ, शिक्षा के मंदिरों में सियासी अखाड़े,
और साथ में
देश के विद्वान् लेखकों के आलेख, रचनाएं, विचार, और सुधारात्मक उपाय
हम आपके सहयोग, समर्थन, शुभकामनाओं और उत्साहवर्धन की अपेक्षा करते हैं।
आप आने आलेख 31 जनवरी, 2013 तक journalistsindia@gmail.com, jmwa@in.com पर प्रेषित करें।
विस्तृत या अन्य किसी प्रकार प्रकार की जानकारी के सम्बन्ध में संपर्क करें ;-
अतुल मोहन सिंह ;-+91-9451907315, +91-9793712340
जर्नलिस्ट्स, मीडिया एण्ड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन द्वारा पूर्व में प्रकाशित स्मारिका "श्रम साधना" की अपार लोकप्रियता के बाद हम "स्वाधीनता के 65 वर्ष और भारतीय संसद के 6 दशक" की गति-प्रगति, उत्कर्ष-पराभव, गुण-दोष, लाभ-हानि, समस्याओं तथा सुधारात्मक उपाओं पर आधारित विवेचन-विश्लेषण को हम
"दस्तावेज़"
के रूप में प्रकाशित करने जा रहे हैं। प्रष्टों की संख्या 1000 से भी अधिक होने का अनुमान है और आकार ए-4 साइज (11गुणे 8 इंच)
दस्तावेज़ में समाहित विषय सामग्री :-
1.भारत एक दृष्टि में :-
महत्वपूर्ण तथ्य, भारत का राजनैतिक स्वरूप, जनगणना के आंकड़े, राज्य, कृषि , खनिज, उद्यम, परिवहन, प्राचीन इतिहास, प्राचीन भारत, मध्यकालीन भारत, युरॊपिओन का भारत में प्रवेश और आधिपत्य स्थापन, विद्रोह और उनके नायक, प्रमुख धार्मिक, सामाजिक और जनजातीय आन्दोलन, स्वाधीनता आन्दोलन, मुक्ति संघर्ष की प्रमुख घटनाएँ, राष्ट्र विभाजन की पीड़ा, लोकतंत्र की स्थापना, गांधीजी की हत्या, गणतंत्र बना भारत, अपना संविधान, भारत के राष्ट्रपति , प्रधानमंत्री, उप प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष, लोकसभा अध्यक्ष, मुख्या न्याधीश और उनके कार्यकाल।
2.जिनके कुशल नेतृत्व में की ओर बढ़ा भारत :-
समाजसेवा और सामाजिक चेतना के नायक, ज्ञान के वाहक, दुश्मनों के बार-बार के आक्रमण, अन्न संकट का दौर, पाकिस्तान का विभाजन और बंगलादेश का उदय, जनरल मानेक्शान, जब इंदिरा गांधी दुर्गा का प्रतिमान बनीं, संजय गांधी का राजनैतिक क्षितिज पर उदय, जयप्रकाश आन्दोलन, आक़्पात्काल, केंद्र में प्रथम गैर कान्ग्रेशी सरकार, जनता पार्टी का बिखराव, केंद्र में पुनः कांग्रेश की वापसी, खालशा आंदोलन और आपरेशन ब्लू स्टार, इंदिराजी की ह्त्या और सिख विरोधी दंगे, युवा प्रधानमंत्री राजिव, दलित चेतना के महानायक कांशीराम, किसानों के अगुवा महेंद्र सिंह टिकैत, राम मंदिर आन्दोलन की उग्रता, साम्प्रदायिक तनाव का दौर, बाबरी ध्वंश और उसके बाद की राष्ट्रीय पीड़ा, पी वी नरसिंह राव, निर्वाचन आयोग की सक्रियता, गोधरा और गुजरात दंगें, आतंकी घटनाओं से जूझता देश, सियासत का चारित्रिक पतन, धरमनिर्पेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता, सामाजिक सरोकारों के योद्धा राजनीति में क्षत्रपों का उदय, विदेशी बैंकों में जमा स्वदेशी कालाधन, पॊञ्जिवादिओन के गुलाम मीडिया समूह, चारण और भाटों की भूमिका में कारपोरेट मीडिया, जनाक्रोश, न्याय व्यवस्था की दुरिह्ताएं, अव्यवस्थित पंचायतीराज व्यवस्था, सता और पूंजी का घालमेल, क्षेत्रीयता की संकुचित राजनीति , नापाक सियासी गठजोड़, स्वाधीन भारत की मफ्त्वापुरण उपलब्धियां, उम्मीद भरे नेत्रत्वकर्ता।
3.ज्वलंत मुद्दे :-
मूल अधिकारों से वंचित आम आदमी, साम्प्रदायिकता और जातीयता, अनवरत भ्रष्टाचार, वैश्विक बिरादरी में भारत की गिरती साख, दोष्पुरण न्याय व्यवस्था, राजनीति का आप्राधीहरण, कुनबों की गिरफ्त में सियासत, लोकतंत्र बनाम लूटतंत्र, योजनागत लाभों का असंगत वितरण, आस्मां और महंगी शिक्षा, प्रतिभा और योग्यता की उपेक्षा, अमानवीय पुलिसतंत्र, असहाय न्याय व्यवस्था, आरक्षण की दिश्पूरण व्यवस्था, नैतिकता ताख पर, उपेक्षित अन्नदाता, अपसंस्क्रित के मकडजाल में युवा, शिक्षित बेरोजगारों की बद्ज्ती जमात, सेवक नहीं शासक की भूमिका में नौकरशाही, घटती बेटियाँ, उपेक्षित आधी आबादी, उच्च और तकनीकी शिक्षा का व्यवसायीकरण, उपेल्स्कित गाँव, असंवैधानिक जन्प्रतिनिधित्व, अपात्रों के हवाले योजनाओं का लाभ, शिक्षा के मंदिरों में सियासी अखाड़े,
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