अतुल
मोहन सिंह
आकाशवाणी की अवधारणा भारतवर्ष में अपने वैदिक काल में ही
किसी न किसी स्वरूप में मौजूद थी इसके वैदिक तथा पौराणिक प्रमाण भी मिलते हैं.
भारतीय दर्शन और विज्ञान का अद्भुत संयोग ही है कि यहां के आरंभिक वैज्ञानिक अविष्कारों
को ईश्वरीय वरदान या कृति की संज्ञा ही प्रदान की जाती रही है. इतिहास की भारतीय
दृष्टि में आकाशवाणी की अवधारणा को प्रत्येक काल और परिस्थिति में स्वीकार किया
गया है. वहीं पाश्चात्य आधुनिक वौज्ञानिक और उनके समर्थक अध्येता मारकोनी के उस
आविष्कार को प्रथम आधिकारिक प्रयास मानते हैं जिसमें उन्होंने बेतार के तार अर्थात
सन्देश भेजने में सफलता प्राप्त करने का दावा प्रस्तुत किया था. उन्नीसवीं शताब्दी
के अवसान काल में जब मारकोनी ने बेतार के तार का आविष्कार किया तो उसने यह कल्पना
भी नहीं की होगी कि वह एक ऐसी महान क्रान्ति का जनक बनने जा रहा है जो आने वाली
सदियों को निरंतर प्रभावित करती रहेगी. मारकोनी ने साबित कर दिखाया कि एक बिंदु से
दूसरे बिंदु तक सन्देश संचरण के लिए तार की आवश्यकता नहीं है. उसी समय यह सोचा गया
था कि मारकोनी का यह आविष्कार टेलीफोन या तार को तारविहीन कर देगा वहीं यह बात
कल्पना से परे थी कि यह सूचना, शिक्षा और मनोरंजन के क्षेत्र में एक ऐसी विधा को
जन्म देगा जो आने वाले समय में ब्राडकास्टिंग या प्रसारण के नाम से जानी जायेगी.
मारकोनी के इस आविष्कार के बाद अनेक उत्साही
लोगों ने यह प्रयोग करने शुरू किये कि इस आविष्कार का इस्तेमाल एक बिंदु से दूसरे
बिंदु तक सन्देश भेजने में हो सकता है या नहीं इसमें सफलता मिली. धीरे-धीरे इसने
संगठित रूप लेना शुरू किया बीसवीं सड़ी के दूसरे दशक में दुनिया के कई देशों में
संगठित और नियमित प्रसारण की शुरूआत हुई इन देशों में भारत की तैयारी भी बेहद
गंभीर और सकारात्मक थी.
नियमित और संगठित प्रसारण के दौर की शुरूआत
के बाद इसकी दो प्रमुख धाराएं बन गयीं. एक धारा का प्रतिनिधित्व अमेरिकी और दूसरे
के ब्रितानी वैज्ञानिक कर रहे थे. अमेरिका सहित सभी पाश्चात्य देशों में इस
प्रसारण को एक व्यापारिक और वाणिज्यिक लाभ के रूप में देखा गया. वहीं भारत में इसे
सामाजिक पुनुरुद्धार, सामाजिक सरोकार और ज्ञान के त्रिवेणी के तौर पर ही स्वीकार
किया गया. प्रारम्भ में कतिपय रेडियो निर्माताओं ने अपने जोखिम और पहल पर ही इसका
प्रसारण आरम्भ किया. इसका कारण यह था कि अगर कार्यक्रम ही प्रसारित नहीं होंगे तो
रेडियो सेट बिकेंगे कैसे उनके विपणन की विकराल समस्या का समाधान कैसे निकाला
जाएगा. हालांकि कुछ समय बाद यह अहसास होने लगा कि प्रसारण केवल रेडियो सेट की
बिक्री भर के किये नहीं है. यह अपने आपमें स्वतंत्र व्यवसाय और उद्द्योग का स्वरूप
भी अख्तियार कर सकता है. कालान्तर में इसी धारणा ने रेडियो में विज्ञापन के लिए
द्वार खोलने का काम किया. बाद में जब टेलीफोन का अविर्भाव हुआ तो वह भी इसी
व्यापारिक ताने-बाने का अंग बन गया. जब केबल और डाइरेक्ट टू होम सेवाओं के दौर आये
तो इस व्यापारिक ताने-बाने में और भी आयाम जुड़े. इसके पहले दर्शकों को कार्यक्रमों
का आनंद लेने के लिए कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं देना होता था मगर केबल और डाइरेक्ट
टू होम सेवाओं के दौर में दर्शकों से प्राप्त मासिक शुल्क इस व्यवसाय के लिए आमदनी
का एक बड़ा जरिया बन गया. इस तरह से हम पाते हैं कि प्रसारण का अमेरिकी माडल वैसे
ही रेडियो प्रसारण को वैसे ही व्यापार के रूप में देखता है जैसे अन्य दूसरे
व्यापार हैं.
इसके विपरीत ब्रितानी माडल प्रसारण को
लोकसेवा के रूप में देखता है. इस माडल के अनुसार प्रसारण एक वैसा ही राष्ट्रीय
दायित्व है जैसे बाह्य या आंतरिक सुरक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा, रेल सेवा इत्यादि
हैं. ब्रितानी माडल प्रसारण को शिक्षा, सूचना और मनोरंजन के माध्यम के रूप में
देखता है. इस माडल के अध्येताओं के अनुसार प्रसारण का उद्देश्य सस्ता मनोरंजन नहीं
हो सकता. मनोरंजन ऐसा होना चाहिए जो राष्ट्र की रुचियों का परिष्कार करे और उनके
सौन्दर्यबोध को सुसंस्कृत करे. इन्हीं कारणों से ब्रितानी माडल प्रसारण को
व्यावसायिक प्रभावों से दूर रखने का पक्षधर है. दुनिया भर में ब्रिटिश ब्राड
कास्टिंग (बी.बी.सी.) को एक आदर्श ‘लोक सेवा प्रसारक’ के रूप में देखा जाता है. यह
साफ़ है कि प्रसारण के ब्रितानी दर्शन के अनुसार प्रसारण का उत्तरदायित्व निजी
हाथों में न होकर एक ऐसे संगठन के हाथ में हो जो व्यापारिक प्रभाव से बिलकुल मुक्त
हो. बी.बी.सी. का खर्च टेलीवीजन लाइसेंसों से होने वाली आय से चलता है.
भारत में रेडियो प्रसारण सेवा के विकास का
इतिहास अत्यंत दिलचस्त और आश्चर्यजनक है. यहां प्रसारण की शरूआत विशुद्ध रूप से
निजी क्षेत्र में हुई. अगर सामाजिक आर्थिक परिस्थितियां अनुरूप रहीं होतीं तो यहां
भी प्रसारण अमेरिकी माडल के हिसाब से ही विकसित हुआ होता लेकिन उस दौर में हालात
ऐसे थे कि निजी क्षेत्र में प्रसारण सेवा कुछ समय में ही ठप पड़ गयी और सरकार को
सामने आना पड़ा. भारत में प्रसारण का श्रीगणेश जून 1923 में हुआ जब बम्बई क्लब ने
अपने कार्यक्रम प्रसारित किये. कलकत्ता रेडियो क्लब द्वारा नवम्बर 1923 में
कार्यक्रमों का प्रसारण किया गया. इन दोनों क्लबों को मारकोनी कम्पनी ने अपने
ट्रांसमीटर दिए थे. ये प्रसारण अनियमित थे और अल्पकालिक ही रहे.
सुव्यवस्थित रूप से नियमित प्रसारण का एक
सराहनीय प्रयास मद्रास रेडियो क्लब द्वारा 31, जुलाई 1924 से किया गया. इसके पास
आरम्भ में एक 40 वाट का ट्रांसमीटर था. इस ट्रांसमीटर की कथा भी दिलचस्प है. श्री
सी.वी. कृष्णमूर्ति चेट्टी नामक सज्जन अपनी शिक्षा-दीक्षा के सिलसिले में
इंग्लैण्ड गए थे. इंग्लैण्ड में रेडियो प्रसारण तकनीक में उनकी कुछ दिलचस्पी जगी
कि उन्होंने भारत में रेडियो का प्रसारण अपने बल बूते पर करने का निर्णय लिया. फिर
क्या था, पढाई पूरी करने के बाद उन्होंने ट्रांसमीटर के पार्ट-पुर्जे खरीदे और
उनको अपने साथ भारत ले आये. इन पार्ट-पुर्जों को जोड़कर उन्होंने 40 वाट का एक
ट्रांसमीटर खड़ा किया और इसी ट्रांसमीटर के साथ मद्रास रेडियो क्लब से नियमित
प्रसारण की शुरूआत हो गयी. बाद में तो इस क्लब ने 40 वाट के ट्रांसमीटर को हटाकर
200 वाट के ट्रांसमीटर पर प्रसारण करना शुरू कर दिया.
मद्रास रेडियो क्लब हर शाम ढाई घंटे के लिए अपना प्रसारण
चलाता था जिसमें संगीत और वार्ताओं के दौर चलते थे. वहीं शौकिया तौर पर चलाये जा
रहे इस क्लब को अपना कार्यकलाप 1927 में वित्तीय संकट के कारण बंद करना पड़ा.
हालांकि सरकार अनुदान के रूप में लाइसेंस फीस का एक हिस्सा प्रदान करती थी, मगर यह
क्लब के खर्चे के लिए पूरा नहीं पड़ता था. बाद में 1 अप्रैल, 1930 में मद्रास नगर
महापालिका ने प्रसारण सेवा को फिर से जीवित किया और निरंतर जारी रखा. अंततः सन
1938 में सरकार ने स्टेशन को अपने हाथ में ले लिया और यह आकाशवाणी का हिस्सा बन
गया.
सन 1927 में भारतीय प्रसारण ने क्लबों और
शौकिया गतिविधियों से निकलकर निजी क्षेत्र में व्यावसायिक प्रसारण के दौर में
प्रवेश किया. सर इब्राहिम रहीमतुल्ला नामक एक सज्जन ने इंडियन ब्राडकास्टिंग
कम्पनी का गठन किया. इस कम्पनी का पहला स्टेशन बम्बई में 23 जुलाई, 1927 को और
दूसरा कलकत्ता में महीने भर बाद 26 अगस्त, 1927 को शरू हुआ.
इंडियन ब्राड कास्टिंग कम्पनी मूल से एक व्यावसायिक
संगठन के रूप में आयी मगर इसके कार्यकलापों पर ब्रितानी दर्शन की छाप थी. कलकत्ता
और बम्बई के स्टेशनों ने संगीत और नाटकों को प्रोत्साहन देने में अच्छी भूमिका
निभाई. मगर आर्थिक संकट ने इसे तोड़ दिया. कम्पनी की आमदनी ऐसी नहीं थी कि वह अपना
काम-काज मुनाफे पर जारी रख सके. खर्च निकल पाना भी मुश्किल था. कम्पनी की आमदनी के
दो स्रोत थे. सरकार ने रेडियो सेटों के लिए लाइसेंस का जो प्रावधान रखा था उसका 80
प्रतिशत कम्पनी को जाता था. लाइसेंस फीस 10 रूपये सालाना थी जिसमें से 8 रूपये
कम्पनी को मिलते थे.
सन 1928 के अंत में रेडियो सेटों की कुल
संख्या लगभग 6 हजार थी और इस हिसाब से कम्पनी को सरकार से लगभग 48 हजार रुपये
सालाना प्राप्त होते थे. रेडियो सेटों में बढ़ोत्तरी की दर एक हजार सालाना भी नहीं
थी. लाइसेंस फीस के अलावा रेडियो सेट विक्रेताओं से भी हर सेट की बिक्री पर कुछ
रकम मिलती थी. एक सेट की कीमत उन दिनों 500 रूपये थी जो एक बहुत बड़ी राशि थी और
सिर्फ संपन्न लोग ही रेडियो सेट खरीदने का सपना देख सकते थे. इस वजह से रेडियो
सेटों की इतनी ज्यादा बिक्री नहीं हो पा रही थी कि आगे आने वाले समय में भी इतनी
आय हो सके कि कम्पनी जीवित रह सके. कम्पनी का मासिक खर्च ही 33 हजार रूपये था जो
कि साल में लगभग 4 लाख के आस-पास बैठता था. कम्पनी का घाटा लगातार बढ़ता जा रहा था.
इसने सरकार के सामने अंततः गुहार लगाई. डाक, तार विभाग द्वारा कर्ज दिए जाने के
बावजूद 1 मार्च, 1930 को कम्पनी बंद हो गई. इसी के साथ आने वाले कई दशकों के लिए
रेडियो के निजी क्षेत्र का पटाक्षेप हो गया.
एक और मजेदार तथ्य यह भी है कि इंडियन
ब्राडकास्टिंग कम्पनी पर ताला लग जाने के बाद सरकार यूं ही कूदकर सामने नहीं आ गई.
प्रसारण चालू रखने के लिए और इसे बनाये रखने के लिए सरकार को लोगों की तरफ से
ज्ञापन मिलने लगे. वे लोग जो अपने आपको ठगा हुआ महसूस कर रहे थे जिन्होंने रेडियो
सेट खरीद रखे थे, मगर जिनका उपयोग ही समाप्त हो चुका था. सरकार ने कलकत्ता और
बम्बई के स्टेशनों का अधिग्रहण कर लिया और “इंडियन ब्राड कास्टिंग” कम्पनी का नाम
बदलकर “इन्डियन ब्राड कास्टिंग सर्विस” रखा गया. भारतीय रेडियो प्रसारण अब भी
अनिश्चय के दौर से गुजर रहा था. 10 अक्टूबर, 1931 को सरकार ने घोषणा की कि आर्थिक
मंदी की वजह से रेडियो प्रसारण सेवा जारी नहीं रखी जा सकती है. सरकार के इस फैसले
पर भारी नाराजगी हुई और खासकर बंगाल में छोटे-मोटे आन्दोलन भी हुए. सरकार ने अंततः
अपना निर्णय 23 नवम्बर, 1931 को वापस ले लिया, वहीं इस खर्च को पूरा करने के लिए
रेडियो सेटों और रेडियो वाल्वों, दोनों ही पर शुल्क 25 प्रतिशत से बढाकर 50
प्रतिशत कर दिया. शनैः-शनैः यह सुनिश्चित हो गया कि भारत में प्रसारण कार्य सरकार
की जिम्मेदारी है. सरकार को प्रसारण तंत्र की उपयोगिता भी समझ में आने लगी. केंद्र
की सरकार से इतर के कतिपय गैर सरकारी संगठनों द्वारा समान्तर रूप से प्रसारण
व्यवस्था चलाने की कोशिश जारी रही क्योंकि ऐसी कोई कानूनी अड़चन नहीं थी जो केंद्र
की सरकार से अलग के संगठनों को ऐसा करने से रोक देती. मैसूर विश्वविद्यालय के एक
प्रोफ़ेसर डॉ. गोपाल स्वामी ने अपने घर में एक 30 वाट का ट्रांसमीटर लगाया और
सितम्बर, 1935 में प्रसारण कार्य शुरू किया. अपनी इस सेवा को उन्होंने “आकाशवाणी”
नाम दिया. कुछ दिनों बाद उन्होंने 250 वाट का एक ट्रांसमीटर आयात किया. मैसूर नगर
महापालिका और जनता की मदद से उन्होंने लगभग 6 साल तक अपना प्रसारण कार्य जारी रखा.
सन 1941 में इस सेवा को मैसूर रियासत ने अपने हाथ में ले लिया.
मैसूर के अलावा उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत की
प्रांतीय सरकार ने भी ग्रामीण इलाकों में सीमित स्तर पर प्रसारण सेवायें संचालित
कीं. प्रांतीय सरकार को इस सेवा के लिए ट्रांसमीटर और रेडियो सेट बतौर कर्ज
प्राप्त हुए थे. इलाहाबाद स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने भी आस-पास के
देहाती क्षेत्रों के लिए रेडियो प्रसारण की शुरुआत की. केंद्र सरकार द्वारा चलाई
जा रही मुख्यधारा की प्रसारण सेवा से अलग हट कर किये गये सामानांतर प्रयास मूल रूप
से लोक सेवा प्रसारण के ही रूप थे.
भारतीय प्रसारण को सरकारी संरक्षण में
दक्षतापूर्वक संचालित करने के लिए (ब्रिटिश ब्राड कास्टिंग) बी.बी.सी. लन्दन के एक
अधिकारी लायोनेल फील्डन को भारत लाकर उन्हें “कंट्रोलर आफ ब्राडकास्टिंग” का पद सौंपा
गया. फिल्डन ने अपना कार्यभार 30 अगस्त, 1935 को ग्रहण किया. उनके सुझाव पर संगठन
का नाम “आल इंडिया रेडियो” रखा गया. सरकारी प्रयासों से आल इंडिया रेडियो के
तंतुजाल का दिनों-दिन विस्तार होता गया. नए केंद्र तो एक-एक कर जुड़े ही, 4 फरवरी,
1938 से शार्टवेव प्रसारण भी प्रारम्भ हो गया. दूसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत के साथ
सरकार ने भारतीय भाषाओं में समाचार महत्व को पहचाना. पहले समाचार का प्रसारण
अंग्रेजी, हिन्दी और बंगला में ही हो रहा था मगर 1 अक्टूबर, 1939 से इसमें तमिल,
तेलगू, गुजराती, मराठी और पश्तो भी जुड़ गए. देश की आज़ादी के समय देश में कुल 9
रेडियो स्टेशन थे. दिल्ली, कलकत्ता, बम्बई, मद्रास, लखनऊ और तिरुची तो भारत में
रहे लाहौर, पेशावर और ढाका तत्कालीन पाकिस्तान के अंग बने.
आज़ादी के बाद के भारत के पहले चन्द दशकों
में प्रसारण के विकास पर अगर हम गौर करें तो पायेंगे कि जहां अनेक मामलों में हमने
ब्रितानी संस्थाओं और प्रणालियों को आधार माना और उन्हीं के अनुरूप अपनी संस्थाएं
और प्रणालियां विकसित कीं वहीं प्रसारण के मामले में ऐसा नहीं हुआ. वह स्वाभाविक
था कि आल इंडिया रेडियो और बाद में आये दूरदर्शन को बी.बी.सी. के ढांचे के अनुरूप
विकसित किया जाता, ठीक उसी प्रकार जैसे हमने अपनी संसद को ब्रितानी पार्लियामेंट
के अनुरूप विकसित किया लेकिन भारतीय प्रसारण को केंद्र सरकार के सीधे अधीन रखा गया
और संविधान में भी इसके लिए व्यवस्था कर दी गयी.
प्रसारण को केंद्र सरकार के अधीन रखने और
इसे सरकारी विभाग की तरह चलाने के पीछे कई कारण हो सकते हैं. पहला तो यह कि सरकार
ने इसकी ताकत को पहचाना और यह अनुभव किया कि इसकी ताकत का इस्तेमाल विकास कार्यों
में किया जा सकता है. शायद यह आवश्यक समझा गया कि सरकार के सीधे अधीन रहकर कम करते
हुए यह विकास में बेहतर भूमिका निभा सकता है. दूसरा संभावित कारण यह था कि भारत
में लोकतंत्र की अभी नींव ही पड़ी थी और ऐसा माना गया कि प्रसारण की स्वतन्त्रता के
लिए लोकतंत्र में जैसी परिपक्वता चाहिए वैसी परिपक्वता आने में समय लग जाएगा. जब
तक वैसा माहौल नहीं बनता प्रसारण को सरकारी नियंत्रण में रखा जाना ही श्रेयस्कर
है.
कारण कुछ भी रहा हो, इतना अवश्य है कि सरकार
ने प्रसारण के विकास को अच्छी खासी प्राथमिकता दी. जैसी कि पहले चर्चा हो चुकी है,
आज़ादी के उपरान्त भारत में कुल जमा छह रेडियो स्टेशन थे. जब देसी रियासतों को भारत
में मिलाया गया तो इस सूची में पांच केंद्र और शामिल हुए- मैसूर, त्रिवेंद्रम,
हैदराबाद, औरंगाबाद और बडौदा. साथी सरकार ने आज़ादी के तुरंत बाद ही चौदह और रेडियो
स्टेशन खोल दिए. सन 1950 के अंत तक देश में पच्चीस रेडियो स्टेशन काम करने लग गए
थे.
आजादी के बाद देश के विकास के लिए पंचवर्षीय
योजनाओं का माध्यम अपनाया गया. चूँकि सरकार ने प्रसारण को देश की विकास योजनाओं के
एक वाहक के रूप में देखा अतः हर पंचवर्षीय योजना में प्रसार के विकास को काफी
महत्व दिया गया. प्रत्येक योजना के समापन के साथ नए स्टेशन, नए ट्रांसमीटर और
अत्याधुनिक तकनीक वाले उपकरण जुड़ते चले गए. आज़ादी के समय जहां मात्र छह रेडियो
स्टेशन और अठारह ट्रांसमीटर थे वहां वहां अब दो सौ पंद्रह रेडियो स्टेशन हैं.
ट्रांसमीटरों की संख्या बढ़कर तीन सौ सैंतीस हो गयी है. आज़ादी के समय रेडियो स्टेशन
देश के मात्र ढाई प्रतिशत भू-भाग और ग्यारह प्रतिशत जनसंख्या को अपनी सेवा दे पाते
थे. अब रेडियो स्टेशन कुल मिलाकर 91.42 प्रतिशत भू-भाग और 99.13 प्रतिशत जनसमुदाय
तक अपनी आवाज़ पहुंचा रहे हैं. आज़ादी के समय देश में मात्र पौने तीन लाख सेट थे. एक
आकलन के अनुसार अब उनकी संख्या 14 करोड़ के आस-पास है. एक बहुल भाषा-भाषी देश में
आकाशवाणी अपने कार्यक्रम 24 भाषाओं और 146 बोलियों में प्रसारित करता है ताकि
श्रोताओं तक उनकी अपनी जुबान में पहुंचा जा सके. आकाशवाणी के संचालन में वर्तमान
समय में हजारों की संख्या में कर्मचारी पूर्णकालिक और अंशकालिक रूप से तैनात किये
गए हैं.
आकाशवाणी की सेवा विदेशों में भी पहुंचती
है. इस सेवा का उद्देश्य जहां राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर
भारत के दृष्टिकोण को दुनिया के सामने रखना है वहीं यह सेवा भारतीय संगीत, साहित्य
और संस्कृति को भी दूसरे देशों के श्रोताओं तक पहुंचाती है. इसके साथ-साथ विदेशों
में रहने वाले भारतवाशियों के लिए यह एक ऐसे तरंग सेतु के समान है जो उन्हें
मानसिक और भावनात्मक स्तर पर अपनी मिट्टी के साथ जोड़कर रखता है. विदेश सेवा जब 1
अक्टूबर, 1939 को प्रारम्भ की गई थी तो उस समय मात्र पश्तो भाषा में ही इस सेवा के
कार्यक्रम प्रस्तुत किये जाते थे. वर्तमान समय में कुल 27 भाषाओं में कार्यक्रमों
का प्रसारण किया जाता है, जिनमे 17 राष्ट्रीय और 10 विदेशी भाषाएं हैं. इन 27
भाषाओं में हर रोज 72 घंटों की अवधि के कार्यक्रम प्रसारित होते हैं जो विश्व के
लगभग 110 देशों तक पहुंचते हैं.
स्वतंत्रता के बाद समाचार प्रसारण की दिशा
में भी काफी विकास हुआ. आकाशवाणी के तीन उद्देश्य हैं शिक्षा, सूचना और मनोरंजन.
ये तीनों उद्देश्य प्रसारण के ब्रितानी दर्शन से अनुप्राणित और लोक सेवा प्रसारण
के तीन स्तंभों के समान हैं. “सूचना” के प्रसारण का दायित्व आकाशवाणी का समाचार
सेवा प्रभाग निभाता है. इसका ताना-बाना पूरे देश में फैला हुआ है. दिल्ली में
स्थित केन्द्रीय समाचार कक्ष के अतिरिक्त 45 क्षेत्रीय समाचार एकांश हैं.
केन्द्रीय समाचार कक्ष द्वारा शवासियों के लिए 17 भाषाओं में 112 समाचार बुलेटिन
हर रोज प्रसारित होते हैं. क्षेत्रीय समाचार एकांशों द्वारा प्रतिदिन प्रसारित
होने वाले समाचार बुलेटिनों की संख्या 187 है. आकाशवाणी की विदेश सेवा द्वारा 25
भाषाओं में 65 बुलेटिन प्रतिदिन प्रसारित होते हैं.
भारतीय रेडियो प्रसारण तकनीक विकास के
साथ-साथ कदम से कदम मिलाकर चलता रहा है. सन 1977 में ही आकाशवाणी ने यह महसूस किया
था कि आने वाले समय में ए.एम. प्रसारण के साथ-साथ एफ.एम. (फ्रीक्वेंसी मोड्यूलेशन)
प्रसारण भी गति पकड़ेगा. ज्ञातव्य है कि एफ.एम. प्रसारण की तरंगे दूर तक सफ़र नहीं
करतीं लेकिन उनकी ध्वनि अधिक स्पष्ट और अनचाहे व्यवधानों से मुक्त होती है. सन
1977 में आकाशवाणी की पहली एफ.एम. सेवा मद्रास (अब चेन्नई) से प्रारम्भ हुई.
धीरे-धीरे यह सेवा देश के अनेक स्थानों से शुरू की गयी और अब कुल मिलाकर 139
एफ.एम. ट्रांसमीटर हैं. तकनीक विकास के क्षेत्र में एक और कदम 27 फरवरी, 2002 को
उठाया गया. आकाशवाणी ने “डिजिटल सेटेलाइट होम सर्विस” की शुरूआत की जो भारतीय
उपमहाद्वीप के साथ-साथ दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के श्रोताओं को उपलब्ध है. इस
दिशा में एक और मील का पत्थर हम आकाशवाणी की “डाइरेक्ट टू होम सेवा” (डी.डी.एच.)
के रूप में ले सकते हैं. डी.डी.एच. मुख्य रूप से दूरदर्शन के 33 चैनलों को दर्शकों
तक बिना केबिल झंझट के पहुंचाने के लिए है लेकिन इसके साथ ही आकाशवाणी के 12
रेडियो चैनल भी शामिल कर दिए गए हैं.
जैसी कि पहले चर्चा हो चुकी है, आजादी के
समय भारत में मात्र 6 रेडियो स्टेशन थे. जिसके बाद लगभग छह दशकों में आकाशवाणी अब
एक विशाल संगठन है और देश के सुदूरवर्ती भागों में भी रेडियो स्टेशन स्थापित हो
चुके हैं. इस पूरे ताने-बाने को तीन स्तरों पर विभक्त किया गया है. इस त्रिस्तरीय तंतुजाल
का शीर्ष स्तर नेशनल चैनल के रूप में जाना जाता है. यह दिल्ली से प्रसारित होता है
और इसके कार्यक्रम देश भर में सुने जा सकते हैं. इस चैनल की विशेषता यह है कि इसका
प्रसारण शाम से प्रारम्भ होकर सुबह तक चलता है. देर रात में जब अधिकांश स्टेशन सो
जाते हैं तो यह जाग्रत अवस्था में रहता है.
त्रिस्तरीय तंतुजाल के माध्यम स्तर पर क्षेत्रीय
रेडियो स्टेशन हैं. इनका सेवा क्षेत्र एक पूरा राज्य अथवा राज्य का एक बड़ा हिस्सा
होता है और कार्यक्रम की संकल्पना भी इसी हिसाब से की जाती है. तीसरे स्तर पर
स्थानीय रेडियो स्टेशन हैं जिनका दायरा सम्बंधित शहर तथा आस-पास के इलाकों तक
सीमित होता है. ये स्थानीय केंद्र उस स्थान विशेष की प्रतिमाओं को एक मंच प्रदान
करते हैं और स्थानीय समस्याओं पर विमर्श का एक सशक्त माध्यम बनते हैं. पहले दो
स्तरों के रेडियो स्टेशनों की एक कमी यह है कि उनके सेवा क्षेत्र का दायरा बहुत
बड़ा होता है और इस वजह से प्रसारक और श्रोता के बीच लम्बी दूरी बन जाती है.
स्थानीय स्टेशन इस कमी को पूरा करते हैं. प्रसारक और श्रोता की आपसी दूरी लगभग मिट
जाती है. श्रोताओं की दैनंदिन गतिविधियां और समस्याएं सीधे-सीधे उसके अपने रेडियो
स्टेशन पर प्रतिबिंबित होती है. वह स्टूडियो कार्यक्रमों और वाह्य रिकार्डिंगों के
माध्यम से अपने विचार भी आसानी से रख पाता है. ये स्थानीय रेडियो स्टेशन आम लोगों
के एक बड़े हिस्से को अभिव्यक्ति का माध्यम प्रदान करते हैं और उसके संवैधानिक
अधिकार को सार्थक बनाते हैं. भारतीय लोकतंत्र की जड़ों को सशक्त बनाने में स्थानीय
केंद्र एक बड़ी भूमिका निभा रहे हैं.
आल इंडिया रेडियो पर सरकार के गुणगान के
आरोप शुरू से ही लगते रहे हैं. अक्सर इसे सरकारी भोंपू या ऐसे ही विशेषणों से
नवाज़ा जाता रहा है. इन आरोपों की वजह से आकाशवाणी के योगदान से सम्बंधित अनेक
सच्चाइयां परदे की ओट में चली जाती हैं. अपने आरंभिक दिनों में अब-तक और खासकर
आज़ादी के बाद के वर्षों में देश के साहित्यिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विकास में
आकाशवाणी की भूमिका अप्रतिम रही है लेकिन खेद है कि इस पर जिनती चर्चा होनी चाहिए
थी, नहीं हुई है. देश की गतिविधियों के विभिन्न आयामों में ऐसा कोई आयाम नहीं है
जिसमे आल इंडिया रेडियो की भूमिका, साझेदारी या गवाही नहीं हो हो.
अब संगीत की ही बात लें. आजादी के पूर्व
शास्त्रीय संगीत को संरक्षण राजो-राजवाड़ों द्वारा मिला करता था. इस संरक्षण की
अपनी एक सीमा थी. आज़ादी के बाद राजे-रजवाड़े तो समाप्त हो गए मगर रेडियो स्टेशनों
का ताना-बाना सारे शहर में फ़ैल गया. एक सोची समझी निति के तहत रेडियो स्टेशनों ने
शास्त्रीय संगीत के विकास की दिशा में काफी काम किया. सुबह दोपहर और शाम की सभाओं
में शास्त्रीय संगीत के लिए प्रसारण समय की व्यवस्था की गई ताकि हर समय विशेष के
रागों का प्रसारण संभव हो सके. नई प्रतिभाओं के विकास के लिए आडिशन तथा कलाकारों
के वर्गीकरण के सुद्रढ़ नियम बनाये गए, ताकि निर्णय बिना किसी भेदभाव के हो सके.
ऐसी व्यवस्था की गई जिसमें सुदूरवर्ती हिस्से का कोई कलाकार भी आडिशन के माध्यम से
वर्गीकरण की सीढियां चढ़कर राष्ट्रीय स्तर का कलाकार बने. नई पुरानी प्रतिभाओं को
प्रोत्साहन मिलता रहे इसके लिए 20 जुलाई, 1952 से “संगीत का राष्ट्रीय कार्यक्रम”
नामक एक साप्ताहिक कार्यक्रम शुरू किया गया. एक शास्त्रीय संगीन कलाकार को
राष्ट्रीय मान्यता देने और आम लोगों तक संगीत की महान विभूतियों की कला को
पहुंचाने में इस कार्यक्रम ने एक बड़ी भूमिका निभाई है. इस भूमिका को और भी सशक्त
बनाने के लिए सन 1954 से “रेडियो संगीत सम्मलेन” नामक सालाना संगीत जलसे की शुरूआत
की गई. यह संगीत जलसे आमंत्रित श्रोताओं के समक्ष देश के अलग-अलग हिस्सों में एक
ही अवधि के दौरान आयोजित होते हैं और इनकी रिकार्डिंग राष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित
की जाती है. यह एक बहुत बड़ी सच्चाई है कि जो शास्त्रीय संगीत पहले राज-दरबारों में
सीमाबद्ध था उसे आकाशवाणी ने जन-जन तक पहुंचाया.
शास्त्रीय संगीत के आलावा आकाशवाणी ने उपशास्त्रीय
संगीत, सुगम संगीत और लोकसंगीत को सींचा संवारा है. इन विद्याओं के कलाकार
आकाशवाणी के सहयोग के बिना शायद अपने गली मोहल्लों या गावों तक ही सीमित रह जाते हैं.
आकाशवाणी की आतंरिक प्रणाली कुछ इस तरह की है कि अगर किसी में संगीत की प्रतिभा है
तो वह चाहे देश के पिछड़े से पिछड़े क्षेत्र में रहता हो, राष्ट्रीय स्तर का कलाकार
बन सकता है और वह भी बिना दिल्ली का चक्कर काटे. स्थानीय रेडियो स्टेशन अगर उसकी
प्रतिभा से संतुष्ट होता है तो उसकी रिकार्डिंग दिल्ली भेजी जाती है जहां वह उच्च
ग्रेडिंग प्राप्त कर राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त कर सकता है. विभिन्न रेडियो
स्टेशनों द्वारा आमंत्रित श्रोताओं के समक्ष कार्यक्रम आयोजित किये जाते रहे हैं.
इन विशेष कार्यक्रमों में दूसरे स्थानों की प्रतिभाओं को भी पर्याप्त अवसर दिया
जाता है. धीरे-धीरे एक गुमनाम मगर प्रतिभावान कलाकार आकाशवाणी का लाभ उठाकर पूरे
देश में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा सकता है.
संगीत के अलावा अन्य क्षेत्रों की प्रतिभाओं
को भी आकाशवाणी एक सशक्त मंच प्रदान करता है. नाटक कलाकारों, लेखकों, कहानीकारों,
कवियों और वर्णनकारों के अलावा हर प्रकार के बुद्धिजीवियों के लिए आकाशवाणी एक
सशक्त माध्यम है. प्रतिभाओं को जहां मंच मिलता है वहीं श्रोताओं को सोद्देश्य
मनोरंजन और वैचारिक उत्तेजना का लाभ मिलता है. क्षेत्र चाहे विज्ञान का हो, कृषि
का हो या फिर खेल-कूद का. आल इंडिया रेडियो ने हर क्षेत्र की प्रतिभाओं को पुष्पित
पल्लवित होने का पूरा मौका दिया है. जुलाई 1953 से “वार्ताओं के अखिल भारतीय
कार्यक्रम” का प्रसारण प्रारम्भ हुआ था. यह कार्यक्रम हर क्षेत्र के बुद्धिजीवियों
के विचारों से आम श्रोताओं को लाभान्वित करता रहा है.
शास्त्रीय संगीत और भारतीय भाषाओं को
प्रोत्साहित करने की दिशा में दो महत्वपूर्ण कदम 26 जनवरी, 2004 को उड़ाए गए.
आकाशवाणी ने “भाषा भारती” नामक रेडियो चैनल दिल्ली से शुरू किया. शास्त्रीय संगीत
का एक रेडियो चैनल बंगलौर से इसी दिन प्रारम्भ हुआ. स्वातंत्र्योत्तर भारत में
संस्कृति पुनर्जागरण लाने में आकाशवाणी का योगदान महत्वपूर्ण है.
भारतीय प्रसारण का योगदान एक अन्य क्षेत्र
में अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है. खेलकूद में आम लोगों की दिलचस्पी जगाने में
आकाशवाणी ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है. क्रिकेट का जो बुखार आज लोगों के सिर चढ़कर
बोलता है उसके जरासीम आकाशवाणी के ही डाले हुए हैं. आखों देखा हाल के माध्यम से
आकाशवाणी ने मानों क्रिकेट को एक नशे का स्वरूप दे दिया. कई लोगों का ऐसा माना रहा
है कि स्टेडियम में क्रिकेट देखना अभी भी बहुत उबाने वाला अनुभव हो सकता है लेकिन
रेडियो पर आखों देखा हाल सुनने वालों का वाकचातुर्य श्रोताओं को बांधे रखता है.
आखों देखा हाल एक ऐसी गाथा के समान होता है जिसमें अल्प साहित्य के सभी तत्व होते
हैं. इसके अपने पात्र होते हैं जिसमें नायक और खलनायक दोनों ही होते हैं. इसका
अपना एक प्लाट होता है जो मैच के टास के साथ शुरू होता है और धीरे-धीरे विकसित
होता जाता है. इसमें हर तरह के क्षण आते हैं, खुशी के, गम के, उत्साह के, उत्तेजना
के, रोमांच के, रहस्य के और यदा-कदा श्रृंगार के भी. साहित्य में वर्णित सभी रसों
का परिपाक होता रहता है. कहानी का अंत कभी सुखान्त होता है कभी दुखांत. क्रिकेट का
आखों देखा हाल अपने-आप में एक विधा के रूप में विकसित हो गया है जिसमें अंकों और
आकड़ों की मदद से कहानी कही जाती है.
क्रिकेट के समान अन्य खेलों की लोकप्रियता
नहीं मिली है लेकिन इसका दोष आकाशवाणी की बजाय इन खेलों के अधिकारियों पर अधिक जाता
है. आखों देखा हाल के माध्यम से एक गाथा के सृजन के लिए जिन नायकों और महानायकों
की आवश्यकता होती है वे अन्य खेलों में पैदा नहीं हो पा रहे हैं. अगर खिलाड़ियों का
प्रदर्शन अच्छा हो जाए तो अन्य खेलों में भी आकाशवाणी के विवरणकार वीरगाथाओं का
सृजन कर सकते है. इतना अवश्य है उनके बीच लोक सेवा प्रसारण की लोकप्रियता में कमी
आई है. यह चुनौती आने वाले दिनों में और भी गंभीर रूप लेगी. दूरदर्शन की
प्रतिद्वंदिता में आज हर रोज नए-नए चैनल आ रहे हैं. सैद्धांतिक रूप से देखा जाए तो
आज भारत के दर्शकों को 400 के आस-पास चैनल उपलब्ध हैं. आम दर्शक को तो सारे चैनल
उपलब्ध नहीं हो पाते परन्तु व्यवहारतः एक सामान्य केबल आपरेटर भी 100 के आस-पास
चैनल अपने ग्राहकों को मुहैया करा ही देता है. जहां तक आकाशवाणी का सवाल है, उसके
एकाधिकार में भी दरार आने लग गई है और आने वाले दिनों में बड़ी संख्या में निजी रेडियो
स्टेशन खुलेंगे. बढ़ती प्रतियोगिता के इस माहौल में टिके रहना और प्रगति पथ पर
अग्रसर रहना एक बड़ी चुनौती है.
इस चुनौती का हर भारतीय लोक सेवा प्रसारक को
अपने अन्दर से ही ढूंढना होगा. भारत में लोक सेवा प्रसारण का इतिहास काफी पुराना
रहा है. ऐसे में स्वाभाविक रूप से लोक सेवा प्रसारण के साथ अनेक परम्पराएं भी जुड़ी
हुई हैं. परम्पराएं ताकत देती हैं लेकिन जब वे रूढ़ियों का रूप ले लेती हैं तो
दुर्बलता बन जाती हैं. ऐसी अनेक रूढियां आकाशवाणी और दूरदर्शन के अनेक कार्यक्रमों
के निर्माण और प्रस्तुतीकरण में दृष्टिगोचर होती हैं. ऐसे अनेक कार्यक्रम हैं जो
वर्षों बाद भी अपनी उसी पुरानी लीक और ढर्रे पर हैं. जब वे शुरू हुए थे तो उनमें
नवीनता और ताजगी थी. श्रोताओं द्वारा वे काफी पसंद किया जाते थे लेकिन समय के
साथ-साथ अब उनमें एक उबाऊपन आ चुका है. रेडियो और टेलीवीजन रचनात्मकता और
कल्पनाशीलता की मांग करते हैं. ये लीक और रूढ़ियों में बंधकर नहीं रह सकते. अगर
इन्हें इनका प्राप्य मिलता रहे तो ये अपने श्रोता दर्शक अपने-आप ही ढूंढ लेंगे. जब
इन्हें निरंतर श्रोता और दर्शक मिलते रहेंगे तो सार्थकता और प्रासंगिकता इसे
प्राप्त होने वाले व्यापक जन समर्थन में ही अनुगुंजित होती रहेगी.
लोक सेवा प्रसारण 20वीं सदी के दौरान भारत
सहित दुनिया के अनेक देशों में एक राजनीतिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामाजिक
आन्दोलन के रूप में रहा. 20वीं सदी को रूप और आकार देने में जिन शक्तियों की
भूमिका रही है उनमें लोक सेवा प्रसारण भी एक है. 20वीं सदी के दौरान जिन सामाजिक,
सांस्कृतिक और सामाजिक-आर्थिक मूल्यों को केंद्र में रखा गया उनके पोषण और सिंचन
में लोक सेवा प्रसारण ने अविस्मरणीय भूमिका निभाई. इस भूमिका का वास्तविक और
वस्तुपरक मूल्यांकन अभी पूरी तरह होना बाक़ी है. अब हम 21वीं सदी में प्रवेश कर
चुके हैं. यह सदी लोक सेवा प्रसारण के लिए दोहरे संघर्ष की सदी है. लोक सेवा
प्रसारण को इस सदी में न केवल अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना है बल्कि उन
उदात्त मानवीय मूल्यों के लिए भी लड़ाई लड़ते रहनी है जिन्हें आज की बाजारोन्मुखी
संस्कृति ने खतरे में डाल दिया है. आम आदमी के लिए लोक सेवा प्रसारण आज भी आशा की
एक किरण की तरह ही है. लोक सेवा प्रसारण के अंतर्गत रेडियो के विगत इतिहास को
ध्यान में रखते हुए यह उम्मीद करना सही होगा कि यह आशा की किरण नई सदी की नई सुबह
की निरंतर किरण ही साबित होती रहेगी.
(लेखक-मीडिया एक्टिविष्ट हैं.) मो. 9451907315
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