Saturday 6 October 2012

नारी स्वछंदता, एक आत्मघाती हथियार


नारी स्वछंदता एक आत्मघाती हथियार
o अतुल मोहन 'समदर्शी'
भारतीय नारी की लाल्पना मात्र से ही मन मस्तिष्क में आज भी एक कोमल, शालीन और सरल छवि का दर्शन होता है। जिसके तन पर सादी का कसाव हो, लहराते बाल हों। रंग श्वेत-श्याम कैसा भी हो, परन्तु चेहरे पर ममता और गरिमा का अलौकिक नूर हो। उसके आँचल में इतना विस्तार हो कि सारी सृष्टि स्वयं को सुरक्षित महसूस करे। आधुनिक चेतना के इस नवीन युग में भारतीय नारी का यह दिव्य रूप भी आधुनिकता की भेंट चढ़ गया है। भारतीय संस्कृति की परम्परा में नारी को बचपन में पिता, यौवन में पति, तथा बृद्धावस्था में पुत्रों के संरक्षण का आश्रय प्राप्त था। यह आश्रय सम्मान और स्वभावगत-कोमलता का द्योतक था, पराधीनता का नहीं। किन्तु बदलते विकास के आधुनिक परिदृश्य ने इस संरक्षण को स्त्री की पराधीनता का नाम दे दिया है। आज भले ही परिवर्तन समाज में नारी की इज्ज़त और लज्जा को बेपर्दा करने का दुशासन की मानसिकता में कोई कमी न आयी हो पर आज द्रोपदी ने कृष्ण को बुलाने के स्थान पर परिवार, कुल व समाज की सीमा रेखा लाघती हुई दुशासन के साहस को साहसपूर्वक चुनौती देने का साहस रखती है। 
        विकास और आधुनिकता की ओर बढ़ते हमारे कदमों ने नारी के उत्थान के लिए नारी के विकास की एक नयी परिभाषा ही तय कर डाली, जिसमें आधुनिकता के नाम पर खुलापन, सोच की निर्द्वंद स्वतंत्रता जैसे मानक आत्मसात कर लिए गए हैं। यह सामाजिक मानक कहीं न कहीं क्षणिक 
सुख पर आधारित है। भारतीय नारी जिसकी कल्पना से ही ह्रदय वीणा के तार झंकृत हो उठते थे, मन मस्तिष्क पर आकर्षण का मनमोहक चन्दन गमगमाता था, मादक नहीं, वो आज अपनी पहचान खो चुकी है। आज भारतीय नारी घर के बाहर निकलकर पुरुषों को हर क्षेत्र में चुनौती दे रही है। इस बात से ह्रदय अभिभूत हो उठता है कि आज नारी प्रथ्वी की अपनी परर्यायवाची सीमा भी पार कर गयी है। शिक्षा ने आज महिलाओं को उनके अधिकारों को उनके अधिकारों की संज्ञानता प्रदान कर दी गयी है, पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर चलने का अतिसय साहस प्रदान कर दिया है। आधुनिकता, नारी सशक्तीकरण तथा शिक्षा के इस सम्प्रेषण में कहीं न कहीं नारी को एक अलग पहचान दी है, किन्तु यह भी उतना ही निर्विवाद सत्य है कि इस प्रवृत्ति में हर अस्तित्व के दो पहलू हैं, चाहे वह दिन-रात हो। एक है तभी दूसरे का अस्तित्व है। वस्तुतः नारी उत्थान की यह पहल जितनी सकारात्मक है, उतने ही उसके नकारात्मक निहितार्थ भी हैं।
      भूमंडलीकरण और उदारीकरण के इस दौर में जहां मानवीय मूल्यों के स्थान पर निहित स्वार्थों की स्वीकारोक्ति ने अपनी स्थिथि सुद्रढ़ की। इसी बदलते वक्त के साथ सोच बदली और 'नारी' तथाकथित रूप से अबला से सबला हो गयी किन्तु उसने अपने आँचल के अमृत और पानी को खो दिया है। 'सबला' होने की परिभाषा ही आज है, तन से कम होते कपडे, प्रकृति प्रदत्त कोमल गुणों का परित्याग जो विधाता ने स्त्री को वरदानस्वरूप दिया था दिया था। 'पुरुष' की बराबरी करते-करते 'पुरुष' बनने की मानसिक वृत्ति, एवाहित तथा अधिकारों के संज्ञान के नाम पर एकांकी सोच और बढ़ती हुयी 'मैं' और 'मेरा परिवार' की भावना। दुर्भाग्यवश आज इन सभी परिवर्तनों की समय की मांग को वक्त की मांग और नारी विकास की आवश्यकता कहा जा रहा है। स्त्री हिंसा तथा शोषण के बढ़ते आंकड़े, दुराचार की बढ़ती घटनाएं तथा तमाम ऐसी विसंगतियां महिला समस्याओं से मुक्ति के लिए 'आधुनिक शोषण' का रूप अख्तियार कर चुकी है। इन तमाम बुनियादी मुद्दों और सामाजिक समस्याओं से छुटकारे के रूप में 'आधुनिकता' का जो हथियार महिलाओं को दिया गया था, उसके बावजूद आज नारी सबसे ज्यादा असुरक्षित और भयाक्रांत है। यह शोध का विषय होना चाहिए कि शुरक्षा की भावना इतनी पारदर्शी क्यों है ?शायद आज नारी कपड़ों से सबला हुयी है, परम्परा का परित्याग कर पाश्चात्य आधुनिकता को अपनाने में आधुनिक हुयी है किन्तु अपनी मर्यादा और गरिमा में अबला हो गयी है। 'मैं' और 'मेरा' में सिमटकर खोखली हो गयी, तभी इतने मज़बूत सुरक्षा घेरे के बावजूद भी असुरक्षित है। आधुनिकता और फूहड़पन की इस 'अवश्यंभावी रौ' को अपनाते समय वह प्राचीन नारी ही थी जो एक ओर सीता-सावित्री थी तो दूसरी ओर घोषा, गार्गी, अपाला और अनुसुईया भी थी, वह शबरी, अहिल्या और पन्नाध्याय का रूप भी थी, तो वहीँ रानी लक्ष्मीबाई, बेगम हज़रत महल, उद्धादेवी जैसी वीरांगना भी थी। वह मीरा और राधा की तरह प्रेम भक्तिन भी थी। परिवार से लेकर समाज तथा युद्धभूमि के मध्य एक कड़ी थी भारतीय नारी।
      अफ़सोस!प्राचीन काल का वह आधुनिक युग आज पश्चिमी प्रदर्शन की होड़ में सृष्टि का आधार (नारी) का ही परिमार्जन कर चुका है। इतिहास साक्षी है कि जैसे-जैसे समाज में स्त्री की स्थिति बिगड़ी है वैसे ही हमारे देश का पतन हो गया। दुर्भाग्यवश यह परिवर्तन आज विकासक्रम में हो रहा है। आधुनिकता के नाम पर असंस्कृति-आदतें हमारी जड़ों को खोखला कर रहीं हैं आज की तथाकथित, परिमार्जित, मनोवृत्तियां हमें विकास की ओर न ले जाकर गड्ढे में ढकेल रही है, आज की नवयुवतियां कंधा, कमर तथा काया तक ही अपनी पहचान बनानी चाहती हैं। टूटती वर्जनाएं, विखंडित होती मर्यादाएं और आधुनिकता का ऐसा ज़हर, जो शरीर को उन्मुक्तता में खोलता ही जा रहा है और बुद्धि तथा विवेक को ढकता जा रहा है। यदि यही आधुनिकता, सशक्तिकरण और विकास की मांग है तो आदिम युग का वह मानव ज्यादा आधुनिक और विकसित था जो जंगलों में विचरण करता था और पूर्णतः निर्द्वंद था। हाय रे! मानव मष्तिस्क तूने तो हद कर दी है, पुरुषों के कन्धों से कंधा मिलाकर चलनें का अतिशय साहस प्रदान कर दिया है। आधुनिकता, नारी सशक्तिकरण तथा शिक्षा के इस सम्प्रेषण में कहीं न कहीं नारी को एक अलग पहचान दी है, जिसनें विकास की पहली सीढ़ी उसी आदिम युग की आधुनिकता के धरातल से प्रारम्भ की।