Wednesday 10 October 2012

गांधी जयंती की पूर्व संध्या पर  दिनांक-01/10/2012, को "जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन" द्वारा आयोजित सेमीनार 'गांधीजी के सपनों का भारत और वर्तमान लोकतंत्र' स्थान-करन भाई सभागार, गांधी भवन, कैसरबाग, लखनऊ, की कुछ झलकियाँ 














Tuesday 9 October 2012

kavita ki kavita ( ye lamha filhal ji lene de ): आज साथ है वो कुछ पल के लिए ,ये पल बदल जाये हर पल...

kavita ki kavita ( ye lamha filhal ji lene de ):
आज साथ है वो कुछ पल के लिए ,
ये पल बदल जाये हर पल...
: आज साथ है वो कुछ पल के लिए , ये पल बदल जाये हर पल के लिए ! फासलों के नाम से डर लगता है , उनके बिना सब कम लगता है ! क्यों  ज़िन्दगी ऐ...

भारतीय गणतंत्र के छह दशक की समस्याएँ

भारतीय गणतंत्र के छह दशक समस्याएँ
0 प्रकाश झा

        प्रत्येक भारतीय की इच्छा होती है कि हमारा गणतंत्र अमर रहे। गणतंत्र का आकलन सदैव होते रहना चाहिए। हम कहाँ खड़े हैं, कहाँ तक जाना है और जाने के लिए कहाँ और कैसे प्रयास करने हैं, इसकी जानकारी भी होनी चाहिए। हम अधिकारों की बात तो करते हैं पर कर्तव्यों के प्रति उदासीन रहते हैं। स्थितियाँ बदलनी है तो हमें वर्तमान हालात पर नजर दौड़ानी होगी। सच से कब तक भागेंगे?
         कृषि क्षेत्र में हम पिछड़ रहे हैं। वर्ष १९५१ में प्रति व्यक्ति कृषि जोत उपलब्धता ०.४६ हेक्टेयर थी, जो १९९२-९३ में घटकर ०.१९ रह गई। वर्तमान में यह ०.१६ है। जून २००९ में संसद में राष्ट्रपति ने कहा कि सरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम लाएगी लेकिन अभी तक इसकी अधिसूचना जारी नहीं हुई है। हमारे देश में ५३ प्रतिशत आबादी भुखमरी और कुपोषण की शिकार है। भारत के डेढ़ करोड़ बच्चे कुपोषित होने के कगार पर हैं। विश्व की २७ प्रतिशत कुपोषित आबादी भारत में है। देश में ५८ हजार करोड़ का खाद्यान भण्डारण और आधुनिक तकनीक के अभाव में नष्ट हो जाता है। यह कैसी विडम्बना है कि कृषि आधारित व्यवस्था वाले देश की भुखमरी और कुपोषण में विश्व में ११९ देशों में ९४वाँ स्थान है। गरीबी और विषमता घटने के बजाय बढ़ गई है। सुरेश तेंदुलकर समिति ने एक रिपोर्ट तैयार की है। इसके अनुसार भारत में ३७.२ प्रतिशत लोग बहुत गरीब हैं। पिछले ११ वर्षों में ११ करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे आ गए हैं। ४५ करोड़ लोग प्रति माह प्रति व्यक्ति ४४७ रुपये पर गुजारा कर रहे हैं।
        गाँवों का विकास नहीं हो रहा। शहरों में ७७.७० फीसदी लोग पक्के मकान में रहते हैं, वहीं ग्रामीण भारत के केवल २९.२० फीसदी लोगों के पास यह सुविधा उपलब्ध है। शहरों के ८१.३८ फीसदी लोगों को पीने का पानी उपलब्ध है। वहीं गाँवों के ५५.३४ फीसदी लोगों को ही पीने का पानी नसीब हो रहा है। शहरों के ७५ फीसदी लोगों तक ही बिजली पहुँच पा रही है। वहीं गावों के सिर्फ ३० फीसदी लोग ही बिजली का लाभ उठा पा रहे हैं। आज भी देश की ७२.२२ फीसदी आबादी गावों में रहती है। अत: गाँव के समग्र विकास के बिना हम दुनिया की दौड़ में भारत को आर्थिक रूप से मजबूत भी नहीं बना सकते।
        भारत पर विदेशी कर्ज का बोझ ३१ दिसम्बर २००८ तक बढ़कर २३०८० अरब डॉलर पर पहुँच गया जो समीक्षाधीन अवधि में २५४६ अरब डॉलर के विदेशी मुद्रा भण्डार के मुकाबले मामूली रूप से कम है। संयुक्त राष्ट्र आर्थिक एवं सामाजिक आयोग ने अनुमान व्यक्ति किया है कि वर्ष २०२५ तक भारत की जनसंख्या बढ़कर १५ अरब हो जाएगी। वर्ष २०२५ तक आधी आबादी शहरों में रहने लगेगी। भारतीय शहरों में अगर कोई आपदा आए तो उसका नागरिकों पर गहरा असर पड़ेगा।

विश्व के भ्रष्ट देशों में हमारा ८५वाँ और एशिया में चौथा स्थान है। साल की शुरुआत से पहले ही देश में सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की सबसे बड़ी कम्पनी सत्यम् में सात हजार करोड़ रुपये का घोटाला सामने आया। इस दौरान संचार मंत्रालय का स्पेक्ट्रम, झारखंड के पूर्व राज्यपाल श्री सिब्ते रजी तथा पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा, पूर्व केन्द्रीय मंत्री के बेटे स्वीटी तथा हाल के दिनों में संसद में गूँजी जस्टिस दिनाकरण एवं सैन्य अधिकारियों के भूमि घोटालों ने भी भारत की साख को गहरा धक्का पहुँचाया है।
        सरकार दावा करती है कि प्राथमिक कक्षाओं में ९०.९५ फीसदी दाखिले हो रहे हैं लेकिन उसके उलट युवाओं का एक तिहाई हिस्सा निरक्षर है और प्राथमिक स्तर की पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पा रहा है। जिस युवा भारत की तस्वीर पेश की जा रही है वह सूचना तकनीक कंप्यूटर, सॉफ्टवेयर, मैनेजमेंट आदि की शहरी दुनिया में जीने वाले युवाओं की तस्वीर है। भारत के गाँवों तथा शहरों की झोंपडपट्टियों में रहने वाले ७०-८० फीसदी बच्चों, किशोरों और युवाओं से इसका कोई वास्ता नहीं है। इस असली युवा भारत के निर्माण के बगैर भारत का निर्माण संभव नहीं। स्वास्थ्य की दृष्टि से देखें तो जनसंख्या मानदंडों के अनुसार २०,८५५ उपकेंद्रों ४८३३ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और २५२५ समुदाय स्वास्थ्य केंद्रों की कमी है। डॉक्टरों एवं नर्सों की भारी कमी है। जिस देश में प्रतिदिन एक हज़ार लोग रोग से मरते हों, वहाँ सरकार जीडीपी का लगभग एक प्रतिशत ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करती है। अपार संभावनाओं से भरा भारत किन कारणों से अभावग्रस्त जीवन जीने को मजबूर है, जैसे विषयों पर प्रत्येक भारतीय को विचार करना होगा। अगर हम ऐसा कर पाए तो वह सपना पूरा होने में कोई संदेह नहीं जब हम सभी एक स्वर से कहें, ''मेरा भारत महान।'

भारतीय गणतंत्र के छह दशक की अपेक्षाएँ


भारतीय गणतंत्र के छह दशक की अपेक्षाएँ
0 शिव कुमार गोयल

      लाखों राष्ट्रभक्तों के त्याग और बलिदान के बाद २६ जनवरी १९५० को घोषित हमारा यह गणतंत्र, हमारी किन आकांक्षाओं पर खरा उतरा और कौन सी आकांक्षाएँ अधूरी रह गईं यह जानने का समय अब आ गया है। गणतंत्र का सीधा सा अर्थ है- ‘जनता के द्वारा, जनता के लिए और जनता का तंत्र।’
       गणतंत्र की घोषणा के समय लगता था कि अब मुगल आक्रांताओं तथा अंग्रेजों की दासता से मुक्ति के बाद भारत में पुन: भारतीय प्रणाली का आदर्श राज्य विकसित होगा। विदेशी भाषा, विदेशी विचारों व विदेशी तंत्र से पूर्ण मुक्त स्वदेशी का बोलबाला होगा। जनता किसी भी तरह के उत्पीड़न, असमानता, भेदभाव से पूरी तरह मुक्त होकर खुली साँस लेने का सपना संजोने लगी, किंतु यह सपना सत्य हुआ नहीं।
        न अंग्रेजों की शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन किया गया न न्याय प्रणाली में। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान आश्वासन दिया गया था कि विदेशी वस्तुओं का आयात पूरी तरह बंद कर देश में बनी वस्तुओं के उपयोग का मार्ग प्रशस्त किया जाएगा। विदेशी वस्तुओं की होली जलाई जाती थी। घोषणा की जाती थी कि शराब का उपयोग नहीं होने दिया जाएगा। अंग्रेजी भाषा की जगह हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया जाएगा। भारतीय कृषि की रीढ़ गाय-बैलों की हत्या पर तुरंत प्रतिबंध लगा दिया जाएगा।
          स्वाधीनता के बाद जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री बनाये गए। नेहरू का सपना था कि भारत को अमेरिका, ब्रिटेन की तरह आधुनिकतम देश बनाना है। विदेशी संविधानों को इकट्ठा कर उन्हीं पर आधारित भारत का संविधान बनाया गया। विकास व आधुनिकता के लिए अंग्रेजी भाषा को आवश्यक बताकर हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के महत्व को नकार दिया गया। शराब को आय का प्रमुख स्रोत बताकर मद्य-निषेध के आश्वासन को फाइल में बंद कर दिया गया। अंग्रेजों के शासन काल की तमाम व्याधियों को लागू देखकर एक बार राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन के मुख से निकल गया- ‘गोरे देश से भले चले गये- काले अंग्रेजों के हाथों सत्ता आ गई है।’
        ‘गणतंत्र’ घोषित होने के बाद चुनाव कराए गए। लोकसभा में सत्तारूढ़ कांग्रेस के विरोध में सशक्त विपक्षी दल उभरा। कांग्रेस किसी भी तरह सत्ता पर काबिज रहने के लिए नये-नये ताने-बाने बुनने में लग गई। जातिवाद की विष-बेल को पनपाना शुरू किया गया। दूसरी ओर वोटों के लिए अल्पसंख्यकवाद को प्राश्रय दिया जाने लगा। विभाजन के बाद कश्मीर में अलगाववादी दनदनाने लगे। कबाइली हमले को हमारी बहादुर सेना ने विफल कर श्रीनगर घाटी की रक्षा की गई तो शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर का स्वतंत्र सुलतान बनने का सपना बुनना शुरू कर दिया। वर्ष १९५३ में डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान व प्रजा परिषद के व्यापक आंदोलन के बाद ही शेख का सपना चकनाचूर हो पाया।
         कांग्रेस द्वारा तेजी से उभरते जनसंघ जैसे विपक्षी दलों को सांप्रदायिक बताकर विषवमन करना शुरू कर दिया। जनसंघ व हिंदू महासभा को सांप्रदायिक बताकर अल्पसंख्यकों का शत्रु बताकर, अल्पसंख्यकों को लामबंद करने के प्रयास किये। दूसरी ओर कांग्रेस ने मुस्लिम लीग जसी घोर अराष्ट्रीय संस्था से चुनाव में सहयोग लेने में हिचकिचाहट नहीं की। सत्ता की लालसा से देश में सक्रिय पाकिस्तान प्रशिक्षित घुसपैठियों व आतंकवादियों की गतिविधियों को किसी न किसी प्रकार से संरक्षण ही मिलता गया।
         कांग्रेस की तरह अन्य दल भी उन तमाम विकृतियों के शिकार होते गए। प्रत्याशियों द्वारा चुनावों में करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाये जाने लगे। इसका परिणाम तरह-तरह के भ्रष्टाचार के रूप में सामने आने लगा। विदेशी बैंकों में भी इन भारतीय राजनेताओं के काले धन का अंबार लगने लगा। हत्यारों, अपहरण कर्ताओं, बलात्कारियों को जेल भेजने की जगह राजनीति में स्थान दिया जाने लगा। राजनीति का तेजी से अपराधीकरण होने लगा। बाहुबलियों, अपराधियों को प्रत्याशी बनाया जाने लगा। परिणामत: गणतंत्र की जगह गनतंत्र (बंदूक) तथा धनतंत्र लेते जा रहे हैं। सभी दलों ने सिद्धांतों का परित्याग कर किसी भी तरह सत्ता प्राप्ति को अपना उद्देश्य बना लिया। उन्हें न अपराधियों से कोई गुरेज है न राष्ट्रद्रोही अलगाववादियों से। वोटों के खिसकने के भय के कारण ही संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को आज तक फाँसी नहीं दी गई है।
         आज देश की अखंडता को खुली चुनौती दी जा रही है। नेपाल में माओवादी भारत को आंखें दिखा रहे हैं तो कई राज्यों में नक्सली सुरक्षाबलों पर हमले कर नृशंस हत्याएं कर रहे हैं। पाकिस्तान जाली नोटों की खेप भेजकर हमारी अर्थव्यवस्था चौपट करने में सक्रिय हैं। चीन ने पाकिस्तान से सांठगांठ करके पुन: भारत की भूमि पर अतिक्रमण कर अरुणाचल प्रदेश को अपना क्षेत्र बता हमारी भूमि पर अनाधिकृत कब्जा करके हमें खुली चुनौती दे रहा है। देश की जनता एक ओर भीषण महंगाई का शिकार बनकर दाने-दाने को मोहताज होती दिखाई दे रही है ऐसी विषम स्थिति में गणतंत्र का सपना साकार करना कोई आसान काम नहीं।

भारतीय गणतंत्र के छह दशक की सफलताएँ


भारतीय गणतंत्र के छह दशक की सफलताएं
प्रो0 संजय द्विवेदी
       पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम ने जब देश को २०२० में महाशक्ति बन जाने का सपना दिखाया था, तो वे एक ऐसी हकीकत बयान कर रहे थे, जो जल्दी ही साकार होने वाली है। आजादी के ६ दशक पूरे करने के बाद भारतीय लोकतंत्र एक ऐसे मुकाम पर है, जहाँ से उसे सिर्फ आगे ही जाना है। अपनी एकता, अखंडता और सांस्कृतिक व नैतिक मूल्यों के साथ पूरी हुई इन ६ दशकों की यात्रा ने पूरी दुनिया के मन में भारत के लिए एक आदर पैदा किया है। यही कारण है कि हमारे भारतवंशी आज दुनिया के हर देश में एक नई निगाह से देखे जा रहे हैं। उनकी प्रतिभा का आदर और मूल्य भी उन्हें मिल रहा है। अब जबकि हम फिर नए साल-२०१० को अपनी बांहों में ले चुके हैं तो हमें सोचना होगा कि आखिर हम उस सपने को कैसा पूरा कर सकते हैं जिसे पूरे करने के लिए सिर्फ दस साल बचे हैं। यानि २०२० में भारत को महाशक्ति बनाने का सपना।
        एक साल का समय बहुत कम होता है। किंतु वह उन सपनों की आगे बढ़ने का एक लंबा समय है क्योंकि ३६५ दिनों में आप इतने कदम तो चल ही सकते हैं। आजादी के लड़ाई के मूल्य आज भले थोड़ा धुंधले दिखते हों या राष्ट्रीय पर्व औपचारिकताओं में लिपटे हुए, लेकिन यह सच है कि देश की युवाशक्ति आज भी अपने राष्ट्र को उसी ज़ज्बे से प्यार करती है, जो सपना हमारे सेनानियों ने देखा था। हमारे प्रशासनिक और राजनीतिक तंत्र में भले ही संवेदना घट चली हो, लेकिन आम आदमी आज भी बेहद ईमानदार और नैतिक है। वह सीधे रास्ते चलकर प्रगति की सीढ़ियाँ चढ़ना चाहता है।
         यदि ऐसा न होता तो विदेशों में जाकर भारत के युवा सफलताओं के इतिहास न लिख रहे होते। जो विदेशों में गए हैं, उनके सामने यदि अपने देश में ही विकास के समान अवसर उपलब्ध होते तो वे शायद अपनी मातृभूमि को छोड़ने के लिए प्रेरित न होते। बावजूद इसके विदेशों में जाकर भी उन्होंने अपनी प्रतिभा, मेहनत और ईमानदारी से भारत के लिए एक ब्रांड एंबेसेडर का काम किया है। यही कारण है कि साँप, सपेरों और साधुओं के रूप में पहचाने जाने वाले भारत की छवि आज एक ऐसे तेजी से प्रगति करते राष्ट्र के रूप में बनी है, जो तेजी से अपने को एक महाशक्ति में बदल रहा है।

आर्थिक सुधारों की तीव्र गति ने भारत को दुनिया के सामने एक ऐसे चमकीले क्षेत्र के रूप में स्थापित कर दिया है, जहाँ व्यवसायिक विकास की भारी संभावनाएं देखी जा रही हैं। यह अकारण नहीं है कि तेजी के साथ भारत की तरफ विदेशी राष्ट्र आकर्षित हुए हैं। बाजारवाद के हो-हल्ले के बावजूद आम भारतीय की शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक स्थितियों में व्यापक परिवर्तन देखे जा रहे हैं। ये परिवर्तन आज भले ही मध्यवर्ग तक सीमित दिखते हों, इनका लाभ आने वाले समय में नीचे तक पहुँचेगा।
          भारी संख्या में युवा शक्तियों से सुसज्जित देश अपनी आंकाक्षाओं की पूर्ति के लिए अब किसी भी सीमा को तोड़ने को आतुर है। वे तेजी के साथ नए-नए विषयों पर काम कर रही है, जिसने हर क्षेत्र में एक ऐसी प्रयोगधर्मी और प्रगतिशील पीढ़ी खड़ी की है, जिस पर दुनिया विस्मित है। सूचना प्रौद्योगिकी, फिल्में, कृषि और अनुसंधान से जुड़े क्षेत्रों या विविध प्रदर्शन कलाएँ हर जगह भारतीय प्रतिभाएँ वैश्विक संदर्भ में अपनी जगह बना रही हैं। शायद यही कारण है कि भारत की तरफ देखने का दुनिया का नजरिया पिछले एक दशक में बहुत बदला है। ये चीजें अनायास और अचानक घट गईं हैं, ऐसा भी नहीं है। देश के नेतृत्व के साथ-साथ आम आदमी के अंदर पैदा हुए आत्मविश्वास ने विकास की गति बहुत बढ़ा दी है। भ्रष्टाचार और संवेदनहीनता की तमाम कहानियों के बीच भी विश्वास के बीज धीरे-धीरे एक वृक्ष का रूप ले रहे हैं।
         इसका यह अर्थ नहीं कि सब कुछ अच्छा है और करने को अब कुछ बचा ही नहीं। अपनी स्वभाविक प्रतिभा से नैसर्गिक विकास कर रहा यह देश आज भी एक भगीरथ की प्रतीक्षा में है, जो उसके सपनों में रंग भर सके। उन शिकायतों को हल कर सके, जो आम आदमी को परेशान और हलाकान करती रहती हैं। इसके लिए हमें साधन संपन्नों और हाशिये पर खड़े लोगों को एक तल पर देखना होगा। क्योंकि आजादी तभी सार्थक है, जब वह हिंदुस्तान के हर आदमी को समान विकास के अवसर उपलब्ध कराए। 

भारतीय गणतंत्र की यात्रा कथा




भारतीय गणतंत्र की यात्रा कथा
0अतुल मोहन सिंह
60 वर्ष पहले 21 तोपों की सलामी के बाद भारतीय राष्‍ट्रीय ध्‍वज को डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद ने फहरा कर 26 जनवरी 1950 को भारतीय गणतंत्र के ऐतिहासिक जन्‍म की घो‍षणा की। एक ब्रिटिश उप निवेश से एक सम्‍प्रभुतापूर्ण, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्‍ट्र के रूप में भारत का निर्माण एक ऐतिहासिक घटना रही। यह लगभग 2 दशक पुरानी यात्रा थी जो 1930 में एक सपने के रूप में संकल्पित की गई और 1950 में इसे साकार किया गया। भारतीय गणतंत्र की इस यात्रा पर एक नजर डालने से हमारे आयोजन और भी अधिक सार्थक हो जाते हैं।
भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस का लाहौर सत्र

गणतंत्र राष्‍ट्र के बीज 31 दिसंबर 1929 की मध्‍य रात्रि में भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस के लाहौर सत्र में बोए गए थे। यह सत्र पंडित जवाहर लाल नेहरु की अध्‍यक्षता में आयोजि‍त किया गया था। उस बैठक में उपस्थित लोगों ने 26 जनवरी को "स्‍वतंत्रता दिवस" के रूप में अंकित करने की शपथ ली थी ताकि ब्रिटिश राज से पूर्ण स्‍वतंत्रता के सपने को साकार किया जा सके। लाहौर सत्र में नागरिक अवज्ञा आंदोलन का मार्ग प्रशस्‍त किया गया। यह निर्णय लिया गया कि 26 जनवरी 1930 को पूर्ण स्‍वराज दिवस के रूप में मनाया जाएगा। पूरे भारत से अनेक भारतीय राजनैतिक दलों और भारतीय क्रांतिकारियों ने सम्‍मान और गर्व सहित इस दिन को मनाने के प्रति एकता दर्शाई।

भारतीय संविधान सभा की बैठकें


भारतीय संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को की गई, जिसका गठन भारतीय नेताओं और ब्रिटिश कैबिनेट मिशन के बीच हुई बातचीत के परिणाम स्‍वरूप किया गया था। इस सभा का उद्देश्‍य भारत को एक संविधान प्रदान करना था जो दीर्घ अवधि प्रयोजन पूरे करेगा और इसलिए प्रस्‍तावित संविधान के विभिन्‍न पक्षों पर गहराई से अनुसंधान करने के लिए अनेक समितियों की नियुक्ति की गई। सिफारिशों पर चर्चा, वादविवाद किया गया और भारतीय संविधान पर अंतिम रूप देने से पहले कई बार संशोधित किया गया तथा 3 वर्ष बाद 26 नवंबर 1949 को आधिकारिक रूप से अपनाया गया।

संविधान प्रभावी हुआ


जबकि भारत 15 अगस्‍त 1947 को एक स्‍वतंत्र राष्‍ट्र बना, इसने स्‍वतंत्रता की सच्‍ची भावना का आनन्‍द 26 जनवरी 1950 को उठाया जब भारतीय संविधान प्रभावी हुआ। इस संविधान से भारत के नागरिकों को अपनी सरकार चुनकर स्‍वयं अपना शासन चलाने का अधिकार मिला। डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद ने गवर्नमेंट हाउस के दरबार हाल में भारत के प्रथम राष्‍ट्रपति के रूप में शपथ ली और इसके बाद राष्‍ट्रपति का काफिला 5 मील की दूरी पर स्थित इर्विन स्‍टेडियम पहुंचा जहां उन्‍होंने राष्‍ट्रीय ध्‍वज फहराया।

तब से ही इस ऐतिहासिक दिवस, 26 जनवरी को पूरे देश में एक त्‍यौहार की तरह और राष्‍ट्रीय भावना के साथ मनाया जाता है। इस दिन का अपना अलग महत्‍व है जब भारतीय संविधान को अपनाया गया था। इस गणतंत्र दिवस पर महान भारतीय संविधान को पढ़कर देखें जो उदार लोकतंत्र का परिचायक है, जो इसके भण्‍डार में निहित है। आइए अब गर्व पूर्वक इसे जानें कि हमारे संविधान का आमुख (बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं)क्‍या कहता है।

क्‍या आप जानते हैं?
395 अनुच्‍छेदों और 8 अनुसूचियों के साथ भारतीय संविधान दुनिया में सबसे बड़ा लिखित संविधान है।

डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद, स्‍वतंत्र भारत के प्रथम राष्‍ट्रपति ने भारतीय गणतंत्र के जन्‍म के अवसर पर देश के नागरिकों का अपने विशेष संदेश में कहा था- 

"हमें स्‍वयं को आज के दिन एक शांतिपूर्ण किंतु एक ऐसे सपने को साकार करने के प्रति पुन: समर्पित करना चाहिए, जिसने हमारे राष्‍ट्र पिता और स्‍वतंत्रता संग्राम के अनेक नेताओं और सैनिकों को अपने देश में एक वर्गहीन, सहकारी, मुक्‍त और प्रसन्‍नचित्त समाज की स्‍थापना के सपने को साकार करने की प्रेरणा दी। हमें इसे दिन यह याद रखना चाहिए कि आज का दिन आनन्‍द मनाने की तुलना में समर्पण का दिन है। श्रमिकों और कामगारों परिश्रमियों और विचारकों को पूरी तरह से स्‍वतंत्र, प्रसन्‍न और सांस्‍कृतिक बनाने के भव्‍य कार्य के प्रति समर्पण करने का दिन है।" 

सी. राजगोपालाचारी, महामहिम, महाराज्‍यपाल ने 26 जनवरी 1950 को ऑल इंडिया रेडियो के दिल्‍ली स्‍टेशन से प्रसारित एक वार्ता में कहा था-
 "अपने कार्यालय में जाने की संध्‍या पर गणतंत्र के उदघाटन के साथ मैं भारत के पुरुषों और महिलाओं को अपनी शुभकामनाएं और बधाई देता हूं जो अब से एक गणतंत्र के नागरिक है। मैं समाज के सभी वर्गों से मुझ पर बरसाए गए इस स्‍नेह के लिए हार्दिक धन्‍यवाद देता हूं, जिससे मुझे कार्यालय में अपने कर्त्तव्‍यों और परम्‍पराओं का निर्वाह करने की क्षमता मिली है।"

Monday 8 October 2012

आज़ादी का संवाहक, भारतीय ध्वज



0 बृजपाल सिंह
आज़ादी का संवाहक, भारतीय ध्वज
आदि-अनादि काल से ध्वज का अपना एक गरिमामय स्थान रहा है, चाहे वह द्वापर कालीन महाभारत युद्ध हो, या त्रेता का रामकालीन लंका का संग्राम ठीक उसी परिपाटी को आज तक पूरा विश्व बड़ी सिद्दत के साथ निभाता चला आ रहा है। विश्व में जितने भी मुल्क हैं उनके अपने-अपने परचम हैं। मगर हम यहाँ पर हम अपने भारतीय राष्ट्रीय ध्वज की बात कर रहे हैं। बात लगभग 105 वर्ष पूर्व की है जब भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन अपने चरम पर था तभी इस ध्वज का प्रादुर्भाव हुआ।

भारतीय तिरंगे का इतिहास

 "सभी राष्‍ट्रों के लिए एक ध्‍वज होना अनिवार्य है। लाखों लोगों ने इस पर अपनी जान न्‍यौछावर की है। यह एक प्रकार की पूजा है, जिसे नष्‍ट करना पाप होगा। ध्‍वज एक आदर्श का प्रतिनिधित्‍व करता है। यूनियन जैक अंग्रेजों के मन में भावनाएं जगाता है जिसकी शक्ति को मापना कठिन है। अमेरिकी नागरिकों के लिए ध्‍वज पर बने सितारे और पट्टियों का अर्थ उनकी दुनिया है। इस्‍लाम धर्म में सितारे और अर्ध चन्‍द्र का होना सर्वोत्तम वीरता का आहवान करता है।"
 "हमारे लिए यह अनिवार्य होगा कि हम भारतीय मुस्लिम, ईसाई, ज्‍यूस, पारसी और अन्‍य सभी, जिनके लिए भारत एक घर है, एक ही ध्‍वज को मान्‍यता दें और इसके लिए मर मिटें।"  - महात्‍मा गांधी 

प्रत्‍येक स्‍वतंत्र राष्‍ट्र का अपना एक ध्‍वज होता है। यह एक स्‍वतंत्र देश होने का संकेत है। भारतीय राष्‍ट्रीय ध्‍वज की अभिकल्‍पना पिंगली वैंकैयानन्‍द ने की थी और इसे इसके वर्तमान स्‍वरूप में 22 जुलाई 1947 को आयोजित भारतीय संविधान सभा की बैठक के दौरान अपनाया गया था, जो 15 अगस्‍त 1947 को अंग्रेजों से भारत की स्‍वतंत्रता के कुछ ही दिन पूर्व की गई थी। इसे 15 अगस्‍त 1947 और 26 जनवरी 1950 के बीच भारत के राष्‍ट्रीय ध्‍वज के रूप में अपनाया गया और इसके पश्‍चात भारतीय गणतंत्र ने इसे अपनाया। भारत में ‘’तिरंगे’’ का अर्थ भारतीय राष्‍ट्रीय ध्‍वज है। भारतीय राष्‍ट्रीय ध्‍वज में तीन रंग की क्षैतिज पट्टियां हैं, सबसे ऊपर केसरिया, बीच में सफेद ओर नीचे गहरे हरे रंग की प‍ट्टी और ये तीनों समानुपात में हैं। ध्‍वज की चौड़ाई का अनुपात इसकी लंबाई के साथ 2 और 3 का है। सफेद पट्टी के मध्‍य में गहरे नीले रंग का एक चक्र है। यह चक्र अशोक की राजधानी के सारनाथ के शेर के स्‍तंभ पर बना हुआ है। इसका व्‍यास लगभग सफेद पट्टी की चौड़ाई के बराबर होता है और इसमें 24 तीलियां है।

तिरंगे का विकास

यह जानना अत्‍यंत रोचक है कि हमारा राष्‍ट्रीय ध्‍वज अपने आरंभ से किन-किन परिवर्तनों से गुजरा। इसे हमारे स्‍वतंत्रता के राष्‍ट्रीय संग्राम के दौरान खोजा गया या मान्‍यता दी गई। भारतीय राष्‍ट्रीय ध्‍वज का विकास आज के इस रूप में पहुंचने के लिए अनेक दौरों में से गुजरा। एक रूप से यह राष्‍ट्र में राजनैतिक विकास को दर्शाता है। हमारे राष्‍ट्रीय ध्‍वज के विकास में कुछ ऐतिहासिक पड़ाव इस प्रकार हैं:
1906 में भारत का गैर आधिकारिक ध्‍वज
1907 में भीका‍जीकामा द्वारा फहराया गया बर्लिन समिति का ध्‍वज
इस ध्‍वज को 1917 में गघरेलू शासन आंदोलन के दौरान अपनाया गया
इस ध्‍वज को 1921 में गैर अधिकारिक रूप से अपनाया गया
इस ध्‍वज को 1931 में अपनाया गया। यह ध्‍वज भारतीय राष्‍ट्रीय सेना का संग्राम चिन्‍ह भी था। 

भारत का वर्तमान तिरंगा ध्‍वज 


प्रथम राष्‍ट्रीय ध्‍वज 7 अगस्‍त 1906 को पारसी बागान चौक (ग्रीन पार्क) कलकत्ता में फहराया गया था जिसे अब कोलकाता कहते हैं। इस ध्‍वज को लाल, पीले और हरे रंग की क्षैतिज पट्टियों से बनाया गया था। द्वितीय ध्‍वज को पेरिस में मैडम कामा और 1907 में उनके साथ निर्वासित किए गए कुछ क्रांतिकारियों द्वारा फहराया गया था (कुछ के अनुसार 1905 में)। यह भी पहले ध्‍वज के समान था सिवाय इसके कि इसमें सबसे ऊपरी की पट्टी पर केवल एक कमल था किंतु सात तारे सप्‍तऋषि को दर्शाते हैं। यह ध्‍वज बर्लिन में हुए समाजवादी सम्‍मेलन में भी प्रदर्शित किया गया था। तृतीय ध्‍वज 1917 में आया जब हमारे राजनैतिक संघर्ष ने एक निश्चित मोड लिया। डॉ. एनी बीसेंट और लोकमान्‍य तिलक ने घरेलू शासन आंदोलन के दौरान इसे फहराया। इस ध्‍वज में 5 लाल और 4 हरी क्षैतिज पट्टियां एक के बाद एक और सप्‍तऋषि के अभिविन्‍यास में इस पर बने सात सितारे थे। बांयी और ऊपरी किनारे पर (खंभे की ओर) यूनियन जैक था। एक कोने में सफेद अर्धचंद्र और सितारा भी था। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सत्र के दौरान जो 1921 में बेजवाड़ा (अब विजयवाड़ा) में किया गया यहां आंध्र प्रदेश के एक युवक ने एक झंडा बनाया और गांधी जी को दिया। यह दो रंगों का बना था। लाल और हरा रंग जो दो प्रमुख समुदायों अर्थात हिन्‍दू और मुस्लिम का प्रतिनिधित्‍व करता है। गांधी जी ने सुझाव दिया कि भारत के शेष समुदाय का प्रतिनिधित्‍व करने के लिए इसमें एक सफेद पट्टी और राष्‍ट्र की प्रगति का संकेत देने के लिए एक चलता हुआ चरखा होना चाहिए। वर्ष 1931 ध्‍वज के इतिहास में एक यादगार वर्ष है। तिरंगे ध्‍वज को हमारे राष्‍ट्रीय ध्‍वज के रूप में अपनाने के लिए एक प्रस्‍ताव पारित किया गया । यह ध्‍वज जो वर्तमान स्‍वरूप का पूर्वज है, केसरिया, सफेद और मध्‍य में गांधी जी के चलते हुए चरखे के साथ था। तथापि यह स्‍पष्‍ट रूप से बताया गया इसका कोई साम्‍प्रदायिक महत्‍व नहीं था और इसकी व्‍याख्‍या इस प्रकार की जानी थी। 22 जुलाई 1947 को संविधान सभा ने इसे मुक्‍त भारतीय राष्‍ट्रीय ध्‍वज के रूप में अपनाया। स्‍वतंत्रता मिलने के बाद इसके रंग और उनका महत्‍व बना रहा। केवल ध्‍वज में चलते हुए चरखे के स्‍थान पर सम्राट अशोक के धर्म चक्र को दिखाया गया। इस प्रकार कांग्रेस पार्टी का तिरंगा ध्‍वज अंतत: स्‍वतंत्र भारत का तिरंगा ध्‍वज बना।

ध्‍वज के रंग

भारत के राष्‍ट्रीय ध्‍वज की ऊपरी पट्टी में केसरिया रंग है जो देश की शक्ति और साहस को दर्शाता है। बीच में स्थित सफेद पट्टी धर्म चक्र के साथ शांति और सत्‍य का प्रतीक है। निचली हरी पट्टी उर्वरता, वृद्धि और भूमि की पवित्रता को दर्शाती है।

चक्र

इस धर्म चक्र को विधि का चक्र कहते हैं जो तीसरी शताब्‍दी ईसा पूर्व मौर्य सम्राट अशोक द्वारा बनाए गए सारनाथ मंदिर से लिया गया है। इस चक्र को प्रदर्शित करने का आशय यह है कि जीवन गति‍शील है और रुकने का अर्थ मृत्‍यु है।

ध्‍वज संहिता

26 जनवरी 2002 को भारतीय ध्‍वज संहिता में संशोधन किया गया और स्‍वतंत्रता के कई वर्ष बाद भारत के नागरिकों को अपने घरों, कार्यालयों और फैक्‍ट‍री में न केवल राष्‍ट्रीय दिवसों पर, बल्कि किसी भी दिन बिना किसी रुकावट के फहराने की अनुमति मिल गई। अब भारतीय नागरिक राष्‍ट्रीय झंडे को शान से कहीं भी और किसी भी समय फहरा सकते है। बशर्ते कि वे ध्‍वज की संहिता का कठोरता पूर्वक पालन करें और तिरंगे की शान में कोई कमी न आने दें। सुविधा की दृष्टि से भारतीय ध्‍वज संहिता, 2002 को तीन भागों में बांटा गया है। संहिता के पहले भाग में राष्‍ट्रीय ध्‍वज का सामान्‍य विवरण है। संहिता के दूसरे भाग में जनता, निजी संगठनों, शैक्षिक संस्‍थानों आदि के सदस्‍यों द्वारा राष्‍ट्रीय ध्‍वज के प्रदर्शन के विषय में बताया गया है। संहिता का तीसरा भाग केन्‍द्रीय और राज्‍य सरकारों तथा उनके संगठनों और अभिकरणों द्वारा राष्‍ट्रीय ध्‍वज के प्रदर्शन के विषय में जानकारी देता है।

26 जनवरी 2002 विधान पर आधारित कुछ नियम और विनियमन हैं कि ध्‍वज को किस प्रकार फहराया जाए:

क्‍या करें

राष्‍ट्रीय ध्‍वज को शैक्षिक संस्‍थानों (विद्यालयों, महाविद्यालयों, खेल परिसरों, स्‍काउट शिविरों आदि) में ध्‍वज को सम्‍मान देने की प्रेरणा देने के लिए फहराया जा सकता है। विद्यालयों में ध्‍वज आरोहण में निष्‍ठा की एक शपथ शामिल की गई है।
किसी सार्वजनिक, निजी संगठन या एक शैक्षिक संस्‍थान के सदस्‍य द्वारा राष्‍ट्रीय ध्‍वज का अरोहण/प्रदर्शन सभी दिनों और अवसरों, आयोजनों पर अन्‍यथा राष्‍ट्रीय ध्‍वज के मान सम्‍मान और प्रतिष्‍ठा के अनुरूप अवसरों पर किया जा सकता है।
नई संहिता की धारा 2 में सभी निजी नागरिकों अपने परिसरों में ध्‍वज फहराने का अधिकार देना स्‍वीकार किया गया है।

क्‍या न करें

इस ध्‍वज को सांप्रदायिक लाभ, पर्दें या वस्‍त्रों के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता है। जहां तक संभव हो इसे मौसम से प्रभावित हुए बिना सूर्योदय से सूर्यास्‍त तक फहराया जाना चाहिए।
इस ध्‍वज को आशय पूर्वक भूमि, फर्श या पानी से स्‍पर्श नहीं कराया जाना चाहिए। इसे वाहनों के हुड, ऊपर और बगल या पीछे, रेलों, नावों या वायुयान पर लपेटा नहीं जा सकता। किसी अन्‍य ध्‍वज या ध्‍वज पट्ट को हमारे ध्‍वज से ऊंचे स्‍थान पर लगाया नहीं जा सकता है। तिरंगे ध्‍वज को वंदनवार, ध्‍वज पट्ट या गुलाब के समान संरचना बनाकर उपयोग नहीं किया जा सकता। भारतीय राष्‍ट्रीय ध्‍वज भारत के नागरिकों की आशाएं और आकांक्षाएं द र्शाता है। यह हमारे राष्‍ट्रीय गर्व का प्रतीक है। पिछले पांच दशकों से अधिक समय से सशस्‍त्र सेना बलों के सदस्‍यों सहित अनेक नागरिकों ने तिरंगे की पूरी शान को बनाए रखने के लिए निरंतर अपने जीवन न्‍यौछावर किए हैं।