Tuesday 9 October 2012

भारतीय गणतंत्र के छह दशक की अपेक्षाएँ


भारतीय गणतंत्र के छह दशक की अपेक्षाएँ
0 शिव कुमार गोयल

      लाखों राष्ट्रभक्तों के त्याग और बलिदान के बाद २६ जनवरी १९५० को घोषित हमारा यह गणतंत्र, हमारी किन आकांक्षाओं पर खरा उतरा और कौन सी आकांक्षाएँ अधूरी रह गईं यह जानने का समय अब आ गया है। गणतंत्र का सीधा सा अर्थ है- ‘जनता के द्वारा, जनता के लिए और जनता का तंत्र।’
       गणतंत्र की घोषणा के समय लगता था कि अब मुगल आक्रांताओं तथा अंग्रेजों की दासता से मुक्ति के बाद भारत में पुन: भारतीय प्रणाली का आदर्श राज्य विकसित होगा। विदेशी भाषा, विदेशी विचारों व विदेशी तंत्र से पूर्ण मुक्त स्वदेशी का बोलबाला होगा। जनता किसी भी तरह के उत्पीड़न, असमानता, भेदभाव से पूरी तरह मुक्त होकर खुली साँस लेने का सपना संजोने लगी, किंतु यह सपना सत्य हुआ नहीं।
        न अंग्रेजों की शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन किया गया न न्याय प्रणाली में। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान आश्वासन दिया गया था कि विदेशी वस्तुओं का आयात पूरी तरह बंद कर देश में बनी वस्तुओं के उपयोग का मार्ग प्रशस्त किया जाएगा। विदेशी वस्तुओं की होली जलाई जाती थी। घोषणा की जाती थी कि शराब का उपयोग नहीं होने दिया जाएगा। अंग्रेजी भाषा की जगह हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया जाएगा। भारतीय कृषि की रीढ़ गाय-बैलों की हत्या पर तुरंत प्रतिबंध लगा दिया जाएगा।
          स्वाधीनता के बाद जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री बनाये गए। नेहरू का सपना था कि भारत को अमेरिका, ब्रिटेन की तरह आधुनिकतम देश बनाना है। विदेशी संविधानों को इकट्ठा कर उन्हीं पर आधारित भारत का संविधान बनाया गया। विकास व आधुनिकता के लिए अंग्रेजी भाषा को आवश्यक बताकर हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के महत्व को नकार दिया गया। शराब को आय का प्रमुख स्रोत बताकर मद्य-निषेध के आश्वासन को फाइल में बंद कर दिया गया। अंग्रेजों के शासन काल की तमाम व्याधियों को लागू देखकर एक बार राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन के मुख से निकल गया- ‘गोरे देश से भले चले गये- काले अंग्रेजों के हाथों सत्ता आ गई है।’
        ‘गणतंत्र’ घोषित होने के बाद चुनाव कराए गए। लोकसभा में सत्तारूढ़ कांग्रेस के विरोध में सशक्त विपक्षी दल उभरा। कांग्रेस किसी भी तरह सत्ता पर काबिज रहने के लिए नये-नये ताने-बाने बुनने में लग गई। जातिवाद की विष-बेल को पनपाना शुरू किया गया। दूसरी ओर वोटों के लिए अल्पसंख्यकवाद को प्राश्रय दिया जाने लगा। विभाजन के बाद कश्मीर में अलगाववादी दनदनाने लगे। कबाइली हमले को हमारी बहादुर सेना ने विफल कर श्रीनगर घाटी की रक्षा की गई तो शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर का स्वतंत्र सुलतान बनने का सपना बुनना शुरू कर दिया। वर्ष १९५३ में डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान व प्रजा परिषद के व्यापक आंदोलन के बाद ही शेख का सपना चकनाचूर हो पाया।
         कांग्रेस द्वारा तेजी से उभरते जनसंघ जैसे विपक्षी दलों को सांप्रदायिक बताकर विषवमन करना शुरू कर दिया। जनसंघ व हिंदू महासभा को सांप्रदायिक बताकर अल्पसंख्यकों का शत्रु बताकर, अल्पसंख्यकों को लामबंद करने के प्रयास किये। दूसरी ओर कांग्रेस ने मुस्लिम लीग जसी घोर अराष्ट्रीय संस्था से चुनाव में सहयोग लेने में हिचकिचाहट नहीं की। सत्ता की लालसा से देश में सक्रिय पाकिस्तान प्रशिक्षित घुसपैठियों व आतंकवादियों की गतिविधियों को किसी न किसी प्रकार से संरक्षण ही मिलता गया।
         कांग्रेस की तरह अन्य दल भी उन तमाम विकृतियों के शिकार होते गए। प्रत्याशियों द्वारा चुनावों में करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाये जाने लगे। इसका परिणाम तरह-तरह के भ्रष्टाचार के रूप में सामने आने लगा। विदेशी बैंकों में भी इन भारतीय राजनेताओं के काले धन का अंबार लगने लगा। हत्यारों, अपहरण कर्ताओं, बलात्कारियों को जेल भेजने की जगह राजनीति में स्थान दिया जाने लगा। राजनीति का तेजी से अपराधीकरण होने लगा। बाहुबलियों, अपराधियों को प्रत्याशी बनाया जाने लगा। परिणामत: गणतंत्र की जगह गनतंत्र (बंदूक) तथा धनतंत्र लेते जा रहे हैं। सभी दलों ने सिद्धांतों का परित्याग कर किसी भी तरह सत्ता प्राप्ति को अपना उद्देश्य बना लिया। उन्हें न अपराधियों से कोई गुरेज है न राष्ट्रद्रोही अलगाववादियों से। वोटों के खिसकने के भय के कारण ही संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को आज तक फाँसी नहीं दी गई है।
         आज देश की अखंडता को खुली चुनौती दी जा रही है। नेपाल में माओवादी भारत को आंखें दिखा रहे हैं तो कई राज्यों में नक्सली सुरक्षाबलों पर हमले कर नृशंस हत्याएं कर रहे हैं। पाकिस्तान जाली नोटों की खेप भेजकर हमारी अर्थव्यवस्था चौपट करने में सक्रिय हैं। चीन ने पाकिस्तान से सांठगांठ करके पुन: भारत की भूमि पर अतिक्रमण कर अरुणाचल प्रदेश को अपना क्षेत्र बता हमारी भूमि पर अनाधिकृत कब्जा करके हमें खुली चुनौती दे रहा है। देश की जनता एक ओर भीषण महंगाई का शिकार बनकर दाने-दाने को मोहताज होती दिखाई दे रही है ऐसी विषम स्थिति में गणतंत्र का सपना साकार करना कोई आसान काम नहीं।

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