Friday 21 September 2012

भारतीय मीडिया का गौरव और कलंक


         भारत की सबसे बड़ी उपलब्धियों मे से एक उपलब्धि यह है कि हमारे पास एक स्वतंत्र और ताकतवर प्रेस है। यह सीधे तौर पर लोकतंत्र की प्रासंगिकता व निपुणता को प्रदर्शित करता है। अगर विरोधी आवाजों का गला घोंटा जाता है और सूचना का दमन किया जाता है तो इससे  निरंकुशता पनपती है और उसकी जड़ें मजबूत होती हैं। भारतीय लोकतंत्र का जीवन तथा इसका फलना-फूलना बहुत हद तक प्रेस की स्वतंत्रता और उसके पौरुष पर निर्भर करता है।  मैंने कई बार यह  महसूस किया है कि इस पौरुष को संतुलित करने की आवश्यकता है, ताकि विभिन्न लक्ष्यों को लेकर विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न ना हो। कुछ उदाहरण ऐसे हैं जिनमें जानबूझकर तथा संगठित रुप से अमेरिका में  ब्रिटिश राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवाओं और इसी तरह यूरोप की लोक स्वास्थ्य व्यवस्थाओं का गलत चरित्र चित्रण किया गया है। यह इस बात के बावजूद हुआ है जब अमेरिका में ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ जैसे कुछ बेहतरीन अख़बार मौजूद हैं। राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवाओं और दूसरी इसी तरह की मेडिकल व्यवस्थाओं को लेकर एक तरह का भय भी पनपा है जिसे “सोशलाइज्ड मेडिसिन” के नाम से जाना जाता है (मैंने सुना है कि अमेरिका के बच्चों को ‘ब्रोकोली’ खाने के लिए यह कह कर मनाया जाता है कि नहीं खाने पर उन्हें ‘सोशलाइज्ड मेडिसिन’ लेनी पड़ेगी।) पेशेवर दक्षता तथा यथार्थ  भारतीय न्यूज  मीडिया की सीमाओं के बावजूद, जिसमें से कुछ का मैं जिक्र  करुंगा, हमारे पास हर वह वजह है जिसके कारण हमें स्वतंत्र मीडिया की प्रशंसा करनी चाहिए। इसमें एक कारण यह भी है कि हमारे पास एक निर्भीक प्रेस है,जो कि लोकतांत्रिक भारत के लिए  पूंजी के समान है। इसके बावजूद भारतीय मीडिया बहुत आगे जाने की नही सोच सकता। इसके सामने दो बड़ी बाधाएं है जिसकी यहां पर चर्चा की जानी चाहिए: पहला मामला, मीडिया के आंतरिक अनुशासन से जुड़ा हुआ है और दूसरा मीडिया और समाज के संबन्धों से जुड़ा हुआ है। पहली समस्या का संबन्ध पेशेवर दक्षता में शिथिलता या कमी से है।   दूसरे का संबंध किसी पक्षपात या झुकाव से है जो पूरी तरह सोच-विचार के किया जाता है। इसके अंतर्गत किस ख़बर का चुनना और खारिज करना शामिल है। यह पक्षपात भारत में जातिगत विभेद के संदर्भ में उजागर होता है। भारतीय रिपोर्टिंग कुछ मायनों में बहुत ही अच्छी है। मैं कई बार रिपोर्टरों के कौशल पर आश्चर्यचकित  होता हूं, जो कई बार बहुत से तथ्यों को हमारे सामने  लेकर आते हैं। कुछ ख़बरें  ऐसी होती हैं जिसका पूरी तरह से सार प्रस्तुत करना मुश्किल होता है।  वे यह काम अच्छी तरह करते हैं । कई बार बहुत ही कम उम्र के लड़के और लड़कियां ऐसे काम कर रहे होते हैं।   हालांकि भारतीय रिपोर्टिंग में बहुत विविधता  नजर आती है।  कई मौकों पर मीडिया के जरिए हुई चूक के दूरगामी प्रभाव पड़ते हैं। ज्यादातर समय खुद सचेत होने की वजह से मैं भाग्यशाली महसूस करता हूं। मैं यह जानता हूं कि दूसरों  को किस प्रकार की समस्याएं पेश आती हैं। कई बार उन्हें मैं अपने अनुभवों के रुप में भी देखता हूं। एक भारतीय पाठक के रुप में मैं इसे लेकर निश्चिंत हो जाना चाहता हूं कि जब मैं सुबह का अखबार खोलूं, तो जो कुछ भी मैं पढ़ रहा हूं वह बिल्कुल सही हो। इस बात को सुनिश्चत कर पाना मुश्किल है।
         
           प्रेस की रिपोर्टिंग को लेकर कुछ अच्छे अनुभवों  की बात करने से पहले मैं अपने कुछ दूसरे अनुभवों की बात करना चाहता हूं। कुछ दिनों पहले मैंने एक सार्वजनिक बहस के दौरान लोकपाल को लेकर की जा रही पहल के संबन्ध में एक प्रश्न के जवाब में कहा था कि ‘भ्रष्टाचार की समस्या का समाधान भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंदर ही होना चाहिए’ (जिसमें हमारी कोर्ट और संसद शामिल है), साथ ही कहा कि ‘मैने अभी तक प्रभावी लोकपाल को लेकर एक भी रुपरेखा  नही देखी है – ना ही सरकार की तरफ से ना ही विपक्ष द्वारा’। बाद में जब मैंने वेब खोला और इस तरह की हेडलाइन वाली रिपोर्ट को देखा जिसमें लिखा था  “लोकपाल बिल सही योजना और सोच विचार के बाद बनाया गया है: अमर्त्य सेन” (द टाइम्स ऑफ इण्डिया, इण्डिया टुड़े, जी न्यूज, एनडीटीवी व अन्य); और “लोकपाल बिल सही तरह से सोच विचार व योजना के साथ नही बनाया गया है: अमर्त्य सेन” (डीएनए न्यूज, मनी कंट्रोल, दी टेलीग्राफ [जिसने इसे हैडलाइन नही बनाया था] व अन्य।)। एक अख़बार ने सर्वप्रथम पहली स्टोरी को वितरित किया और बाद में दूसरी स्टोरी को।  इस बात का ध्यान नहीं रखा गया कि यहां पर एक सुधार या करेक्शन है। मुझे इसलिए भी हंसी आई क्योंकि यह अख़बार ‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ था, जिसके साथ मैं स्वयं भी एक समय जुड़ा था।  कुछ साल पहले मुझे इस अख़बार का एक दिन के लिए संपादन करने का मौका मिला था। (यह मेरे लिए एक अच्छा दिन था, हालांकि बाद में मुझे संपादक ने कहा कि मैंने उन लोगों को दिन भर इधर-उधर दौड़ाया और बार- बार पुन: लिखने के लिए कहा।) उसी दिन कोलकाता की एक मीटिंग पर आधारित, कैंसर  फाउण्डेशन ऑफ इण्डिया में  दिए एक लेक्चर पर मैंनेये हेडलाइन देखी: “सिगरेट पीना व्यक्तिगत पसंद है” (द स्टेट्समैन) और “सिगरेट पीने पर रोक लगानी चाहिए: अमर्त्य” (हिंदुस्तान टाइम्स)। ये सारी ख़बरें एक दिन की ही थीं। यह दुर्भाग्यपूर्ण इसलिए है कि किसी एक दिन की रिपोर्टिंग के बहुत बड़े परिणाम सामने आ सकते हैं। 15 दिसम्बर को ‘द टाइम्स ऑफ इण्डिया’ का कहना था कि: “लोग सड़कों  पर निकल कर भ्रष्टाचार का मुकाबला नही कर सकते: अमर्त्य सेन”। मैंने  इस तरह का कुछ भी नहीं कहा था, जिसकी पुष्टि मेरे भाषण की ऑडियो रिकॉर्डिंग द्वारा होती है, लेकिन  इस तरह की गलत रिपोर्टिंग एक न्यूज एजेंसी की तरफ से की जा रही है।  इसका इस्तेमाल बहुत से अखबार करते हैं और वह अब सार्वजनिक क्षेत्र में है। मुझे आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर कोई मुझे मेरे इस बयान के लिए डांट दे या नैतिक सलाह पेश करे।
इस बयान को लेकर बहुत सी सलाहें मुझे दी गईं। इसमें से एक जो मुझे बेहद पसंद है उसमें कहा गया है: “मैं सोचता हूं श्री सेन को अपना मुंह बंद रखना चाहिए” –  इस मामले में असावधान प्रेस की गलत रिपोर्टिंग के कारण एक बहुत ही उत्कृष्ट सलाह दी गई। एक असावधान न्यूज एजेंसी के कारण ऐसा  हुआ,  जिस पर बहुत से अख़बार निर्भर थे।
 जो मैंने कहा वह यह था कि भ्रष्टाचार को लेकर निर्णय देने या सजा  सुनाने का काम सड़क पर नही  किया जा सकता, और इसे लोकतांत्रिक  व्यवस्था के अंतर्गत होना चाहिए। यह व्यवस्था  भारत में विद्यमान है और  लोग इसे मानते हैं।  इसके तहत संसद और कोर्ट आती है। मेरा विश्वास है कि भारत के लोग किसी और तरीके से न्याय देने के बदले लोकतांत्रिक प्राथमिकताओं  के प्रति समर्पित हैं । उनकी जो वास्तविक शिकायत है वह यह है कि भ्रष्टाचार को लेकर लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का पूर्ण रुप से, पूरे जोश से तथा सख्ती से पालन नहीं होता है। वास्तव में यह एक महत्वपूर्ण मांग है।  यह समझ सड़क पर विरोध कर रहे लोगों की भ्रष्टाचार को लेकर राजनीतिक चुनौती देने की योग्यता को नकारने से बहुत दूर है।  मैंने अन्याय के खिलाफ भारत में होने वाले बहुत से प्रदर्शनों में भाग लिया है।(हाल ही में मैं इस तरह की एक गतिविधि जो भोजन के अधिकार को लेकर लोगों के आक्रोश से जुड़ी हुई थी में सम्मिलित हुआ), मैं आम आदमी के अधिकारों के लिए जरुर खड़ा रहूंगा ताकि उनकी आवाज स्पष्ट और तेज हो।  
सच्चाई  को बढ़ाने के लिए  रिपोर्टिंग की कमियों को दूर करने के लिए मीडिया को क्या करना चाहिए? मुझे इसका उत्तर नहीं पता।  मेरा मुख्य ध्येय यहां पर प्रश्न उठाना है, लेकिन एक विचार जो मेरे मस्तिष्क में स्पष्ट है वह यह कि सभी अख़बारों को इस बात के लिए सहमत हो जाना चाहिए कि वे अपने ख़बरों से जुड़े  हुए सुधारों को एक नियमित लक्षण के रुप में प्रधानता देते हुए प्रकाशित करें। (और उन्हें सही करके ऑन-लाइन भी प्रकाशित करें) 
यह काम ‘द गार्जियन’ और ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ पहले से ही बहुत प्रभावशाली ढंग से कर रहे हैं। कुछ भारतीय अख़बारों के पास भी इस तरह के सेक्शन हैं।  ‘द हिंदू’ ऐसा पिछले कई सालों से कर रहा है। इस अभ्यास को अख़बारों के बीच और अधिक व्यापक, अधिक सक्रिय और अधिक विख्यात किया जा सकता है। 
इसके साथ  ही पत्रकारिता की ट्रेनिंग का भी मुद्दा है। जल्दबाजी  में नोट्स लेना कभी भी आसान नहीं होता। यह और भी मुश्किल हो गया है क्योंकि आज के बहुत से रिपोर्टर शॉर्टहैण्ड नहीं जानते, जैसा कि पहले के रिपोर्टर जानते थे। इस आधुनिक समय में रिकॉर्डिंग के बहुत से उत्कृष्ट उपकरण बाजार में आ गए हैं और रिपोर्टरों को अपनी यादाश्त पर निर्भर रहने के बजाय उन्हें इस तरह के उपकरणों का उपयोग व्यापक तौर पर करना चाहिए। आसावधानी वश होने वाली गलतियों  को कम करने के निश्चित रूप से और भी तरीके हैं।  इस पर और बहस होनी चाहिए।  अब मैं दूसरी समस्या की तरफ बढूंगा जिसका मैंने जिक्र किया था।  
           अगर शुद्धता  और सच्चाई मीडिया के लिए आज एक आंतरिक चुनौती है तो ऐसे  में वर्ग भेद को लेकर पूर्वाग्रहों से बचना और लड़ना एक बाहरी चुनौती है।   इसका मुकाबला करने की आवश्यकता है। इसका संबन्ध भारतीय समाज के भेदभाव से है।  “वॉल स्ट्रीट पर कब्जा करो अभियान” ने इस ओर हमारा ध्यान खींचा है जिसमें अमेरिका में सबसे ऊपर का 1 प्रतिशत और बाकी  99 प्रतिशत तबके के बीच का विराधाभास  देखा गया। मैं यहां पर अमेरिका के 1 प्र.श. और 99 प्र.श. के बीच के विरोधाभास के ऊपर बात नही करुंगा। इसी तरह के विभाजन पर अगर भारत निर्भर रहता है तो वह इसे बड़े अंतर के साथ पीछे छोड़ देगा। बेशक भारत में बहुत से विभाजन हैं – जो कुछ अख़बारो के स्वामित्व के साथ भी लागू होते हैं।  एक विभाजन भारतीय मीडिया में जातीय पक्षधरता के आधार पर है।   यह न्यूज कवरेज में भेद उत्पन्न करता है। यह उन पाठकों के हितों से जुड़ा हुआ है जो अख़बार पढ़ रहे हैं। साथ ही यह  आर्थिक प्रगति के आधार पर अच्छा प्रदर्शन कर रहे वर्ग के हितों का रखवाला है।  शेष सभी लोग पीछे छूट रहे हैं।  भारतीय जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा अल्पसंख्यक है, जो संख्या के आधार पर बहुत बड़ा है और जिसको भारत की आर्थिक वृद्धि का लाभ मिल रहा है। भारतीय मीडिया इनकी जिंदगी पर  अत्यधिक ध्यान देने और इसको बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने की कोशिश में सामान्य भारतीय के साथ होने वाली घटनाओं की सही तस्वीर प्रस्तुत नहीं करता है। न्यूज मीडिया खुशहाल लोगों  की जिंदगी को पूरा कवरेज देता है  और  उन लोगों पर कम ध्यान देता है जो हाशिए पर रह रहे हैं।  यह भारतीय मीडिया की एक ऐसी तस्वीर प्रस्तुत करता है जो एक पक्ष की तरफ से अपनी आंखे मूंदे हुए है।     
          इस तरह  के तीन दुर्भाग्यशाली तथ्यों को देखते हैं (हालांकि लिस्ट काफी लंबी हो सकती है): (1) प्रमाणित मानकों के अनुसार पूरे विश्व में कुपोषित बच्चों का प्रतिशत भारत में सर्वाधिक है; (2) भारत चीन की तुलना में अपनी सकल राषट्रीय उत्पाद (जीएनपी) का बहुत कम प्रतिशत सरकार द्वारा प्रदान की गई स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है।  यहां पर बच्चों के जीवन दर (आयु संभाविता) बहुत कम है; और (3) दक्षिण एशियाई देशों में प्रमाणिक सामाजिक सूचकांक (स्टैंण्डर्ड सोशल इंडिकेटर) में भारत का औसत दर्जा पिछले बीस सालों में बहुत गिर गया है। इस सामाजिक सूचकांक में जीवन दर तथा नवजात की मृत्यु दर की प्रतिरोधकता तथा लड़कियों का स्कूल जाना शामिल है। बीस वर्ष पहले हम अच्छे प्रदर्शन को लेकर दूसरे स्थान पर थे और आज हम इस दिशा में अपने खराब प्रदर्शन के कारण सूची में नीचे से दूसरे स्थान पर हैं। (जबकि भारत की प्रति व्यक्ति जीएनपी की दर बढ़ी है) बेशक यह समस्या मीडिया उत्पन्न नही करता है, लेकिन इस सामाजिक विभाजन को मीडिया बढ़ावा देता है जो उसके कवरेज में नजर आता है।  मीडिया भारत की हकीकत को लगातार लोगों  के सामने रखकर एक बहुत ही रचनात्मक भूमिका का निर्वाह कर सकता है। कवरेज की  पक्षधरता है पाठक को यह कभी बुरी नहीं लगती, लेकिन यह हाशिए पर रह रहे अभावग्रस्त  लोगों के प्रति राजनीतिक उदासीनता बढ़ाती  है।   खुशहाल लोगों में ना सिर्फ प्रमुख व्यावसायी और पेशेवर आते हैं, बल्कि देश का बौद्धिक तबका भी शामिल है। अनावश्यक रुप से राष्ट्रीय प्रगति से जुड़ी ख़बरों को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रुप से दिखाया जाता है। यह कथित तौर पर एक वास्तविकता का निर्माण करता है जो निष्पक्ष नहीं होती है।    
किसकी जांच की जानी चाहिए  और किसे अनदेखा करना चाहिए अपेक्षाकृत  लाभान्वित समूह और तेजी से प्रगति करते हुए संपन्न भारतीय आसानी से यह मान सकते हैं कि आर्थिक वृद्धि की ऊंची दर के कारण लोगों की जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए किसी भी प्रकार के विशेष सामाजिक प्रयास करने की आवश्यकता नही है। उदाहरण के तौर पर, जब हाल  में सरकार ने सब्सिडी के आधार पर सस्ते दाम पर भारत के गरीबों को खाद्यान्न देने की बात कही तो बड़ी संख्या में आलोचकों ने इसे लेकर राजकोष की समस्याओं की तरफ ध्यान दिलाना शुरु कर दिया।  साथ ही कुछ ने तो खाद्य सुरक्षा बिल में कथित तौर पर नजर आ रही “गैर-जिम्मेदारी” की भी बात कही। 
   
            बेशक जिस खाद्य सुरक्षा बिल को पेश किया गया उसमें बहुत सी गंभीर समस्याएं थीं और  बिल को अधिक बेहतर बनाया  जा सकता है।  हम उम्मीद भी करते हैं  कि  वह  बेहतर बनेगा। इसके अतिरिक्त राजकोषीय जिम्मेदारियां तथा खाद्दान्न पर सब्सिडी देने पर इस पर खर्च होने वाले धन निश्चित रुप से एक गंभीर मुद्दा है जिसका गहन तौर पर परीक्षण होना चाहिए।  यहां पर यह पूछा जा सकता है कि क्यों  आय संबंधित दूसरी समस्याओं  को लेकर मुश्किल से ही कोई बहस हो रही है।  सोने और हीरे पर लगने वाली कस्टम ड्यूटी में छूट देने का मामला है। वित्त मंत्रालय के अनुसार इस तरह एक बहुत बड़ी रकम का नुकसान होता है (50,000 करोड़ प्रतिवर्ष)। यह खर्च खाद्य सुरक्षा बिल पर होने वाले अतिरिक्त खर्च से कम है।  (27,000 करोड़) मंत्रालय के  एक वार्षिक प्रकाशन के आंकड़ों के अनुसार विभिन्न मदों के तहत  कुल रेवेन्यू का   जो नुकसान होता है वह चौंकाने वाला है। यह आंकड़ा प्रतिवर्ष 511,000 करोड़ का है।  यह रेवेन्यू का एक अधिमूल्यांकन है जिसे वास्तव में हासिल किया जा सकता है या बचाया जा सकता है लेकिन बहुत सा रेवेन्यू जो चला जा जाता है उसे हासिल करना बहुत ही मुश्किल होगा। इसलिए मैं इस लुभावने अनुमान को स्वीकार नही कर रहा हूं। तब भी यह समझना मुश्किल है क्यों खाद्य सुरक्षा बिल को रेवेन्यू के दूसरे विकल्पों का परीक्षण किए बिना राजकोषीय संतुलन के नाम पर अलग रखा जाए। एक सक्रिय मीडिया इस तरफ ध्यान दिला सकता है कि किसकी जांच की जानी चाहिए और किस पर बहस नहीं हो पाई है।  
 
             भारत में लाभप्राप्त और गैर-लाभप्राप्त के बीच इस विभेद के प्रभाव को राजनैतिक सत्ता में ईधन (पेट्रोल व डिजल) के उपर दी जाने वाली सब्सिडी को जारी रखने तथा बढ़ाने का समर्थन करने वाली मांगों के रूप में  भी देखा जा सकता है।  कुछ सब्सिडी तो खास तौर से अमीर तबकों को  दी जाती है (जैसे कि पेट्रोल कार मालिकों को)।   उर्वरक पर दी जाने वाली सब्सिडी प्रतिगामी तरीके से अनाज का उत्पादन करके उन्हें ही लाभ पहुंचाती है। यह संभव है कि इस राजकोषीय संतुलन की प्रक्रिया  का प्रारुप पुन: बनाया  जाए ताकि अत्याधिक आर्थिक तार्किकता, पर्यावरण को लेकर जागरुकता, तथा कार्यक्षमता  के साथ हिस्सेदारी की मांग का समावेश किया जा सके। यह सब होने देने के लिए राजनैतिक समर्थन तथा आज बेहतर तरीके  से रह रहें लोगों पर फिजूलखर्ची करने के बजाय  उन लोगों के  अधिकारों  की रक्षा की जानी चाहिए जो जरूरतमंद हैं।  जब भी गरीबों, भूखों  और  बेरोजगारों  की बात आती है तो मुद्रा-स्फीति  के नाम पर चेतावनी देने का काम शुरु हो जाता है। जिस पहली समस्या का जिक्र मैंने  किया, वह न्यूज मीडिया के प्रदर्शन को लगातार देखकर बेहतर की जा सकती है। इसी क्रम में जो मैंने दूसरी समस्या की बात कही वह बढ़ते हुए वर्ग विभेद को लेकर है। इसका संबन्ध मीडिया में रिपोर्टिंग की भूमिका तथा देश की समस्य़ाओं की चर्चा एक संतुलित तरीके से  है। भारतीय लोकतंत्र की कार्यपद्धति को सुचारु रुप से चलाने में मीडिया बहुत बड़ी मदद कर सकता है । 
मीडिया ना  सिर्फ समाज के विशेष लाभ प्राप्त तबकों बल्कि सभी लोगों को शामिल करते हुए प्रगति का एक बेहतर रास्ता ढूंढने में मदद कर सकता है। भारतीय लोकतंत्र में न्यूज मीडिया को पक्षधरता से बचते हुए निष्पक्ष होकर काम करने की आवश्यकता है। 
   भारतीय रिपोर्टिंग कुछ मायनों में बहुत ही अच्छी है। कई बार रिपोर्टरों का कौशल आश्चर्यचकित करता है, जो कई बार बहुत से तथ्यों को हमारे सामने लेकर आते हैं। कुछ ख़बरें ऐसी होती हैं जिनका पूरी तरह से सार प्रस्तुत करना मुश्किल होता है। पर वे यह काम अच्छी तरह करते हैं। 15 दिसम्बर को ‘द टाइम्स ऑफ इण्डिया’ का कहना था कि: “लोग सड़कों  पर निकल कर भ्रष्टाचार का मुकाबला नही कर सकते: अमर्त्य सेन”। मैंने  इस तरह का कुछ भी नहीं कहा था, जिसकी पुष्टि मेरे भाषण की ऑडियो रिकॉर्डिंग द्वारा होती है, लेकिन  इस तरह की गलत रिपोर्टिंग एक न्यूज एजेंसी की तरफ से की जा रही है।  भारत में लाभप्राप्त और गैर-लाभप्राप्त के बीच इस विभेद के प्रभाव को राजनैतिक सत्ता में ईधन (पेट्रोल व डिजल) के ऊपर दी जाने वाली सब्सिडी को जारी रखने तथा बढ़ाने का समर्थन करने वाली मांगों के रूप में  भी देखा जा सकता है।  कुछ सब्सिडी तो खास तौर से अमीर तबकों को  दी जाती है।

         (लेखक-अमर्त्य सेन, थोमस लेमॉन्ट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर तथा हावर्ड यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र  तथा दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर। 1998 के अर्थशास्त्र के नोबेल पुरुस्कार विजेता। 1999 में भारत रत्न से  नवाजे गए।)

Thursday 20 September 2012

महात्मा गांधी के सपनों का भारत और मौजूदा लोकतंत्र

           
            महात्मा शब्द गांधी जी के लिए इसलिए प्रयुक्त हुआ, क्योकि वह आम आदमी नहीं थे। वह महामानव थे कर्म से भी और विचारों से भी। दुर्भाग्य यह है की जिसने लंगोटी पहनकर भारत को पराधीनता से मुक्त कराने की लड़ाई सारा जीवन लड़ी, विजय हासिल की और जिसके सद्प्रयासों से ही भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश बना, उसी देश और देश के आधुनिक रहनुमाओं ने उस महत्मा को भुला दिया। अब जो गांधी जी के नाम को भुना रहे हैं, वे उनके आदर्शों, सिद्धांतों तथा आचरण से दूर-दूर तक का रिश्ता नहीं रखते। गांधीजी ने अपने त्याग, अपने संघर्ष का इस देश से अपने लिए कोई प्रतिदान भी नहीं चाहा था लेकिन आज भी वो लोग उस महामानव पर उँगलियाँ उठाने से बाज नहीं आते जो गांधीवाद का ककहरा भी नहीं जानते। भारतीय मुद्रा पर गांधीजी का चित्र अंकित कर देने, उनके नाम पर प्रतिष्ठान स्थापित कर उन्हें कमाई का जरिया बना लेने या उनके जन्मदिवस और निर्वाण दिवस पर उनकी परतिमाओं, चित्रों पर माल्यार्पण कर देने से यह देश उस महत्मा के ऋनाभार से मुक्त नहीं हो सकता और सच्चाई तो यह है कि बिना उनके आदर्शों उनकी परिकल्पनाओं को मूर्तिरूप दिए यह देश न तो शम्प्रभु बन सकता है न ही विश्व समुदाय के बीच अपनी आत्मनिर्भर छवि ही स्थापित कर सकता है।
         गांधीजी के शरीर की ह्त्या भले ही गोडसे द्वारा की गयी हो, लेकिन उससे बड़े हत्यारे और गुनहगार वे हैं जो प्रायः रोज ही उनके विचारों, आदर्शों, सिद्धांतों की ह्त्या कर रहें हैं, आज भारत में लोकतंत्र का जो स्वरुप है, जैसी व्यवस्था का संचालन, शासन प्रशासन द्वारा किया जा रहा है और देश के जनप्रतिनिधियों का जो आचरण है वैसे स्वाधीन भारत की परिकल्पना तो गांधीजी ने नहीं की थी। तब शोषकतंत्र केवल एक था , अंग्रेजी सरकार लेकिन आज सारे देश में शोषकों की भरमार है। सरकारी आकलन के अनुसार अंग्रेजों ने भारत पर करीब ढाई सौ वर्ष शासन के दौरान यहाँ से एक लाख करोड़ की संपदा लूटी थी और वर्तमान लोकतंत्र में केंद्र सरकार का एक मंत्री महज 45 मिनट के खेल में देश को 1लाख 76 हजार करोड़ की चपत लगा देता है। इसे क्या कहेंगे कि सरकार फिर भी उस लोतेरे और बेईमान मंत्री के पक्ष में खड़ी नज़र आती है ? उसे मत्रिमंडल से हटाने का साहस तक नहीं कर पाती और उसे जेल तभी भेजा जा पाता है जब न्यायपालिका विवशता में अपनी न्यायिक सक्रियता पर उतारू हो जाती है। ज़रा एस एक 1 लाख 76 हजार करोड़ को देश की कुल जन्शंख्या पर बाँट कर देखिये तो नवजात शिशु के हिस्से में भी 1408 रूपये आता है। यह पैसा कृतिम महगाई पैदाकर वसूला भी जा रहा है, क्या हम आप इसे समझ पा रहे हैं ?
       सच यह है गांधीजी केवल अंग्रेजों के देश छोड़कर चले जाने भर से संतुष्ट नहीं थे। वह इस देश से अंग्रेजियत को भी भगाना चाहते थे। दुर्भाग्य से वह भारत में लोकतंत्र को मूर्तरूप लेते नहीं देख पाए। उनके महाप्रयाण के बाद जिन हांथो में लोकतंत्र की बागडोर सौपी गयी उनमें से उनमें से अधिकाँश लोगग अंग्रेजियत में ही पले बढे थे इसलिए भारतीय लोकतंत्र का ढाचा भी यूरोपीय व्यवस्था की नक़ल के आधार पर ही विकसित किया गया। उस व्यवस्था में न तो गांधी जी के हिंद स्वराज्य की को ही और न ही रामराज्य को। हाँ रावंराज और शायद रावणराज से भी से भी कुछ अधिक इस देश में विकसित, पुष्पित, पल्लवित होता रहा है। स्वाधीनता से पूर्व अंग्रेजों ने इस देश को कभी रूस बनाने की कोशिश की तो कभी चीन बनाने की। आज देश के रहनुमा आज देश की व्यवस्था के नियंता हिन्दुतान को अमेरिका बनाने के लिए प्राण-प्रण से प्रयास कर रहे हैं। पब संस्कृति, महिलाओं के छोटे होते जा रहे देह दिखाऊ परिधान, समलैंगिकता को कानूनी मान्यता, लिव-इनरिलेसनशिप की स्वीकार्यता, मुक्त यौनानंद की वकालत, यह भारत की संस्कृति यो नहीं हो सकती। प्रशन यह है कि भारत को भारत बनाए रखने के प्रयास क्यों नहीं किये गए ? जो भारत में भारतीयता का पक्षधर नहीं क्या वे ही गांधीजी के वास्तविक हत्यारे नहीं माने जाने चाहिए ?
       हिंद स्वराज्य की परिकल्पना में बाजारवाद और सरकारवाद दोनों को नकारा गया है लेकिन आज ये दोनों ही चीजें देश की सारी व्यवस्था को नियंत्रित और संचालित कर रहीं हैं। बापू के सपनों का भारत ऐसा तो नहीं था। हिंद स्वराज्य में राजनीति की आवश्यकता को कम से कम इस्तेमाल करने की बात कही गयी है, लेकिन आज हर काम में राजनीति का इश्तेमाल हो रहा है। हिंद स्वराज्य सकल घरेलू उत्पाद को देश के विकास का पैमाना नहीं मानता, उसके विकास का पैमाना आम आदमी का जीवन स्तर, गावों और का विकास हो, फिर क्या हम गांधीजी के हिंद स्वराज्य और सपनों का मजाक नहीं उड़ा रहे हैं ?
       सकल घरेलू उत्पाद को आधार मानकर कहा जा रहा है कि भारत तरक्की पर है, प्रशन यह है कि भारत केवल देश या पूंजीवादी, उद्यमी और नौकरशाह वर्ग है? क्या भारत केवल देश की गगनचुम्बी इमारतों, बंगलों और आलीशान भवनों तक ही सीमित है? समृद्धि के वैश्विक आंकड़ों में कहा गया है कि भारत की 46 फीसदी से भी अधिक जनसंख्या भी के है और भारत के का आधार यह है की देश का जो शहरी 32 रूपये रुजाना और तथा जो ग्रामीण 26 रूपये रूज खर्च करने की क्षमता रखता है वह गरीब नहीं है। क्या यही था गांधीजी के सपनों का भारत कि वे जो दीद भर में 100 रूपये से अधिक का बोतलबंद पानी (मिनिरल वाटर) डकार जाते हैं, वे यह निर्धारित करें कि देश में 26 रूपये रोज की दिहाड़ी कमा लेने वाला आदमी गरीब नहीं अमीर है ?
        वह व्यक्ति हो, समाज हो या देश जब वह अपने आपको अपने आधार पर चलाता है तो उसे खुद पर गर्व होता है उसका स्वाभिमान सर उंचा करके चलता है, और वे जब नकलकर चल पाते हैं तो उनमें, कुंठा, लाचारी, बेबसी घर कर जाती है, उनका स्वाभिमान मर जाता है। क्या ऐसा ही इस समय भारत के साथ नहीं हो रहा है ? एक पीढी ने इस देश से अंग्रेजों को खदेड़ बाहर किया था आज की पीढी के सामने फिर एक चुनौती है अंग्रेजियत को खदेड़कर देश से बाहर करना। हम सदियों पुराने अंग्रेजों के बनाए कानोंऊँ को अब भी ढो रहे हैं। व्यवस्था की रगों में अब भी गुलामी के अवशेष विद्यमान हैं। जब देश स्वाधीनता संघर्ष के दौर से गुजर रहा था तब सारे देश का एक सवाल था-देश की आज़ादी, अपना देश, अपनी सरकार, और अपने नियम, कायदे, क़ानून। आज देश आज़ाद है और सच यह है की देश सवालों के ढेर पर नहीं खुद सवाल बन गया है। गांधीजी की स्वाधें भारत की परिकल्पना ऐसी तो नहीं थी। प्रशन यह है की  क्या देश की वर्तमान पीढी आज की चुनौतियों का सामना करने को तैयार है। यदि नहीं तो उन्हें और उनके स्वाभिमान को जगाना ही होगा। शायद इसके अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग भे नहीं है।

Wednesday 19 September 2012

आखिर ये उग्रता कहाँ रुकेगी

        मुद्दा कोई जाति, धर्म या सम्प्रदाय का नहीं है। युवा पीढी में उग्रता और आक्रामकता बढ़ती जा रही है केवल युवा ही नहीं बच्चों तक में उग्रता, आक्रामकता तथा जिद्दीपन सीमाएं पार कर रहा है। वे समझना भी नहीं चाहते और सोचते हैं कि वे जो कुछ भी पाना चाहते हैं, वह उनका अधिकार है। जब उनका मनवांक्षित नहीं प्राप्त होता है तो वे बलात और कभी-कभी तो गलत तरीके भी हासिल करना चाहते है। असहिष्णुता इतनी बढ़ चुकी है कि दूसरों को चोट पहुचाने खुद चोट खाने में भी लोग संकोच नहीं करते। यही उग्रता हिंसात्मक स्वरूप में सामने आ रही है। छोटे-छोटे मसलों पर भी तोड़-फोड़ सार्वजनिक परिवहन के वाहनों पर पत्थरबाजी की घटनाएं आम विरोध प्रदर्शनों का मिजाज़ बनता जा रहा है। यह वही उग्रता और आक्रामकता है जो अब जाति, धर्म, सम्प्रदाय से परे है फिर रमजान के पाक माह में देश के विभिन्न शहरों में मुस्लिम समुदाय के जो उग्र-प्रदेशन हुए वे ही चर्चा का विषय क्यों ? भारतीय लोकतंत्र को पतीला लगाने में कोई भी तो पीछे नहीं है।
          राजस्थान का गूर्जर आन्दोलन कौन भूल सकता है जिसकी आंच दिल्ली तक भी पहुँच गयी थी और जिस आन्दोलन में सड़क जाम, तोड़-फोड़ पथराव हुया। यातायात बाधित हुया तो देश के अरबों रूपये के राजस्व का घाटा भी हुया। उग्र प्रदर्शनकारी हिंसा और अपराध पर अमादा हो गए तो मीणाओं और गूर्जरों के बीच वर्ग संघर्ष की स्थिति भी उत्पन्न हो गयी थी। फिर गूर्जरों के नेता कर्नल किरोड़ी सिंह बैसला को राजनैतिक दल हांथों-हाँथ लेने लगे। जो आदमी देश की क़ानून को चुनौती बन गया था वह नेता बना दिया गया। ऐसी घटनाओं से देश का लोकतांत्रिक इतिहास भरा पडा है। लोग देख रहें हैं कि हिन्दुस्तान की राजनीति में स्थान बनाने और चर्चित होने का सरल रास्ता हिंसा का ही है तो जो भी राजनीति में जगह बनाना चाह रहे हैं वे उसी रास्ते को अख्तियार कर रहे हैं।  
          मुम्बई में जी हिंसा हुयी वह एक सम्प्रदाय विशेष की आयोजित रैली के माध्यम से हुई। नेता ने भावनाएं भड़काकर भीड़ तो इकठ्ठी कर ली लेकिन उसे नियोजित नहीं कर पाया या नियंत्रित करना चाहा नहीं और उसका परिणाम यह हुया कि देश की आर्थिक राजधानी उस दिन उग्र आन्दोलनकारियों की गिरफ्त में कसमसाती रही। अलविदा की नमाज़ के दिन जो उपद्रव लखनऊ में हुया उसकी सच्चाई भी बहुत हद तक ऐसी ही थी। शायद लोग भूलें नहीं होगें कि अलविदा के दिन ही लखनऊ के ही एक धार्मिक नेता ने सरकार के घेराव का एलान किया था। जब आलोचना बढ़ गयी तो उन्होंने ऐन वक्त पर अपने घेराव की घोषणा वापस ले ली, लिकिन भावनाओं में आग तो लग ही चुकी थी और वह विस्फोट के रूप में अलविदा की नमाज़ के बाद सामने भी आई। मतलब साफ़ है कि सारा तमाशा सियासी था और सरकार की घेराव की घोषणा का मकसद महज सरकार की नज़र में अपनी हैसियत दर्शाना भर था।
          यह कहना गलत होगा कि प्रदर्शन में मुसलमान शामिल नहीं थे। वे थे तो मुसलमान ही भले ही वी इस्लाम के उसूलों में आस्था रखतें हों या न रखतें हों। उग्र प्रदर्शनकारियों पर शख्ती न करने के सरकारी निर्देश (यदि ऐसा निर्देश दिया गया हो) की आलोचना हो सकती है, लेकिन अंदेशी परिणामों को सोचकर यदि सरकार यदि ऐसा निर्णय तो वह चित भी था। यदि सख्ती होती, पुलिस की लाठियां बरसती, तो उसका शिकार वे मुसलमान भी हो सकते थे जो इस बवाल में शामिल नहीं थे और शांतिपूर्ण तरीके से नमाज़ के बाद मस्जिद से वापस लौट रहे थे और शायद आम शहरी भी चोट खाते। प्रशाशनिक तंत्र की आलोचना करना आसान है लेकिन उसकी भी अपनी सीमाएं हैं। यदि प्रशासन ने सख्ती नहीं की, तो उसकी आलोचना हो रही है यदि सख्ती की गयी होती तो शायद और अधिक आलोचना हो रही होती।
        जहां तक मीडिया पर हमले की बात है तो शायद यह उस भीड़ के अति उत्साह का परिणाम रहा होगा। उन्हें कुछ न कुछ बवाल करना ही था, चूंकि मीडिया वाले उस भीड़ की गतिविधियों को कवर कर रहे थे, वे ही उस भीड़ के सबसे ज्यादा नज़दीक थे और शायद इसलिए उन्हें सबसे आसान शिकार जानकार निशाना बनाया गया। जहां तक स्वामी महावीर और भगवान बुद्ध की प्रतिमाओं को क्षतिग्रस्त करने का मामला है तो यह भी एक सोची समझी रणनीति का ही परिणाम थ। दोनों धर्मों के अनुयाइयों की अपेक्षाकृत कम और शांतिप्रिय लोगों की लोगों के कारण उन्हें भी आसान निशाना बना लिया गया। यदि किसी हिन्दू धार्मिक स्थल पर ऐसा कुछ हुया होता तो साम्प्रदायिक हिंसा के तांडव को रोक पाना आसान भी नहीं होता।
        फिलहाल जो भी हुया वो पूरी तरह घृणित और निंदनीय कृत्य था। जिन्होनें किया वो खुद नहीं जानते थे कि वे कैसी आग को हवा देने जा रहें हैं, किन्तु जिन्होंने कराया उन्हें किसी भी कीमत पर माफ़ नहीं किया जाना चाहिए। यदि सरकार और राजनैतिक दल अपने स्वार्थ के कारण उनका विरोध नही करते तो समाज के प्रबुद्ध वर्ग द्वारा ऐसे लोगों के सामाजिक बहिष्कार की अपील की जानी चाहिए।
        अलगाववाद को हवा देने वाले और समाज में वित्रिश्ना पैदा करने वाले चाहें कितने ही धार्मिक ग्रंथों को चाट डालें और चाहें कितने ही विद्वान क्यों न हों उनका विरोध किया ही जाना चाहिए। जो समाज की शान्ति का शत्रु हो वह मानवता का सबसे बड़ा शत्रु है। ऐसे लोग किसी समाज के हितैसी नहीं कहे जा सकते। लोकतंत्र तभी समर्थ, समृद्ध, और सुव्यवस्थित हो सकता है, जब लोक संस्थाएं संगठन और उनके नेतृत्वकर्ता लोकहित के प्रति समर्पित तथा आस्थावान हों। ऐसी अपेक्षा धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक तीनों तरह के नेताओं से की जाती है। वे नेता भी अपना गिरेबान झांके क्योकि नफरत बोकर उन्हें अपने लिए भी अच्छे की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
        ( लेखिका- कविता, लखनऊ में रहकर स्वतंत्र पत्रकारिता और सामयिक विषयों पर निष्पक्ष लेखन के लिए प्रतिबद्ध हैं।)  

ये लखनऊ तो नहीं !



           ये वो लखनऊ है जिसे साड़ी दुनिया में शहर-ए-तहजीब के नाम से जाना जाता है। फिरकापरस्ती की  
में जब बटवारे के वक्त सारा देश जल रहा था तब भी लखनऊ ने अपनी रवायत बरकरार रखी और जिन मुसलमानों को हिन्दुस्तान छोड़कर पाकिस्तान जाना था वे गए, जिन्हें इस मुल्क की मिट्टी से मोहब्बत थी वे नहीं गए। छिटपुट वाएदातें भी हुई लेकिन इस तहजीब के शहर के दामन पर ऐसा कोई दाग नहीं लगा कि
हिन्दू-मुसलामानों के बीच नाइत्तिफ़ाकी पैदा हो जाती। आज़ादी आई और आधी शदी बाखुशी अपने-अपने मामलात से जूझते हुए गुज़र गई। फिर तयां सियासत रामजन्मभूमि और बाबरी मस्जिद के मसले को लेकर देश भर में और खाशकर उत्तरी हिन्दुस्तान में एक लम्बी तल्खी का दौर चला। फिर उसी फिरकापरस्ती में बाबरी ढहा दी गयी, ज़मीदोज़ कर दी गयी। देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर-प्रदेश की  राजधानी लखनऊ में भी लोगों की नीदें हराम थीं, कि जवाब में कोई बवाल हो सकता है, फिरकापरस्ती की आग यहाँ भी फ़ैल सकती है। लिकिन वह केवल बद्खयाली थी लखनऊ में कुछ नहीं हुआ यानि की लखनऊ ने अपनी गंगा-जमुनी तहजीब पर आंच नहीं आने दी।
        हम मिलकर रहते हैं, मिलकर सहते हैं और किसी भी मशायल पर शायद ही तल्खी से पेश आते हैं। बाबरी शहीद होने पर मुम्बई में जवाबी बम धमाके हुए, सैकड़ों बेगुनाह बेवज़ह उस तल्खी की आग में हलाक कर दिए गए, लेकिन लखनऊ में कही कोई तल्खी नहीं थी। इसका  है कि हम समझदार हैं, तमीजदार हैं। यहाँ मुसलमानों के ही दो फिरके मज़हबी खयालात को लेकर आपस में लड़ते रहे हैं लेकिन हिन्दू-मुसलामानों के बीच कभी बदमनी की शायद ही कोई वादात हुई हो। जब शिया और सुन्नियों के बीच खुनिं वारदातें हुयीं थीं तो अक्लियतों को सबसे अधिक दुःख पहुंचा था। उस वक्त के मशहूर और अब मरहूम शायर कैफ़ी आज़मी का दुःख शाया हुया, उन्हीं की लफ़्ज़ों में-
"टपक रहा है जो रह-रह के दोनों फिरकों के,
                      बगौर देखो वो इस्लाम का लहू तो नहीं। 
अजां में बहते थे आंसू यहाँ लहू तो नहीं,
ये कोई और शहर होगा लखनऊ तो नहीं।"
         लखनऊ की तरबियत के बारे में इतना गहरा भरोसा और उसी लखनऊ में मुसलमान अमन को दागदार करने पर अमादा हो जाएं। दूसरे मजहबों के पैगम्बरों के बुतों को तोडनें लगें, यह कैसे हो सकता है। यह तो तालिबानी रवायत है, और तालिबानी सोच के लोग लखनऊ के कैसे हो सकते हैं। मैं नहीं समझती की 
जिन्होंने तोड़-फोड़, बवाल किया, मीडियाकर्मियों से बदसलूकी की, गौतम बुद्ध तथा स्वामी महावीर के बुतों को नुक्सान पहुचाया वे मुसलमान थे और लखनऊ के मुसलमान थे। और अगर वो मुसलमान थे और लखनऊ के मुसलमान थे तो यह बहुत ही शर्म की बात है की हम अपनी रवायतों को भूलते जा रहें हैं यह जांच होनी चाहिए की अमन के खिलाफ यह साजिश कहाँ रची गयी, किसने की यह साजिश।वे गुनहगार चेहरे सामने आने चाहिए क्योकि यह सारी मुसलमान कौम को बदनाम करने की साजिश है और उन्हें किसी भी कीमत पर मुआफ नहीं किया जाना चाहिए। 
       मीडिया किसी भी मज़हब की मिल्कियत नहीं है। मीडिया में हर कौम के लोग हैं जिन पर हमले जिए वो हिन्दू-मुसलमान दोनों ही थे। उनकी गलती क्या थी कि उन्हें निशाना बनाया गया? मीडिया सबका है, सबके लिए है। अगर के लिए भी हो तो उसके लिए उनकें जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता जो ख़बरें बटोरते हैं और अपने प्रकाशनों/प्रसारण संस्थानों को पहुँचाते है। गलती किसी और की भी हो और नुकसान किसी और को पहुचाया जाये यह तो और भी बड़ा गुनाह है। यह जाहिलों की हरकत है बिलकुल जाहिलाना हरकत।
       जहाँ तक लोकतंत्र का सवाल है तो उसके दरवाजे सबके लिए खुले हैं। मुसलमान क्यों बहक जाते हैं, झूठे नारों और वायदों पर? क्यों वे खुले दिमाग से अच्छे लोगों को अपना नुमाइंदा नहीं चुनते ? खुद बार-बार गलती कर रहें हैं और खुद ही गुस्से का इज़हार भी करते हैं अभी पिचले दिनों दिल्ली के शाही इमाम ने उत्तर-प्रदेश की मौजूदा सरकार के खिलाफ तेवर दिखाये थे, उनके दमाद को रुतबे से नवाज़ दिया गया तो तेवर बदल गए। क्या उन्होंने सरकार या सरकार चलाने वाली पार्टी के मुखिया से कौम की बेहतरी की एक मांग भी रखी थी? जब तक खुद मुसलमान अपने अच्छे-बुरे के बारे में सोचने को तैयार नहीं होगा, तब तक उसके साथ यही सब होता भी रहेगा।
        मेरे मरहूम ससुर हयातुल्लाह अंसारी को सच कहने की सजा दी गयी। उन्हें उनके पुश्तैनी फिरंगी महल से बेदखल कर दिया गया था लेकिन आवाम ने उन्हें सर आँखों पर बिठाया। उन्होंने देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद का प्रतिनिधित्व किया था। वह अनपे जमाने के बड़े कलमकार और बड़े उम्दा किशम के सम्पादक रहे। उन्हें मुल्क की हर कौम ने इज्जत बक्शी लेकिन अपनों ने नहीं। अलग और सही रास्ते पर चलने में दुश्वारियां आती हैं। यह मुझसे बेहतर और कौन जान सकता है। मैंने अपनी सास की बनायी तंजीम "बज्में खवातीन" के नाम को आगे बढाया तो हमें अपनों और अपनी बिरादरी की ही खिलाफत का सामना करना पडा। कई बार बड़ी दुश्वारियां आयीं, वज़ह यह भी थी कि हम मुसलमान औरतों को रोशन-ए-ख़याल बनाना थे। उनें तालीम की दौलत से मालामाल करना चाहते थे। कुछ दकियानूस लोगों को यह जायज नहीं लग रहा था। हमें देश भर की तमाम ख्वातीनों तक तालीम की रोशनी पहुचाई, कारवां बड़ा होता गया और आज हमें अपने काम पर फख्र है।
       लड़ना गुनाह नहीं है लेकिन हममे यह समझ भी होनी चाहिए कि हमें किसके खिलाफ लड़ना है। जब समाज बुराइयों के खिलाफ लड़ता है, बुरे रिवाजों के खिलाफ लड़ता है, अंधेरों के खिलाफ लड़ता है तो वह उजाले की और बढ़ता है, तरक्की के रास्ते पर बढ़ता है। जब अपनों से लड़ता है, अपने ही खिलाफ लड़ता है तो वह बदमनी और अंधेरों की ओर बढ़ता है। समाज में समझदार और नासमझ दोनों तरह के लोग रहते हैं। समझदारों का यह फर्ज है कि वे नासमझों को सच और झूठ का फर्क समझाएं। मेरा मतलब है कि कौम की अक्लियतें आगे आयें। यही एक रास्ता है। जो हो गया, उसके लिए आंसू बहाने के बजाय फिक्र इस बात की की जाये कि ऐसी वारदातें दोबारा न हों, क्योकि इससे सारी कौम बदनाम होती है।  
                 (लेखिका- बेगम शहनाज़ सिदरत, तहजीब के शहर से ताल्लुख रखतीं हैं तथा वो एक इत्तेहादी तंजीम "बज्में खवातीन" की सद्र भी हैं।)

शिक्षा ही एकमात्र उपाय


        "विद्या ददाति विनयम" अर्थात विद्या विनम्रता प्रदान करती है यह एक प्राचीन अमृत वचन है और काफी हद तक सच भी क्योकि विद्या अर्थात ज्ञान ही विवेक की शक्ति प्रदान करता है। एक और ग्रामीण कहावत है कि नादाँ (अज्ञानी) की मित्रता और शत्रुता दोनों घातक होती हैं। संस्कृत का याग श्लोक भी उक्त कथन की पुष्टि करता है:-
येषां न विद्या, न तपो, न दानम, ज्ञानम् न शीलम,न गुणों न धर्मः;
           ते मृत्वुलोके भुवि भार भूताः, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।
      श्लोक के रच्नाकारने तो विद्या, तप, दान, ज्ञान, और शालीनता से हीन व्यक्ति को पशुतुल्य करार दिया, इसलिए किसी भी समाज को सामर्थ्यवान बनाने की पहली शर्त यह मानी गयी है कि उसमे विवेक भी शामिल हो। "लोकतंत्र, मीडिया और मुसलमान" विषयक विचार गोष्ठी में विद्वान् वक्ताओं की बातों से भी यही ध्वनित हो रहा है कि पिचले दिनों मुस्लिन समुदाय के सबसे पाक महीने, माह-ए-रमज़ान में देश के जिन भी शहरों में हिंसात्मक उत्पात मचाया वे विवेकवान लोग नहीं थे, अर्थात उनमें शिक्षित समाज की भागीदारी नहीं थी, इसका एक अर्थ यह भी है कि शिक्षित समुदाय व्यर्थ के विवाद पैदा नहीं करता। अर्थात सारी
समस्याओं की जड़ अशिक्षा ही है तो क्यों न इसी अशिक्षा पर प्रहार किया जाये और बीमारी को ही समाप्त कर दिया जाए।
         आप समाज के उत्कर्ष कि अपेक्षा सरकार से ही नहीं कर सकते। सरकार के पास "और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा"अर्थात और भी बहुत सारे काम होते हैं। उसे अपनी लोकप्रियता बरकरार रखते हुए सरकारी जिम्मेवारी का निर्वहन करना होता है, प्रशासनिक मसले निबटाने होते हैं, विकास योजनायें बनाना, उनके लिए अर्थ की व्यवस्था करना, उन्हें कार्यान्वित करना और सबसे बड़ी बात यह है की भावी चुनाव में सफलता प्राप्त करने के लिए वोट बैंक की संतुष्टि के भी अनवरत प्रयास,फिर उससे किसी समुदाय या सम्प्रदाय विशेष के सामाजिक, शैक्षिक उन्नयन की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं, समाज के उन्नयन की अपेक्षा उसी समाज से की जाती है अर्थात उसी समाज के बुद्धिजीवियों और विवेकशील लोगों से। यह दुर्भाग्य की बात है की हिन्दुस्तान भी उसी मौन स्वाधीनता से पूर्व तक शासक की श्रेणी में शुमार होती थी,उसी कौम का एक बड़ा हिस्सा इन स्वाधीनता के पैसठ वर्षों के दौरान शिक्षा के मामले में लगातार पिछड़ता गया है। इस पिछड़ेपन को दूर करने के प्रयास उन लोगों द्वारा किये जाने चाहिए थे जो समाज का नेतृत्व कर रहे थे अर्थात मुस्लिम समाज के धार्मिक,सामाजिक और राजनैतिक अगुवाकार।
        सर शैय्यद अहमद खां ने समाज को दिशा देने के लिए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना की थी , लेकिन उसके बाद मुस्लिम समाज की किसी भी रहनुमा ने शायद ही ऐसा प्रयास किया हो। मस्द्रशों की बाढ़ अवश्य आयी जहां दीनीं तालीम को प्रमुखता दी जाती है और उस शिक्षा को कम महत्व दिया जाता है जो आदमी को समाज और व्यवस्था में स्थापित होने, प्रगति का मार्ग तलाशने में मदद कर सके। हम धार्मिक शिक्षा की आलोचना नहीं करना चाहते लेकिन क्या यह सत्य नहीं है की धर्म में तर्क की गुंजाइस नहीं होती ? जहां तर्क नहीं होगा वहां विवेकशून्यता अपने आप स्थापित हो जाती है और यही मुस्लिम समाज में हो भी रहा है।
         लड़कियों के साथ तो और भी अन्याय हो रहा है उन्हें धार्मिक शिक्षा से इतर ज्ञान देने की आज भी आवश्यकता नहीं समझी जाती। जो परिवार उच्च शिक्षित हैं उनमें लड़कियों को पढ़ाया जाता है और वे प्रगति भी कर रहीं हैं। उन परिवारों का विवादों से कोई वास्ता भी नहीं है। आवश्यकता है की मुस्लिम समाज का भी प्रबुद्ध वर्ग अपने समाज की बेहतरी के लिए पहल करे। उन्हें समझाए कि यदि वे अपने बच्चों की शिक्षा को महत्व नहीं देगे तो भविष्य में उन्हें सामाजिक सामंजस्य में क्या परेशानियाँ आ सकती हैं। लड़कियों को भी शिक्षा के मामले में आगे बढाया जाना चाहिए। जब वो शिक्षित होगीं तो वे अपनी भावी पीढ़ी का भविष्य संवारने, अपने पारिवारिक और सामाजिक दायित्यों को समझनें और सुलझानें में भी उन्हें आसानी होगी।
         पिछले रमजान के महीने में देश में जो अप्रिय घटनाएं हुई और उनमे मुस्लिम समाज की भूमिका पर उंगलियाँ उठी, वह सब दुखद था। ऐसी घटनाओं से देश का नुकसान तो होता ही है उस समाज का भी नुकसान होता है जिस समाज के लोग घटनाओं के लिए जिम्मेदार होते हैं। चन्द लोगों की मूर्खतापूर्ण हरकतों के कारण सरे समाज पर उँगलियाँ उठती हैं। उसे संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगता है। चंद लोगों की मूर्खता के लिए कोई भी सारा समाज जिम्मेदार नहीं हो सकता। ये वही लोग हैं जो नासमझ हैं, और जो यह नहीं जानते कि वह समाज में कौन सा जहर घोल रहें हैं और उसका भावी परिणाम क्या होगा। वे भारत-पाक क्रिकेट मैच में पाकिस्तान की जीत होने पर खुशियाँ मनाते, और पटाखे दागते हैं तथा अपने सरे समाज को शंदेहास्पद बनाते हैं। ऐसे लोगों का बहिष्कार भी इलाज़ नहीं है क्योकि वे अज्ञानी है, अपना भला बुरा सोच नहीं सकते और देश तोड़ने वाली शक्तियों के हांथों सहज खिलौने बन जाते हैं। ऐसे लोगों का तिरस्कार या बहिष्कार नहीं परिष्कार  किया जाना जरूरी है और वह परिष्कार शिक्षा के द्वारा ही संभव हो सकता सकता है।
         लोकतंत्र सम्पूर्ण समाज की समवेत और समान भागीदारी से समर्थ और समृद्ध बनता है। यह भागीदारी केवल मतदान करने भर से पूरी नहीं हो जाती। मतदान भी विवेकपूर्ण होना चाहिए, और मुझे यह पुनः कहना पड़ रहा है कि विवेक ज्ञान से आता है, तथा ज्ञान सामाजिक,समाजजीवन को संचालित करने वाली शिक्षा से। इसलिए जरूरी है शिक्षा ताकि लोग अपने कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति जन सकें,उनका सही तरीके से उपयोग कर सकें। तब उनके पास व्यर्थ के विवादों में उलझनें का समय भी नहीं होगा और समाज की समरसता के लिए कोई खतरा भी नहीं होगा। यही सबसे सरल,सुगम और व्यावहारिक मार्ग है। बुद्धिजीवी इसे समझें और अपने समाज की प्रगति के लिए प्रयास करें।
                  (लेखक-रामउजागिर शुक्ल, सक्रिय शिक्षाविद तथा स्वतंत्र लेखक के साथ साथ राजधानी लखनऊ में एक प्रतिष्ठित इंटर कालेज के संस्थापक, प्रबंधक भी हैं।)

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना पर

Monday 17 September 2012

भारत के सौदागर कौन ?

         
           शुरुवात शायद देश की आर्थिक राजधानी मुंबई से पहले तोड़-फोड़ उओ मेदिअकर्मियों पर हमला/ फिर अलविदा से ठीक एक दिन पहले इलाहाबाद, कानपुर, पटना, और कई बड़े शहरों में वही हुआ। अलविदा के दिन अलविदा की नमाज़ के ठीक बाद ताज्जीब के शर उत्तर-प्रदेश की राजधानी लखनऊ में में तो उपद्रवियों ने तो हद ही कर दी। तोड़-फोड़ मीडियाकर्मियों पर लाठी डंडों से हमले, उनके कैमरे तोड़ डालना और फिर गौतम बुद्ध तथा महावीर स्वामी की प्रतिमाओं पर अपना धावा बोलाकर उन्हें क्षतिग्रस्त करना। वे मुस्लिम सम्प्रदाय के लोग थे उन्हें देखकर यह स्पस्ट अहसास हो रहा था,लेकिन वे मुसलमान अर्थात इस्लाम में आस्था रखने वाले लोग नहीं हो सकते। यज गौर करने की बात है कि\जिस पंथ या सम्प्रदाय का सबसे बड़ा त्यौहार ठीक दी दिन बाद आने वाला हो और वे लोग उस त्योहार की पवित्रता नस्त करने की साजिश पर अमादा हों तो क्या अपनी धर्म के प्रति आस्था और निष्ठा संदिग्ध नहीं मानी जानी चाहिए?
           हिंसक वारदातों पर लोगों के अपने-अपने तर्क। कोई इन घटनाओं को असम में असमियों द्वारा  गैरअसमियों पर किये गए हमलों की प्रतिक्रिया कह रहा था, और कोई म्यांमार की हिंसा के खिलाफ इसे आक्रोश का नाम देने पर अमादा। अब ज़रा गौर करें, म्यांमार में यदि कुछ हुया भी हो तो  उसके खिलाफ भारत को कैसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? और यदि इस उपद्रव को असम हिंसा की प्रतिक्रया कहा जाए तो क्या वहाँ क्या वहाँ लोगों में किसी जाति  या धर्म विशेष पर ज्यादती की थी, कि  एक सम्प्रदाय विशेष के लोग लाठियां और डंडे लेकर निकल पड़ें। एज सवाल और यह भी है कि मुम्बई हो या लखनऊ, मीडिया पर हमला क्यों किया गया? कुआ ब्याम्मार या असम कि हिंसा के लिए मीडिया को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
          इससे पहले बेंगलूर, चेन्नई, हैस्राबाद और पुणे से हजारों पूर्वोत्तर भारत के प्रवाशी बदहवाश हालत ट्रेनों और बसों में भेड़-बकरियों जैसे ठूंसकर भागे थे। उनमें बुजुर्ग थे, दुधमुहें बच्चों की माये थीं, रोते हुए बच्चे थे और एक अनजान खौफ से सहमें हुए नौजवान थे वज़ह यह की कुछ लोगों को अनजान लोगों द्वारा एसएमएस भेजकर बताया गया था कि अगस्त की फलां तारीख को उन पर हमला होगा। चूँकि एसएमएस संदेश से पहले ही पुणे में पूर्वोत्तर के कुछ नौजवानों पर हिंसक हमले हो चुके थे, इसलिए सब पर दहसत का तारी होना स्वाभाविक था। उससे भी पहले मुम्बई में जिस तरह अराजक भीड़ ने महिला पुलिसकर्मियों के साथ बदसलूकी की, सिपाहियों के हांथों से बंदूके छीन लीं, पत्रकारों को पीटा और उनके कैमरे तोड़ डाले। वे मीडिया वाले जो अब तक अपनी टीआरपी बढाने के लिए हादशों को भी तमाशा बनाकर बेचने में भी सबसे आगे रहें हैं, उनके बड़े-बड़े मूवी कैमरे तो दूर से ही दिख जाते हैं और मुम्बई में सांसे पहले उनको ही निशाने पर लिया गया। लखनऊ में तो ठीक अलविदा की नमाज़ के बाद पत्रकारों और खासकर छायाकारों को प्रमुखता से निशाना बनाया गया।
           मुम्बई हो या लखनऊ दोनों शहरों में पत्रकारों ने न तो कोई भीड़ को उकसाया था और न ही भीड़ की किसी गतिविधि का विरोध ही किया था, फिर उन पर हमला क्यों किया गया। भारत का मीडियातंत्र पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष है, इसमें कहीं कोई शंका की गुंजाइश नहीं है फिर भी यदि मीडिया को निशाना बनाया गया तो उसे सुनी-सुनायी घटनाओं की प्रतिक्रया कहकर हलके में नहीं लिया जा सकता। निशित तौर पर यह 'नफ़रत के सौदागरों' की साजिश थी। जिन्होंने परदे के पीछे साजिशें रचीं, वे ट्रेनों में लदकर भागते बदहवाश लोगों, पिटते पत्रकारों और बेकाबू होते उपद्रवियों को देखकर खुश हो रहे होगें, कि इस देश के लोग किस कदर महज़ अफवाहों के बल पर गुमराह किये जा सकते हैं ?
          यह कहावत है कि ज्ञान प्रकाश देता है और रास्ते सुगम हो जाते हैं, लिकिन पिचले दिनों जो कुछ भी हुया उसमें सबसे बड़ी भूमिका उन्हीं युवा लोगों की थी जिन्हें हम शिक्षित कहते हैं। फेशबुक और ट्विटर पर अफवाहें फैलानें वाले, भड़काऊ वीडिओ अपलोड करने वाले, गाँव देहात के या बिना पढ़े-लिखे लोग नहीं थे, जबकि ऐसे वीडिओ द्रश्यों और एसएमएस संदेशों को भी महज भावनाएं भड़कानें के लिए फर्जी तौर पर गढ़ा गया था। यह वही सोशल मीडिया है जिसके खिलाफ इन दिनों भारत सरकार की त्योरियां तनी हुयी हैं और बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका सोशल मीडिया की स्वतन्त्रता की बात कर रहा है। सोशल मीडिया को वरदान मानने वाले लोग, उससे उत्पन्न हुयी परिस्थितियों और भात्नाओं के बाद किन तर्कों के सहारे ट्विटर और फेशबुक साइट्स के पक्ष में खड़े हो सकेगें ? वरदान यदि अभिशाप बन जाए, भस्मासुर का रूप धारण करने लगे तो ऐसे वरदान का किया जाना चाहिए ?
        यह तय है कि देश में जो कुछ भी हुया, वह नफरत के सौदागरों की एज साजिश थी। भले ही इस साजिश का ताना बाना न बुना गया हो लिकिन उसे अंजाम देने वाले लोग हमारे और आपके बीच छिपे बैठे हैं। वे चेहरे बेनकाब किये जाने चाहिए, और वे कितने ही रसूखदार क्यों न हों, उन्हें उनके अंजाम ताल पहुचाया हव्व जाना चाहिए, जो हुआ उसे केवल हादसे और आक्रोश का नाम भी नहीं दिया जा सकता, क्योकि न तो यह आक्रोश था और न ही यह आकस्मिक रूप से घटा कोई हादशा ही था। सब कुछ एक सुनियोजित साजिश के तहत किया गया और हमारे अपने ही लोग उन शणयन्त्रकारियों के हाथों के खिलौने हो गए। शायद इससे अधिक जाहिलाना हरकत दूसरी हो भी नहीं सकती कि हम अपना ही नुकसान करके, अपने ही घर में आग लगाकर खुशी मनाएं।
        क्या कोई व्यक्ति भारतीय मीडिया पर धर्मनिरपेक्षता पर उंगली उठा सकता है ? भारतीय लोकतंत्र के रहनुमाओं और भारत के राजनेताओं की धर्मनिरपेक्षता भले ही संदिग्ध हो लेकिन भारत की मीडिया न हिन्दू है, न मुसलमान, न शिख, न इसाई। हाँ इतना जरूर है कि मीडिया से भी गलतियां होती रहीं हैं, हो भी रहीं हैं। वह अपने उद्देश्यों से कई बार बटकता नज़र आया है। अगर मीडिया धर्म के झंडाबरदारों, राजनैतिक मठाधीशो को आम आदमी और उसकी समस्याओं को ज्यादा अहमियत देता है तो उसे सोचना होगा कि क्या वह अपनी भूमिका और अपनी जिम्मेदारियों के साथ न्याय कर रहा है।
         भारतीय लोकतंत्र का सजग पहरेदार कहा जाने वाला मीडिया और लोकतंत्र की धुरी आम आदमी जो जाति, धर्म, सम्प्रदाय की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता, दोनों को मिलकर भारत की सार्वभौमिकता और लोकतंत्र की हिफाज़त करनी होगी, क्योकि साजिशें इस देश को तोड़ने की हो रहीं हैं और उसमें केवल विदेशी
शक्तियां ही नहीं, स्वार्थी राजनेताओं, राष्ट्रदोहियों, विघ्नसंतोषियों की भी बड़ी भूमिका है। जो हो गया उसे बदला नहीं जा सकता, लेकिन भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति से बचा जाना चाहिए और
सज़िशक र्ताओं को भी यह बता दिया जाना चाहिए कि भारतीय लोकतंत्र की जड़ें इतनी कमजोर नहीं हैं कि उन्हें
आसानी से खरोंच भी पहुंचाई जा सके।

वे मुसलमान नहीं, गुंडे थे

         

             माह-ए-रमजान, जब इस्लाम में यकीन रखने वाला आदमी रोजा रखकर खुद को खुदा की खिदमत में पेश करता है। जब वह सारी दुनिया की सलामती के लिए अल्लाह पाक से दुआ माँगता है।जब वह अपनी साल भर की कमाई का इक वाजिब हिस्सा दूसरों की मदद के लिए बाखुशी खैरात में देने के लिए राजी होता है। जब वह बिना नागा नमाज़ अदा करता है, नियत का अहद करता है, उसी वक्त वह बदनीयत कैसे हो सकता है? मुम्बई में कैसे क्या हुआ, मुसलमान, पुलिस वालों और खबरनवीशों पर क्यों हमलावर हुए, यह तो पता नहीं लेकिन अदब के शहर लखनऊ में बिना बात बिना विवाद हुजूम की शक्ल में मीडिया वालों पर हमला करना, लाठी डंडों को सड़कों पर लहराना और दुसरे मज़हब के पैगम्बरों के बुतों पर ईंट, पत्थर चलाकर उन्हें नुक्सान पहुचाने वाले मुसलमान कैसे हो सकते हैं? ऐसी जाहिलाना हरकतें केवल गुंडे ही कर सकते हैं और जिन्होनें भी यह किया वह केवल गुंडे थे और गुंडों के अलावा कुछ भी नहीं। वे मुसलमान तो हो ही नहीं सकते। शायद कोई भी मज़हब किसी को भी नुक्सान पहुचाने की इजाजत नहीं देता और इस्लाम यो कतई नहीं। आज इस्लाम अगर दुनिया के इक बड़े हिस्से में माना जाता है, अगर वह तेजी से फैला है तो अपने मोहब्बत भरे उसूलों की वजह से। इस्लाम कभी भी तेग-ओ-तलवार के दम पर नहीं फैला। यह बात दीगर है की हिन्दुस्तान में कुछ नफरत के सौदागरों ने मज़हबी कसादात पैदा करने की कोशिशें की लेकिन फिर भी यह खाई इतनी चौड़ी नहीं हो पाई कि उसे पार न किया जा सके। बाबरी के ज़मींदोज होने के बाद हिन्दू-मुसलामानों के बीच दूरियां पैदा करने की साजिशें हुयी, लेकिन दोनों ही फिरके के लोग इतना तंगदिल नहीं थे। वे जानते थे की जिन्होनें भी बक्शी को ढहाया वे हिन्दू नहीं थे। वे भी गुंडे ही थे क्योकि हिन्दू धर्म में भी किसी इबादतगाह को  गिराना या नुक्सान पहुचाना जायज नहीं ठहराया गया। जिस प्रकार बाबरी को ढहाने वाले हिन्दू नहीं थे।उसी तरह मीडिया वालों पर हमला करने वाले और महात्मा बुद्ध और स्वामी महावीर के बुतों को नुक्सान पहुचाने वाले भी मुसलमान नहीं हो सकते।
            कहावत है की लोग अपने दुःख से दुखी नहीं होते दूसरों का सुख देखकर दुखी होते है। यही कहावत आज देश दुनिया का भी सच है। खुद को सबसे बड़ी ताकत मानने वाला मुल्क अमेरिका शायद दुनिया का सबसे बड़ा आतातायी देश भी है। हिरिशिमा, नागाशाकी जैसे शहर अमेरिका ने ही तबाह किये। रूस को टुकड़ों में बांटकर आतंकियों की फौज अमेरिका ने ही तैयार की है। अब वे आतंकी जमातें बड़ी ताकतों में बदल चुकीं हैं। वे उलझीं रहें और खुद अमेरिका के लिए नुकसानदेह न बन जाए, इसलिए उनकी दिशा को अमरीका ही उन मुकलों की ओर मोड़ा करता है जो मुल्क अमनपसंद है तरक्की के रस्ते पर है और जहां आपसी झगडे नहीं हैं या कम हैं।
          हिन्दुस्तान में बहुत सी जबानें (भाषाएँ) हैं, बहुत सारे मज़हब और मजहबीं जमातें हैं। अलग मज़हब अलग तरीके रश्मों-रिवाज़ इबादत के अलग-अलग तरीकों के बावजूद सारा मुल्क एक है। एक दुसरे के त्यौहार में हम हिस्सेदारी निभाते हैं और यही बात इस मुल्क के दुश्मनों को सांसे ज्यादा खल रही है। हम तो दुश्मन को भी दुश्मन नहीं मानते। उअही हमारी रवायत है, तहजीब है, परम्परा है लेकिन फिर भी हम और हमारी एकता उन आँखों में काँटा बनकर चुभ रही है जो हमारी तरक्की से जलते हैं। चाहे वो देश के अन्दर होने वाली वारदातें हों या अभी जो कई शहरों में हुया वैसे फसादात, इनमें जो हाँथ दिखाई देते हैं वे ही असली हाँथ नहीं हैं। इन हांथों की डोर किन्हीं और हाथों में है और समझना भी मुश्किल नहीं है कि वे हाँथ कोन हैं।
            मुल्क में सवा सौ लोगों की इकट्ठा ताकत सारी दुनिया पर भारी पड़ सकती है, गेर उन लोगों उन मुल्कों की बादशाहत कैसे कातम रह पायेगी जी हैं तो मुठ्ठी भर लेकिन दुनिया के दारोगा बने रहना चाहते हैं, वो गुंडों को अपने पैसे पर पालते हैं और दूसरे मुल्कों में बदनीयती पैदा करने के लिए मौके-बेमौके उनका इश्तेमाल किया करते हैं। माह-ए-रमजान को नापाक करने की जो भी हरकते हिन्दुस्तान के शहरों में हुईं, उनके पीछे ऐसी ही साजिशें थी और जिन्होनें उन्हें अंजाम दिया वे उन्हीं साजिश करने वालों के पाले हुए गुंडे थे आम मुसलमान नहीं थे।
             हमारे दुश्मन हमें नेक और एक नहीं देखना चाहते। हमारे हुक्मरान या तो इस सच को समझ नहीं पा रहे हैं, या जानते हुए भी लालच की वजह से समझना नहीं चाहते, वे लोग नहीं रहे जिनके लिए कौम, मुल्क और आम आदमी की तरक्की, बेहतरी अपने निजी मशल्हत से भी ज्यादा मायने रखती थी। अब लालची, मौकापरस्त, तिकड़मी, फसादी लोगों की तादात सियासी पार्टियों, सत्ता और प्रशासन में ज्यादा है। वे इस मुल्क के विवादों में उलझे रहने से खुद को ज्यादा महफूज़ समझते हैं और ज्यादातर लोग इन्हीं विवादों, फसादों की आग में अपनी रोटियाँ सेंक रहे हैं। उन्हें पहचानना और दरकिनार किया जाना जरूरी है हम हमारे निजी मामलात भी तभी तक महफूज़ हैं जब तक कि यह मुल्क और मुल्क की ज्न्हुरियत महफूज़ है।
         मैं समझता हूँ की उक्त अक्लियतों की जिम्मेदारी बढ़ चुकी है। वे समझदार लोग हैं उन्हें आगे आना चाहिए क्योकि कम पढ़े-लिखे लोग दिमाग का सही इस्तेमाल न कर पाने के कारण तिकड़मी और सियासी मौकापरस्तों साजिश का शिकार हो सकते हैं उन्हें ऐसे लोगों से खबरदार करने का काम केवल अक्लियतें ही कर सकती हैं।
         हम शुक्रगुजार हैं 'जर्नलिस्ट्स मीडिया एंड राइटर्स वेलफेयर एसोसियेशन'  और 'ख्वाजा गरीब नवाज़ अकादमी' के कि इन तंजीमों ने "जम्हूरियत में मीडिया और मुसलमानों" के रोल के बारे में एक वैचारिक मंच खडा करने की कोशिश की है। हम उम्मीद करते हैं की यह कोशिश रंग लायेगी और इसके बेहतर नतीजे सामने आयेंगें

Sunday 16 September 2012

चन्द्रशेखर आजाद: एक अप्रतिम योद्धा



पण्डित चन्द्रशेखर 'आजाद' (२३ जुलाई, १९०६-२७ फरवरी, १९३१)

ऐतिहासिक दृष्टि से भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अत्यन्त सम्मानित और लोकप्रिय स्वतंत्रता सेनानी थे। वे पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल व सरदार भगत सिंह सरीखे महान क्रान्तिकारियों के अनन्यतम साथियों में से थे। सन् १९२२ में गाँधीजी द्वारा असहयोग आन्दोलन को अचानक बन्द कर देने के कारण उनकी विचारधारा में बदलाव आया और वे क्रान्तिकारी गतिविधियों से जुड़ कर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसियेशन के सक्रिय सदस्य बन गये। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में पहले ९ अगस्त १९२५ को काकोरी काण्ड किया और फरार हो गये। इसके पश्चात् सन् १९२७ में 'बिस्मिल' के साथ ४ प्रमुख साथियों के बलिदान के बाद उन्होंने उत्तर भारत की सभी क्रान्तिकारी पार्टियों को मिलाकर एक करते हुए हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसियेशन का गठन किया तथा भगत सिंह के साथ लाहौर में लाला लाजपत राय की मौत का बदला सॉण्डर्स का वध करके लिया एवम् दिल्ली पहुँच कर असेम्बली बम काण्ड को अंजाम दिया।

जन्म तथा प्रारम्भिक जीवन:-

चन्द्रशेखर आजाद का जन्म भाँवरा गाँव (वर्तमान अलीराजपुर जिला) में २३ जुलाई सन् १९०६ को हुआ था।[3][4] उनके पूर्वज बदरका (वर्तमान उन्नाव जिला) से थे। आजाद के पिता पण्डित सीताराम तिवारी संवत् १९५६ में अकाल के समय अपने पैतृक निवास बदरका को छोडकर पहले कुछ दिनों मध्य प्रदेश अलीराजपुर रियासत में नौकरी करते रहे फिर जाकर भावरा गाँव में बस गये। यहीं बालक चन्द्रशेखर का बचपन बीता। उनकी माँ का नाम जगरानी देवी था। आजाद का प्रारम्भिक जीवन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में स्थित भावरा गाँव में बीता अतएव बचपन में आजाद ने भील बालकों के साथ खूब धनुष बाण चलाये। इस प्रकार उन्होंने निशानेबाजी बचपन में ही सीख ली थी । बालक चन्द्रशेखर आज़ाद का मन अब देश को आज़ाद कराने के अहिंसात्मक उपायों से हटकर सशस्त्र क्रान्ति की ओर मुड़ गया। उस समय बनारस क्रान्तिकारियों का गढ़ था। वह मन्मथनाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी के सम्पर्क में आये और क्रान्तिकारी दल के सदस्य बन गये। क्रान्तिकारियों का वह दल "हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ" के नाम से जाना जाता था।

संस्कारों की धरोहर:-

चन्द्रशेखर आज़ाद ने अपने स्वभाव के बहुत से गुण अपने पिता पं० सीताराम तिवारी से प्राप्त किये। तिवारी जी साहसी, स्वाभिमानी, हठी और वचन के पक्के थे। वे न दूसरों पर जुल्म कर सकते थे और न स्वयं जुल्म सहन कर सकते थे। भाँवरा में उन्हें एक सरकारी बगीचे में चौकीदारी का काम मिला हुआ था। भूखे भले ही बैठे रहें पर बगीचे से एक भी फल तोड़कर न तो स्वयं खाते थे और न ही किसी और को खाने देते थे। एक बार तहसीलदार ने बगीचे से फल तुड़वाना चाहे तो तिवारी जी बिना पैसे दिये फल तुड़वाने पर तहसीलदार से झगड़ा करने को तैयार हो गये। इसी जिद में उन्होंने वह नौकरी भी छोड़ दी। एक बार तिवारी जी की पत्नी पडोसी के यहाँ से नमक माँग लायीं इस पर तिवारी जी ने उन्हें बहुत डाँटा और इसकी सामूहिक सजा स्वरूप चार दिन तक परिवार में सबने बिना नमक के भोजन किया। ईमानदारी और स्वाभिमान के ये गुण बालक चन्द्रशेखर ने अपने पिता से विरासत में सीखे थे।

पहली रोमांचकारी घटना:-


१९१९ में हुए अमृतसर के जलियांवाला बाग नरसंहार ने देश के नवयुवकों को उद्वेलित कर दिया। चन्द्रशेखर उस समय पढाई कर रहे थे। तभी से उनके मन में एक आग धधक रही थी। जब गांधीजी ने सन् १९२१ में असहयोग आन्दोलनका फरमान जारी किया तो वह आग ज्वालामुखी बनकर फट पडी और तमाम अन्य छात्रों की भाँति चन्द्रशेखर भी सडकों पर उतर आये। अपने विद्यालय के छात्रों के जत्थे के साथ इस आन्दोलन में भाग लेने पर वे पहली बार गिरफ़्तार हुए और उन्हें १५ बेतों की सज़ा मिली। इस घटना का उल्लेख पं० जवाहरलाल नेहरू ने कायदा तोडने वाले एक छोटे से लडके की कहानी के रूप में किया है-

"ऐसे ही कायदे (कानून) तोडने के लिये एक छोटे से लडके को, जिसकी उम्र १५ या १६ साल की थी और जो अपने को आज़ाद कहता था, बेंत की सजा दी गयी। वह नंगा किया गया और बेंत की टिकटी से बाँध दिया गया। जैसे-जैसे बेंत उस पर पडते थे और उसकी चमडी उधेड डालते थे, वह 'भारत माता की जय!' चिल्लाता था। हर बेंत के साथ वह लडका तब तक यही नारा लगाता रहा, जब तक वह बेहोश न हो गया। बाद में वही लडका उत्तर भारत के आतंककारी कार्यों के दल का एक बडा नेता बना।" – पं० जवाहरलाल नेहरू

क्रान्तिकारी संगठन:-

असहयोग आन्दोलन के दौरान जब फरवरी १९२२ में चौरी चौरा की घटना के पश्चात् बिना किसे से पूछे गाँधीजी ने आन्दोलन वापस ले लिया तो देश के तमाम नवयुवकों की तरह आज़ाद का भी कांग्रेस से मोह भंग हो गया और पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल,शचीन्द्रनाथ सान्याल योगेशचन्द्र चटर्जी ने १९२४ में उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों को लेकर एक दल हिन्दुस्तानी प्रजातान्त्रिक संघ (एच० आर० ए०) का गठन किया। चन्द्रशेखर आज़ाद भी इस दल में शामिल हो गये। इस संगठन ने जब गाँव के अमीर घरों में डकैतियाँ डालीं, ताकि दल के लिए धन जुटाने की व्यवस्था हो सके तो यह तय किया गया कि किसी भी औरत के उपर हाथ नहीं उठाया जाएगा। एक गाँव में राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में डाली गई डकैती में जब एक औरत ने आज़ाद का पिस्तौल छीन लिया तो अपने बलशाली शरीर के बावजूद आज़ाद ने अपने उसूलों के कारण उस पर हाथ नहीं उठाया। इस डकैती में क्रान्तिकारी दल के आठ सदस्यों पर, जिसमें आज़ाद और बिस्मिल भी शामिल थे, पूरे गाँव ने हमला कर दिया। बिस्मिल ने मकान के अन्दर घुसकर उस औरत के कसकर चाँटा मारा, पिस्तौल वापस छीनी और आजाद को डाँटते हुए खींचकर बाहर लाये। इसके बाद दल ने केवल सरकारी प्रतिष्ठानों को ही लूटने का फैसला किया। १ जनवरी १९२५ को दल ने समूचे हिन्दुस्तान में अपना बहुचर्चित पर्चा द रिवोल्यूशनरी (क्रान्तिकारी) बाँटा जिसमें दल की नीतियों का खुलासा किया गया था। इस पैम्फलेट में सशस्त्र क्रान्ति की चर्चा की गयी थी। इश्तहार के लेखक के रूप में "विजयसिंह" का छद्म नाम दिया गया था। शचींद्रनाथ सान्याल इस पर्चे को बंगाल में पोस्ट करने जा रहे थे तभी पुलिस ने उन्हें बाँकुरा में गिरफ्तार करके जेल भेज दिया। "एच० आर० ए०" के गठन के अवसर से ही इन तीनों प्रमुख नेताओं - बिस्मिल, सान्याल और चटर्जी में इस संगठन के उद्देश्यों को लेकर मतभेद था। इस संघ की नीतियों के अनुसार ९ अगस्त १९२५ को काकोरी काण्ड को अंजाम दिया गया । जब शाहजहाँपुर में इस योजना के बारे में चर्चा करने के लिये मीटिंग बुलायी गयी तो दल के एक मात्र सदस्य अशफाक उल्ला खाँ ने इसका विरोध किया था। उनका तर्क था कि इससे प्रशासन उनके दल को जड़ से उखाड़ने पर तुल जायेगा और ऐसा ही हुआ भी। अंग्रेज़ चन्द्रशेखर आज़ाद को तो पकड़ नहीं सके पर अन्य सर्वोच्च कार्यकर्ताओँ - पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल', अशफाक उल्ला खाँ एवं ठाकुररोशन सिंह को १९ दिसम्बर १९२७ तथा उससे २ दिन पूर्व राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को १७ दिसम्बर १९२७ को फाँसी पर लटकाकर मार दिया गया । सभी प्रमुख कार्यकर्ताओं के पकडे जाने से इस मुकदमे के दौरान दल पाय: निष्क्रिय ही रहा। एकाध बार बिस्मिल तथा योगेश चटर्जी आदि क्रान्तिकारियों को छुड़ाने की योजना भी बनी जिसमें आज़ाद के अलावा भगत सिंह भी शामिल थे लेकिन किसी कारण वश यह योजना पूरी न हो सकी। ४ क्रान्तिकारियों को फाँसी और १६ को कड़ी कैद की सजा के बाद चन्द्रशेखर आज़ाद ने उत्तर भारत के सभी कान्तिकारियों को एकत्र कर ८ सितम्बर १९२८ को दिल्ली के फीरोज शाह कोटला मैदान में एक गुप्त सभा का आयोजन किया। इसी सभा में भगत सिंह को दल का प्रचार-प्रमुख बनाया गया। इसी सभा में यह भी तय किया गया कि सभी क्रान्तिकारी दलों को अपने-अपने उद्देश्य इस नयी पार्टी में विलय कर लेने चाहिये। पर्याप्त विचार-विमर्श के पश्चात् एकमत से समाजवाद को दल के प्रमुख उद्देश्यों में शामिल घोषित करते हुए "हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेशन" का नाम बदलकर "हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन" रखा गया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने सेना-प्रमुख (कमाण्डर-इन-चीफ) का दायित्व सम्हाला। इस दल के गठन के पश्चात् एक नया लक्ष्य निर्धारित किया गया - "हमारी लड़ाई आखिरी फैसला होने तक जारी रहेगी और वह फैसला है जीत या मौत।"

चरम सक्रियता:-

आज़ाद के प्रशंसकों में पण्डित मोतीलाल नेहरू, पुरुषोत्तमदास टंडन का नाम शुमार था। जवाहरलाल नेहरू से आज़ाद की भेंट आनन्द भवन में हुई थी उसका ज़िक्र नेहरू ने अपनी आत्मकथा में 'फासीवादी मनोवृत्ति' के रूप में किया है। इसकी कठोर आलोचना मन्मथनाथ गुप्त ने अपने लेखन में की है। कुछ लोगों का ऐसा भी कहना है कि नेहरू ने आज़ाद को दल के सदस्यों को समाजवाद के प्रशिक्षण हेतु रूस भेजने के लिये एक हजार रुपये दिये थे जिनमें से ४४८ रूपये आज़ाद की शहादत के वक़्त उनके वस्त्रों में मिले थे। सम्भवतः सुरेन्द्रनाथ पाण्डेय तथा यशपाल का रूस जाना तय हुआ था पर १९२८-३१ के बीच शहादत का ऐसा सिलसिला चला कि दल लगभग बिखर सा गया। जबकि यह बात सच नहीं है। चन्द्रशेखर आज़ाद की इच्छा के विरुद्ध जब भगत सिंह एसेम्बली में बम फेंकने गये तो आज़ाद पर दल की पूरी जिम्मेवारी आ गयी। साण्डर्स वध में भी उन्होंने भगत सिंह का साथ दिया और बाद में उन्हें छुड़ाने की पूरी कोशिश भी की । आज़ाद की सलाह के खिलाफ जाकर यशपाल ने २३ दिसम्बर १९२९ को दिल्ली के नज़दीक वायसराय की गाड़ी पर बम फेंका तो इससे आज़ाद क्षुब्ध थे क्योंकि इसमें वायसराय तो बच गया था पर कुछ और कर्मचारी मारे गए थे। आज़ाद को २८ मई १९३० को भगवती चरण वोहरा की बम-परीक्षण में हुई शहादत से भी गहरा आघात लगा था । इसके कारण भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी खटाई में पड़ गयी थी। भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु की फाँसी रुकवाने के लिए आज़ाद ने दुर्गा भाभी को गांधीजी के पास भेजा जहाँ से उन्हें कोरा जवाब दे दिया गया था। आज़ाद ने अपने बलबूते पर झाँसी और कानपुर में अपने अड्डे बना लिये थे । झाँसी में मास्टर रुद्र नारायण, सदाशिव मलकापुरकर, भगवानदास माहौर तथा विश्वनाथ वैशम्पायन थे जबकि कानपुर में पण्डित शालिग्राम शुक्ल सक्रिय थे। शालिग्राम शुक्ल को १ दिसम्बर १९३० को पुलिस ने आज़ाद से एक पार्क में मिलने जाते वक्त शहीद कर दिया था।

शहादत:-

एच०एस०आर०ए० द्वारा किये गये साण्डर्स-वध और दिल्ली एसेम्बली बम काण्ड में फाँसी की सजा पाये तीन अभियुक्तों- भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव ने अपील करने से साफ मना कर ही दिया था। अन्य सजायाफ्ता अभियुक्तों में से सिर्फ ३ ने ही प्रिवी कौन्सिल में अपील की। ११ फरवरी १९३१ को लन्दन की प्रिवी कौन्सिल में अपील की सुनवाई हुई। इन अभियुक्तों की ओर से एडवोकेट प्रिन्ट ने बहस की अनुमति माँगी थी किन्तु उन्हें अनुमति नहीं मिली और बहस सुने बिना ही अपील खारिज कर दी गयी। चन्द्रशेखर आज़ाद ने मृत्यु दण्ड पाये तीनों प्रमुख क्रान्तिकारियों की सजा कम कराने का काफी प्रयास किया। वे उत्तर प्रदेश की सीतापुर जेल में जाकर गणेशशंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी से परामर्श कर वे इलाहाबाद गये और जवाहरलाल नेहरू से उनके निवास आनन्द भवन में भेंट की। आजाद ने पण्डित नेहरू से यह आग्रह किया कि वे गांधी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फाँसी को उम्र- कैद में बदलवाने के लिये जोर डालें। नेहरू जी ने जब आजाद की बात नहीं मानी तो आजाद ने उनसे काफी देर तक बहस भी की। इस पर नेहरू जी ने क्रोधित होकर आजाद को तत्काल वहाँ से चले जाने को कहा तो वे अपने तकियाकलाम 'स्साला' के साथ भुनभुनाते हुए ड्राइँग रूम से बाहर आये और अपनी साइकिल पर बैठकर अल्फ्रेड पार्क की ओर चले गये। अल्फ्रेड पार्क में अपने एक मित्र सुखदेव राज से मन्त्रणा कर ही रहे थे तभी सी०आई०डी० का एस०एस०पी० नॉट बाबर जीप से वहाँ आ पहुँचा। उसके पीछे-पीछे भारी संख्या में कर्नलगंज थाने से पुलिस भी आ गयी। दोनों ओर से हुई भयंकर गोलीबारी में आजाद को वीरगति प्राप्त हुई। यह दुखद घटना २७ फरवरी १९३१ के दिन घटित हुई और हमेशा के लिये इतिहास में दर्ज हो गयी।पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिये चन्द्रशेखर आज़ाद का अन्तिम संस्कार कर दिया था। जैसे ही आजाद की शहादत की खबर जनता को लगी सारा इलाहाबाद अलफ्रेड पार्क में उमड पडा। जिस वृक्ष के नीचे आजाद शहीद हुए थे लोग उस वृक्ष की पूजा करने लगे। वृक्ष के तने के इर्द-गिर्द झण्डियाँ बाँध दी गयीं। लोग उस स्थान की माटी को कपडों में शीशियों में भरकर ले जाने लगे। समूचे शहर में आजाद की शहादत की खबर से जब‍रदस्त तनाव हो गया। शाम होते-होते सरकारी प्रतिष्ठानों प‍र हमले होने लगे। लोग सडकों पर आ गये।
आज़ाद के शहादत की खबर जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू को मिली तो उन्होंने तमाम काँग्रेसी नेताओं व अन्य देशभक्तों को इसकी सूचना दी। । बाद में शाम के वक्त लोगों का हुजूम पुरुषोत्तम दास टंडन के नेतृत्व में इलाहाबाद के रसूलाबाद शमशान घाट पर कमला नेहरू को साथ लेकर पहुँचा। अगले दिन आजाद की अस्थियाँ चुनकर युवकों का एक जुलूस निकाला गया। इस जुलूस में इतनी ज्यादा भीड थी कि इलाहाबाद की मुख्य सडकों पर जाम लग गया। ऐसा लग रहा था जैसे इलाहाबाद की जनता के रूप में सारा हिन्दुस्तान अपने इस सपूत को अंतिम विदाई देने उमड पडा हो। जुलूस के बाद सभा हुई। सभा को शचीन्द्रनाथ सान्याल की पत्नी प्रतिभा सान्याल ने सम्बोधित करते हुए कहा कि जैसे बंगाल में खुदीराम बोस की शहादत के बाद उनकी राख को लोगों ने घर में रखकर सम्मानित किया वैसे ही आज़ाद को भी सम्मान मिलेगा। सभा को कमला नेहरू तथा पुरुषोत्तम दास टंडन ने भी सम्बोधित किया। इससे कुछ ही दिन पूर्व ६ फरवरी १९२७ को पण्डित मोतीलाल नेहरू के देहान्त के बाद आज़ाद भेष बदलकर उनकी शवयात्रा में शामिल हुए थे पर उन्हें क्या पता था कि इलाहाबाद की इसी धरा पर कुछ दिनों बाद उनका भी बलिदान होगा!

व्यक्तिगत जीवन:-

आजाद प्रखर देशभक्त थे। काकोरी काण्ड में फरार होने के बाद से ही उन्होंने छिपने के लिए साधु का वेश बनाना बखूबी सीख लिया था और इसका उपयोग उन्होंने कई बार किया। एक बार वे दल के लिये धन जुटाने हेतु गाज़ीपुर के एक मरणासन्न साधु के पास चेला बनकर भी रहे ताकि उसके मरने के बाद मठ की सम्पत्ति उनके हाथ लग जाये। परन्तु वहाँ जाकर जब उन्हें पता चला कि साधु उनके पहुँचने के पश्चात् मरणासन्न नहीं रहा अपितु और अधिक हट्टा-कट्टा होने लगा तो वे वापस आ गये। प्राय: सभी क्रान्तिकारी उन दिनों रूस की क्रान्तिकारी कहानियों से अत्यधिक प्रभावित थे आजाद भी थे लेकिन वे खुद पढ़ने के बजाय दूसरों से सुनने में ज्यादा आनन्दित होते थे। एक बार दल के गठन के लिये बम्बई गये तो वहाँ उन्होंने कई फिल्में भी देखीं। उस समय मूक फिल्मों का ही प्रचलन था अत: वे फिल्मो के प्रति विशेष आकर्षित नहीं हुए। एक बा‍र आजाद कानपुर के मशहूर व्यवसायी सेठ प्यारेलाल के निवास पर एक समारोह में आये हुये थे । प्यारेलाल प्रखर देशभक्त थे और प्राय: क्रातिकारियों की आथि॑क मदद भी किया क‍रते थे। आजाद और सेठ जी बातें कर ही रहे थे तभी सूचना मिली कि पुलिस ने हवेली को घेर लिया है। प्यारेलाल घबरा गये फिर भी उन्होंने आजाद से कहा कि वे अपनी जान दे देंगे पर उनको कुछ नहीं होने देंगे। आजाद हँसते हुए बोले-"आप चिंन्ता न करें, मैं कानपुर के लोगों को मिठाई खिलाये बिना जाने वाला नहीं।" फिर वे सेठानी से बोले- "आओ भाभी जी! बाह‍र चलकर मिठाई बाँट आयें।" आजाद ने गमछा सिर पर बाँधा, मिठाई का टो़करा उठाया और सेठानी के साथ चल दिये। दोनों मिठाई बाँटते हुए हवेली से बाहर आ गये। बाहर खडी पुलिस को भी मिठाई खिलायी। पुलिस की आँखों के सामने से आजाद मिठाई-वाला बनकर निकल गये और पुलिस सोच भी नही पायी कि जिसे पकडने आयी थी वह परिन्दा तो कब का उड चुका है। ऐसे थे आजाद!
चन्द्रशेखर आज़ाद हमेशा सत्य बोलते थे। एक बार की घटना है आजाद पुलिस से छिपकर जंगल में साधु के भेष में रह रहे थे तभी वहाँ एक दिन पुलिस आ गयी। दैवयोग से पुलिस उन्हीं के पास पहुँच भी गयी। पुलिस ने साधु वेश धारी आजाद से पूछा-"बाबा!आपने आजाद को देखा है क्या?" साधु भेषधारी आजाद तपाक से बोले- "बच्चा आजाद को क्या देखना, हम तो हमेशा आजाद रहते‌ हें हम भी तो आजाद हैं।" पुलिस समझी बाबा सच बोल रहा है, वह शायद गलत जगह आ गयी है अत: हाथ जोडकर माफी माँगी और उलटे पैरों वापस लौट गयी।
चन्द्रशेखर आज़ाद ने वीरता की नई परिभाषा लिखी थी। उनके बलिदान के बाद उनके द्वारा प्रारम्भ किया गया आन्दोलन और तेज हो गया, उनसे प्रेरणा लेकर हजारों युवक स्‍वतन्त्रता आन्दोलन में कूद पड़े। आजाद की शहादत के सोलह वर्षों बाद १५ अगस्त सन् १९४७ को हिन्दुस्तान की आजादी का उनका सपना पूरा तो हुआ किन्तु वे उसे जीते जी देख न सके। आजाद अपने दल के सभी क्रान्तिकारियों में बड़े आदर की दृष्टि से देखे जाते थे। सभी उन्हें पण्डितजी ही कहकर सम्बोधित किया करते थे। वे सच्चे अर्थों में पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल' के वास्तविक उत्तराधिकारी जो थे।

श्रद्धाञ्जलि:-

"चन्द्रशेखर की मृत्यु से मेँ आहत हूँ। ऐसे व्यक्ति युग में एक बार ही जन्म लेते हैं। फिर भी हमें अहिंसक रूप से ही विरोध क‍रना चाहिये।"
                                       -महात्मा गाँधी
"चन्द्रशेखर आजाद की शहादत से पूरे देश में आजादी के आन्दोलन का नये रूप में शंखनाद होगा। आजाद की शहादत को हिन्दुस्तान हमेशा याद रखेगा।"           -जवाहर लाल नेहरू
"पण्डितजी की मृत्यु मेरी निजी क्षति है। मैं इससे कभी उबर नहीं सकता।"
                          -मदन मोहन मालवीय
"देश ने एक सच्चा सिपाही खो दिया।"
                       - मोहम्मद अली जिन्ना
"आजाद सत्य का सहारा लेकर ही अँग्रेजों से मुकाबला करते थे।"   
  -घनश्याम दास सुमन जानकी नगर

क्रांति का दूसरा नाम: शहीदे आजम


           
         
            भारत जब भी अपने आजाद होने पर गर्व महसूस करता है तो उसका सर उन महापुरुषों के लिए हमेशा झुकता है जिन्होंने देश प्रेम की राह में अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया। देश के स्वतंत्रता संग्राम में हजारों ऐसे नौजवान भी थे जिन्होंने ताकत के बल पर आजादी दिलाने की ठानी और क्रांतिकारी कहलाए। भारत में जब भी क्रांतिकारियों का नाम लिया जाता है तो सबसे पहला नाम शहीद भगत सिंह का आता है। शहीद भगत सिंह ने ही देश के नौजवानों में ऊर्जा का ऐसा गुबार भरा कि विदेशी हुकूमत को इनसे डर लगने लगा। हाथ जोड़कर निवेदन करने की जगह लोहे से लोहा लेने की आग के साथ आजादी की लड़ाई में कूदने वाले भगत सिंह की दिलेरी की कहानियां आज भी हमारे अंदर देशभक्ति की आग जलाती हैं। माना जाता है अगर उस समय देश के बड़े नेताओं ने भी भगतसिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों का सहयोग किया होता तो देश वक्त से पहले आजाद हो जाता और तब शायद हम और अधिक गर्व महसूस करते. लेकिन देश के एक नौजवान क्रांतिकारी को अंग्रेजों ने फांसी की सजा दे दी। लेकिन मरने के बाद भी भगत सिंह मरे नहीं। आज के नेताओं में जहां हम हमेशा छल और कपट की भावना देखते हैं जो मुंबई हमलों के बाद भी अपना स्वाभिमान और गुस्से को ताक पर रख कर बैठे हैं, उनके लिए भगत सिंह एक आदर्श शख्सियत हैं जिनसे उन्हें सीख लेनी चाहिए।

भगतसिंह का जीवन 

             भारत की आजादी के इतिहास में अमर शहीद भगत सिंह का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है। भगतसिंह का जन्म 28 सितम्बर, 1907 को पंजाब के जिला लायलपुर में बंगा गांव (जो अब पाकिस्तान में है) में हुआ था। भगतसिंह के पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम सरदारनी विद्यावती कौर था। उनके पिता और उनके दो चाचा अजीत सिंह तथा स्वर्ण सिंह भी अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई का एक हिस्सा थे। जिस समय भगत सिंह का जन्म हुआ उस समय ही उनके पिता एवं चाचा को जेल से रिहा किया गया था। भगतसिंह की दादी ने बच्चे का नाम भागां वाला (अच्छे भाग्य वाला) रखा। बाद में उन्हें भगतसिंह कहा जाने लगा। एक देशभक्त परिवार में जन्म लेने की वजह से ही भगतसिंह को देशभक्ति का पाठ विरासत के तौर पर मिला।

भगतसिंह का बचपन 

भगतसिंह जब चार-पांच वर्ष के हुए तो उन्हें गांव के प्राइमरी स्कूल में दाखिला दिलाया गया। भगतसिंह अपने दोस्तों के बीच बहुत लोकप्रिय थे। उन्हें स्कूल की चारदीवारी में बैठना अच्छा नहीं लगता था बल्कि उनका मन तो हमेशा खुले मैदानों में ही लगता था।

भगतसिंह की शिक्षा 

प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के पश्चात भगतसिंह को 1916-17 में लाहौर के डीएवी स्कूल में दाखिला दिलाया गया। वहां उनका संपर्क लाला लाजपतराय और अम्बा प्रसाद जैसे देशभक्तों से हुआ। 1919 में “रॉलेट एक्ट” के विरोध में संपूर्ण भारत में प्रदर्शन हो रहे थे और इसी वर्ष 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग काण्ड हुआ।

गांधीजी का असहयोग आंदोलन 

1920 के महात्मा गांधी के “असहयोग आंदोलन” से प्रभावित होकर 1921 में भगतसिंह ने स्कूल छोड़ दिया। असहयोग आंदोलन से प्रभावित छात्रों के लिए लाला लाजपतराय ने लाहौर में नेशनल कॉलेज की स्थापना की थी। इसी कॉलेज में भगतसिंह ने भी प्रवेश लिया। पंजाब नेशनल कॉलेज में उनकी देशभक्ति की भावना फलने-फूलने लगी। इसी कॉलेज में ही उनका यशपाल, भगवती चरण, सुखदेव, तीर्थराम, झण्डासिंह आदि क्रांतिकारियों से संपर्क हुआ। कॉलेज में एक नेशनल नाटक क्लब भी था। इसी क्लब के माध्यम से भगतसिंह ने देशभक्तिपूर्ण नाटकों में अभिनय भी किया। 1923 में जब बड़े भाई की मृत्यु के बाद उन पर शादी करने का दबाव डाला गया तो वह घर से भाग ग। इसी दौरान उन्होंने दिल्ली में ‘अर्जुन’ के सम्पादकीय विभाग में ‘अर्जुन सिंह’ के नाम से कुछ समय काम किया और अपने को ‘नौजवान भारत सभा’ से भी सम्बद्ध रखा।

चन्द्रशेखर आजाद से संपर्क 

वर्ष 1924 में उन्होंने कानपुर में दैनिक पत्र प्रताप के संचालक गणेश शंकर विद्यार्थी से भेंट की। इस भेंट के माध्यम से वे बटुकेश्वर दत्त और चन्द्रशेखर आजाद के संपर्क में आए। चन्द्रशेखर आजाद के प्रभाव से भगतसिंह पूर्णत: क्रांतिकारी बन गए। चन्द्रशेखर आजाद भगतसिंह को सबसे काबिल और अपना प्रिय मानते थे। दोनों ने मिलकर कई मौकों पर अंग्रेजों की नाक में दम किया। भगतसिंह ने लाहौर में 1926 में नौजवान भारत सभा का गठन किया। यह सभा धर्मनिरपेक्ष संस्था थी तथा इसके प्रत्येक सदस्य को सौगन्ध लेनी पड़ती थी कि वह देश के हितों को अपनी जाति तथा अपने धर्म के हितों से बढक़र मानेगा। लेकिन मई 1930 में इसे गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया।

साण्डर्स की हत्या 

वर्ष 1919 से लागू शासन सुधार अधिनियमों की जांच के लिए फरवरी 1928 में “साइमन कमीशन” मुम्बई पहुंच। देशभर में साइमन कमीशन का विरोध हु। 30 अक्टूबर, 1928 को कमीशन लाहौर पहुंच। लाला लाजपतराय के नेतृत्व में एक जुलूस कमीशन के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहा था, जिसमें भीड़ बढ़ती जा रही थ। इतनी अधिक भीड़ और उनका विरोध देख सहायक अधीक्षक साण्डर्स ने शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज किया. इस लाठी चार्ज में लाला लाजपतराय बुरी तरह घायल हो गए जिसकी वजह से 17 नवम्बर, 1928 को लालाजी का देहान्त हो गया। चूंकि लाला लाजपतराय भगतसिंह के आदर्श पुरुषों में से एक थे इसलिए उन्होंने उनकी मृत्यु का बदला लेने की ठान ल। लाला लाजपतराय की हत्या का बदला लेने के लिए ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ ने भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, आज़ाद और जयगोपाल को यह कार्य दिय। क्रांतिकारियों ने साण्डर्स को मारकर लालाजी की मौत का बदला लिय। साण्डर्स की हत्या ने भगतसिंह को पूरे देश में एक क्रांतिकारी की पहचान दिला दी। लेकिन इससे अंग्रेजी सरकार बुरी तरह बौखला ग। हालात ऐसे हो गए कि सिख होने के बाद भी भगतसिंह को  केश और दाढ़ी काटनी पड़ी। लेकिन मजा तो तब आया जब उन्होंने अलग वेश बनाकर अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंकी।

असेंबली में बम धमाका 

उन्हीं दिनों अंग्रेज़ सरकार दिल्ली की असेंबली में पब्लिक ‘सेफ्टी बिल’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल’ लाने की तैयारी में थे। ये बहुत ही दमनकारी क़ानून थे और सरकार इन्हें पास करने का फैसला कर चुकी थी। शासकों का इस बिल को क़ानून बनाने के पीछे उद्देश्य था कि जनता में क्रांति का जो बीज पनप रहा है उसे अंकुरित होने से पहले ही समाप्त कर दिया जाए। लेकिन चंद्रशेखर आजाद और उनके साथियों को यह हरगिज मंजूर नहीं था। सो उन्होने निर्णय लिया कि वह इसके विरोध में संसद में एक धमाका करेंगे जिससे बहरी हो चुकी अंग्रेज सरकार को उनकी आवाज सुनाई दे। इस काम के लिए भगतसिंह के साथ बटुकेश्वर दत्त को कार्य सौंपा गया। 8 अप्रैल, 1929 के दिन जैसे ही बिल संबंधी घोषणा की गई तभी भगत सिंह ने बम फेंका। भगतसिंह ने नारा लगाया इन्कलाब जिन्दाबाद… साम्राज्यवाद का नाश हो, इसी के साथ अनेक पर्चे भी फेंके, जिनमें अंग्रेजी साम्राजयवाद के प्रति आम जनता का रोष प्रकट किया गया था। इसके पश्चात क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करने का दौर चला। भगत सिंह और बटुकेश्र्वर दत्त को आजीवन कारावास मिला। भगत सिंह और उनके साथियों पर ‘लाहौर षडयंत्र’ का मुकदमा भी जेल में रहते ही चला। भागे हुए क्रांतिकारियों में प्रमुख राजगुरु पूना से गिरफ़्तार करके लाए गए। अंत में अदालत ने वही फैसला दिया, जिसकी पहले से ही उम्मीद थी। अदालत ने भगतसिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 तथा 6 एफ तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिद्ध किया तथा 7 अक्टूबर, 1930 को 68 पृष्ठीय निर्णय दिया, जिसमें भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को मृत्युदंड की सज़ा मिली।

23 मार्च, 1931 की रात 

23 मार्च, 1931 की मध्यरात्रि को अंग्रेजी हुकूमत ने भारत के तीन सपूतों भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी पर लटका दिया था। अदालती आदेश के मुताबिक भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को 24 मार्च 1931 को फांसी लगाई जानी थी, सुबह करीब 8 बजे। लेकिन 23 मार्च 1931 को ही इन तीनों को देर शाम करीब सात बजे फांसी लगा दी गई और शव रिश्तेदारों को न देकर रातों रात ले जाकर व्यास नदी के किनारे जला दिए गए। अंग्रेजों ने भगतसिंह और अन्य क्रांतिकारियों की बढ़ती लोकप्रियता और 24 मार्च को होने वाले संभावित विद्रोह की वजह से 23 मार्च को ही भगतसिंह और अन्य को फांसी दे दी। अंग्रेजों ने भगतसिंह को तो खत्म कर दिया पर वह भगत सिंह के विचारों को खत्म नहीं कर पाए जिसने देश की आजादी की नींव रख दी। आज भी देश में भगतसिंह क्रांति की पहचान हैं।

भगत सिंह फांसी के समय

लाहोर जेल के चीफ वाडर सरदार चतर सिंह ने बताया कि 23 मार्च, 1931 को शाम तीन बजे, जब उसे फंसी का पता चला तो वह भगतसिंह के पास गया और कहा कि “मेरी केवल एक प्राथना है कि अंतिम समय में वाहे गुरु का नाम ले ले और गुरुवाणी का पाठ कर ले"
भगत सिंह ने जोर से हंस कर कहा ‘आप के प्यार को शुक्रगुजार हूँ | लेकिन अब जब अंतिम समय आ गया। मैं ईश्वर को याद करू तो वह कहेगा कि मैं बुजदिल हूँ | सारी उम्र तो उसे याद नहीं किया और अब मौत सामने नजर आने लगी हैं तो ईश्वर को याद करने लगूँ| इसलिए येही अच्छा येही होगा कि मैंने जिस तरह पहले अपना जीवन जिया हैं, उसी तरह अपना अंतिम समय भी गुजारूं | मेरे उपर यह आरोप तो बहुत लगायेंगे कि भगत सिंह नास्तिक था और उसने ईश्वर में विश्वास नही किया लेकिन ये आरोप तो कोई नही लगाएगा कि भगतसिंह कायर व बेईमान भी था और अंतिम समय उसके पैर लड़खड़ाने लगे|’ दूसरे व्यक्ति, जो अंतिम दिन भगतसिंह से मिले, वे उनके परामर्शदाता वकील प्राणनाथ मेहता थे | एकदिन पहले भगतसिंह ने लेनिन की जीवनी की मांग की थी, सो अंतिम दिन मेहता जी लेलिन की जीवनी भगतसिंह को दे गये | आखरी पलो तक वे बड़ी निष्ठा और एकाग्रचित से लेलिन की जीवनी पढ़ रहे थे | जब जेल के कर्मचारी उन्हें लेने आये तो उन्होंने कहा ‘ठहरो एक क्रन्तिकारी के दूसरे क्र्न्तकारी से मिलने में बाधा न डालो | और फिर २३ मार्च 1931 को संध्या समय सरकार ने उनसे साँस लेने का अधिकार छीनकर अपनी प्रतिहिंसा की प्यास बुझा ली | अन्याय और शोषण के विरुद्ध विद्रोह करने वाले तीन तरुणों की जिन्दगिया जल्लाद के फंदे ने समाप्त कर दी | फांसी के तख्ते पर चढ़ते भगतसिंह ने अंग्रेज मजिस्ट्रेट को सम्बोधित करते हुए कहा ‘मजिस्ट्रेट महोदय आप वास्तव में बड़े भाग्यशाली हैं कयोकि आपको यह देखने का अवसर प्राप्त हो रहा हैं कि एक भारतीय क्रन्तिकारी अपने महान आदर्श के लिए किस प्रकार हँसते -हँसते मृत्यु का आलिगन करता हैं | फांसी से कुछ पहले भाई के नाम अपने अंतिम पत्र में उसने लिखा था ,मेरे जीवन का अवसान समीप है प्रात: कालीन प्रदीप टिमटिमाता हुआ मेरा जीवन-प्रदीप भारत के प्रकाश में विलीन हो जायेगा | हमारा आदर्श हमारे विचार सरे संसार में जागृती पैदा कर देंगे | फिर यदि यह मुठ्ठी भर राख विनष्ट हो जाये तो संसार का इससे क्या बनता बिगड़ता है | जैसे-जैसे भगतसिंह के जीवन का अवसान समीप आता गया देश तथा मेहनतकश जनता के उज्जवल भविष्य में उसकी आस्था गहरी होती गयी | मृत्यु से पहले सरकार सरकार के नाम लिखे एक पत्र में उसने कहा था, अति शीघ्र ही अंतिम संघर्ष के आरम्भ की दुन्दुभी बजेगी |उसका परिणाम निर्णायक होगा |साम्राज्यवाद और पूँजीवाद अपनी अंतिम घड़ियाँ गिन रहे हैं| हमने उसके विरुद्ध युद्ध में भाग लिया था और उसके लय हमे गर्व हैं।

गांधी: एक आदर्शात्मक यथार्थवादी


"जब मैं निराश होता हूं तब मैं याद करता हूं कि हालांकि इतिहास सत्य का मार्ग होता है किंतु प्रेम इसे सदैव जीत लेता है। यहां अत्याचारी और हतयारे भी हुए हैं और कुछ समय के लिए वे अपराजय लगते थे किंतु अंत में उनका पतन ही होता है।"

" मृतकों, अनाथ तथा बेघरों के लिए इससे क्या फर्क पड़ता है कि स्वतंत्रता और लोकतंत्र के पवित्र नाम के नीचे संपूर्णवाद का पागल विनाश छिपा है।"
"एक आंख के लिए दूसरी आंख पूरी दुनिया को अंधा बना देगी।"
"मरने के लिए मैरे पास बहुत से कारण है किंतु मेरे पास किसी को मारने का कोई भी कारण नहीं है।"


            मोहनदास करमचंद गांधी ये नाम जुबान पर आते ही कुछ पक्तियां बरबस जेहन में स्वतः ही आ जाती हैं। "रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम , ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सम्मति दे भगवान" और इन पंक्तियों के बाद जेहन में आते है उनके उनके आदर्शवादी विचार जय सदा सत्य बोलो,  अहिंसा के पथ पर चलो, किसी के दिल को ठेस न पहुचाओ, और इन विचारों के आधार पर हम कहते है कि गांधीजी आदर्शवादी थे लेकिन मई एस तथ्य को उचित नहीं मानती हूँ। मेरे विचार से गांधीजी सिर्फ आदर्शवादी नहीं वारन व्यवहारिक आदर्शवादी थे। गांधीजी ने जिन आदर्शों और सिद्धांतों का प्रचार किया उन्हें पहले स्वयं के जीवन में अपनाया उन्हें व्यावहारिकता प्रदान की। 
          जैसे कि उनका आदर्श था कि सत्य बोलो इसे आदर्श का रूप देने से पहले उन्होंने इसे अपने जीवन में अपनाया। अपनी आत्मकथा में बचपन में भाई का सोना चुराने और छिपकर बीडी पीने की बात को सहज स्वीकार किया है उन्होंने अपने पिता से भी यह सत्य नहीं छुपाया। हलाकि इस कडवे सत्य ने उनके पिटा के मन को दुखी तो किया परन्तु अपने पुत्र की इस शांत क्षमा को कुछ समय उपरान्त स्वीकार कर पाए जिसके साथ ही उनका अपने पुत्र के प्रति प्रेम और भी बढ़ गया। गांधीजी बुनियादी शिक्षा के समर्थक थे इसके द्वारा भी वो समाज सुधार करना चाहते थे उनका विचार था कि आदर्श स्थिति में सच्ची शिक्षा तो माता-पिता  की गोद में ही हो सकती ह। गांधीजी ने राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन चलाया और अपने इस सामाजिक आदर्श को व्यावहारिकता प्रदान की गांधीजी टोलस्टाय आश्रम को अपना परिवार मानते थे और स्वयं को उस परिवार का मुखिया इसीलिये वहाँ के सभी नवयुवकों तथा नवयुवतियों के भविष्य निर्माण की जिम्मेदारी उन्होंने स्वयं पर ले ली थी। हां ये दीगर बात है कि राष्ट्रपिता का दायत्व निभाते-निभाते वह अपने जीवन में इक पिता का दायित्व नहीं निभा सके। राज्य के सम्बब्ध में गांधीजी का विचार था कि राजा को साध्य नहीं बल्कि जनता की भलाई के लिए साधन मात्र होना चाहिए वे वर्गहीन और राज्यहीन समाज कि स्थापना को अपना सबसे बड़ा आदर्श मानते थे। गांधीजी कभी आदर्श समाज की स्थापना बल नहीं दिया बल्कि वो तो इक अहिंसात्मक राज्य की अभिव्यक्ति पर अधिक बल देते थे, क्योकि वे जानते थे कि इक आदर्श समाज कि प्राप्ति सरल नहीं है वास्तव में मनुष्य इसके लिए अपूर्ण है। गांधीजी ने अहिंसा और स्त्याग्रह को व्यवहारिक रूप देकर कई आन्दोलनों में इसका प्रयोग किया जैसे-स्वदेशी आन्दोलन, हिन्दू-मुस्लिम एकता, और नशाबंदी कर देना आदि शामिल है इन आन्दोलनों द्वारा गांधीजी ने जनता में शान्ति, एकता और सदगुणों का प्रचार-प्रसार किया। जो एक अहिंसात्मक राज्य की उत्त्पत्ति के लिए सहायक थे।
           गांधीजी खादी के बहुत बड़े सार्थक थे। उन्होंने अपनी पुस्तक "हिंद स्वराज्य" में यह माना कि चरखे के जरिये हिन्दुस्तान की कंगालियत मिट सकती है। इस बात को कहने से उम्का तात्पर्य यह था कि 'जिस रास्ते भुखमरी मिटेगी उसी रास्ते स्वराज्य मिलेगा।' अपने इस आदर्श को व्यवहारिक रूप देने के लिए उन्होंने मिल के कपडे पहनना बंद कर दिया और सूत का बुना हुआ कपड़ा पहनने लगे। धीरे-धीरे यह आदत सभी आश्रम वासीयों ने अपना ली। इससे लाखों कारीगरों को रोजगार मिलने लगा और उनकी आर्थिक स्थिति थोड़ी सी सही लेकिन परिवर्तित होने लगी।गांधीजी राजनीति को सत्य, अहिंसा के आधार पर चलाना चाहते थे इसलिए जिस समय भी उनके सत्यागृह को स्थगित कर दिया।
          गांधीजी सिद्धांतों की सत्यता से कहीं ज्यादा वास्तविकता और व्यावहारिकता पर बल देते थे गान्द्गीजी ने सदैव अपने सिद्धांतों को जनता के समक्ष व्यवहारिक रूप में ही प्रस्तुत किया इसलिए उनमे एकव्यवहारिक आदर्शवादी की छवि स्पस्ट प्रतीत होती है। इन उपरोक्त तथ्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि गांधीजी एक आदर्शवादी नहीं वरन एक व्यवहारिक आदर्शवादी थे, हैं और रहेंगे.....
     
                                                            (लेखिका- आकांक्षा वर्मा, स्वतंत्र पत्रकार, युवा लेखिका, रेडियो एंकर  तथा इवेंट ओरेटर हैं।)