Sunday 16 September 2012

गांधी: एक आदर्शात्मक यथार्थवादी


"जब मैं निराश होता हूं तब मैं याद करता हूं कि हालांकि इतिहास सत्य का मार्ग होता है किंतु प्रेम इसे सदैव जीत लेता है। यहां अत्याचारी और हतयारे भी हुए हैं और कुछ समय के लिए वे अपराजय लगते थे किंतु अंत में उनका पतन ही होता है।"

" मृतकों, अनाथ तथा बेघरों के लिए इससे क्या फर्क पड़ता है कि स्वतंत्रता और लोकतंत्र के पवित्र नाम के नीचे संपूर्णवाद का पागल विनाश छिपा है।"
"एक आंख के लिए दूसरी आंख पूरी दुनिया को अंधा बना देगी।"
"मरने के लिए मैरे पास बहुत से कारण है किंतु मेरे पास किसी को मारने का कोई भी कारण नहीं है।"


            मोहनदास करमचंद गांधी ये नाम जुबान पर आते ही कुछ पक्तियां बरबस जेहन में स्वतः ही आ जाती हैं। "रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम , ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सम्मति दे भगवान" और इन पंक्तियों के बाद जेहन में आते है उनके उनके आदर्शवादी विचार जय सदा सत्य बोलो,  अहिंसा के पथ पर चलो, किसी के दिल को ठेस न पहुचाओ, और इन विचारों के आधार पर हम कहते है कि गांधीजी आदर्शवादी थे लेकिन मई एस तथ्य को उचित नहीं मानती हूँ। मेरे विचार से गांधीजी सिर्फ आदर्शवादी नहीं वारन व्यवहारिक आदर्शवादी थे। गांधीजी ने जिन आदर्शों और सिद्धांतों का प्रचार किया उन्हें पहले स्वयं के जीवन में अपनाया उन्हें व्यावहारिकता प्रदान की। 
          जैसे कि उनका आदर्श था कि सत्य बोलो इसे आदर्श का रूप देने से पहले उन्होंने इसे अपने जीवन में अपनाया। अपनी आत्मकथा में बचपन में भाई का सोना चुराने और छिपकर बीडी पीने की बात को सहज स्वीकार किया है उन्होंने अपने पिता से भी यह सत्य नहीं छुपाया। हलाकि इस कडवे सत्य ने उनके पिटा के मन को दुखी तो किया परन्तु अपने पुत्र की इस शांत क्षमा को कुछ समय उपरान्त स्वीकार कर पाए जिसके साथ ही उनका अपने पुत्र के प्रति प्रेम और भी बढ़ गया। गांधीजी बुनियादी शिक्षा के समर्थक थे इसके द्वारा भी वो समाज सुधार करना चाहते थे उनका विचार था कि आदर्श स्थिति में सच्ची शिक्षा तो माता-पिता  की गोद में ही हो सकती ह। गांधीजी ने राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन चलाया और अपने इस सामाजिक आदर्श को व्यावहारिकता प्रदान की गांधीजी टोलस्टाय आश्रम को अपना परिवार मानते थे और स्वयं को उस परिवार का मुखिया इसीलिये वहाँ के सभी नवयुवकों तथा नवयुवतियों के भविष्य निर्माण की जिम्मेदारी उन्होंने स्वयं पर ले ली थी। हां ये दीगर बात है कि राष्ट्रपिता का दायत्व निभाते-निभाते वह अपने जीवन में इक पिता का दायित्व नहीं निभा सके। राज्य के सम्बब्ध में गांधीजी का विचार था कि राजा को साध्य नहीं बल्कि जनता की भलाई के लिए साधन मात्र होना चाहिए वे वर्गहीन और राज्यहीन समाज कि स्थापना को अपना सबसे बड़ा आदर्श मानते थे। गांधीजी कभी आदर्श समाज की स्थापना बल नहीं दिया बल्कि वो तो इक अहिंसात्मक राज्य की अभिव्यक्ति पर अधिक बल देते थे, क्योकि वे जानते थे कि इक आदर्श समाज कि प्राप्ति सरल नहीं है वास्तव में मनुष्य इसके लिए अपूर्ण है। गांधीजी ने अहिंसा और स्त्याग्रह को व्यवहारिक रूप देकर कई आन्दोलनों में इसका प्रयोग किया जैसे-स्वदेशी आन्दोलन, हिन्दू-मुस्लिम एकता, और नशाबंदी कर देना आदि शामिल है इन आन्दोलनों द्वारा गांधीजी ने जनता में शान्ति, एकता और सदगुणों का प्रचार-प्रसार किया। जो एक अहिंसात्मक राज्य की उत्त्पत्ति के लिए सहायक थे।
           गांधीजी खादी के बहुत बड़े सार्थक थे। उन्होंने अपनी पुस्तक "हिंद स्वराज्य" में यह माना कि चरखे के जरिये हिन्दुस्तान की कंगालियत मिट सकती है। इस बात को कहने से उम्का तात्पर्य यह था कि 'जिस रास्ते भुखमरी मिटेगी उसी रास्ते स्वराज्य मिलेगा।' अपने इस आदर्श को व्यवहारिक रूप देने के लिए उन्होंने मिल के कपडे पहनना बंद कर दिया और सूत का बुना हुआ कपड़ा पहनने लगे। धीरे-धीरे यह आदत सभी आश्रम वासीयों ने अपना ली। इससे लाखों कारीगरों को रोजगार मिलने लगा और उनकी आर्थिक स्थिति थोड़ी सी सही लेकिन परिवर्तित होने लगी।गांधीजी राजनीति को सत्य, अहिंसा के आधार पर चलाना चाहते थे इसलिए जिस समय भी उनके सत्यागृह को स्थगित कर दिया।
          गांधीजी सिद्धांतों की सत्यता से कहीं ज्यादा वास्तविकता और व्यावहारिकता पर बल देते थे गान्द्गीजी ने सदैव अपने सिद्धांतों को जनता के समक्ष व्यवहारिक रूप में ही प्रस्तुत किया इसलिए उनमे एकव्यवहारिक आदर्शवादी की छवि स्पस्ट प्रतीत होती है। इन उपरोक्त तथ्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि गांधीजी एक आदर्शवादी नहीं वरन एक व्यवहारिक आदर्शवादी थे, हैं और रहेंगे.....
     
                                                            (लेखिका- आकांक्षा वर्मा, स्वतंत्र पत्रकार, युवा लेखिका, रेडियो एंकर  तथा इवेंट ओरेटर हैं।)  

No comments: