Wednesday 19 September 2012

शिक्षा ही एकमात्र उपाय


        "विद्या ददाति विनयम" अर्थात विद्या विनम्रता प्रदान करती है यह एक प्राचीन अमृत वचन है और काफी हद तक सच भी क्योकि विद्या अर्थात ज्ञान ही विवेक की शक्ति प्रदान करता है। एक और ग्रामीण कहावत है कि नादाँ (अज्ञानी) की मित्रता और शत्रुता दोनों घातक होती हैं। संस्कृत का याग श्लोक भी उक्त कथन की पुष्टि करता है:-
येषां न विद्या, न तपो, न दानम, ज्ञानम् न शीलम,न गुणों न धर्मः;
           ते मृत्वुलोके भुवि भार भूताः, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।
      श्लोक के रच्नाकारने तो विद्या, तप, दान, ज्ञान, और शालीनता से हीन व्यक्ति को पशुतुल्य करार दिया, इसलिए किसी भी समाज को सामर्थ्यवान बनाने की पहली शर्त यह मानी गयी है कि उसमे विवेक भी शामिल हो। "लोकतंत्र, मीडिया और मुसलमान" विषयक विचार गोष्ठी में विद्वान् वक्ताओं की बातों से भी यही ध्वनित हो रहा है कि पिचले दिनों मुस्लिन समुदाय के सबसे पाक महीने, माह-ए-रमज़ान में देश के जिन भी शहरों में हिंसात्मक उत्पात मचाया वे विवेकवान लोग नहीं थे, अर्थात उनमें शिक्षित समाज की भागीदारी नहीं थी, इसका एक अर्थ यह भी है कि शिक्षित समुदाय व्यर्थ के विवाद पैदा नहीं करता। अर्थात सारी
समस्याओं की जड़ अशिक्षा ही है तो क्यों न इसी अशिक्षा पर प्रहार किया जाये और बीमारी को ही समाप्त कर दिया जाए।
         आप समाज के उत्कर्ष कि अपेक्षा सरकार से ही नहीं कर सकते। सरकार के पास "और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा"अर्थात और भी बहुत सारे काम होते हैं। उसे अपनी लोकप्रियता बरकरार रखते हुए सरकारी जिम्मेवारी का निर्वहन करना होता है, प्रशासनिक मसले निबटाने होते हैं, विकास योजनायें बनाना, उनके लिए अर्थ की व्यवस्था करना, उन्हें कार्यान्वित करना और सबसे बड़ी बात यह है की भावी चुनाव में सफलता प्राप्त करने के लिए वोट बैंक की संतुष्टि के भी अनवरत प्रयास,फिर उससे किसी समुदाय या सम्प्रदाय विशेष के सामाजिक, शैक्षिक उन्नयन की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं, समाज के उन्नयन की अपेक्षा उसी समाज से की जाती है अर्थात उसी समाज के बुद्धिजीवियों और विवेकशील लोगों से। यह दुर्भाग्य की बात है की हिन्दुस्तान भी उसी मौन स्वाधीनता से पूर्व तक शासक की श्रेणी में शुमार होती थी,उसी कौम का एक बड़ा हिस्सा इन स्वाधीनता के पैसठ वर्षों के दौरान शिक्षा के मामले में लगातार पिछड़ता गया है। इस पिछड़ेपन को दूर करने के प्रयास उन लोगों द्वारा किये जाने चाहिए थे जो समाज का नेतृत्व कर रहे थे अर्थात मुस्लिम समाज के धार्मिक,सामाजिक और राजनैतिक अगुवाकार।
        सर शैय्यद अहमद खां ने समाज को दिशा देने के लिए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना की थी , लेकिन उसके बाद मुस्लिम समाज की किसी भी रहनुमा ने शायद ही ऐसा प्रयास किया हो। मस्द्रशों की बाढ़ अवश्य आयी जहां दीनीं तालीम को प्रमुखता दी जाती है और उस शिक्षा को कम महत्व दिया जाता है जो आदमी को समाज और व्यवस्था में स्थापित होने, प्रगति का मार्ग तलाशने में मदद कर सके। हम धार्मिक शिक्षा की आलोचना नहीं करना चाहते लेकिन क्या यह सत्य नहीं है की धर्म में तर्क की गुंजाइस नहीं होती ? जहां तर्क नहीं होगा वहां विवेकशून्यता अपने आप स्थापित हो जाती है और यही मुस्लिम समाज में हो भी रहा है।
         लड़कियों के साथ तो और भी अन्याय हो रहा है उन्हें धार्मिक शिक्षा से इतर ज्ञान देने की आज भी आवश्यकता नहीं समझी जाती। जो परिवार उच्च शिक्षित हैं उनमें लड़कियों को पढ़ाया जाता है और वे प्रगति भी कर रहीं हैं। उन परिवारों का विवादों से कोई वास्ता भी नहीं है। आवश्यकता है की मुस्लिम समाज का भी प्रबुद्ध वर्ग अपने समाज की बेहतरी के लिए पहल करे। उन्हें समझाए कि यदि वे अपने बच्चों की शिक्षा को महत्व नहीं देगे तो भविष्य में उन्हें सामाजिक सामंजस्य में क्या परेशानियाँ आ सकती हैं। लड़कियों को भी शिक्षा के मामले में आगे बढाया जाना चाहिए। जब वो शिक्षित होगीं तो वे अपनी भावी पीढ़ी का भविष्य संवारने, अपने पारिवारिक और सामाजिक दायित्यों को समझनें और सुलझानें में भी उन्हें आसानी होगी।
         पिछले रमजान के महीने में देश में जो अप्रिय घटनाएं हुई और उनमे मुस्लिम समाज की भूमिका पर उंगलियाँ उठी, वह सब दुखद था। ऐसी घटनाओं से देश का नुकसान तो होता ही है उस समाज का भी नुकसान होता है जिस समाज के लोग घटनाओं के लिए जिम्मेदार होते हैं। चन्द लोगों की मूर्खतापूर्ण हरकतों के कारण सरे समाज पर उँगलियाँ उठती हैं। उसे संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगता है। चंद लोगों की मूर्खता के लिए कोई भी सारा समाज जिम्मेदार नहीं हो सकता। ये वही लोग हैं जो नासमझ हैं, और जो यह नहीं जानते कि वह समाज में कौन सा जहर घोल रहें हैं और उसका भावी परिणाम क्या होगा। वे भारत-पाक क्रिकेट मैच में पाकिस्तान की जीत होने पर खुशियाँ मनाते, और पटाखे दागते हैं तथा अपने सरे समाज को शंदेहास्पद बनाते हैं। ऐसे लोगों का बहिष्कार भी इलाज़ नहीं है क्योकि वे अज्ञानी है, अपना भला बुरा सोच नहीं सकते और देश तोड़ने वाली शक्तियों के हांथों सहज खिलौने बन जाते हैं। ऐसे लोगों का तिरस्कार या बहिष्कार नहीं परिष्कार  किया जाना जरूरी है और वह परिष्कार शिक्षा के द्वारा ही संभव हो सकता सकता है।
         लोकतंत्र सम्पूर्ण समाज की समवेत और समान भागीदारी से समर्थ और समृद्ध बनता है। यह भागीदारी केवल मतदान करने भर से पूरी नहीं हो जाती। मतदान भी विवेकपूर्ण होना चाहिए, और मुझे यह पुनः कहना पड़ रहा है कि विवेक ज्ञान से आता है, तथा ज्ञान सामाजिक,समाजजीवन को संचालित करने वाली शिक्षा से। इसलिए जरूरी है शिक्षा ताकि लोग अपने कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति जन सकें,उनका सही तरीके से उपयोग कर सकें। तब उनके पास व्यर्थ के विवादों में उलझनें का समय भी नहीं होगा और समाज की समरसता के लिए कोई खतरा भी नहीं होगा। यही सबसे सरल,सुगम और व्यावहारिक मार्ग है। बुद्धिजीवी इसे समझें और अपने समाज की प्रगति के लिए प्रयास करें।
                  (लेखक-रामउजागिर शुक्ल, सक्रिय शिक्षाविद तथा स्वतंत्र लेखक के साथ साथ राजधानी लखनऊ में एक प्रतिष्ठित इंटर कालेज के संस्थापक, प्रबंधक भी हैं।)

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