Monday 3 June 2013

पत्रकारिता एक पब्लिक ट्रस्ट है


पत्रकारिता एक पब्लिक ट्रस्ट है


बी.जी. वर्गीज की गिनती देश के बड़े पत्रकारों में होती है। सन् 1927 में जन्मे वर्गीज की स्कूली शिक्षा देहरादून के बहुचर्चित दून स्कूल में हुयी। उन्होंने दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से स्नातक करने के बाद, कैंब्रिज विश्वविद्यालय से पढ़ाई की। जिसके बाद, बतौर पत्रकार अपने कॅरियर की शुरुआत 1949 में टाइम्स ऑफ इंडिया से की।

वर्गीज ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सूचना सलाहाकार के तौर पर उनके साथ 1966 से लेकर 1969 तक काम किया फिर 1969 में हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादक बने और इस पद 1975 तक रहे। इसके बाद 1982 में इंडियन एक्सप्रेस के संपादक बने और इस पद पर 1986 तक रहे। 2001 में वे रक्षा मंत्रालय में सूचना सलाहकार के तौर पर जुड़ गए।

वर्गीज को पत्रकारिता के क्षेत्र में कई पुरस्कार मिल चुके हैं। 1975 में उन्हे मैग्सेसे पुरस्कार मिला। साथ ही उन्हें 2005 का शंकरदेव पुरस्कर भी मिला। बी.जी. वर्गीज ने कई किताबें भी लिखी हैं, जिसमें मुख्य ‘डिजाइन फॉर टुमॉरो’, ‘वाटर्स ऑफ होप’, ‘विनिंग द फ्यूचर’, ‘इंडियाज नार्थईस्ट रिसर्जेंट’, ‘रिओरियेंटिंग इंडिया’, ‘वॉरियर ऑफ द फोर्थ एस्टेट’ और ‘फस्ट ड्राफ्ट’ हैं। पढ़िए समाचार4मीडिया से बी.जी.वर्गिस की विशेष बातचीत ...


पिछले तकरीबन चालीस साल से आप मीडिया से जुड़े हैं। जब आप सक्रिय रूप से जुड़े थे और आज के दौर में क्या फर्क महसूस करते हैं?


देखिए, आज मीडिया बहुत बड़ा हो गया है। साथ ही यह पावरफुल भी हुआ है, लेकिन जितना ही इसका विस्तार हुआ है इसकी विश्वसनीयता उतनी ही घटी है। पावर का बढ़ना और विश्वसनीयता का घटना यह खतरे की निशानी है। लेकिन इसके इतर संभावनाएं भी खूब बढ़ी हैं। खासकर तकनीकि में जो बड़ा बदलाव आया उसने आपके हाथों में काफी सहूलियत और ताकत दी।
मीडिया का मतलब है मीडियम। लेकिन आज के समय में मीडिया में मीडिएशन बिल्कुल नहीं है। आज मीडिया के काम-काज में सोचने-समझने का वक्त ही नहीं है। पहले के समय में चौबीस घंटे के दौरान प्रिन्ट का जो सर्कल होता था, अब वह चला गया है। अब इन्स्टैंट मीडिया का दौर आ गया है। इसमें किसी का दोष नहीं है। ऐसा नहीं है कि आज के दौर के पत्रकारों में प्रतिभा की कमी है या अपने काम को लेकर वे गंभीर नहीं हैं, मुश्किल केवल यह है कि प्रतिस्पर्धा इतनी बढ़ गई है कि ब्रेकिंग न्यूज़ जैसी चिंतायें इन हदों तक जाने के लिए मजबूर कर रही हैं। इसीलिए मैं कह रहां हूं कि मीडिया की ताकत तो बढ़ी है, लेकन स्तर घटा है।

लेकिन तकनीक ने जो तेजी दी है, उससे कई स्तरों में सुधार भी तो हुआ है?

हां, बिल्कुल सुधार हुआ है। मैं तकनीक के खिलाफ नहीं हूं। मैं यह कह रहा था कि मीडिएशन अब दूसरे तरफ से हो रहा है। ट्रेनिंग, जिम्मेदारी घट रही है। उदाहरण के तौर पर देखें,टीवी पर ख़बर आती है कि ब्रह्मपुत्र नदी में नाव के डूबने से 500 लोगों की मृत्यु हो गयी। शायद हकीकत में नाव में 300 यात्री ही हों, लेकिन पहले ख़बर देने की हड़बड़ी में 300 को 500 भी बना देते हैं। तो मीडिएशन अपनी ट्रेनिंग से, अपने स्टैण्ड से आना चाहिये, यही नहीं हो रहा है। रिर्पोटर 300 बोल रहा है, एंकर 500 बोल रहा है। कहने का मतलब क्रॉस चेक नहीं है। दरअसल, ब्रेकिंग न्यूज़ के चक्कर में आप एक नया नाटक करते जा रहे हैं। यह बहुत गलत है, इससे देश का समाज का बड़ा नुकसान हो रहा है।

आपने कहा कि अब मीडिया उतना विश्वसनीय नहीं रहा है। क्या आप कोई उदाहरण देना चाहेंगे कि यह होना चाहिये था और मीडिया ने अपनी जिम्मेदारी यहां पर नहीं निभाई?

ऐसे बहुत सारे उदाहरण हैं। आप देखिये कि अन्ना हजारे का पिछले साल जुलाई, अगस्त के दौरान जो अनशन रामलीला मैदान, दिल्ली में हुआ। सारे टीवी चैनल और प्रेस के लोग वहीं पर सोये, उनका इंतजाम कर दिया गया। उनके लिए वहीं खाने-पीने की व्यवस्था की गई। सब एम्बेडेड न्यूज़ थी।

ऐसे बहुत साऱे उदाहरण हैं। मीडिया बिल्कुल भेड़-चाल की तरह काम करने लगा है। ऐसा गल्फ वार में शुरू हुआ था क्योंकि अमेरिका ने कहा इस युद्ध में बहुत खतरा है, तो इराक में कोई ख़बर नहीं जानी चाहिये। मीडिया को कहा गया अमेरिकन फोर्स के साथ उनकी गाड़ी में जाना है। आप जो कॉपी लिखेंगे वो पहले अमेरिकी फौजी देखेंगे। वे सेंसर करेंगे। सिर्फ वो जो उन्होंने देखा है, उन्हें ठीक लगा, वही ख़बरें आप लिख सकते हैं। लोगों को दिखा सकते हैं। वहीं से‘एम्बेडेड जर्नलिज्म’ शब्द आ गया ।

पत्रकारिता एक पब्लिक ट्रस्ट है, उसकी अपनी जिम्मेदारी है। एडिटोरियल और पेड न्यूज़ सबको आप एडवरटोरियल कहकर अपना दामन बचा रहे हैं। आप बस यह कहकर कि यह विज्ञापन है, कुछ भी छाप दीजिये। यह एक मिलावट है। तब पाठकों को लगता है कि यह विज्ञापन और संपादकीय की मिली हुई ख़बरें हैं। वहीं से गड़बड़ी की शुरुआत होती है। जो विज्ञापन है उसे विज्ञापन कह कर ही छापें ।

लेकिन एक तर्क यह भी तो है कि जनता जो देखती-पढ़ती है, हम वही दिखा रहे हैं?

जो लोग यह कह रहे हैं। वो पत्रकारिता में क्यों हैं? वो कहीं और जैसे शिक्षा के क्षेत्र में जाए और बोलें कि जो छात्रों को पसंद है हम वही पढ़ायेंगे। यह सिद्धांत तो हम सभी जगह लागू कर सकते हैं। डॉक्टर कहेगा कि जो दवा मरीज को पसंद है, हम वही लिखेंगे। यह बस अपनी जिम्मेदारियों से भागना है। और पत्रकारिता क्या आज की है। जिस जमाने में पत्रकारिता अपने प्रतिमान गढ़ रही थी, तब भला कोई यह क्यों नहीं कहता था। क्या तब काबिल लोगों की कमी थी। आज ज्यादातर पत्रकारों का बस एक उद्देश्य रह गया है,राजनीतिज्ञों के करीब पहुंचना और उनके माध्यम से अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना।

लेकिन जो पत्रकार पॉलिटिकल बीट कवर कर रहे हैं वह तो नेताओं से संबंध बनाएंगे ही। अगर आप उनके नजदीक नहीं रहेगे तो ख़बरें कहां से लायेंगे?

देखिए नेताओं को भी पता है कि अंदरखाने की ख़बर यह छापते नहीं, क्योंकि वह ख़बरें मैनेज कर ली जाती हैं और जिन राजनीतिक ख़बरों को पत्रकार छाप रहे हैं उनका कोई असर है नहीं। आज अमर सिंह को छापते हैं, कल को उनका कोई अस्तित्व नहीं रहता, तो उनके खिलाफ हो जाते हैं। मैं राजनेताओं से संबंधों के खिलाफ नहीं हूं, लेकिन पत्रकारिता राजनीतिक हस्तक्षेपों से प्रभावित हो, इसके खिलाफ हूं।
पत्रकारिता के अपने एथिक्स हैं उन्हें बचाए रखना बेहद जरूरी है।

सारे एथिक्स की उम्मीद मीडिया से ही क्यों की जाती है?

देखिये, यह बात सही है कि एथिक्स सब जगह है। मीडिया में एथिक्स है, बिजनेस में एथिक्स है। राजनीति में एथिक्स है। सब जगह है। अगर एथिक्स नहीं होगा, तो हर जगह गुंडागर्दी फैल जाएगी। लेकिन एथिक्स की चिंता इसलिए की जा रही है क्योंकि समाज में हर स्तर और हर स्तंभों के एथिक्स में गिरावट आई है।

मीडिया से उम्मीद इसलिए की जाती है क्योंकि मीडिया की भूमिका वॉचडॉग की रही है। जब रात को कुत्ता भौंकता है तो घर वाले सब जाग जाते हैं कहते है भाई कुछ न कुछ हो रहा है। देखो क्या बात है? लेकिन वही भूमिका अगर लैपडॉग में ढल रही है, तो चिंता जायज है। मैं यह नहीं कहता कि मीडिया में अच्छे लोग नहीं हैं। लेकिन कुछ लोगों ने गंदगी फैला रखी है, जिसके छींटे सबके ऊपर पड़ रहे हैं। कॉरपोरेट कल्चर ने इसकी गंदगी को बढ़ाने में और मदद की है।

तो क्या आप चाहते हैं कि कॉरपोरेट मीडिया में न आए और पत्रकार कुर्ता-पायजामा और साईकिल वाले पर चलने वाली पारंपरिक छवि के भीतर ही रहे। जबकि उसके बगल, दूसरे अन्य संस्थानों में लोग लाखों सैलरी पा रहे हैं। तो क्या आपको नहीं लगता कि पत्रकारों के लिए कॉरपोरेट सुखद परिणाम भी लेकर आया है?

मैं यह नहीं कहता कि लाभ ना मिले, लोगों को अच्छी सैलरी ना मिले। लेकिन केवल सैलरी के लिए ही पत्रकारिता को चौराहे पर खड़े कर देना चिंता की बात है। और ये केवल आज की ही बात नहीं है। मेरे जमाने में भी कई पत्रकारों को एक साल में उतनी सैलरी मिली, जितनी मुझे पूरे कॅरियर में मिली। आदमी की जरूरतें पूरी हों इसके लिए उसे पैसा मिलना चाहिए। पत्रकार भी काम करता है,तनख्वाह के लिए। लेकिन उसका काम केवल काम भर नहीं है। उसके साथ कई नैतिक जिम्मेदारियां जुड़ी हुई हैं। इसलिए जब वह पत्रकारिता और नैतिकता के इस दायरे से बाहर निकलकर लाभ के दूसरे हथकंडे अपनाता है तो कॉरपोरेट सवालों के घेरे में आने लगता है।

कभी दबाव के क्षणों में आपने यह महसूस किया कि मुझे भी उसी राह पर चलना चाहिए। जिसे आप लाभ का रास्ता कहते हैं?

देखिए, आदमी का व्यक्तित्व अपने परिवार से मिली शिक्षाओं से बनता है। मैं एक बेहद सेकुलर पारिवारिक पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखता हूं। मैं एक गरीब वेस्टरनाइज्ड इंडियन हूं। और मैंने अपने परिवार से सीखा है कि दबाव मे अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन कैसे करें। अगर दबावों में झुका होता तो शायद मैं भी आज धन कुबेर होता, लेकिन मैंने हमेशा पत्रकारिता की नैतिकता को आगे रखा और दबावों को पीछे।

पत्रकारिता में कैसे आना हुआ?

कॉलेज के दिनों में मेरी प्राथमिकता थी, टीचर बनूं। बाद में सोचा कि सिविल सर्विस में जाना चाहिए और उसकी तैयारी मैंने शुरू भी कर दी थी। कॉलेज में कैंपस प्लेसमेंट होता था। एक दिन, हमें बताया गया कि ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के एडिटर यहां आयेंगे, उन्हें दो लोगों का सेलेक्शन अपने अखबार के लिए करना है। कॉलेज की ओर से मुझे इंटरव्यू में शामिल होने के लिए कहा गया। लेकिन मैंने मना कर दिया। मैंने कहा कि पत्रकारिता क्या होती है, यह तो मुझे पता ही नहीं है। लेकिन मेरे अध्यापक दूरदर्शी थे, उन्होंने कहा कि अभी आप हां या ना मत कीजिए, आप अभी सोचिए। जब वो इंटरव्यू के लिए आयेंगे, तो हम आपको सूचना दे देंगे। आखिर में मैं तैयार हो गया। ‘टाइम्स’ वालों को ऐसे लोग चाहिए थे जो ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के ट्रेडिशन में फिट हों और उनकी वैल्यू को बनाए रखे। इंटरव्यू हुआ और मुझे चुन लिया गया। फिर, मैं वहां से एक साल के लिए इंग्लैंड में ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’की तरफ से ट्रैनिंग पर चला गया। और लौटने के बाद‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ मुंबई ज्वाइन किया।

भावी पीढ़ी के लिए खासकर उन युवाओं को जो पत्रकारिता में आना चाहते हैं, उन्हें आप क्या संदेश देंगे?

जिम्मेदार बनें। पत्रकारिता को समझें, फिर आएं। जिस तरह से अध्यापक अपने छात्रों को गढ़ता है। उसी तरह, पत्रकार समाज को गढ़ता है। इसलिए पहले आप वह तैयारी करिए। ऐसी ख़बरों को खोजिए, उनकी समझ विकसित करिए, जो असरकारक हों। जिनका प्रभाव ज्यादा लोगों पर पड़े।

शहीद सरबजीत को शब्दांजलि

आखिरकार देश का एक सपूत चला गया... 


अतुल मोहन सिंह
भारत-पाक विभाजन की त्रासदी देखिए कि एक पाकिस्तानी चैनल कह रहा है... 
भारतीय दहशतगर्द सरबजीत का इंतकाल हो गया...
पाकिस्तान की कैद में बंद भारतीय नागरिक को आखिरकार मार ही दिया गया। आखिर पकिस्तान ने अपनी असली औकात दिखा दी। उसने ये बता दिया कि तुम भले ही हम पर मेहरबान रहो हम तो तुमको किसी भी सूरत में बकसने वाले नहीं है। अभी सरबजीत और हेमराज को शहीद किया है देखते जाना दोस्ती की आड़ में हम तुम्हारा कितना खून बहायेंगे। पकिस्तान की अब तक की नापाक हरकतों पर मुझे पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की याद आती है। लोकसभा में अमूमन सभी दलों के सांसदों ने शहीद सरबजीत को अकीदत पेश की। काश इस सभा में पूर्व प्रधानमंत्री भी ज़िंदा होती तो इसी कांग्रेसी सरकार की प्रतिक्रिया भी क्या यही होती। अगर इंदिरा जिन्दा होती तो शायद भारत के दिल पर कभी न भरने वाला जख्म देने वाला पकिस्तान ऐसा करने की हिमाकत कभी न करता क्योकि उसे पता होता भारत में मरदाना सरकार है जो अपने ऊपर आने वाली एक खरोज का बदला भी जख्म देकर निकालेगी लेकिन हाय रे दुर्भाग्य उसी शेर दिल इंदिरा के वंसज आज नपुंशक हो गए। शायद इंदिरा ने भी ये नहीं सोचा होगा कि उनके वंशज उनके खून को पानी बना देंगे। आज ऊपर बैठी इंदिरा की आत्मा भी कह रही होगी कि गांधी खानदान के आज की चिरागों तुम गाँधी खानदान पैदा ही न होते। जिनमे इतनी भी ताक़त नहीं कि अपने बाप दादा की विरासत को संभाल कर रखे। उस विरासत को जिसने इस देश को आजादी दिलाई, उस विरासत को जिसने हर बार पकिस्तान को ये बताया कि बाप बाप होता और बेटा बेटा। भारत के लिए वह एक इमोशनल मुद्दा था, एक ऐसा नागरिक जो 'गलती से' सीमा पार कर गया था और पाक जाकर फंस गया। उसे गलत आरोप में फंसाया गया लेकिन पाकिस्तान के लिए वह एक दहशतगर्द और आतंकवादी था। जिसने बम धमाके करके कई पाकिस्तानियों की जान ले ली थी। सचाई हमें नहीं मालूम लेकिन ये पता है कि सरबजीत एक इंसान था, जिसे इस इंसानी सभ्यता में जंगल के जानवरों वाले कानून की तरह मारा गया। यानी ताकतवरों ने जेल में घात लगाकर एक कमजोर को मौत के घाट उतार दिया। कल देर रात ही खबर आई थी कि पाकिस्तान सरबजीत को इलाज के लिए भारत भेजने पर विचार कर रहा है। उसे पता था कि अगर सरबजीत पाकिस्तान की जमीन पर मर गए तो दुनियाभर में, खासकर भारत में इसका अच्छा मैसेज नहीं जाएगा...लेकिन वक्त किसी को ज्यादा सोचने का मौका नहीं देता। दोनों देशों की दुश्मनी में एक और अध्याय जुट गया। मुझे सबसे ज्यादा दुख सरबजीत की बेटियों को देखकर होता है। उन्हें दोनों देशों की दुश्मनी से कोई वास्ता नहीं। राजनीति से कोई मतलब नहीं। उनका तो सबकुछ लुट गया। बाप चला गया। भले ही पाकिस्तान की जेल में था, लेकिन जिंदा तो था। अब तो वह आस भी नहीं रही। एक बार फिर इंसानियत से सियासत जीत गई। पता नहीं, ऐसे कितने सरबजीत होंगे, जिनके किस्से मीडिया में लोकप्रिय नहीं हुए। हमें उनका दर्द नहीं मालूम लेकिन वो कहते हैं ना कि 'आह' बड़ी चीज होती है। बड़े-बड़े बादशाह मिट गए। कौमें जमींदोज हो गईं। तो आह मत लीजिए। ना इधर की-ना उधर की। हमने आजादी की लड़ाई लड़ी थी। हमें एक वतन चाहिए था। हमें हिन्दुस्तान और पाकिस्तान नहीं चाहिए था। हमें सियासत नहीं करनी थी। हमें कुर्सी नहीं चाहिए थी। वो आप लोगों ने बनाया। बॉर्डर पर लकीर आपने खींची, जो आज तक दोनों मुल्कों की आवामों को फांसी का फंदा बनकर लटकाता रहता है। कभी फांसी पर टांगते हो तो घरवालों को चिट्ठी तक नहीं भेजते। र कभी घात लगाकर मारते हो तो अस्पताल में भी घरवालों को नजर भरके देखने नहीं देते। अगर चैन से जीने नहीं दे सकते आप लोग तो चैन से मरने दो भाई। ये भी क्या मौत हुई कि जीभरके अपनों को भी नहीं देख पाए। सरबजीत की मौत पर सब बोल रहे हैं। नरेंद्र मोदी से लेकर राहुल गांधी तक। सबको चिंता है। पाकिस्तान की फिक्र सबको है, लेकिन चीन के बारे में कोई मुंह नहीं खोल रहा। मीडिया भी दबी जबान में फुसफुसा रहा है। ये पता चल रहा है कि चीन महज 18-19 किमी तक हमारी धरती पर नहीं आया है। वह कोई 750-800 क्षेत्रफल के हमारे इलाके पर रणनीतिक कब्जा कर चुका है लेकिन हम सब मौन हैं। सिर्फ पुचकार करके ड्रैगन को कह रहे हैं कि भाई, चला जा, क्यों पंगा कर रहा है। ठीक उसी तरह, जैसे मुहल्ले का कोई कमजोर बालक एक दबंग पहलवान से मिमियाकर कहता है कि अगर तुमने मेरी बात नहीं मानी तो 'मैं टुमको मालूंगा' और पहलवान मुस्कुराकर मजे लेता रहता है। आर्मी चीफ भी कुछ नहीं बोल रहे। बीजेपी भी चुप है। मोदी भी चुप। कांग्रेस के पीएम तो शुरु से खैर चुप ही हैं। लेफ्ट वालों को भी देश वैसा संकट में नहीं दिख रहा, जैसा अमेरिका से एटमी करार वाले मौके पर दिख रहा था। क्या हम सब जोकर हैं ? सरबजीत को मार दिया गया और पाकिस्तान के खिलाफ सीबीआई जांच भी नहीं बिठा सकते लेकिन यूपी और दिल्ली के कोई पत्रकार मित्र ये बता पाएंगे क्या कि डीएसपी जिया की हत्या मामले में सीबीआई की जांच कहां तक पहुंची है। राजा भैया के खिलाफ उसे कोई सबूत मिला या नहीं और डीएसपी की विधवा पत्नी कैसी हैं, इस सुस्त जांच के बारे में उनका क्या कहना है ? और दिल्ली में निर्भया गैंगरेप के आरोपियों की सुनवाई कहां तक पहुंची ? कब तक इंसाफ मिल पाएगा ? और सरबजीत के परिवार को इंसाफ दिलाने के लिए सरकार क्या-क्या करेगी और कर रही है ? सरबजीत को शहीद घोषित कर दीजिए, राजकीय सम्मान से उसका अंतिम संस्कार कर दीजिए लेकिन उस बंदे को कहां से लाओगे, जो अपनी बेटियों की शादी में उनका कन्यादान करता। उस विश्वास को कहां से लाओगे जिसकी गर्माहट दोनों मुल्कों की आवाम में अब तक महसूस की जाती रही थी। लाख दुश्मनी के बावजूद दोस्ती की उस पतली गली को कहां से ढूंढोगे, जो दो बिछुड़े भाइयों को गले मिलने का रास्ता देती रहती थी। ये ठीक है कि ये गली अभी बंद नहीं हुई है लेकिन अगली दफा जब तपाक से गले मिलोगे तो नज़र मिला पाओगे ? सरबजीत की मौत पर बेटियों से पूछा गया की आपको सरकार से क्या चाहिए तो सरबजीत की बेटियों ने कुछ भी मांगने से मना कर दिया और बोला की बाकि जो कैदी पाकिस्तान में कैद है उनके लिए कुछ किया जाये। ये फर्क है सरबजीत के परिवार में और उनमे जो अपने परिवार के किसी बन्दे के मरने पर अपने पूरे परिवार के लिए नौकरिया और पैसे मांग कर मौत का सौदा करने लगते हैं। सैल्यूट है इन बच्चियों को..