Sunday 16 November 2014

संभावनाओं के रथ पर सवार

·        अतुल मोहन सिंह
   भारतीय युवा जिसे युवा के स्थान पर वायु कहना ज्यादा समीचीन होगा. कारण स्पष्ट और पुष्ट हैं कि उसकी प्रकृति और परिवेश किसी वायु के झोंके से कमतर नहीं है. कभी आंधी बनकर तेज चलने का जोखिम उठाने की उत्कट अभिलाषा तो कभी न चलने की अलसाई विवशता. दोनों ही स्थितियों पर वह अपने आपको असहज और अकेला पाता है. एक ओर जहां उसमें शारीरिक परिवर्तनों के चलते खुद को ‘कठिन काल’, ‘दबाव’, ‘तनाव और तूफ़ान के काल’, ‘संधि काल’, ‘भद्दी अवस्था’, ‘लैंगिक असहजता’, ‘दुःखद स्थिति’, ‘भविष्य निर्माण के काल’ जैसी स्थिति में महसूस करने की अनचाही मजबूरी है वहीं दूसरी ओर उसके मानसिक पटल पर रेंगते पीढ़ीगत अंतराल से जूझने और विजय रथ पर सवार होकर उससे बाहर निकलने की अधकचरी कवायद ने उसे और भ्रमित करने का प्रयास ही किया है.
वायु जब तक अपनी स्वाभाविक प्रकृति से चलती है तो वातावरण सामान्य रहता है. जब भी परिवेश में विचलन, स्थानापन्न स्वस्था अथवा भौगोलिक बदलाव होता है तो वह भी अपनी सहज और स्वाभाव के विपरीत व्यवहार करती है. उसके इसी परिवर्तित स्वरूप को आंधी अथवा वायुशून्यता का विकार कह सकते हैं. जब भी हम इसकी स्वाभाविक प्रकृति अथवा चाल में परिवर्तन लाने का कृत्रिम प्रयास करते हैं. वह अपना मुखर प्रतिरोध दर्ज करवाती है. पथ से सिथिल होने पर शीतकाल में भी पसीने निकाल देने और तेज होने पर कई विध्वंसक स्थितियों से हमें दो चार होना पड़ सकता है. दरख्तों को अपनी शाखों से भी हाथ धोना पड़ता है. समुद्र तक में ज्वार भाटा और सुनामी जैसी प्रलय की आशंका भी निर्मूल नहीं कही जा सकती. ठीक ऐसी ही सांचे की बनावट लिए हुए आज का युवा भी अपनी किसी आशा, इच्छा, आवश्यकता, मांग, अभिलाषा और अधिकार की किसी भी कटौती या अल्पता को किसी भी सूरत में स्वीकार करने की स्थिति में नहीं दिखता. उसकी उत्कंठा इतनी प्रबल और उर्ध्वगामी कही जा सकती है कि उसे आज पता है कि वह किसी भी जल्दबाजी में नहीं है. उसे भविष्य निर्माण के रास्ते में आने वाली दीर्घकालिक चुनौतियों की गंभीरता का अहसास भी है. तो उसे इससे निबटने की जुगत भी आती है पर उसे भ्रमित करता है पीढ़ीगत अंतराल जिसे अपने जैसे ही जल्दी है. उसे अपने मां-बाप की तरह हाथ पीले करने या शहनाई बजवाने की जल्दबाजी नहीं है. उसे इस बात की फिक्र भी है कि कोई उसकी व्यक्तिगत पूंजी अर्थात क्षमता, योग्यता, प्रतिभा और मेधा का दुरूपयोग न करने पाए. पर वह इस भिज्ञता के बावजूद मजबूर है अदृश्य बेरोजगारी का शिकार बनने के लिए. आज देश का युवा दुनिया में किसी को भी मात देने का हौसला रखता है मगर फिर भी वह हार जाना स्वीकार करता है इसलिए कि जहां उसके अपने खुद उसके सामने युद्धक्षेत्र में हैं और उससे पराजय स्वीकार करने के लिए याचना करते दीख पड़ते हैं. हिन्दुस्तान का युवा आज भी महाभारत से सीखने को आतुर है. वह तो युधिष्ठिर को मात देने के लिए तैयार बैठा है. उसमें यह क्षमता भी है कि वह कथ्य, तथ्य और सत्य को साक्षी मानते हुए मन, बचन और कर्म के आधार पर अपनी पूरी क्षमता के साथ सत्य के लिए आग्रह करता हुआ दिखाई पड़ना चाहता है. उसमें अर्जुन की भांति जीतने की अभिलाषा तो है पर वह सहर्ष जानते हुए भी पराजय स्वीकार करना ज्यादा नैतिक समझता है उसमें साक्षात ईश्वर से भी वाद-विवाद और प्रतिवाद करने और अपनों से हार स्वीकार करना ज्यादा मानवीय और उपयुक्त लगता है. सीखने के मामले में भी वह अर्जुन के स्थान पर एकलव्य का अनुगामी बनना चाहता है. गोपेश्वर का साथ भी प्राप्त करना चाहता है पर ‘आपत्ति काले मर्यादा नास्ति’ के समर्थन की शर्त पर नहीं. उसकी महती अभिलाषा है कि वह अपने भविष्य निर्माण का महाभारत भी पूरी ईमानदारी, निष्ठा, कर्मठता, लगन और मानवीय संवेदना के साथ विजित करे. उसकी इस इच्छा के रास्ते में कुछ अकर्यमन्यता और जुगाडू सेनायें आज भी साम, दाम और दण्ड के भेद को समाप्त कर उसे असफल करना चाहती हैं. प्रतिभा, योग्यता, मेधा और क्षमता का रथी आज महारथियों से नहीं बल्कि आरक्षण रूपी बैसाखियों पर सवार मानसिक बिकलांगता के शिकार शिखंडियों के हाथों हारने पर मजबूर है. धर्मसंकट इतना ही नहीं है यह युद्ध उन्हें अब कई बार लड़ना है. ‘एजूकेशन’, ‘सेलेक्शन’ और ‘प्रमोशन’ में ‘रिजर्वेशन’ ने आज उस युवा की हवा निकालकर रख दी है जिसमें तूफ़ान जैसा वेग है प्रलय की संभावना जिसकी परिणिति.
आज समस्याओं, विषमताओं, चुनौतियों और परीक्षाओं के जमघट ने ऐसा चक्कर चलाया है कि उसके बचपन की अठखेलियां और मित्र मंडली अब कहीं नहीं दिखती. अब दिखती है तो शिक्षा और रोजगार की मृग मारीचिका बिछाए हुए उन दुकानों में जहां से उसे हर हाल में लुटकर या लुटाकर ही जाना है. अब तो खच्चर को भी यह सफलता के दिवास्वप्न दिखाने वाले भविष्य निर्माण के ठेकेदार घोड़ा बनाने की गारंटी ले रहे हैं. जुगाडू व्यवस्थाओं और मूल सभ्यताओं के मध्य हर दिन एक नया युद्ध लड़ा जाता है. आज प्रतियोगिता की अंधी दौड़ में साइकिल सवार को भी जेट से उड़ने वाले की बराबरी करनी है. ये दीगर बात है कि यह साइकिल भी उसकी अपनी नहीं है पर फिर भी उसको दौड़ना ही है क्योंकि उसके अपनों की ‘आन’, ‘बान’, ‘मान’, ‘सम्मान’, ‘स्वाभिमान’ और ‘प्रतिष्ठा’ का प्रश्न है. फिर भी ऐसा नहीं कि हर बार जेट सवार ही आगे निकल जायें क्योंकि उन्होंने शायद आज भी कछुआ और खरगोश वाली कहानी नहीं पढ़ी है. वह अपनी उसी साइकिल के साथ जीतता है क्योंकि उसे मालुम है कि अपने तरुणाई में उसके पिताजी ने भी इसी साइकिल से दौड़ना शुरू किया था पर उनके हाथ खाली के खाली ही रह गए थे उसको न सिर्फ अपने सपने पूरे करने हैं बल्कि पिछली पीढ़ी के उस हस्तक्षेप को भी ज़िंदा रखना है जिसका साहस उसके अपने बाप ने किया था. अपनी संभावनाओं की दौड़ में वह अकेले तो नहीं दौड़ता उसके मां ने भी अपने आचल से आसूं पोछकर न सिर्फ सहारा दिया बल्कि पीठ पर स्नेह का स्पर्श भी. ये दीगर बात है कि उसकी छोटी बहन यह नहीं जानती कि उसका अपना भाई आखिर किताबी दुनिया में अपने लिए क्या तलाशता रहता है पर उसकी राखी इस बार भी कर्मवती से कम उम्मीद नहीं रखती है. इसलिए आज के उस युवा को भी जीतना ही होगा क्योंकि उसके और सारे रास्ते बंद हैं. इस अभिमन्यु की निगाहें इस बार सातवें द्वार पर ही टिकीं हैं ‘विजयश्री’ अब ‘अंगूर के गुच्छे’ नहीं बल्कि ‘अरुणोदय’ है जिसके बाद निर्धारित है कि उम्मीदों के ‘सूर्य’ का उदय अवशम्भावी है. इस बार के ‘चक्रव्यूह’ में अभिमन्यु भी ठीक वैसा ही है अकेला, निर्भीक, निहत्था और ‘संभावनाओं’ के रथ पर सवार..............

‘यूपी में उपेक्षा के शिकार हैं हिन्दू’

अतुल मोहन सिंह
हिन्दुस्तान की स्वाधीनता के 66 वर्षों बाद भी हिंदुओं के साथ जो सौतेला व्यवहार किया जा रहा है. न्याय के लिए भटकते हिन्दू जनमानस की भावना को व्यक्त करते हुए उसे यथोचित मंच पर स्थान दिलाने, उन्हें सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व धार्मिक न्याय दिलाने की बात करना आज बेमानी घोषित कर दिया गया है. अल्पसंख्यक तुष्टिकरण और मतों के ध्रुवीकरण के खेल में बेचैन सरकारों ने हिन्दुओं के हितों की निरंतर अनदेखी की है. अब वक्त आ गया है कि इसके ख़िलाफ़ भी आन्दोलन को तेज़ किया जाय. उक्त बातें ‘हिन्दू फ्रंट फार जस्टिस’ के संरक्षक और अयोध्या मामले में ‘रामलला विराज़मान’ की ओर से अधिवक्ता हरीशंकर jaiजैन ने एक वार्ता के दौरान कहीं.
‘हिन्दू फ्रंट फार जस्टिस’ की महासचिव और उच्च न्यायालय की वरिष्ठ अधिवक्ता रंजना अग्निहोत्री ने बताया कि 1 मई, 2013 से हम इस मंच के माध्यम से सरकार की उपेक्षापूर्ण नीतियों और पूर्वाग्रहों से लिप्त नीतियों के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे हैं. 800 वर्षों की गुलामी के कारण राष्ट्र की अस्मिता, सभ्यता, संस्कृति, शिक्षा, इतिहास और सामाजिक संरचना पर जो कुठाराघात हुआ था उसे दूर करने के लिए इस तरह के अभियानों और बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी बढ़ गई है. आज तक भारतीय सांस्कृतिक धरोहरों, सांस्कृतिक मूल्यों और राष्ट्रीय स्मारकों की रक्षा के लिए किसी भी राजनैतिक दल ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया है. अपवादस्वरूप भाजपा ने श्रीराम जन्मभूमि के मुद्दे पर थोड़ा साथ तो दिया किन्तु उसे पूरा करने के लिए अभी तक कोई स्थाई और प्रभावी कदम नहीं उठाया गया है. हम उम्मीद करते हैं राष्ट्र के सर्वमान्य यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी हिन्दू हितों के साथ न्याय करेंगे. उन्होंने आगे कहाकि हमारा संघर्ष पूर्णतः विधिसम्मत, संवैधानिक अधिकारों और मूल्यों की रक्षा करना हैं.
उन्होंने प्रदेश सरकार के तुष्टिकरण और हिंदुयों के साथ उपेक्षापूर्ण नीतियों और योजनाओं के ख़िलाफ़ दर्ज कराए गये प्रतिरोधों और हस्तक्षेप के विषय में भी विस्तार से बताया. श्रीमती अग्निहोत्री का कहना था कि कई मुद्दों पर प्रदेश सरकार ने भेदभाव और तुष्टिकरण का खुलेआम खेल खेलने का गैर कानूनी साजिश की हैं. पहले मामले में अखिलेश सरकार द्वारा आतंकवादियों के विरुद्ध चल रहे मुकदमों को वापस लेने के निर्णय के विरुद्ध जनहित याचिका दायर की गई थी. जिसके माध्यम से मा. उच्च न्यायालय ने स्थगन आदेश पारित कर मामले को वृहद पीठ के पास भेज दिया था जहां सरकार के ख़िलाफ़ फ़ैसला हुआ. फ़ैसले के ख़िलाफ़ प्रदेश सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के यहां अपील दाखिल कर उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती दी है और मामला अग्रम सुनवाई तक लम्बित है. दूसरा मामला जौहर विश्विद्यालय में गैर अकादमिक व्यक्ति के पूर्णकालिक कुलाधिपति नियुक्ति से सम्बंधित है. इसके अंतगत रामपुर में नवनिर्मित जौहर विश्विद्यालय अधिनियम की वैधानिकता तथा काबीना मंत्री मो. आज़म खां को इसका आजीवन कुलाधिपति बनाने तथा मुसलमानों के लिए विश्वविद्यालय में 50 फीसदी स्थानों को आरक्षित किये जाने को चुनौती देते हुए जनहित याचिका योजित की गई थी. जिसको विचारणीय मानते हुए उच्च न्यायालय ने इसे स्वीकार करते हुए प्रदेश सरकार को नोटिस भेजकर जवाब तलब किया है. मामले की सुनवाई अभी चल रही हैं.
तीसरा मामला लखनऊ लक्ष्मण टीले पर बने हिन्दू मंदिर को तोड़कर बनाई गई टीले वाली मस्जिद के स्थान का स्वामित्व मांगते हुए तथा उस स्थान से अवैध मस्जिद हटाने के लिए दीवानी दावा सिविल न्यायालय लखनऊ के यहां दाखिल किया गया है. उक्त मामले में भी नोटिस भेजा जा चुका है और प्रकरण विचाराधीन है. चौथे मामले के अंतर्गत मेरठ में होने वाले जबरन धर्म परिवर्तन से सम्बंधित प्रकरण को जोरदार धंद से उठाया गया है. पाचवें मामला समाजवादी पार्टी सरकार की बहुमहत्वाकांक्षी कार्यक्रम ‘समाजवादी पेंशन योजना’ का है. जिसके अंतर्गत अल्पसंख्यकों को योजना में 25 फीसदी का आरक्षण देये जाने के प्रावधान को मा. उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है. उक्त मामले में भी राज्य सरकार को नोटिस की तामीली हो चुकी है और प्रकरण अंतिम सुनवाई हेतु नियत है. छठवां मामला हिन्दू आस्था और विश्वास से आबद्ध है जिसके तहत प्रदेश भर के जिलाधिकारियों द्वारा दुर्गा पूजा के लिए अनुमति न देने के विरुद्ध जनहित याचिका दाखिल की गई. जिसमें उच्च न्यायालय के आदेश के उपरान्त ही अधिकांश जनपदों में ही पूजा संपन्न हो सकी.
सातवां मामला राज्य सरकार द्वारा सिर्फ़ मुस्लिम छात्राओं को ही उच्च शिक्षा लेने और शादी के लिए 30 हजार रूपये का अनुदान दिए जाने का प्रावधान किया गया था. जिसको मा. उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है और प्रकरण सुनवाई हेतु लम्बित है. आठवें मामले में राज्य सरकार के उस फ़ैसले को रख सकते हैं जिसके अंतर्गत उसने 2013 के जुलाई महीने में परिक्रमा करने पर रोक लगा दी गई थी. इसी के चलते लोकप्रिय संत स्वामी रामभद्राचार्य, विहिप के अंतर्राष्ट्रीय संरक्षक अशोक सिंघल और विहिप के अंतर्राष्ट्रीय कार्याध्यक्ष डॉ. प्रवीण भाई तोगड़िया को गिरफ़्तार कर लिया गया था जिसे याचिका दायर कर चुनौती दी गई तथा उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में अविलम्ब रिहाई के निर्देश जारी किये. नवें और अंतिम प्रमुख मामले के अंतर्गत गंगा को टेनरियों तथा उद्योगों द्वारा प्रदूषित किये जाने के ख़िलाफ़ रिट दाख़िल की गई जिसमें पक्षकारों द्वारा शपथ-पत्र दाख़िल किये गये हैं. यह प्रकरण भी अग्रिम सुनवाई हेतु लम्बित है. एडवोकेट रंजना अग्निहोत्री ने बताया इन प्रकरणों के अतिरिक्त 18 इसी प्रकृति की अन्य जनहित याचिकाएं भी योजित की गई हैं जिनकी सुनवाई भी चल रही है.
‘हिन्दू फ्रंट फार जस्टिस’ की अध्यक्ष संध्या दुबे, उपाध्यक्ष रेणू अग्निहोत्री, संगठन समन्वयक अनीता अग्रवाल, कोषाध्यक्ष सुधा शर्मा, सदस्य पंकज वर्मा, ऊषा तिवारी, राहुल श्रीवास्तव, अखिलेन्द्र द्विवेदी, रितिका चौधरी, ममता तिवारी, संदीप तिवारी, कंचन श्रीवास्तव सहित दर्जनों अन्य अधिवक्ताओं की तरफ़ से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को संबोधित 11 सूत्रीय ज्ञापन भेजकर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया गया है. जिसके माध्यम से मांग करते हुए कहा गया है कि वर्तमान समय में देश संक्रमण काल के दौर से गुज़र रहा है. देश की सभ्यता और संस्कृति को बांग्लादेशी घुसपैठियों और विदेशी ताकतों द्वारा संचालित जमातों के कारण राष्ट्र की सार्वभौमिकता और अखंडता के लिए एक बार फ़िर खतरा उत्पन्न हो गया है. ‘हिन्दू फ्रंट फार जस्टिस’ भारत सरकार से मांग करती है कि भारत में अवैधानिक रूप से निवास कर रहे पाकिस्तानी और बांग्लादेशियों को अविलम्ब भारत छोड़ने का निर्देश दिया जाए. कश्मीरी ब्राह्मणों को पुनः कश्मीर में ससम्मान पुनर्स्थापित किया जाय. हिन्दुओं के बलात धर्मांतरण पर तत्काल रोक लगाई जाए. समस्त शैक्षणिक संस्थानों में देवभाषा संस्कृत और राष्ट्रभाषा हिन्दी अनिवार्य की जाए, भारतीय संस्कृति और वैदिक साहित्य का पठन-पाठन अनिवार्य तौर पर कक्षा 10 तक पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए तथा यह शिक्षा केवल हिन्दू छात्रों (जिसमें बौद्ध, सिख और जैन सम्मिलित हैं) के लिए ही अनिवार्य की जाए.
इसके अतिरिक्त जिन बातों की ओर ध्यान दिलाने का प्रयास किया गया है. अभी तक विद्यालयों में भारतीय इतिहास के खंडित स्वरूप का अध्ययन कराया जाता रहा है जिससे छात्रों को तथ्यों की गलत जानकारी परोसी जा रही है. उनका ज्ञान राष्ट्र की अस्मिता और इतिहास के वृहद दृष्टिकोण के आधार पर बेहद संकुचित और अपूर्ण है. इसलिए ऐसी सभी पुस्तकों का पुनरीक्षण करते हुए सही इतिहास पढ़ने हेतु आवश्यक कार्यक्रम को मूर्त स्वरूप दिया जाए. टेलीवीज़न चैनल, सिनेमा, तथा अन्य मनोरंजन के साधनों के तहत परोसी जा रही अश्लीलता, समाज तथा परिवार तोड़क सामग्री/कार्यक्रम पर रोक लगाई जाए. साथ ही धार्मिक, सांस्कृतिक और भारतीय संस्कृति के ऊपर कटाक्ष और कुठाराघात करने पर पूर्ण पाबंदी लागू की जानी चाहिए. हिन्दू आतंकवाद के नाम पर जेलों में निरुद्ध निर्दोष हिन्दू संचालित किये जा रहे झूठे मुकदमे तुरंत वापस लिए जाएं तथा दोषी अधिकारियों के विरुद्ध कठोर कार्यवाई की जाए.
‘एकसमान जनसंख्या नीति’ बनाई जाए और भारतीय दंड संहिता की धारा-394 को संशोधित करते हुए एक से अधिक विवाह करने को अपराध घोषित किया जाए तथा एकसमान विवाह विच्छेद क़ानून लागू किया जाए ताकि मुस्लिम महिलाओं को भी समान हक़ और हुकूक मिल सकें. उत्तर प्रदेश भी वर्धमान की ही तरह आतंकवाद के मुहाने पर खड़ा है. समय रहते ही जरूरी अहतियात बरते जाएं ताकि फ़िर से उस जैसा कोई हादसा न हो. किसी भी आयु की गौ और गौवंश का वध तथा उसके मांस के निर्यात को निषिद्ध किया जाए तथा इस कृत्य को गंभीर अपराध घोषित किया जाए. इमाम बुखारी को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ को बिना भारत सरकार की अनुमति के आमंत्रित करने के कारण उन पर राष्ट्रदोह का मुकदमा चलाया जाए.

(लेखक: जनसंचार कार्यकर्ता हैं.)

‘आदर्श’ आखिर क्यों?

 अतुल मोहन सिंह
 देश का बहुसंख्यक समुदाय प्रत्येक गणमान्य हरेक मोड़ पर आपको आदर्शवादिता, नैतिकता, धार्मिकता, सत्यता और न्यायप्रियता की चर्चा-परिचर्चा करते हुए या यूं कहें कि मुफ़्त का चारा खाकर जुगाली करने की चाहत रखने वाले छुट्टा चौपायों की मानिंद सड़क, चौराहों और पान अथवा नाई की दुकान पर आसानी से मिल जायेंगे. अब चाहें बात आदर्श राष्ट्र निर्माण की हो, या फिर प्रांत अथवा जनपद-नगर की यह शगूफ़ा फ़ेकने वालों का आज-तक सबसे प्रिय विषय बना हुआ है. मौजूदा समय में ‘आदर्श’ की चर्चा का सम्बन्ध अथवा सन्दर्भ लोकतंत्र, सरकार और प्रशासन की सबसे छोटी और निचली इकाई अर्थात ग्राम या गांव के हितचिंतन में की जा रही हैं. अभी तक का ‘आदर्श’ भले ही सिर्फ वचनों तक ही सीमित अथवा नियंत्रित होता हो. मगर वर्तमान में इसका फलक और दायरा बदल चुका है. अब यह वचनों अथवा शब्दों के साथ-साथ मन और कर्म में भी नज़र आते हुए दिखाई पड़ रहा है. यह दीगर बात हो सकती है कि अभी यह महज एक विचार ही कहा जाय. फ़िर भी शब्द को ब्रह्म मानने वाले इस राष्ट्र में यह चर्चा अनायास नहीं है. निश्चित ही इसके दूरगामी परिणाम लक्षित हैं.
वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर भाई मोदी ने अपनी चार महीने की सरकार में ही एक बरगद जैसे आकार वाला फ़ैसला लिया है. इससे उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के प्रति दृढ़ता और समर्पण इच्छाशक्ति का पता चलता है. उनके इस ‘आदर्श’ ग्राम निर्माण योजना में 16वीं लोकसभा के सभी सदस्यों को निर्धारित विकास निधि में से ही दो गावों को एक विशेष तरह का रोल माडल, विकसित कर सर्वसाधन संपन्न और आत्मनिर्भर बनाने की योजना को अमली जामा पहनाना है. मोदी के इस अभियान से पूर्व में ही मानसिक हार स्वीकार कर चुके उनके राजनीति विरोधी भी हतप्रभ और सकते में हैं. अभी तक अपनी सरकार का रिपोर्ट कार्ड जारी करने वाले नरेन्द्र मोदी पहली बार ग्रामीण भारत को भी इसका प्रत्यक्ष साक्षात्कार करवाना चाहते हैं. जिससे आम भारतीय भी सुनकर नहीं बल्कि देखकर, छूकर, समझकर, प्रत्यक्ष अनुभूति के द्वारा उनके इस विचार को आत्मसात कर सके. लोग पूर्व में भी चर्चारत हैं कि अमुक जनप्रतिनिधि/अधिकारी/संगठन/संस्था/विश्वविद्यालय ने अमुक गांव/मोहल्ला/वार्ड को गोद ले लिया है. पहले भी केन्द्रीय सरकार अथवा राज्य सरकारों द्वारा संचालित तमाम योजनाओं के अंतर्गत सरकारी/अर्ध सरकारी/गैर सरकारी/संगठनों/व्यापारिक प्रतिष्ठानों/व्यक्तिगत नागरिकों के माध्यम से आज़ादी के बाद से अब तक हजारों की संख्या में गांव गोद लिए जा चुके हैं. एक तथ्य जो आश्चर्यचकित करता है कि गोद लिए गए इतने गांवों, उन पर किया गया खर्च, अनुदान की मात्रा, गोद लेने वाले का नाम और मौजूदा स्थिति को प्रदर्शित करते हालातों के सन्दर्भ में उनकी स्थिति की कभी चर्चा ही नहीं हुई है.
देश के प्रतिष्ठित, लोकप्रिय और स्वघोषित मुख्यधारा के मीडिया प्रतिष्ठानों ने इस सन्दर्भ में कौन सी रपट प्रकाशित/प्रसारित/प्रदर्शित की शायद ही किसी को ज्ञात हो. मीडिया प्रतिष्ठानों द्वारा ऐसा न किया जाना न जाने किस विवशता का परिणाम है. गोद लेकर आदर्श बनाने की परम्परा का aअगर यही हाल रहा तो ये गांव सिर्फ कागजों में ही आदर्श नज़र आयेंगे. इनका स्थान दत्तक संतानों जैसा कभी नहीं हो पायेगा. उदाहरणस्वरूप देश के जाने-माने उद्योगपति श्री रतन टाटा ने गोद ली गई संतान को अपनी अकूत संपत्ति ही नहीं अपनी शक्तियां तक सौंप दीं क्या कोई गांव गोद लेने वाला व्यक्ति/प्रतिष्ठान गोद लेने की इस आदर्श परम्परा को प्रतिस्थापित कर पायेगा. देश आज़ाद हुए साढे छह दशक हो चुके हैं. आज़ादी के प्रथम वर्ष में जन्मा व्यक्ति भी अब तक अवकाश प्राप्त कर चुका होगा. स्थितियां बदलाव की ओर उन्मुख हों. हकीकत आदर्श स्थिति को प्राप्त करे. आदर्श गांव वास्तव में आदर्शों को प्राप्त करें. इसी महती उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही देश के कुछ जागरूक जनसंचारकों, अधिवक्ताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, प्रबुद्ध नागरिकों को स्वयं का तंत्र विकसित करना होगा अगर ऐसा करने में हम इस बार कामयाब रहते हैं तो बेज्तर तंत्र स्थापित हो सकता है. जिससे देश-विदेश में स्थानीय स्वशासन और सत्ता के विकेन्द्रीकरण हेतु कार्यरत बुद्धिजीवियों, राजनीतिज्ञों, प्रशासकों को भी जनसंवाद मंचों पर आमंत्रित किया जा सकता है. यह कदम इस दिशा में वाकई एक मील का पत्थर साबित होगा. इन नागरिक मंचों सभी ग्रामीण निकायों- ग्राम पञ्चायत, क्षेत्र पञ्चायत और जिला पञ्चायत (ग्रामीण त्रिस्तरीय पंचायती राजव्यवस्था) तथा दूसरी ओर सभी शहरी निकायों- नगर पञ्चायत, नगरपालिका पञ्चायत और नगर निगम पञ्चायत (नगरीय त्रिस्तरीय पंचायतीराज व्यवस्था) को भी राष्ट्रीय साझा मंच पर एक-दूसरे की कार्यप्रणाली और प्रक्रिया को समझने का अवसर प्राप्त होगा है.
हम ग्रामीण भारत में हो रहे विकास कार्यों का निरीक्षण, निगरानी, मूल्यांकन और विकास संचार को लेकर सतत संवाद कार्यक्रमों का आयोजन, जांच रिपोर्टों का प्रकाशन, निगरानी हेतु जनसुनवाई करना, मूल्यांकन हेतु समय-समय पर इनका प्रत्यक्ष दिग्दर्शन, विकास योजनाओं के सम्बन्ध में ग्रामीण मेलों का आयोजन करने जैसे प्रोग्राम को शामिल कर सकते हैं. जिससे पारदर्शी और भ्रष्टाचार मुक्त विकास व्यवस्था को आगे बढ़ाया जा सकेगा. और ग्राम स्वराज्य, स्वराज्य, सुराज्य और रामराज्य के स्वप्न को निश्चित तौर पर साकार किया जा सकता है. ‘आदर्श’ की इस अवधारणा में जिन प्रमुख प्राथमिक कसौटियों पर इसका मूल्यांकन होना चाहिए वह पूर्व सर्वविदित हैं. फिर भी सर्वसाधारण का ध्यान इस ओर आकर्षित करने का प्रयास किया जाना चाहिए.       
आदर्श ग्राम की कसौटी में सबसे प्रमुख बिंदु प्रत्येक बच्चे के स्थान पर प्रत्येक व्यक्ति हेतु निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए. गांव के प्रत्येक परिवार को पर्याप्त और संतुलित भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित होनी चाहिए.  जन स्वास्थ्य में धीरे-धीरे सकारात्मक परिवर्तनों के सहारे रोगमुक्त समाज के निर्माण के लक्ष्य की ओर प्रयास किये जाने चाहिए. गांवों को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में स्थानीय स्तर पर वहां के निवासियों हेतु योग्यता आधारित स्वरोजगार विकसित किये जाए. केन्द्रीय अथवा राज्य सरकार द्वारा संचालित योजनाओं के क्रियान्वयन में सबसे अहम बात यह है कि गांव की स्थानीय आवश्यकताओं को आधार मानकर ही विकास योजनाओं का चयन किया जाय. योजनाओं-परियोजनाओं के चयन में भी प्रत्येक गांव की स्थानीय आवश्यकता को आधार बनाकर ही योजनाओं की उपलब्धता सुनिश्चित की जाय जिसमें भौगोलिक, सांस्कृतिक और विविधता को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए. यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि भारत जैसे कृषि प्रधान देश में आज कृषि का पुनुरोद्धार, सुद्रढीकरण किये जाने की प्रबल आवश्यता को महसूस किया जा रहा है. पशुपालन की दिशा में आगे बढ़ने से पहले प्रत्येक परिवार में अनिवार्य और व्यक्तियों की संख्या के अनुपात में ही पशुओं की निर्धारित संख्या को स्वीकार किया जाय. गांवों को कर्जदार बनाने की परम्परा में व्यापक बदलाव की जरूरत महसूस की जा रही है. किसानों की आत्महत्याएं और बैंकों की प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर ऋण से टूटते किसान के स्थान पर ‘कर्जमुक्त गांव’ की संकल्पना की ओर आगे बढ़ा जाय.
गांधी जी ने गांव की दुर्दशा के लिए नशे की प्रवृत्ति को ही एकमात्र जिम्मेदार माना था इसलिए इस दिशा में हमे ‘नशामुक्त गांव’ की स्थापना के लक्ष्य की ओर अपनी विकास यात्रा शुरू करनी चाहिए. गांवों को ‘अपराधमुक्त गांव’ बनाने की दिशा में आगे बढ़ना होगा. गांवों शान्ति व्यवस्था और सौहार्द कायम करने की दिशा में उसकी आदर्श स्थिति ‘मुकदमामुक्त गांव’ बनाकर ही की जा सकती है. गांवों की परम्परागत संस्कृति को न सिर्फ संरक्षित करने की जरूरत है बल्कि लोगों के मध्य आपसी तालमेल व भाईचारा बनाये रखने की उनकी अपनी ओशिश को सार्थकता की ओर मोड़ना चाहिए जिससे उनकी ग्रामीण संस्कृति अक्षुण्य बनी रहे. प्रत्येक आयु वर्ग को ध्यान में रखते हुए गांव में ही प्रथक-प्रथक मनोरंजन के साधनों को उपलब्ध करवाया जाय. इस प्रक्रिया में भी उनके परम्परागत आनंद, संगीत और साधनों को भी संरक्षित करते हुए आधुनिकता और परम्परा में सामंजस्य बनाये रखने की कोशिश करनी चाहिए. हमारा अंतिम ‘आदर्श’ उद्धेश्य ‘भ्रष्टाचार मुक्त गांव’ और ‘पारदर्शी प्रशासनतंत्र’ विकसित करने की भी होनी चाहिए. गांवों को सामाजिक कुरूतियों के ख़िलाफ़ इस स्तर तक जागरूक करना होगा कि वः इसके दुष्परिणामों के बारे में भी स्व विवेक से निर्णय ग्रान कर सकें. इसके अतिरिक्त प्रत्येक गांव की अपनी भी कुछ अतिरिक्त प्रथक आवश्यकताएं भी हो सती हैं जिनके बारे में उस गांव के बुजुर्गों और युवाओं की एक समिति बनवाकर सलाह और मार्गदर्शन प्राप्त किया जा सकता है.
देश के पाधानमंत्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी के ‘आदर्श गांव’ निर्माण के पीछे की मंशा को शायद ठीक तरीके से समझने के लिए उनकी ‘सबका साथ-सबका विकास’ की इच्छाशक्ति और मनोभावना को भी समझना चाहिए. जिसके अंतर्गत वह विकास के सफ़र में प्रत्येक व्यक्ति के अपने हिस्से के योगदान की बात रखना चाहते हैं. प्रत्येक व्यक्ति की भागीदारी और उनकी सहभागिता से ही देश की तस्वीर बदलने की उनकी मंशा के अनुरूप ही इस ‘आदर्श गांव’ की संकल्पना को साकार किये जाने का निर्देश जारी किया गया है. इसमें जिस गांव को ‘आदर्श गांव’ बनाया जाएगा उससे उस लोकसभा क्षेत्र के अन्य गांव भी प्रेरणा प्राप्त करंगे. एक मूक विकास अभियान आरम्भ होगा. जिसको ग्रामीण भारत के सभी नागरिक अपना योगदान शुनिश्चित करेंगे.  उनमें स्वस्थ, सकारात्मक और रचनात्मक प्रतियोगिता आरम्भ होगी. आदर्श गांव के पीछे छिपे इस विचार को ‘स्वस्थ प्रतियोगिता’ में बदलना ही उनका हिडेन एजेंडा है.

(लेखक: जनसंचार कार्यकर्ता हैं.)

साहित्य की सामाजिक जवाबदेही


·    अतुल मोहन सिंह
 देश में परिवर्तन की की बयार है. आशाओं के नूतन स्वप्न हैं, हर बार की तरह स्वघोषित घोषणाएं हैं. हर सही गलत फैसलों के पीछे अच्छे दिनों की चाश्नी है. देश कितना आगे बढ़ेगा या पीछे हटेगा, आर्थिक फलक और बुनियादी कैनवस पर बदलाव किस कदर नज़र आयेगा. अच्छे दिनों की परिधि में स्थान पाने या दिलाने की जद्दोजेहद में कहीं परिधि का आकार परिवर्तित न हो जाये बहरहाल यह सब वक्त के हवाले छोड़ते हैं. समय की नब्ज़ और उसकी कसौटी हर दावे, वादे और नारे की पोल खोलने के लिए खाफी है. फिलहाल साहित्य के सर्जकों और रचनाधर्मियों को अपनी मूल स्थिति, वस्तुस्थिति से भटकाव अथवा ठहराव से बचना चाहिए. आज के कालखंड में प्रायः सभी प्रमुख साहित्यकारों में भी राजनीति और तिकड़मबाजी का असर देखने को मिल रहा है. उनकी कलम एक बार फिर शहर की चमचमाती सड़कों पर विचरण करना को उछाल मार रही है. किसी शिशु कि भांति ही नव यौवनाओं की गोद में आरामतलबी की शिकार होना चाहती है. आज का लेखक तंग और अधेंरी गलियों में घुसने से भयभीत होता है. उसकी कलम किसान के हल और गांव की गंदगी से घबराती है. उसे परम्परागत भारतीय समाज और सामाजिक परम्पराएं आज वर्जनाएं लगती हैं. परिवार और घरों को तोड़ने की अघोषित मुनादी पीटते साहित्यकारों के दल न जाने किस दलदल में जाकर आखिर विश्राम लेंगे.
परम्परा बनाम आधुनिकता के इस विचार युद्ध में वो रंगीली और सपनीली दुनिया में मुंह के बल गिरने में ही अपने लिए गौरव की अनुभूति कर रहे हैं. उनकी चर्चा में अब प्रकृति संरक्षण, पर्यावरण, गांव, गोबर, गाय और ग्वाले नहीं हैं. जल, जंगल, जन, जमीन और जानवर पर लिखना जैसे अपना समय बर्बाद करने जैसा ही लगता है. गांव की स्मृतियों व शेष की गिनती अब खंडहर और अवशेषों के रूप में की जा रही है. आज साहित्य के सामने दोहरी लड़ाई है. पूंजीवाद के जिस सर्वव्यापीकरण की प्रक्रिया में वैश्वीकरण हमारे सामने काबिज है, और वह बाजार के अधिकाधिक प्रबल और व्यापक तौर पर हमारे सामने आ रहा है. बाज़ार के वर्तमान आचरण के लिए हिन्दी में बाजारवाद शब्द प्रचलित हुआ है. इस बाज़ार ने हमारे दैनिक जीवन में अप्रत्याशित हस्तक्षेप किया है. आधुनिक युग का व्यक्ति केवल उपभोक्ता मात्र बनकर रह गया है इसी में उसकी सार्थकता चिन्हित और निर्मित की जा रही है. बाजारवाद और उपभोक्तावाद को हिन्दी साहित्य ने भी स्वागत किया है. मुझे यह कहने में कोई भय नहीं कि साहित्य ने उसके फलने-फूलने के लिए बाकायदा ज़मीन भी तैयार की है. जिस ज़मीन पर ही चलकर बाज़ार ने हमें अपने मोहपाश में ऐसे फसाया है कि जिसमे साहित्य के सरोकार और उसकी सामाजिक प्रतिबद्धता भी संदेह के घेरे में है. आज का कथाकार कहानी में कथ्य और पात्रों का चयन भी बाज़ार के हवाले कर चुका है. प्रगतिशीलता और सुधारवाद के नाम पैदा हुआ हिन्दी नई कहानी आन्दोलन भी आखिरकार बाज़ार के ही चुल्लू से पानी पीता हुआ देखा जा सकता है. इस बाज़ार आक्रामक, मोहक और उपभोक्ता को एक ओर तो उत्तेजित और चमत्कृत करने लगा, दूसरी ओर हमें लगातार विवेक शून्य भी कर रहा है. आज के साहित्य के सम्मुख एक बार फिर से इस बात की चुनौती पहाड़ की तरह खड़ी है कि वह अपने पाठकों को यह पुनर्परिभाषित करने का प्रयास करे कि वह अपने विवेक की कसौटी को बाज़ार की प्रतियोगिता से बाहर रखे और उसमें यह निर्णय करने की त्वरित क्षमता भी उत्पन्न हो सके कि उसके लिए सही और गलत क्या है. उसे किस बात पर ध्यान देना चाहिए और किस बात को सिर्फ कल्पना की उपज मानकर उसे त्यागना ही ज्यादा श्रेयस्कर होगा.
ऐसा नहीं कि साहित्य में विवेकशून्यता बढ़ी है तो साहित्य में सरोकार या उनकी सामाजिक उपादेयता खत्म हो चुकी है तस्वीर का श्वेत पक्ष यह भी है कि नई पीढ़ी के लेखकों ने पाठकों का ध्यान इस ओर भी खींचने का प्रयास किया है. आज वह इस बात को ज्यादा भरोसे के साथ कह सकते हैं कि मुक्त कंठ से बाजार का स्वागत करने वालों को जल्द ही इस चकाचौंध की हकीकत से साक्षात्कार होगा. जिसमें उसके पास फिर से अपने संयुक्त परिवार और उन्हीं बुजुर्गों के पास वापस लौटने के सिवा कोई और रास्ता नहीं बचेगा जिनको वह पूर्व में दकियानूस, असामयिक, आउटडेटेड और न जाने क्या-क्या घोषित कर चुका था. ‘पब कल्चर’, ‘बार कल्चर’, ‘लिव इन रिलेशनशिप कल्चर’ और ‘समानलिंगी प्रेम’ जैसी अवधारणायें सिर्फ मिथ्या अवधारणाएं हैं पाठक को यह समझाने की जिम्मेदारी भी साहित्य और साहित्यकारों को अपने कंधे पर लेनी होगी. साहित्य में सबकुछ स्वीकार्य वाली बनी बनाई लीक से हटकर इस बात को समझाना होगा कि साहित्य विश्वसनीयता की बुनियाद पर ही खड़ा होकर समाज में अपनी जगह बनाता है. हमने शायद इसीलिये अपसंस्कृति को भी अपनाने से पहले उसकी जांच-पड़ताल नहीं की थी कि उसे साहित्य ने बड़े भरोसे के साथ में अच्छी पैकेजिंग में परोसा था हमें. हमें यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि उन साहित्यकारों ने अपने पाठकों के साथ न सिर्फ बहुत बड़ा अन्याय किया है बल्कि एक सोची समझी साज़िश के तहत उनके साथ विश्वास का आघात किया है. उनके उस समर्पण श्रद्धा और भावनाओं का क़त्ल हुआ है जिसमें उन्होंने एक साहित्यकार को सत्य का आग्रही मानकर यथावत स्वीकार करने की एक छोटी सी भूल की थी. उसका खामियाजा उनको अपने घरों को तोड़कर चुकाना पड़ा है. आज साहित्यकारों ने अपना घर फूंककर चलने के बजाय बाज़ार के हाथों बिकने और पाठकों के घर को जलाना ज्यादा जरूरी समझा है.
आज की इस युवा पीढ़ी को इस बात की चिंता भी करनी चाहिए कि उसको परोसा जाने वाला साहित्य ही सिर्फ सच नहीं है उसको सत्य, कथ्य और तथ्य का हंस की भांति ही नीर और छीर को अलग करने के विवेक की तरह से छल और धोखाधड़ी के षणयन्त्र को समझना चाहिए. उसे अपनी परिधि और वर्जनाओं को खुद समझना चाहिए. उसे खुद ही तय करना चाहिए कि उसके लिए सही और गलत, नैतिक और अनैतिक, धार्मिक और अधार्मिक, सत्य या झूठ तथा मानवीय और अमानवीय के मध्य में फर्क क्या है. वरना खुद को बाज़ार के हवाले कर चुके साहित्यकार पाठकों को कुछ भी बेच देने की मानसिकता को सच समझते रहेंगे.   

बाल दिवस के बहाने....


अतुल मोहन सिंह
हर गली हर द्वार ढूंढते हैं. बच्चे अपना संचार ढूंढते हैं.
हाथ में लेकर कटोरा बच्चे, नेहरू का प्यार ढूंढते हैं
ऊपर लिखीं इबारतें आज भी भारतीय कैनवस पर बड़ी मौजूं लगती हैं. केंद्र में अपने 10 वर्षों की सरकार के दौरान लोकप्रिय अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने विकास की रेखा खींची हो या नहीं यह तो नहीं कर सकता. उनकी सरकार ने देश के अधिकांश नौनिहालों को कटोरा पकड़ना बेहतर तरीके से सिखा दिया है. ये दीगर बात है कि पढ़ाई-लिखाई भले हो न हो पर कटोरे की संस्कृतिको निरंतर मजबूती मिल रही है. मिड-डे-मिल की यह परियोजना नरेन्द्र मोदी सरकार में बदस्तूर जारी है. हमारी सरकार ने गांव को वाकई आईना दिखाने का काम किया है उनके बच्चों को कटोरा पकड़ाकर क्योंकि उनके अभिभावक भी इसमें गौरव की अनुभूति करते हैं और उनका देश भी. जबकि सभी जानते हैं कि कुपोषण दूर करने के नाम पर शुरू की गई यह भीख मांगने की अबाध प्रशिक्षण न जाने कब थमेगा. 

यूनिसेफ़ की ताज़ा रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया के अधिकतर कुपोषित बच्चे दक्षिण एशियाई देशों में हैं. रिपोर्ट के मुताबिक दक्षिण एशिया में पाँच वर्ष से कम उम्र वाले इन कुपोषित बच्चों की तादाद आठ करोड़, 30 लाख के क़रीब है. भारत के लिए चिंताजनक यह है कि ऐसे कुपोषित बच्चों का प्रतिशत भारत में पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी ज़्यादा है. केवल भारत में इन बच्चों की तादाद 6.1 करोड़ के आसपास है. आंकड़ों के मुताबिक भारत में पाँच वर्ष से कम आयु वाले बच्चों की कुल तादाद में कुपोषित बच्चों की तादाद 48 प्रतिशत है. पाकिस्तान में यह 42 फीसदी और बांग्लादेश में यह 43 प्रतिशत हैं. भारत से ज़्यादा कुपोषित बच्चों की प्रतिशत आबादी वाले देश हैं अफ़ग़ानिस्तान और नेपाल. अफ़ग़ानिस्तान में पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में कुपोषितों की संख्या 59 प्रतिशत है और नेपाल में यह तादाद 49 प्रतिशत है. पर संख्या के हिसाब से यह आकड़ा में भारत में सबसे ज़्यादा है. वैश्विक स्तर पर यह आंकड़ा अफ़ग़ानिस्तान 59 प्रतिशत (29 लाख), नेपाल 49 प्रतिशत (17.5 लाख), भारत 48 प्रतिशत (6.1 करोड़), बांग्लादेश 43 प्रतिशत (72 लाख), पाकिस्तान 42 प्रतिशत (लगभग एक करोड़), (बताए गए आंकड़े पाँच वर्ष से कम उम्र वाले बच्चों की कुल तादाद में कुपोषितों का प्रतिशत हैं.)
रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों की तादाद का अधिकांश हिस्सा 24 देशों में पाया गया है. इनमें पाँच देश ऐसे हैं जहाँ कुपोषित बच्चों की तादाद 40 प्रतिशत से अधिक है. यूनिसेफ़ में दक्षिण एशिया मामलों के क्षेत्रीय निदेशक डेनियल टोले ने इस रिपोर्ट में प्रकाशित तथ्यों को चिंताजनक बताते हुए कहा, “दक्षिण एशिया के कई देशों में आर्थिक प्रगति की सेहत तो ठीक है पर चिंताजनक यह है कि साथ-साथ यहाँ कुपोषित बच्चों की तादाद लगातार अस्वीकार्य स्तर तक बढ़ी हुई है.दक्षिण एशिया के लिए यह रिपोर्ट किसी ख़तरे की घंटी से कम नहीं है क्योंकि सबसे ज़्यादा कुपोषित बच्चों वाले पाँचों देश दक्षिण एशिया के हैं. इन देशों में 8.3 करोड़ बच्चे कुपोषित हैं जबकि दुनिया के बाकी सारे देशों में इन बच्चों की कुल तादाद 7.2 करोड़ है. इन 8.3 करोड़ बच्चों में से 6.1 करोड़ तो अकेले भारत में ही हैं. अभी तक भारत के बच्चे भूख और कुपोषण से मर रहे थे लेकिन अब तो वे खाना खाकर मर रहे हैं। बिहार में जहरीला मिड डे मील खाकर 22 बच्चों की मौत हो गई। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का दम भरने वाले भारत के लिए यह घटना शर्मनाक है।

कुपोषण देश के माथे पर कलंक
लाख कोशिशों के बाद भी हम कुपोषण का दाग नहीं धो पाए हैं। कुपोषण की गंभीर समस्या के कारण प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कहना पड़ा था कि यह पूरे देश के लिए शर्मनाक है। भूख और कुपोषण संबंधी एक रिपोर्ट जारी करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था कि कुपोषण की समस्या से निपटने के लिए सरकार केवल बाल विकास योजनाओं के भरोसे नहीं रह सकती।

भारत में 42 फीसदी बच्चे कुपोषित
दुनिया के 10 करोड़ कुपोषित बच्चों में से सबसे ज्यादा एशिया में हैं। खासतौर पर भारत में। हालांकि अफ्रीका की स्थिति इस मामले में एशिया से भी बुरी है। नदीं फाउंडेशन और सिटीजन अलाएंज मैलन्यूट्रिशन नामक संगठन की ओर से जारी रिपोर्ट के मुताबिक भारत में आज भी 42 फीसदी से ज्यादा बच्चे कम वजन के हैं। एक सर्वे के मुताबिक कुपोषण से होने वाली बीमारियों के कारण हर रोज तीन हजार बच्चे काल के ग्रास बन रहे हैं।

भूख और कुछ तारीखें
1966 में भारत ने खाद्यान की उपलब्धता बढ़ाने के लिए हरित क्रांति की शुरूआत की। 1975 में गरीबी हटाओ का नारा देने के बाद इंदिरा गांधी की सरकार ने बीस सूत्री कार्यक्रम शुरू किया। 1978 में जनता पार्टी की सरकार ने भूख और गरीबी से लड़ने के लिए समेकित विकास कार्यक्रम शुरू किया। 1995 में स्कूलों में मिड डे मिल योजना शुरू हुई ताकि गरीब परिवारों को भूख से लड़ने में मदद मिल सकें। 2000 में राजग सरकार ने निर्धन परिवारों को 35 किलो अनाज प्रतिमाह देने के लिए अंत्योदय योजना शुरू की। 2001 में रोजगार और खाद्य सुरक्षा के लिए राजग सरकार ने सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना शुरू की। 2013 में कुपोषण की समस्या को दूर करने के लिए सरकार ने खाद्य सुरक्षा कानून लाया। जब खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम लागू हो जाएगा तब यह दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम होगा। इस योजना पर एक लाख 25 हजार करोड़ रूपए खर्च होंगे। इस योजना से 67 फीसदी लोगों को सस्ते दाम पर अनाज मिलेगा।

हर 8वां व्यक्ति भूखा
गरीबी उन्मूलन के सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य हासिल करने के बावजूद विश्व में 1.2 अरब लोग अब भी गरीबी में जीन को विवश हैं और हर आठवां व्यक्ति भूखे पेट सोता है। संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 1990 से लेकर 2015 तक अत्यंत गरीबों यानी एक डालर प्रतिदिन पर गुजारा करने वाले लोगों की संख्या आधी करने का लक्ष्य रखा था। सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य 2013 पर संयुक्त राष्ट की हाल में जारी रिपोर्ट के अनुसार सबसे ज्यादा खराब स्थिति उप सहारा अफ्रीकी देशों की है। यहां की आधी आबादी रोज मात्र 1.25 डालर पर जीवन यापन कर रही है। यह अकेला ऎसा क्षेत्र हैं जहां 1990 से 2010 के बीच अत्यंत गरीबों की संख्या बढ़ी है। यहां वष्ाü 1990 में कंगाली की हालत में जीने वालों की संख्या 29 करोड़ थी और 2010 में यह बढ़कर 41 करोड़ 40 लाख हो गई। लक्ष्य हासिल करने के मामले में दक्षिण एशिया में सबसे खराब स्थिति भारत की है जबकि चीन असाधारण प्रगति के सबसे आगे है।
भारत को छोडकर दक्षिण एशिया के सभी देशों ने अत्यंत गरीबों की संख्या आधी करने के लक्ष्य को समय से पहले ही हासिल कर लिया है। हालांकि संयुकत राष्ट्र को उम्मीद है कि भारत भी तय समय में लक्ष्य प्राप्त कर लेगा। वर्ष 1990 में चीन में अत्यंत गरीबी की दर 60 प्रतिशत थी जबकि भारत में 1994 में यह 49 प्रतिशत थी। वर्ष 2005 में भारत में यह दर मात्र 42 प्रतिशत पर पहुंची जबकि इसी वर्ष चीन में यह 16 प्रतिशत पर आ गई। वर्ष 2010 में भारत में यह दर 33 प्रतिशत पर पहुंची जबकि चीन में यह कम होकर 12 प्रतिशत रह गई। विकासशील देशों में अत्यंत गरीबों का प्रतिशत 1990 के 47 प्रतिशत के मुकाबले वर्ष 2010 में घटकर 22 पर आ गया है। संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों की बदौलत इन देशों के करीब 70 करोड़ लोगों को कंगाली की स्थिति से बाहर निकाला जा चुका है। अंतरराष्ट्रीय संस्था के अनुसार सबसे ज्यादा गरीबी उन देशों में हैं जहां शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति खराब होने के कारण रोजगार की स्थिति चिंताजनक है तथा प्राकृतिक संसाधन नष्ट हो गए हैं या जहां संघर्ष, कुशासन और भ्रष्टाचार व्याप्त है।

(लेखक: जनसंचार कार्यकर्ता हैं.)