Saturday 22 February 2014

प्रेम सबसे पवित्र भावना है


 डा शरद सिंह

प्रेम का अर्थ बताना या प्रेम की व्याख्या करना करना बहुत कठिन है। जैसे हवा को देखा नहीं जा सकता और पानी को मुट्ठी में बंद नहीं किया जा सकता उसी तरह प्रेम को भौतिक रूप से दर्शाया नहीं जा सकता है। प्रेम का सम्बन्ध अक्सर आसक्ति से जोड़ दिया जाता है जो कि बिल्कुल अलग चीज है। जबकि प्रेम का अर्थ, एक साथ महसूस की जाने वाली उन सभी भावनाओं से जुड़ा है, जो मजबूत लगाव, सम्मान, घनिष्ठता, आकर्षण और मोह से सम्बन्धित हैं। अपलक देखना, आलिंगन, चुबंन, कामचेष्टाएं प्रेम के स्तर अथ्वा प्रकार को व्यक्त करने का संकेत मात्र होते हैं, प्रेम की पूर्णता के प्रदर्शक नहीं। प्रेम को व्यक्त करने के लिए शरीर एक छोटा-सा माध्यम हो सकता है लेकिन प्रेम की विशदता उससे प्रकट नहीं हो सकती है। प्रेम में देह की उपस्थिति आवश्यक नहीं है। आप सात समुन्दर पार बैठ कर भी किसी को उससे अधिक प्रेम कर सकते हैं जितना कि दैहिक रूप से उसके निकट रह कर। वस्तुतः प्रेम अनुभव किया जाने वाला संवेग होगा है जो बाहर से प्रेरित हो का अन्दर से उपजता है। एक भावना जो पूरी तरह से महसूस होने पर भी पूरी तरह से व्यक्त नहीं की जा सकती है। प्रेम होने पर परवाह करने और सुरक्षा प्रदान करने की गहरी भावना व्यक्ति के मन में सदैव बनी रहती है। प्रेम वह अहसास है जो लम्बे समय तक साथ देता है और एक लहर की तरह आकर चला नहीं जाता। इसके विपरीत आसक्ति में व्यक्ति पर प्रबल इच्छाएं या लगाव की भावनाएं हावी हो जाती हैं। यह एक अविवेकी भावना है जिसका कोई आधार नहीं होता और यह थोड़े समय के लिए ही कायम रहती है लेकिन यह बहुत सघन, तीव्र होती है अक्सर जुनून की तरह होती है। प्रेम वह अनुभूति है, जिससे मन-मस्तिष्क में कोमल भावनाएं जागती हैं, नई ऊर्जा मिलती है व जीवन में मीठी यादों की ताजगी का समावेश हो जाता है। 
आचार्य रामचंद्र शुक्ल मानते थे कि प्रेेम एक संजीवनी शक्ति है। संसार के हर दुर्लभ कार्य को करने के लिए यह प्यार संबल प्रदान करता है। आत्मविश्वास बढ़ाता है। यह असीम होता है। इसका केंद्र तो होता है लेकिन परिधि नहीं होती।’ 
क्या सचमुच परिधि नहीं होती प्रेम की? यदि प्रेम की परिधि नहीं होती है तो सामाजिक संबंधों में बंधते ही प्रेम सीमित क्यों होने लगता है? क्या इसलिए कि धीरे-धीरे देह से तृप्ति होने लगती है और प्रेम एक देह की परिधि से निकल कर दूरी देह ढूंढने लगता है? निःसंदेह इसे प्रेम की स्थूल व्याख्या कहा जाएगा किन्तु पुरुष, पत्नी और प्रेमिका के त्रिकोण का समीकरण भी जन्म ले लेता है जबकि एक प्रेयसी से ही विवाह किया गया हो। यदि देह नहीं तो अधिकार भावना वह आधार अवश्य होगी जिस पर कोई भी प्रेम त्रिकोण बना होगा। यदि प्रेमी, प्रेमी न रह जाए और प्रेयसी, प्रेयसी न रह जाए तो प्रेम कैसा? फिर उनके बीच ‘सोशल कांट्रैक्ट’ हो सकता है, प्रेम का मौलिक स्वरूप नहीं। 
प्रेम बलात् नहीं पाया जा सकता। दो व्यक्तियों में से कोई एक यह सोचे कि चूंकि मैं फलां से प्रेम करता हूं तो फलां को भी मुझसे प्रेम करना चाहिए, तो यह सबसे बड़ी भूल है। प्रेम कोई ‘एक्सचेंज़ आॅफर’ जैसा व्यवहार नहीं है कि आपने कुछ दिया है तो उसके बदले आप कुछ पाने के अधिकारी बन गए। यदि आपका प्रेम पात्रा भी आपसे प्रेम करता होगा तो वह स्वतः प्रेरणा से प्रेम के बदले प्रेम देगा, अन्यथा आपको कुछ नहीं मिलेगा। बलात् पाने की चाह कामवासना हो सकती है प्रेम नहीं। वहीं, दो प्रेमियों के बीच कामवासना प्रेम का अंश हो सकती है सम्पूर्ण प्रेम नहीं। यदि प्रेम स्वयं ही अपूर्ण है तो वह प्रसन्नता, आह्ल्लाद कैसे देगा? वह दुख देगा, खिझाएगा और निरन्तर हठधर्मी बनाता चला जाएगा। प्रेम की इसी विचित्राता को रसखान ने इन शब्दों में लिखा है -
प्रेम रूप दर्पण अहे, रचै अजूबो खेल।
या में अपनो रूप कछु, लखि परिहै अनमेल।। 
हरि के सब आधीन पै, हरी प्रेम आधीन।
याही ते हरि आपु ही, याहि बड़प्पन दीन ।।
प्रेम के सूफि़याना स्तर का होना आवश्यक है। 
सूफ़ी संत रूमी से जुड़ा एक किस्सा है कि शिष्य ने अपने गुरु का द्वार खटखटाया। 
‘बाहर कौन है?’ गुरु ने पूछा।
‘मैं।’ शिष्य ने उत्तर दिया।
‘इस घर में मैं और तू एकसाथ नहीं रह सकते।’ भीतर से गुरू की आवाज आई। 
दुखी होकर शिष्य जंगल में तप करने चला गया। साल भर बाद वह फिर लौटा। द्वार पर दस्तक दी। 
‘कौन है?’ फिर वही प्रश्न किया गुरु ने।
‘आप ही हैं।’ इस बार शिष्य ने जवाब दिया और द्वार खुल गया। 
संत रूमी कहते हैं- ‘प्रेम के मकान में सब एक-सी आत्माएं रहती हैं। बस प्रवेश करने से पहले मैं का चोला उतारना पड़ता है।’
यह ‘मैं’ का चोला यदि न उतारा जाए और दो के अस्तित्व को प्रेम में मिल कर एक न बनने दिया जाए तो प्रेम में विद्रूपता आए बिना नहीं रहती है, फिर चाहे ‘विवाहित संबंध’ में रहा जाए या ‘लिव इन रिलेशन’ में या फिर महज प्रेमी-प्रेमिका के रूप में अलग-अलग छत के नीचे रहते हुए प्रेम को जीने का प्रयास किया जाए। जब दो व्यक्ति प्रेम की तीव्रता को जुनून की सीमा तक अपने भीतर अनुभव करें और एक-दूसरे के साथ रहने में असीम आनन्द और पूर्णता को पाएं तो वही प्रेम का अटूट और समग्र रूप कहा जा सकता है। इस प्रेम के तले कोई सामाजिक बंधन हो या न हो।
सूफी संत कवि लुतफी ने प्रेम के सच्चे स्वरूप को जिन शब्दों में व्यक्त किया है वह प्रेम के सच्चे स्वरूप और प्रेम की तीव्रता को बड़े ही सुन्दर ढंग से व्यक्त करता है -
खिलवत में सजन के मैं मोम की बाती हूं
यक पांव पर खड़ी हूं जलने पिरत पाती हूं
सब निस घड़ी जलूंगी जागा सूं न हिलूंगी
ना जल को क्या करूंगी अवल सूं मदमाती हूं।
मन में प्रेम का संचार होते ही एक ऐसा केन्द्र बिन्दु मिल जाता है जिस पर सारा ध्यान केन्द्रित हो कर रह जाता है। सोते-जागते, उठते-बैठते अपने प्रेम की उपस्थिति से बड़ी कोई उपस्थिति नहीं होती, अपने प्रेम से बढ़ कर कोई अनुभूति नहीं होती और अपने प्रेम से बढ़ कर कोई मूल्यवान वस्तु नहीं होती। 
पुरइन के पत्ते पर पानी की नन्हीं बूंद जितनी पवित्र होती है, प्रेम भी उतना ही पवित्र होता है। पुरइन का पत्ता पानी की बूंद को बड़े जतन से थामें रखता है। हवा के झोंके और जल की तरंगों से उसे बचाता है। बदले में क्या चाहता है? शायद उस बूंद के सौंदर्य की चमक को निहारना। इसके इतर और कुछ भी तो नहीं। प्रेम में यही समर्पण प्रेम की भावना को पूर्णता प्रदान करता है। 


कानूनों के क्रियान्वयन की उपेक्षा से बढ़ा बाल अधिकारों का हनन

बाल अधिकार संरक्षण में सिविल सोसाइटी की प्रभावी भूमिकाः सदाकांत
सिविल सोसाइटी और सरकार मिलकर करें बाल अधिकारों की सुरक्षाः रमेष मिश्रा
चाइल्ड प्रोटेक्षन इज एवरीवन्स कन्सर्न-लेटस ज्वाइन हैंडस कार्यषाला का आयोजन
यूपीसीएसए के बैनर तले हुई कार्यशाला 


कार्यशाला में समूह चर्चा के दौरान एक दूसरे से वार्ता करते विशेषज्ञ 

अतुल मोहन सिंह
लखनऊ। प्रदेश में बाल अधिकार के संरक्षण की दिशा में कॉफी प्रयास हो रहे हैं लेकिन अभी इस क्षेत्र में काफी काम करने की जरूरत है। बाल अधिकार संरक्षण में सरकारी मशीनरी और सिविल सोसाइटी मिलकर प्रभावी भूमिका निभा सकती हैं। बाल अधिकारो से जुड़े मुददे देश-प्रदेश के सामने बड़ी चुनौती हैं। ये विचार श्री सदाकांत, प्रमुख सचिव, बाल विकास, उत्तर प्रदेश शासन ने यूपी सिविल सोसायटी एलायंस फार चाइल्ड प्रोटेक्शन के बैनर तले आयोजित एक दिवसीय कार्यशाला के दौरान व्यक्त किये।
राजधानी लखनऊ के गोमतीनगर स्थित होटल दयाल पैराडाइज में यूपीसीएसए के बैनर तले चाइल्ड प्रोटेक्शन इज एवरीवन्स कन्सर्न-लेटस ज्वाइन हैंडस राज्य स्तरीय कार्यशाला को संबोधित करते हुये श्री सदाकांत ने कहा मातृ एवं शिशु कल्याण के क्षेत्र में चुनौतियां है असल में सिस्टम में संवेदनशीलता का अभाव हैं इसी के चलते इसी के चलते बाल अधिकार से जुड़े मुददे और समस्याये एक समस्या के तौर पर नहीं देखे जाते हैं। वहीं सरकारी मशीनरी बाल अधिकार से जुड़े कानूनों नियमों और जमीनी समस्याओं से पूरी तरह परिचित नहीं हैं इसी के चलते समस्यायें आर चुनौतियां बढ़ी हुई हैं।

बाल अधिकार संरक्षण के दिशा में कंेद्र सरकार के ओर से चलाई जा रही समेकित बाल संरक्षण योजना (आई सी पी एस) महत्वाकांक्षी योजना है। प्रदेश में आई सी पी एस के तहत विभिन्न कार्यक्रमों का संचालन किया जा रहा है। योजना के बारे में सरकारी मशीनरी और सिविल सोसाइटी में जागरूकता में कमी है। प्रदेश में आई सी पी एस के तहत नियुक्तियों की प्रक्रिया भी जारी है जिसके तहत पदों की स्वीकृति केंद्र सरकार से प्राप्त हो चुकी है जिसके अंर्तगत जल्द ही खाली पदों को भरा जायेगा। जिससे आई सी पी एस के कार्यांे में तेजी लाई जा सके। प्रदेश और देश में बाल श्रम बाल विवाह और बच्चों से जुडी़ तमाम समस्याये विद्यमान है। जिनके उन्मूलन के लिये जागरूकता की जरूरत है। मीडिया को सिविल सोसाइटी के साथ एक मंच पर आकर जागरूकता फैलाने का काम करना होगा। क्योकि बाल अधिकार संरक्षण के मुददे पर मीडिया व सिविल सोसाइटी की भूमिका महत्वपूर्ण है। प्रदेश में बच्चों के बारे काफी चिंतन हो रहा है, इस दिशा मंे काफी कार्य करने की गुजांइश है। प्रदेश में केंद्रीय योजनाओं की स्थिति ठीक नहीं है। सिविल सोसाइटी एलांयस की ओर से जो भी सुझाव होंगे सरकार उसपर गंभीरता पूर्वक विचार करेगी।
समाज कल्याण विभाग के निदेशक रमेश मिश्रा ने अपने संबोधन में कहा कि आजादी के 67 वर्षों मे बाल अधिकारों की दिशा में काफी कार्य किया गया लेकिन उसके वांछित परिणाम नहीं मिल पाये हैं। बाल अधिकारों के संरक्षण के लिये सिविल सोसाइटी और सरकार दोनों केा मिलकर कार्य करने की जरूरत है जिसमें स्थानीय लोगों, मीडिया, शिक्षा विदों, छात्रों एवं विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को एक मंच पर लाने की जरूरत है। इस क्षेत्र से जुड़ी संस्थाओं को जमीनी स्तर पर और सक्रिय होने की जरूरत है।
युनीसेफ के प्रतिनिधि अमित मेहरोत्रा ने कहा कि, प्रदेश में आईसीपीएस के तहत काफी काम करने की जरूरत है। जो काम हो रहे हैं वो पर्याप्त नहीं है क्योंकि गैर सरकारी संगठन अलग अलग दिशा में प्रयास कर रहे हैं। देश के कई राज्यों में सिविल सोसाइटी बड़ी भूमिका निभा रही है। महिला एवं बाल कल्याण विभाग से जुड़े अन्य विभागों में तालमेल का अभाव दिखायी देता है। बाल अधिकार व कल्याण से जुड़े विभिन्न विभागों में तालमेल की जरूरत है वहीं सिविल सोसाइटी में मीडिया, शिक्षाविदों, छात्रों को शामिल करने और कम लागत के कार्यक्रमों को जोड़ने की जरूरत है।
युनिसेफ की ओर से नुपूर पाण्डे के अनुसार, आईसीपीएस, महत्वाकांक्षी और आधारभूत योजना है। बच्चों को सुरक्षित वातावरण प्रदान करना समाज और सरकार की जिम्मेदारी है। सोसाइटी और संगठनों में जागरूकता की कमी बड़ा मुद्दा है।
वर्कशाप को संबोधित करते हुये प्लान इंडिया के प्रतिनिधि अमित चौधरी ने कहा कि बाल अधिकार संरक्षण के मुददे पर एक मंच पर आने की जरूरत है। इसी दिशा में यूपीसीएसए का गठन एक अच्छी शुरूआत है। बाल अधिकार संरक्षण के लिये प्रदेश में विभिन्न संगठन कार्यरत हैं। लेकिन समस्या की गंभीरता और विशालता के मददेनजर एक साथ आकर आवाज बुलंद की जरूरत है वहीं पाठयक्रम में बाल अधिकारों को शामिल करले की जरूरत हैं।
एस के मिश्रा, उप मुख्य परिवीक्षा अधिकारी ने अपने संबोधन में कहा कि बच्चे देश के भविष्य हैं। बच्चों को जीवन, सुरक्षा, विकास तथा सहभागिता का अधिकार प्राप्त है। प्रदेश सरकार आईसीपीएस के तहत बाल अधिकारों को संरक्षण की दिशा में लागू करने को गंभीर है। सिविल सोसाइटी एलांयस द्वारा जो कार्य किया जा रहा है वो सराहनीय है। प्रदेश में आईसीपीएस के तहत 60 फीसदी कार्य हो पाया है सिविल सोसाईटी और सरकार मिलकर ही इस दिशा में कार्य को बढ़ायेंगे।
वर्कशाप में उड़ीसा से आये यूनीसेफ के प्रतिनिधि लक्ष्मी नारायण ने उड़ीसा में आई सीपीएस के तहत सिविल सोसाइटी के तहत हो रहे कार्यों के बारे में विस्तार से बताया
पूर्वांचल ग्रामीण विकास संस्थान (पीजीवीएस) के सचिव एवं यूपीसीएसए के संयोजक डा0 भानू ने बताया कि प्रदेश में आई सीपीएस के लागू हुये छः साल हो गये हैं। यूपीसीएसए पिछले दो वर्षों से उत्तरप्रदेश में सक्रिय हैं। अतिथियों व प्रतिनिधियों का स्वागत करते हुये यूपीसीएसए मीडिया कोर टीम के सदस्य वरिष्ठ पत्रकार रजनीकांत वशिष्ठ ने यूपीसीएसए की गतिविधियों व कार्यवाहियों पर प्रकाश डाला। वर्कशाप में सदाकंात प्रमुख सचिव, बाल विकास एवं पुष्टाहार, उत्तर प्रदेश शासन रमेश मिश्रा, निदेशक महिला कल्याण उ प्र, अमित मेहरोत्रा, प्रोग्राम मैनेजर, यूनीसेफ, नुपूर पांडेय, चाइल्ड प्रोटेक्शन आफिसर, यूनीसेफ, अमित चौधरी, अखिल भारतीय अधिकार संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष डा0 आलोक चांटिया, अखिल भारतीय अधिकार संगठन की उपाध्यक्ष डा0 प्रीती मिश्रा, राज्य प्रतिनिधि, प्लान इंडिया, सुरोजीत चटर्जी, सेव द चिल्डेन, लक्ष्मीनारायण, चाइल्ड प्रोटेक्शन स्पेशलिस्ट, यूनीसेफ, उड़ीसा, वीनिका करोली, क्राई, पीजीवीएस के सचिव व यूपीसीएसए के संयोजक डा0 भानु, यूपीसीएसए के मीडिया कोर ग्रुप के वरिष्ठ पत्रकार रजनीकांत वशिष्ठ एवं विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों ने हिस्सा लिया।

Friday 21 February 2014

आर्थिक आधार पर आरक्षण क्यों नहीं ?


वसीम अकरम त्यागी 
कुछ लोग तर्क देते हैं कि गरीबी जाती देख कर नहीं आती फिर आरक्षण जाती देखकर क्यों जाता है ? वे अपनी बात को बजाय यूं कहने की वे आरक्षण के विरोधी हैं इसलिये उसे घुमा फिरा कर कहते हैं। होना तो यह चाहिये था कि जब आरक्षण का लाभ उठा रहे किसी परिवार का सदस्य सरकारी नौकरी पा गया तो उसके बाद से उस परिवार से आरक्षण की सहूलियत वापस ले लेनी चाहिये थी क्योंकि अब वह उस धारा में आगया है जिसके लिये आरक्षण का प्रावधान किया गया था। बहरहाल बात आर्थिक आधार के आरक्षण की हो रही थी जिसे कई कारणों से स्वीकार नहीं किया जा सकता। जब आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की बात आयेगी तो उसके लिये जरूरत होगी आय प्रमाण पत्र की जिसे येन केन प्राकरेण तथाकथित ऊंची जाती वाले सबसे पहले फर्जी आय प्रमाण पत्र बनाकर उन गरीबों का हक छीन लेंगे जिनके लिये आरक्षण का प्रावधान किया गया है फिर पूंजीवाद का ऐसा भयवाह चेहरा सामने आयेगा देश कई सौ साल पहले के वर्णवादी व्यवस्था में पहुंच जायेगा। आप अपने दिमाग पर जोर डालकर सोचें और निर्णय लें कि क्या ऐसा होगा या नहीं ? जहां पानी का मटका छूने भर से ही दलित का हाथ काट दिया जाता हो फिर उसे कथित ऊंची जात वाले स्वर्ण कैसे उस लाभ को उठाने देंगे जो वह आज अपनी जाती के आधार पर उठा रहा है। दूसरी बात आती है जाती व्यवस्था समाप्त करने की उसमें यह भी देखा जाना, जांचा परखा जाना जरूरी है कि जब जब इस तरह की आवाजें उठाई जाती हैं उसमें उच्च वर्ग या तो होता ही नहीं है और अगर होता भी है तो कितना ? अगर ऊंची जाती वाले अंतर्जातीय विवाह व्यवस्था को अपना लें तो आरक्षण का खेल ही समाप्त हो जायेगा। फिर न किसी से यह कहने की जरूरत कि आरक्षण जाती के आधार पर हो या आर्थिक आधार पर। अव्वल तो यह सारा खेल ही इसलिये है कि कमसे समाज के अति पिछड़े वर्ग को ऊपर उठाया जा सके। मगर क्या उच्च जाती वाले ब्राहम्ण, बनिया, ठाकुर, एंव शेख, सैय्यद, मुगल, पठान, ब्राह्मण मुस्लिम, ठाकुर मुस्लिम, यह गंवारा करेंगे कि वे अपने बच्चों का ब्याह आदीवासी दलित समुदाय क्रमश हिंदु या मुस्लिम में करें ? अगर इस सवाल का जवाब हां में हैं तो फिर आरक्षण को खत्म कर देना चाहिये और अगर इस सवाल का उत्तर न है तो आरक्षण को और बढ़ाना होगा और तब तक जारी रखना होगा जब तक अंतर्जातीय विवाह व्यवस्था नहीं हो जाती। यही एक मात्र तरीका है आरक्षण को खत्म करने का।


हमारी बात कौन लिखेगा

डॉ आशीष वशिष्ठ

बच्चे देश का भविष्य हैं। लेकिन कड़वी सच्चाई यह है कि देश का भविष्य सुरक्षित नहीं है। आजादी के साढे छह दशकों के बाद भी देश के करोड़ों बच्चे मौलिक अधिकारों और बुनियादी सुविधाएं से वंचित हैं। लेकिन इस अहम् मुद्दे पर सरकारी मषीनरी, सिविल सोसायटी और मीडिया की चुप्पी हैरान करने वाली है। यदा-कदा ही मीडिया की नजर बाल अधिकारों से जुड़े मसलों पर पड़ती है। पिछले एक दशक में इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया में प्रसारित और प्रकाषित खबरों का आकलन किया जाए तो बाल अधिकारों के हनन और संरक्षण से जुड़ी खबरें उंगुलियों पर गिनी जा सकती हैं। गैर सरकारी संगठनों और एनजीओ के प्रयासों से यदा-कदा बाल अधिकारों के हनन और ष्षो षण से जुड़ी खबरें छनकर बाहर आती हैं और ंअखबारों की सुर्खियां बनती हैं। लेकिन अपराध, राजनीति और सेक्स की खबरों और टीआरपी के फेर में दिन-रात खबरें सूंघने वाला मीडिया बाल अधिकारों के हनन और षोषण से जुड़ी खबरों से दूरी बनाये रहता है। बोरवेल में गिरे बच्चे के खबर से टीआरपी बटोरने और लाइव रिर्पोटिंग करने वाले न्यूज चैनलों को गली चौराहे के होटलों, ढाबों और दूसरे कार्यों में दिन-रात जुटे बाल मजदूर जब दिखाई नहीं देते हैं तो हैरानी होती है। असल में बाल अधिकार से जुड़े मुद्दों और मसलों की कार्मिषियल वैल्यु और टीआरपी नहीं है इसलिए मीडिया इस संवेदनषील और महत्वपूर्ण मुद्दे के प्रति अक्सर उदासीन ही दिखाई देता है।
बच्चे हमारा भविष्य हैं ऐसे में बच्चों के अधिकारों के संरक्षण से जुड़े मुद्दों और उनसे जुड़ी परेषानियों और समस्याओं को कौन लिखेगा, प्रकाषित और प्रसारित करेगा यह यक्ष प्रष्न है। बच्चों की आवाज को देष और दुनिया तक पहुंचाने की बड़ी जिम्मेदारी किसकी है और कौन इस जिम्मेदारी का निर्वहन करेगा। बाल अधिकारों के संरक्षण से जुड़े अहम् मसले को प्रदेष में बुलंद करने, उसके प्रति जागरूकता बढ़ाने और प्रदेष में बाल अधिकारों के संरक्षण की दिषा में चल रहे कार्यों और योजनाओं को मजबूत करने की दिषा में एक साझा मंच तैयार करने का बीड़ा उठाया है। बाल अधिकारों के संरक्षण के लिए बने इस मंच का नाम है उत्तर प्रदेष सिविल सोसायटी एलायंस फॉर चाइल्ड प्रोटेक्षन (यूपी-सीएसए)। पीजीवीएस के सचिव एवं यूपी-सीएसए के संयोजक डॉ. भानू के अनुसार, ‘प्रदेष में बाल अधिकारों के संरक्षण की दिषा में कई संगठन कार्य कर रहे हैं, बावजूद इसके समन्वित प्रयासों की जरूरत है।’ भारत सरकार की इंटीग्रेटिड चाइल्ड प्रोटेक्षन स्कीम (आईसीपीसी) में बाल अधिकारों के संरक्षण के लिए सिविल सोसायटी की भूमिका का उल्लेख है। इसी के मद्देनजर यूपी-सीएसए के बैनर तले एक कार्यषाला का अयोजन पिछले वर्ष सितंबर में बनारस में हुआ था। वाराणसी में तैयार रोड मैप को आगे बढ़ाते हुए आगामी 22 फरवरी को लखनऊ में राज्य स्तरीय एक दिवसीय वर्कषाप का आयोजन हो रहा है। जिसमें सरकारी मषीनरी के साथ बाल अधिकारों की दिषा में कार्यरत युनिसेफ, पीजीवीएस, सेव द चिल्ड्रन, क्राई, प्लान इण्डिया, आंगन, डीजीवीएस, एसआरएफ, एमएसके, एआईएम जैसी नामी संस्थाएं व सिविल सोसायटी के विभिन्न क्षेत्रांे के विषेषज्ञ हिस्सा ले रही हैं।
यूपी-सीएसए से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार रजनीकांत वषिष्ठ के अनुसार, बाल अधिकारों से जुड़े मुद्दों को देष-दुनिया तक पहुंचाने के लिए इन मुद्दों के प्रकाषन और प्रसारण की कापफी जरूरत है। लेकिन दुर्भाग्यवष इलेक्ट्रानिक व प्रिंट मीडिया की रूटीन रिपोर्टिंग मेें ऐसी खबरों को स्थान नहीं मिल पाता है। वहीं गांवों व दूर-दराज के क्षेत्रों मंे मीडिया प्रतिनिधियों की पहुंच न होना भी एक बड़ा मुद्दा है ऐसे में यह विचार किया कि क्यों न बच्चों से ही बच्चों की बात लिखवाई जाए। इसी विचार से षुरू हुआ यंग जनरेषन मीडिया रिपोर्टर (वाईएमजीआर) का सफर।
डॉ. भानू के अनुसार, यंग जेनरेषन मीडिया रिपोर्टर एक संकल्पना है जिसमें पत्रकारिता के माध्यम से बच्चों को हमें उनके अधिकारों के प्रति सचेत करना होगा ताकि न सिर्फ वे अपनी नयी भूमिका को समझ सकें बल्कि उसे आत्मसात भी करें। डॉ. भानू बताते हैं कि, यंग जेनरेषन मीडिया रिपोर्टर जिन्हें हम आने वाले वक्त का जिम्मेदार पत्रकार मान सकते हैं, ऐसे बालकों को न सिर्फ पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांतों को बताने की जरूरत है बल्कि सिविल सोसाइटी एलायंस (सीएसओ), संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार अधिवेषन, इंटीग्रेटेड चाइल्ड प्रोटेक्षन स्कीम (आईसीपीएस), किषोर न्यायालय (जुवेनाइल जस्टिस), चाइल्ड लाइन के बारे में बताया जाना चाहिए। सैद्धांतिक रूप से भी  हमें यह बात समझनी होगी कि एक बच्चा ही अपनी जरूरतों और अधिकारों के बारे में सबसे बेहतर तरीके से समझ सकता है।
रजनीकांत कहते हैं, इससे बेहतर और क्या होगा जब बच्चे खुद को बाल पत्रकार के रूप में समाज के सामने प्रस्तुत करते हुए अपनी तकलीफों का ही बयान नहीं करेगा बल्कि अपने सपनों की दुनिया से भी हमें परिचित भी करायेगा। उसके इस बदले हुए रूप को न सिर्फ उसके अभिभावक, समाज में बैठे लोग, सरकार के जिम्मेदार अधिकारी कौतूहल और जिज्ञासा के साथ देखेंगे बल्कि इस बदलाव के लिए उसकी पीठ भी थपथपायेंगे। इसे मीडिया, सरकारें, डेवलपमेंटल गतिविधियों से जुड़े लोग गंभीरता के साथ लेंगे और बाल अधिकारों के संरक्षण का अनुकूल एवं उत्साहवर्धक वातावरण बन सकेगा।
वाईएमजीआर की प्रथम दो दिवसीय मीडिया वर्कषाप का आयोजन पूर्वी उत्तर प्रदेष के जौनपुर जिले के बख्शा ब्लाक के औका गांव में पिछले साल 29 व 30 अगस्त को हुआ। इसमें जौनपुर जिले के तीन ब्लाक बख्शा, करंजीकला और बदलापुर के विभिन्न गांवों के लगभग 30 बच्चें व युवाओं ने इसमें हिस्सा लिया। जौनपुर की वाईएमजीआर वर्कषाप के बाद प्रदेष के सिद्वार्थनगर, महाराजगंज, देवरिया, गोरखपुर और बहराइच जिलों में वर्कषाप का आयोजन हो चुका है। वाईएमजीआर की मीडिया टीम से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप उपाध्याय कहते हैं, ग्रामीण बच्चों की समझ कमाल की है भले ही वो पत्रकारिता की बारीकियों से बावस्ता नहीं है लेकिन मुद्दों और मसलों को समझने की शक्ति और संवेदनशीलता उनमें है। प्रदीप कहते हैं, आने वाले समय में बाल अधिकार से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर युवा पत्रकार अपनी कलम चलाएंगे और बच्चों द्वार लिखित रिपोर्ट और विभिन्न समस्याओं को यूपी-सीएसए ‘युवा संदेश’ शीर्षक पत्र अथवा न्यूज लैटर के माध्यम से देश-दुनिया के सामने लाएगा।
पीजीवीएस के वरिष्ठ अधिकारी जीएन यादव कहते हैं, बच्चों के अधिकार महत्वपूर्ण हैं। हमें इन्हें गंभीरता से लेना होगा। यंग जेनरेषन मीडिया रिपोर्टर के जरिये हम इस दिषा में बेहतर पहल कर सकते हैं। हमें बच्चों को उनके कर्तव्यों, दायित्व बोध तथा अधिकारों के प्रति सजग करते हुए सतत प्रषिक्षण देना होगा। उनका षिक्षा, भोजन तथा आश्रय का अधिकार उन्हें हासिल हो सके इसके लिए अनुकूल माहौल बनाने के साथ बाल श्रम, मानव तस्करी, बाल विवाह, कुपोषण तथा षिक्षा प्राप्त करने के बेहद कम अवसर सरीखी जो चुनौतियां हैं उनसे भी निपटना होगा।
पीजीवीएस के चाइल्ड राइटस प्रोजेक्ट से जुड़े संदीप पाठक के अनुसार, वाईएमजीआर की वर्कषाप में बच्चों को बाल अधिकारों के बारे में बताया जाता है। इनमें जीने का अधिकार, सुरक्षा का अधिकार, विकास का अधिकार तथा सहभागिता का अधिकार षामिल है। वर्कषाप में बच्चों को इन अधिकारों के बारे में विस्तार से बताया जाता है। यह अपने आप में नया प्रयोग है जिसके उत्साहजनक नतीजे देखने को मिल रहे हैं। बाल अधिकारांे की जानकारी के बाद बच्चों को रिर्पोटिंग एवं मीडिया राइटिंग की बेसिक जानकारी दी जाती है।
वाईएमजीआर से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप उपाध्याय के अनुसार, ‘बच्चे बाल अधिकारों के संरक्षण के बारे में तभी लिख पाएंगे जब उन्हें बाल अधिकारों के बारे में पता होगा।’ जौनपुर जिले के विकास खण्ड बख्शा के पिछड़े गांव नेवादा काजी की इंटर की छात्रा अन्तिमा भारती (15 वर्ष) गर्व से ख्ुाद को यंग जनरेषन मीडिया रिपोर्टर बताती है। बकौल अंतिमा, गांवों में बच्चों के अधिकारों का हनन आम बात है। मीडिया वर्कषाप के बाद मेरा आत्मविष्वास बढ़ा है। मुझे लगता है अब हमारी आवाज देष और दुनिया तक जरूर पहुंचेगी। जौनपुर जिले के गांव मुरादपुर कोटिला के षषिकांत कहते हैं, वाईएमजीआर बच्चों और युवाओं की आवाज बनकर उभरेगा, अब हमारी बात कोई दबा नहीं पाएगा। डॉ. भानू बताते हैं कि, बच्चों में इस बात का उत्साह है कि उनका लिखेगा छपेगा और दुनिया उसे पढ़ेगी। हमारे व बच्चों दोनों के लिए ये नया व अनूठा प्रयोग है।
जिला बाराबंकी के गांव उदवतपुर, के सातवीं कक्षा के छात्र आषीष कुमार वर्मा के अनुसार, बच्चों की बातें कोई लिखना नहीं चाहता है। अब हमारे लिए वाईएमजीआर को मंच है। हम अपनी और अपने आस-पास के बच्चों के अधिकारों के हनन से जुड़ी बातों को लिखेंगे जिसे दुनिया पढ़ेगी। सेंट जोसेफ स्कूल, उसका बाजार, सिद्वार्थनगर की आठवीं कक्षा की छात्रा प्रिया पाण्डेय कहती है, बच्चों की बात बच्चों से बेहतर कौन समझ और लिख सकता है, अब हम लिखेंगे और उम्मीद है कि बच्चों की दुनिया बदलेगी। महाराजगंज के जीएसवीएस इंटर कालेज की ग्यारहवी की छात्रा प्रतिभा प्रजापति कहती है कि, अखबारों और न्यूज चैनलों में बच्चों से जुड़ी खबरें छापी और दिखाई जाती है उनमें अपराध की घटनाएं ज्यादा होती है लेकिन बाल अधिकारों की बात नहीं होती है। वाईएमजीआर के माध्यम से जब बच्चे अपनी बात खुद लिखेंगे तो मीडिया भी इन मुद्दों की संवेदनषीलता को समझेगा।
डॉ. भानू के अनुसार, यूपी-सीएसए के दिषा-निर्देषन में होने वाली इन मीडिया वर्कषाप में कई स्थानीय संस्थाएं नवोन्मेष, महिला प्रषिक्षण सेवा संस्थान, सम्मान विकास समिति, मानवोदय विद्यालय, जीवनधारा मार्गदर्षन सोसायटी सहभागी हैं। फिलहाल जौनपुर, सिद्वार्थनगर, महाराजगंज, देवरिया, गोरखपुर और बहराइच छह जिलों में वाईएमजीआर वर्कषाप का आयोजन किया गया है। भविष्य में प्रदेष भर में ऐसी मीडिया वर्कषाप के आयोजन की तैयारी की जा रही है। प्रदेष में अपने तरह का यह प्रथम अनूठा प्रयोग है, उम्मीद की जानी चाहिए कि इस प्रयोग के सकारात्मक परिणाम भविष्य में देखने को मिलेंगे।

(लेखक: डॉ आशीष वषिष्ठ चर्चित स्तम्भकार हैं। श्री वषिष्ठ समय-समय पर सम-सामयिक विषयों पर आलेख लेखन का कार्य पूरी मुस्तैदी के साथ निष्पादित करते हैं।)

ज्ञान सर्वोत्तम आनंद है


हृदयनारायण दीक्षित
ज्ञान सर्वाेत्तम आनंद है। सर्वोत्कृष्ट विलास। अध्ययनकर्त्ता का सम्मान प्राचीन परम्परा है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति का विकास गहन विद्यार्थी वृत्ति से ही हुआ। लोकजीवन का सत्य, शिव और सौन्दर्य अध्ययन प्रवचन और वांग्मय का ही प्रतिफल है। अध्ययन यशस्वी कर्म है। सर्वोत्तम सुख है और सर्वोत्तम कर्त्तव्य भी। तैत्तिरीय उपनिषद का नवां अनुवाक् पठनीय है। पहला मंत्र है, “प्रकृति विधान का पालन करें, अध्ययन करें और सबको बताएं-ऋतं च स्वाध्याय प्रवचने च। यहां प्रकृति विधान का पालन कर्त्तव्य है, लेकिन अध्ययन अनिवार्य है। अध्ययन ज्ञानदाता है इसलिए पढ़ाई से प्राप्त ज्ञान को समाज में प्रवाहित करना भी कर्त्तव्य है। आगे का मंत्र है “सत्य का पालन, अध्ययन और प्रवचन। इसी तरह हरेक कर्त्तव्य के साथ अध्ययन जुड़ा हुआ है “कठोर परिश्रम करें, अध्ययन प्रवचन करें। इन्द्रिय संयम करें, अध्ययन प्रवचन करें। अतिथि सत्कार करें, अध्ययन प्रवचन करें। लोक व्यवहार करें, अध्ययन प्रवचन करें।” कोई भी काम करें लेकिन पढ़ें और पढ़े हुए को बताएं। स्त्री पुरूष संतति बढ़ाएं, यह कर्त्तव्य है लेकिन साथ में ‘स्वाध्याय’ जुड़ा हुआ है। अध्ययन जरूरी है और इसका उपकरण है-पुस्तकें। पुस्तकें अक्षर समृद्ध हैं। लेकिन आधुनिक समाज पुस्तकों को सर्वोपरि महत्व नहीं देता।
पुस्तकें देववाणी हैं। धरती पर देवों की प्रतिनिधि। वैदिक काल और उत्तरवैदिक काल का शब्द सृजन अनूठा है। वेद मंत्र परमव्योम से उतरी गीत गाती अल्हड़ कविताएं ही हैं। उपनिषद् साहित्य धरती पर आकाश की दिव्य नक्षत्र मालिका है। पूरा वैदिक साहित्य आनंदवर्द्धन है। हर्षवर्द्धन के साथ ज्ञानवर्द्धन भी। पहले यह पुस्तक रूप नहीं था। भारतीय प्रीति के चलते यह लाखों युवा जिज्ञासुओं का कण्ठहार था। स्मृति में रचा बसा, बार-बार गाया और दोहराया जाता रहा। फिर किताब में आया। गांधी जी ने सत्य के प्रयोग किए। सारे प्रयोग किताब बने। किताब बनते ही वे विश्व सम्पदा हो गये। ज्ञान किताबों में न होता तो हम टालस्टाय की ‘अन्नाकैरिना’ से कैसे अपरिचित होते। पतंजलि योग विज्ञानी थे, कौटिल्य में अर्थशास्त्र की मौलिक अनुभूति थी, भरतमुनि नाट्य विज्ञान के धुरंधर चिन्तक थे। बादरायण ने समूची सत्ता को एक देखा। सारी अनुभूतियां निजी हैं। अनुभूति सार्वजनिक नहीं होती। बेशक अनुभूति की सामग्री संसार और प्रकृति से ही मिलती है लेकिन अनुभूति खिलती है हमारे गोपन अन्तस् मे। यही अनुभूति पुस्तक बनती है तो लाखों करोड़ों को आंतरिक समृद्धि से भर देती है। पतंजलि के ‘योग सूत्र’, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, वादरायण का ब्रह्मसूत्र और भरतमुनि का रचा नाट्यशास्त्र पुस्तक बनने के कारण विश्वप्रतिष्ठ है।
पुस्तक का कोई विकल्प नहीं। अलबत्ता दुनिया में अन्य तमाम ज्ञान स्रोत भी हैं। लेकिन सर्वोत्तम का विकल्प पुस्तके ही हैं। मेरे पिता सवा बीघे की खेती के मालिक किसान थे। हमारे गांव से तीन-चार कि0मी0 दूर भवरेश्वर मंदिर में प्रति सोमवार बड़ा मेला लगता है। पिता जी और हम पैदल जाते थे। वे मेले में मिठाई खिलाने का आग्रह करते, मैं उतने ही पैसे की किताब खरीदने की मांग करता था। वे कहते दूध की बर्फी में जो ताकत है वो किताब में नहीं। मैं बिफर जाता था। वे एक आना या दो आने की किताब खरीदते, मैं खुशी से नाच उठता था। वे रामचरित मानस पढ़ते थे। मैंने उनसे कहा “रामचरित मानस में जो ताकत है, क्या वैसी दूध की बर्फी में है?” वे डाट देते थे कि “रामचरित मानस किताब नहीं है, वह और भी बहुत कुछ है।” पुस्तके मेरे लिए बहुत कुछ हैं, अम्मा, बहन, आचार्य, गुरू, मित्र, प्रीति, रीति, नीति आदि आदि। हमारा पौत्र पतंजलि अभी कक्षा एक में है, स्वाभाविक ही खिलौनो से खेलता है। मुझे लगातार पढ़ते देखकर किताबों में उसका रस बढ़ा है। खूब लिखता है, खूब पढ़ता है। पौत्र सात्विक मुझसे या अपने पिता से पाए पैसे किताबों पर लगाता है। उसके मित्र का जन्मदिवस था। वह उसे कोई भेंट गिफ्ट खरीदने जा रहा था। मैंने कहा किताब ही गिफ्ट करना। बाकी सब बेकार है।
भारत में समृद्धि बढ़ी है। खानपान और रहन सहन पर प्रतिव्यक्ति व्यय बढ़ा है। सामान्य मध्यवर्गीय व्यक्ति भी चाय या कोल्ड ड्रिंक पर दो तीन मित्रों के साथ सौ दो सौ रूपया उड़ा देता है लेकिन डेढ़ दो सौ रूपये की किताब नहीं खरीदता। चाहते अजीब हैं। हमारे पास मोबाइल महंगा होना चाहिए। हमारे कुछेक मित्र हर दूसरे तीसरे माह मोबाइल बदलते हैं। उन्हें दाढ़ी बनाने की मशीन, टूथपेस्ट या साबुन भी हाईफाई चाहिए। ऐसे मित्रों को सामान्य उपभोक्ता वस्तुओं की महंगाई से कोई शिकायत नहीं लेकिन पुस्तकों की महंगाई का रोना है। पुस्तके उन्हें महंगी लगती हैं, बाकी उपभोक्ता वस्तुएं सस्ती। वैसे पुस्तकें भी घर की शोभा और सुन्दरता हैं, वे जीवन का सत्य हैं। वे उड़ने के पंख देती हैं। जमीन पर ठीक से पांव जमाने की युक्ति भी देती हैं। पुस्तकों में जीवन के सभी रंग मिलतें हैं। प्रकृति के सारे रूप, रस, गंध, गीत और छन्द। पुस्तकें प्रकृति सृष्टि की पुनर्सृष्टि है। प्रत्यक्ष लोक का पुनर्सृजन। उदात्त ब्रह्म कर्म। बोध पुनर्बोध का शब्द आख्यान। अव्याख्येय की भी व्याख्या का सार्थक प्रयत्न पुस्तकों में मिलता है।
विश्वविख्यात् विद्वान कार्ल सागन की लिखी वैज्ञानिक किताब है ‘कासमोस’। उन्होंने बताया है कि लाखों बरस पहले समूची प्रकृति की ऊर्जा और पदार्थ एक बिन्दु में समाहित थे। उन्होंने लिखा है इसे ‘कासमिक एग’ कह सकते हैं। ‘कासमोस’ का हिन्दी अनुवाद होगा-ब्रह्म। बह्म शब्द संस्कृत से आया है। यहां इसका अर्थ है-सतत् विस्तारमान संपूर्णता। ब्रह्म की सारी ऊर्जा और पदार्थ जब एक जगह लघुतम रूप में थे, तब यह अंडे जैसा था-ब्रह्माण्ड। सागन ने इसे ठीक ही ‘कासमिक एग’ कहा है। लेकिन आगे की उनकी बात रोमांचकारी है -“यही अंडा फूटा, इसी की सारी ऊर्जा और पदार्थ यह विश्व है-जो अब तक हो गया और जो आगे होगा, वह सब यही कास्मिक एक है।” सोंचता हूं कार्लसागन का यह अध्ययन पुस्तक में न होता तो हमारे जैसे साधारण राजनैतिक कार्यकर्ता तक कैसे पहुंचता? ऋग्वेद के एक देवता हैं ‘अदिति’। अदिति की ऋषि व्याख्या भी कार्लसागन जैसी है। ऋग्वेद में बताते हैं “अदिति पृथ्वी, आकाश सब कुछ हैं। वे हमारे माता पिता, पितामह, पूर्वज हैं। वे ही हमारे पुत्र पुत्री भी हैं। अब तक जो हो गया और जो आगे होगा, वह सब ‘अदिति’ हैं। यही बात ऋग्वेद के पुरूष सूक्त में भी है-पुरूष एवेदं सर्वं यत् भूतं भव्यं च। भूत और भविष्य सब पुरूष है। ऋग्वेद पुस्तकाकार न होता तो सागन की वैज्ञानिक प्रतीति और ऋषियों की आत्मिक अनुभूति को हम एक साथ कैसे मिलाते?
विलासिता की निन्दा होती है। संयम बेशक प्रशंसनीय है लेनिक अध्ययन और पुस्तक प्रीति में संयम नहीं विलासी भाव ही श्रेष्ठ है। पुस्तकों के साथ होना बड़ा विलास है। उनके अंक, अंग, प्रत्यंग से अंगीभूत एकात्म होने का रस रंग अनिवर्चनीय है। स्टीफेन हाकिंस विश्व मानवता के विरल व्यक्तित्व हैं वे बोल नहीं पाते, चल नहीं पाते। सौ प्रतिशत विकलांग हैं। लेकिन गजब के ब्रह्माण्ड विज्ञानी हैं। पुस्तक तकनीकी ने ही उनके विचार और शोध हम सब तक पहुंचाएं हैं। ‘ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’ उनकी खूबसूरत किताब है। मैं किताब के नाम पर मोहित था। इतिहास समय का ही एक अंग है लेकिन यहां समय का इतिहास बताया गया है। ऋग्वेद के ऋषियों ने भी बताया है कि सृष्टि के पूर्व समय नहीं है। समय का जन्म गति से होता है। गति नहीं तो समय नहीं। गति पर ध्यान देना जरूरी है, तभी प्रगति या दुर्गति का पता चलता है। लेकिन ऐसे ध्यान और बोध का सहज उपलब्ध उपकरण पुस्तकें ही हैं। मैं उपभोक्ता वस्तुओं के हिसाब से गरीब हूं लेकिन हजारों पुस्तकों के साथ रहता हूं। तो भी पुस्तक समृद्धि हमारी अशांत भूख है। संप्रति विश्व पुस्तक मेला चल रहा है। पुस्तकें बुला रही हैं। मिलो। दिल खोलकर मिलो। क्या मित्रों से पूछ सकता हूं कि आपके पास उपभोक्ता सामग्री की तुलना में किताबों की संख्या कैसी है? छोडि़ए नहीं पूछते। मित्र नाराज होंगे। वे पुस्तकों के लिए समय की कमी बताएंगे और मुझे अवकाश भोगी निठल्ला राजनेता।


पाखंडियों का समूह तीसरा मोर्चा

मृत्युंजय दीक्षित

देश में जब भी राजीति की बयार तेज होती है और चुनावों का दौर आता है देश में तीसरे मोर्चे का रेडियो बजना प्रारम्भ हो जाता है। हर बार केवल भाजपा और साम्प्रादायिक ताकतों को रोकने के नाम पर जिन दलों की ंअंतिम सांसे चल रही होती हैं वे लोग उसमेें आक्सीजन देकर उसे फिर जीवित करने का प्रयास करने लग जाते हैं। लेकिन वास्तव में यह तीसरा मोर्चा नाम की कोई चिडि़या देष में है ही नहीं। चुनावी दौड़ में सभही इलेक्ट्रानिक मीडिया सर्वेक्षण कर रहे हैं। इन सर्वेक्षणों में अन्य व फिर तीसरे मोर्चा के दलों को लगभग दो सौ पन्द्रह के आसपास सीटें मिलने की सम्भावना भी दिखा रहे हैं।

इन दलों का अभी तक अपना कोई नेता सामने नहीं आया है। लेकिन सभी क्षेत्रीय दलों के नेता अपने आप को प्रधानमंत्री पद का दावेदार मान रहे हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतिष कुमार पुरानें समाजवादियों को एकत्र कर रहे हैं। सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव भी उप्र के बल पर प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता और समाजसेवी अन्ना हजारे का समर्थन प्राप्त करके इतनी अधिक फूली समा रही हैं कि वे भाजपा के पुराने एहसानों को भूलकर भाजपा नेताओं को सरेआम गाली तक दे रही हैं। यह सभी दल क्षेत्रीय राजनीति के संवाहक तथा पोषक हैं। यह दल कभी राष्ट्रीय एकता व अखंडता के संवाहक नहीं हो सकते। इन सभी दलों की आर्थिक नीतियां देष का बंटाधार कर देंगी। यह सभी कहीं न कहीं से वंषवाद की राजनीति कर रहे हैं।यह सभी दल अपने वोट बैंक को खुष करने के लिए देष का खजाना लुटा सकते हैं। देष की आत्मा पर हमला करने वाले आतंकियों व अपराधियों की रिहाई करवा सकते हैं। फिर उसके लिए चाहे कानून व संविधान ही ताक पर क्यों न रख दिया जाये।
देश में अब तक जितनी भी गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री हुए हैं उनमें केवल पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की ही सरकार वास्तविक गैर कांग्रेसी सरकार थी। इन सभी दलों का आधार कांग्रेस ही रही हैं।

जिसमें बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पूर्व कांग्रेसी हैं।कांग्रेस का सहयोग लेकर चुनाव लड़ा व सरकार बनायी है। राजग सरकार में भी काफी दिनों तक मंत्री रहीं। मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति करती हैं। अपने वोट बैंक को खुष करने के लिए इमामों को सैलरी देने का ऐलान व बंगाल में सिमी संस्थापक अखबार दैनिक कलम के विवादित संपादक अहमद हसन इमरान जैसे व्यक्ति को राज्यसभा में भेजकर अपनी राजनीति को चमका रही हैं। बंगाल अभी पिछड़ा है। ममता बनर्जी इतनी खतरनाक राजनीति खेल रही हैं कि उन्हें बंगाल में बहुत से मुस्लिम ममताज बानु अर्जी भी कहते हैं। ममता बनर्जी का देश के बाहरी हिस्सों ंमें कोई वजूद नहीं है। अन्ना हजारे के सहारे आगे बढ़ने का रास्ता तलाष रही हैं। फिर भी यह उनके लिए दिवास्वप्न हैं। कहीं ऐसा न हो कि मोदी की बढ़त को रोकने की आस में उनकी जमीन अपने ही घर में धंस जायें। यही हाल सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव का है। खुदरा व्यापार में एफडीआई का विरोध करने वाले सपा मुखिया ने किस प्रकार सरकार बचायी यह पूरा प्रदेश जानता है। मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति का अंधा खेल उप्र में खेला जा हरा है। आतंकवादियों को निर्दोष बताकर सरकार उन्हें हरहाल में छुड़ाने का प्रयासकर रही है। प्रदेशभर में हो रहे दंगों में प्रशासन किस प्रकार से एक पक्षीय व्यवहार कर रहा है यह पूरा प्रदेश देख रहा है। सपा मुखिया की रैलियों में भीड़ बुलाने के लिए सरकारी तंत्र का खुलकर दुरूपयोग हो रहा है। सपा में जमकर वंषवाद है। सपा सरकार में जमकर महिलाओं व छात्राओं का उत्पीड़न व बलात्कार आदि हो रहे हैं।

सबसे अधिक घातक समीकरण तो दक्षिण की राजनीति में उभरकर सामने आ रहे हैं। तमिल की राजनीति के चलते अच्छे पड़ोसी श्रीलंका के साथ अब हमारे सम्बंध उतने मधुर नहीं रह गये हैं।अभी हाल ही में करूणनिधि से आगे निकलने के चक्कर में मुख्यमंत्री जयललिता ने पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी के हत्यारों की रिहाई का आनन-फानन के फैसला कर लिया।अपने इस फैसले से जयललिता ने यह साबित कर दिया है कि वह प्रधानमंत्री बनने क्या मुख्यमंत्री बनने तक लायक नहीं है। पता नहीं किसने उन्हें प्रधानमंत्री बननवाने का लालच दे दिया है।
तीसरे मोर्चे के नेताओं में आपस में कोई सामंजस्य है ही नहीं। नीतिश कुमार, लालू यादव कभी एक साथ नहीं हो सकते।जयललिता और करूणानिधि कभी एक साथ नहीं रह सकते। कांग्रेस को भले ही सपा और बसपा ने समर्थन दंे दिया हो लेकिन भविष्य की राजनीति में वे कभी साझा मंच नहीं करेंगे। ममता दीदी को वामपंथी किसी भी सूरत में प्रधानमंत्री नहीं बनने देंगे। तीसरे मोर्चे का जो भीे नेता इस समय मोदी को रोकने को नाम पर प्रधानमंत्री बनेगा उसका राजनैतिक कैरियर भी समाप्त हो जायेगा। जैसे कि पूर्व में देवगौड़ा, गुजराल व चन्द्रषेखर आदि का हो चुका है। इन दलों की हकीकत देष के लिए बहुत ही घातक है। इन दलों के सत्ता में आने का मतलब देष का पूरी तरह से कमजोर हो जाना होगा। यह दल राजनैतिक अस्थिरता ही फैला सकते हैं। इन दलों के आने से जेल में बंद खतरनाक आतंकवादियों और अपराधियों की खुषी का ठिकाना नहीं रहेगा। इन दलों के सत्ता में आने का मतलब पर्दे के पीछे से कांग्रेस का ही दबदबा रहने का होगा। आगामी 25 फरवरी को यह दल एक बार फिर अपना घिसा पिटा राग अलापने वाले हैं। वामपंथी नेता प्रकाश करात ने अभी हाल ही में दंगा प्रभावित मुजफ्फरनगर का दौरा किया। एक विशेष धर्म के लोगों को खुश करने के लिए भाजपा को दंगा भड़काने के लिए आरोपित किया। अब देष का जनमानस इस प्रकार की बयानबाजी से उब चुका है। तीसरामोर्चा केवल पाखंडियों का समूह है। कांग्रेस के गर्भ से निकला बालों का गुच्छा है। यह देष के विकास में लगने वाला खतरनाक दीमक है। देष की जनता को ऐसे खतरनाक समूहों पर ध्यान नहीं देना चाहिये। इन दलों को वोट देने का मतलब देष के विकास को काफी पीछे छोड़ देना होगा। साथ ही राष्ट्रीय एकता, अखंडता, सुरक्षा, सामाजिक समरसता भी खतरे में पड़ जायेगी। विदेश नीति का कबाड़ा निकल जायेगा। पूर्व प्रधानमंत्री गुजराल की विदेष नीति का दंश देश अभी तक झेल रहा है। अतः मतदाता को अपने मत का अधिकार काफी सोच समझकर करना चाहिये। नहीं तो दिल्ली की जनता की तरह पछताना पडे़गा।

(लेखक: लखनऊ के युवा और तेजस्वी पत्रकार हैं.)

दूध नहीं, जहर का धंधा

डा. मनोज चतुर्वेदी

जिस देष में कभी दूध-दही की नदी बहती थी। हर घर में गोधन रहता था। उसी देष में आज लोग दूध नहीं, उसके नाम पर वाषिंग पाउडर, व्हाइटनर, स्टार्च, और कार्बोहाइड्रेटेड दूध पी रहे हैं। पैसों की खातिर दूसरों की जान से खेलने वाले इस भयानक मिलावट के खेल में दूध कारोबारी दिनों-दिन मालामाल हो रहे हैं। बच्चों से बूढ़ों तक सभी को दूध की जरूरत होती है। ऐसे में मिलावट खोरों का धंधा खूब चमक रहा है। खाद्य पदार्थों में मिलावट की आईपीसी की धारा-272 के मुताबिक खाद्य पदार्थों में मिलावट का मामला पकड़े जाने पर मात्र छह मास का कारावास था और दूध में की जा रही मिलावट इसी के अंतर्गत थी। किन्तु धारा -272 में संषोधन के बाद यह सीमा बढ़ाकर उम्रकैद तक कर दी गई है। हालांकि उम्रकैद का प्रावधान मात्र उत्तर प्रदेष, ओडि़शा और पष्चिम बंगाल तक ही सीमित है। जबकि नकली दूध का कारोबार हरियाणा,पंजाब, मध्य प्रदेष सहित पूरे देष में फैला है। इस मिलावटी और नकली दूध के लगातार प्रयोग से कैंसर जैसी भयानक बीमारी की गिरफ्त में मानव आसानी से आ जाता है। इसके अलावा इससे रंग अंधता, लकवा, फेफड़े की बीमार होनी आम बात है।
दूध में मिलावट इस गोरखधंधे के विरूद्ध कोर्ट में जनहित याचिका दायर की गई। जिसमें लगभग डेढ़ हजार मामलों में मुकदमा चल रहा है। अकेले उत्तर प्रदेष में ही 4503 दूध नमूनों में से 1237 मिलावटी थे तथा 52 नमूनों में डिटर्जेंट , व्हाइटनर, कार्बोहाइडेªट, और बाहरी चिकनाई के तत्व पाये गये। इसके साथ ही हरियाणा, मध्य प्रदेष में मिलावटी दूध के मामले सामने आए हैं।
किन्तु राज्य सरकारें इस नकली दूध के कारोबारियों पर नकेल कसने में सदा टालमटोल का ही रवैया अपनाती है। इसी कारण अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को कड़ी फटकार लगाते हुए दूध के मिलावट के संबंध में प्रष्न किए कि किस राज्य में मिलावटी दूध के कितने केस दर्ज हुए हैं? कितने मामले की सुनवाई कोर्ट में लंबित है? कितने दोषी हैं? और दोषियों को कितनी सजा मिली है? अधिकारियों ने दुग्ध निरीक्षण पिछले दो सालों में कितनी बार किया है? लेकिन इन प्रष्नों का राज्य सरकारों ने यथोचित उत्तर न देकर टालमटोल कर उदासीन रवैया ही अपनाया है।
यहां तक कि कुछ राज्य सरकारों का कहना है कि वे अभी खाद्य पदार्थो में मिलावट की आईपीसी धारा -270 में आवष्यक संषोधन का विचार कर रही है।
यानि इससे ही पता चलता है कि राज्य सरकारें इस मिलावट के धंधे के प्रति कड़ा रवैया अपनाने के बजाए सिर्फ उदासीनता से टालमटोल ही कर रही है। उत्तर प्रदेष, ओडि़शा और पष्चिम बंगाल में यद्यपि नकली, मिलावटी दूध पकड़े जाने पर उम्रकैद का प्रवाधान है किन्तु हैरानी की बात है कि ऐसे मामले सामने आने पर भी अब तक उम्रकैद की सजा किसी को नहीं हुई है। देष की राजधानी दिल्ली में गत दिनों एक सर्वेक्षण के दौरान यह पाया गया कि कहां प्रतिदिन दूध की खपत 5 लाख लीटर है जबकि उत्पादन मात्र ढाई लाख ही है। यानि लगभग आधा दूध नकली बेचा जा रहा है। यही नहीं समय-समय पर लिए गए दुग्ध नमूनों में यूरिया, सर्फ, रंग, कास्टिक सोड़ा, और प्लास्टिक के अंष दूध में पाये गये हैं। दिल्ली में दूध का कारोबार प्रमुख कंपनियां जैसे- अमूल, रिलायंस, गोवर्धन, मदर डेयरी, पराग, पारस, सुधा आदि करती हैं। लेकिन इनमें से कोई भी कंपनी दुग्ध परीक्षण के नमूनों में बेदाग नहीं मिली। इसके साथ ही डिब्बाबंद दूध में भी मिलावटी तत्वों के अंष पाए गए हैं। ऐसे मामलों में राज्य सरकारों का रवैया लगभग एक जैसा ही है। अभी हाल ही में एक बहस के दौरान पंजाब के वकील ने अजब दलील दी कि गायों ने पॉलीथीन खाना षुरू कर दिया है। इसलिए दूध की क्वालिटी गिर रही है। हर मामला मिलावट का ही नहीं होता।’ इससे स्पष्ट होता है कि दूध कारोबारियों को राज्य सरकारों की तरफ से कितना बचाया जा रहा है, ऐसे में मिलावटी, नकली दूध के व्यापार पर कैसे प्रतिबंध लग सकता है?
अतः दूध के प्रति राज्य सरकारों के दृष्टिकोण तथा दूग्ध उत्पादन कंपनीयों की मिलावटखोरी से जन-स्वास्थ को कितना नुकसान हो रहा है यह उपरोक्त आलेख से समझा जा सकता है। आखिर हमें इससे निजात कैसे मिलेगी तो इसका एकमात्र समाधान यही हो सकता है कि समाजसेवी संगठन एक ऐसे दवाब समूह का निर्माण करे कि जिससे सरकार और दुग्ध उत्पादन कंपनीयां अपने दृष्किोण में परिवर्तन लाए। जिस राज्य में मिलावटखोरी का पर्दाफाष हो उस राज्य के सरकार के उपर जिम्मेदारी तथा अर्थदंड का निर्धारण हो। इसके साथ ही मिलावटखोरी करने वाली जो कंपनियां है। मिलावटखोरी करने वाले व्यक्ति और संगठन पर आर्थिक दंड, षारीरिक दंड तथा समाजिक दंड का प्रवाधान होना चाहिए। यदि यह माना कि कोई व्यक्ति एक लिटर दूध में चौथाई भाग रसायनिक और पानी का मिलावट करता है तो एक लिटर पर एक लाख रूपए का जूर्माना, एक माह तक दोनों समय रसायन मिश्रित दुग्ध पिलाना, रोज-रोज उसे षारीरिक रूप से प्रताडित करना तथा गली और चौराहों पर उसके गले में मिलावट खोरी की तख्ती लगाकर खड़ा करने का कानून होना चाहिए। यदि कोई मानवाधिकार संगठन यह कहता है कि यह समाजिक न्याय और मानवाधिकार का हनन है तो उससे यह पूछा जाना चाहिए कि क्या उसके साथ इस प्रकार के कृत्य हो तो वह क्या करेगा? क्या मुंबई से 80 किलोमिटर दूरी पर उत्पादित डेयरी का दुग्ध अंबानियों, बिड़लाओं और सलमान खानों के लिए ही हो सकता है या देष की आम जनता के लिए भी। यह सवाल समस्त भारतीय जनता के समक्ष है। समाधान जनता ही देगी क्योंकि राजनीतिक दलों से अपेक्षा कम ही है।

हम भी कम नहीं हैं बिजूकों से


डॉ. दीपक आचार्य
जो हो रहा है, होने दो, और चुपचाप अपने काम करते हुए आगे बढ़ते चलो। जो कुछ हमारे सामने हो रहा है उससे हमारा क्या लेना-देना। आम तौर पर हमारी मानसिकता ऐसी ही हो चुकी है। हर कोई अपने काम से मतलब रखना चाहता है। कामी और स्वार्थियों की भीड़ के बीच अब सामाजिकता पलायन कर चुकी है। समुदाय से छिटक कर हम दूर होते जा रहे हैं,समाज और परिवेश से हमारा सिर्फ अब स्वार्थ तक का का संबंध ही रह गया है। स्वार्थ पूरे होने तक ही हमारा रिश्ता रहता है,उसके बाद सब कुछ खत्म।
पुरानी पीढि़यां हमें जो सौंप गई हैं उनका संवर्द्धन करना तो दूर की बात है,हम इन जीवंत और जड़ विरासतों का संरक्षण तक नहीं कर पा रहे हैं। हरे भरे खेतों और बागानों में सदियों से छायी रहने वाली हरियाली भी उतनी नहीं रही,न नदियों में पानी रहा,न नाले ही रहे सदानीरा। जब आँखों में भी पानी सूख गया,आदमी में ही नहीं रहा पानी, ऐसे में सुकून की बूंदों की उम्मीदें कहाँ से रखें।
जो कुछ हमारे पास था वह लुट गया,हमारी अपनी ही गलतियों और संकीर्णताओं की बदौलत भारतमाता का अखण्ड स्वरूप विखण्डित होता रहा। अनेकता में एकता,सौहार्द और भाईचारों के उद्यानों में आतंकवाद की खरपतवार और जहरीले जीवों ने जमीन खोखली करने में कसर बाकी नहीं रखी। जो कुछ बचा था उसे हमारे अपने चूहों और दीमकों ने ठिकाने लगा दिया।
‘मेरे देश की धरती सोना उगले‘ और ‘ये देश है वीर जवानों का...’ जैसी धाराओं का उद्घोष करने वाले भारतवर्ष में स्रष्टा भाव समाप्त होता जा रहा है और उसका स्थान ले लिया है मूक द्रष्टा भाव ने। हम जिस तरह का बर्ताव करने लगे हैं उससे साफ झलकता है कि हमें अपने आस-पास से कोई सरोकार नहीं रहा, हमारे पड़ोसी कौन हैं,हमारे मोहल्ले में कौन-कौन लोग हैं,वे कैसे रहा करते हैं,उनकी क्या तकलीफें हैं?आदि से हमें कोई मतलब नहीं रहा।
दिहाड़ी मजदूर की तरह घर से निकलते हैं और पस्त होकर रात को घर लौट आते हैं,टीवी के सामने बैठकर पसर जाते हैं और अगली सवेरे फिर दौड़ शुरू। कइयों को तो यह भी पता नहीं चलता कि सूरज कब उगा और कब अस्त हो गया। हममें से कई सारे लोगों की स्थिति आजकल लगभग ऐसी ही हो गई है जैसे कि बिजूके खड़े कर दिए हों,जिन्हें इससे कोई मतलब नहीं होता कि वे कहाँ हैं और क्यों हैं?बस वे इसीलिए हैं कि इन्हें खड़ा कर दिया गया है रखवाली के लिए।
वे न चल-फिर सकते हैं, न देख, बोल-सुन सकते हैं,सिर्फ हिल-डुल सकते हैं और वह भी हवाओं की दया या कृपा पर। हवाएं जिधर रूख करती हैं उधर खींच कर तन जाते हैं और फिर उतने ही वेग से उल्टी दिशा पा लेते हैं। बस यहीं तक ये बिजूके अपनी फर्ज अदायगी समझकर विवशता का लबादा ओढ़े रहते हैं जब तक चिंदी-चिंदी होकर अस्तित्वहीन न हो जाएं।
आज हमारे सामने जो कुछ हो रहा है उसे चुपचाप देखने-सुनने और प्रतिक्रियाहीन सफर की जो विचित्र मानसिकता हमने अपना ली है उसी का परिणाम है कि आज ऐसा कुछ होने लगा है जो न हमारे लिए अच्छा है,न समाज और देश के लिए,और न ही हमारी आने वाली पीढि़यों के लिए।
बिजूकों की तरह हम चुप्पी साधे रहें,सर हिलाते रहें और शरीर को मटकाते ही रहें तो वह दिन दूर नहीं जब आने वाली पीढि़याँ बिजूकों के रूप में हमारे अक्स का इस्तेमाल कर दुनिया को यह संदेश देंगी कि इन्हीं नालायकों,कमीनों और स्वार्थियों की वजह से आज हम अधःपतन की ओर बढ़ने लगे हैं।
बिजूकों के सारे स्वभाव को हमने अंगीकार कर लिया है। हवाओं से हिलते बिजूकों की मानिंद हम भी अपने दो टके के स्वार्थ पूरे करने भर के लिए हर किसी सच्ची-झूठी बात को पूरी विनम्रता सेगर्दन हिलाते हुएस्वीकार कर लिया करते हैं। हमें अपना भान तक नहीं है बल्कि जैसा जमाना चलाता है,जिस तरह हवाएँ झुलाती हैं वैसे ही प्रतिक्रिया करने लग जाते हैं।
आक्षितिज पसरे हुए खेत में लहलहाने वाली फसलों के सब्जबाग दिखाकर कोई भी हमें कहीं भी खड़ा कर सकता है,और हम हैं कि अपने उपयोग को गर्व तथा गौरव के रूप में स्वीकार करते हुए किसी भी धर्मशाला, मयखाने, सुलभ सुविधालय, जात-जात के बाड़ों और गलियारों में खड़े हो जाते हैं और अग्रिम आदेश मिलने तक वहीं जमा रहते हुए अपने आपको अत्यंत उपकृत महसूस करते रहते हैं।
हवाओं की बदचलनी के शिकार बिजूकों की तरह हम सभी लोग आज भले कितने ही बेपरवाह हों, मगर सीमाओं की आग कभी भी अपनी पड़ोसी हो सकती है। जमाने भर में जो चल रहा है उसे चुपचाप देखते-सुनते ही न रहें,वरना वह सब कुछ खो देंगे जिसे अपना बनाने के लिए हम सर्वस्व समर्पण की मुद्रा में सर नीचा कर कहीं भी किसी के भी सामने या तो परोस दिए जाते हैं या खुद को स्वेच्छा से परोस दिया करते हैं।
बिजूकों का भविष्य फसल पकने तक ही रहता है, उसके बाद उनका कोई अस्तित्व नहीं होता,या तो खुद सड़-गल कर हवाओं के साथ बह चलते हैं अथवा अपने आकाओं के हाथों खुद ही चिंदी-चिंदी होकर बच्चों के लिए बॉल के स्वरूप में ढल जाते हैं।

पीड़ित है देश का भविष्य


डॉ आषीष वषिष्ठ

बच्चे ‘कल का भविष्य’ होते हैं। यदि बच्चे स्वस्थ, सुशिक्षित, प्रतिभावान और सर्वांगीण विकास से ओतप्रोत होंगे तो, निश्चित तौरपर वे आने वाले समय में हमारे सच्चे और सशक्त कर्णधार साबित होंगे। लेकिन, जो बच्चे सर्वांगीण विकास एवं मूलभूत सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं, उनका भविष्य किसी भयंकर अभिशाप से भी बदतर होता है। विडम्बना का विषय है कि बहुत बड़ी संख्या में कल के कर्णधारों आज मझदार में फंसे हुए हैं, अर्थात वे भूख, गरीबी, बीमारी, निरक्षरता, शोषण, यौनाचार जैसी भयंकर समस्याओं के भंवर-जाल में फंसकर अभावग्रस्त और अभिशप्त जीवन जीने का बाध्य हैं। यदि ऐसे बच्चों से सम्बंधित आंकड़ों पर गौर किया जाए तो भयंकर सिहरन पैदा हो उठती है।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बच्चों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता सर्वप्रथम वर्ष 1934 में महसूस की गई और जेनेवा घोषणा के तहत बाल अधिकार सुनिश्चित किए गए। इसके उपरांत बच्चों के सर्वांगीण विकास और उनके हितों के रक्षार्थ संयुक्त महासभा द्वारा 20 नवम्बर, 1989 को बाल अधिकार सम्मेलन में तीन भागों में 54 अनुच्छेदों के साथ महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किए गए। भारत ने 12 नवम्बर, 1992 को इस प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करके अपनी स्वीकृति दे दी थी। इस समय दुनिया के 191 देशों द्वारा यह प्रस्ताव स्वीकृत किया जा चुका है। ये प्रस्ताव बच्चों के लिए ‘पहली पुकार के सिद्धान्त’ पर आधारित हैं किसी भी स्थिति में संसाधनों के आवंटन के दौरान बच्चों की अनिवार्य जरूरतों को सर्वाधिक प्राथमिकता दी गई है। इनमें बच्चों के सुकुमार बचपन एवं सम्मान को ध्यान मे रखते हुए बच्चों के चार मौलिक अधिकार जीने का अधिकार, सुरक्षा का अधिकार, विकास का अधिकार और सहभागिता का अधिकार शामिल किए गए हैं।

सबसे पहले वर्ष 1952 में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बाल-दिवस मनाने का निर्णय लिया गया था और अक्टूबर, 1953 में पहली बार एक दर्जन से अधिक देशों ने ‘बाल-दिवस’ मनया, जिसका आयोजन अन्तर्राष्ट्रीय बाल-संघ ने किया था। सन् 1954 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने बाल-दिवस मनाने का प्रस्ताव स्वीकार किया। आज 160 से अधिक देश प्रतिवर्ष बाल-दिवस मनाते हैं। 

यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में 5 वर्ष से कम उम्र के लगभग 8 करोड़ 30 लाख बच्चे कुपोषित जीवन जीने को बाध्य हैं। इससे बड़ा चौंकाने वाला तथ्य यह है कि इनमें अकेले भारत के 6.1 बच्चे शामिल हैं, जोकि देश की कुल जनसंख्या का 48 प्रतिशत बनता है। यह पड़ोसी देश पाकिस्तान (42 प्रतिशत) और बांग्लादेश (43 प्रतिशत) से भी अधिक है। केवल इतना ही नहीं, विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार ऐसे बच्चे जिनका विकास अवरूद्ध हो चुका है, उनमें 34 प्रतिशत बच्चे भारत में है। रिपोर्ट के अनुसार देश में मध्य प्रदेश, बिहार और झारखण्ड में सर्वाधिक कुपोषित बच्चों की संख्या है।

अंतर्राष्ट्रीय आंकड़े बताते हैं कि भूख, गरीबी, शोषण, रोग तथा बाल-दुर्व्यवहार, प्राथमिक स्वास्थ्य व शिक्षण सुविधाओं के मामले में भारत की हालत अत्यन्त दयनीय है। ‘द स्टेट ऑफ वल्डर््स चिल्ड्रन’ नाम से जारी होने वाली यनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक 5 वर्ष की उम्र के बच्चों के मौतो के मामले में भारत विश्व में 49वां स्थान है, जबकि पड़ोसी देशों बांग्लादेश का 58वां और नेपाल का 60वां स्थान है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में प्रतिवर्ष लगभग 2.5 करोड़ बच्चे जन्म लेते हैं और प्रति 1000 बच्चों में से 124 बच्चे 5 वर्ष होने के पूर्व ही, जिनमें से लगभग 20 लाख बच्चे एक वर्ष पूरा होने के पहले ही मौत के मुंह में समा जाते हैं। ये मौतें अधिकतर कुपोषण एवं बिमारियों के कारण ही होती हैं।

एक अन्य अनुमान के अनुसार 43.8 प्रतिशत बच्चे औसत अंश के प्रोटीन ऊर्जा कुपोषण के शिकार हैं और 8.7 प्रतिशत बच्चे भयानक कुपोषण के शिकार हैं। देश में लगभग 60 हजार बच्चे प्रतिवर्ष विटामीन ‘ए’ की कमी के साथ-साथ प्रोटीन ऊर्जा कुपोषण के चलते अन्धेपन का शिकार होने को मजबूर होते हैं। इसके साथ ही पिछले कुछ समय से बच्चे बड़ी संख्या में एड्स जैसी महामारी की चपेट में भी आने लगे हैं। वर्ष 1996 में 8 लाख 30 हजार बच्चे एड्स के शिकार मिले और एड्स के कारण मरने वाले 3.5 लाख बच्चों की उम्र पन्द्रह वर्ष से कम थी।

देश में मातृ-मृत्यु दर के आंकड़े भी बड़े चाैंकाने वाले हैं। यूनिसेफ के अनुसार वर्ष 1995-2003 के दौरान भारत में प्रति लाख जीवित जन्मों पर 540 मातृ-मृत्यु दर थी। रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया में प्रतिवर्ष लगभग 5.30 लाख माताएं प्रसव के दौरान मर जाती हैं और भारत में लगभग एक लाख माताएं प्रसव के दौरान प्रतिवर्ष मृत्यु का शिकार हो जाती हैं। लगभग 90 प्रतिशत महिलाएं खून की कमी का शिकार होती हैं और 56 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं अपने गर्भावस्था के तीसरे चरण में आयरन की कमी से ग्रसित होती हैं। यह भी बड़ी विडम्बना का विषय है कि दुनिया में भारत देश में ही सर्वाधिक बाल मजदूरों की संख्या सामने आई है। देश के लिए सबसे बड़ी शर्मनाक बात तो यह सामने आई कि लगभग 5 लाख मासूम बच्चे मुम्बई, कोलकाता, दिल्ली, हैदराबाद, कानपुर , चेन्नई जैसे महानगरों में सड़कों पर ही जीवन जीने को बाध्य हैं।

शिक्षा के मामले में भी देश में बच्चों की स्थिति बेहतर नहीं है। आंकड़े बतलाते हैं कि देश की 40 प्रतिशत बस्तियों में तो स्कूल ही नहीं हैं और देश के लगभग 48 फीसदी बच्चे प्राथमिक स्कूलों से अछूते हैं। केवल इतना ही नहीं, देश में 6 से 14 साल की लड़कियों में से 50 प्रतिशत स्कूल बीच में ही छोड़ने के लिए बाध्य होती हैं।

भारत में बाल अपराधों के मामलों में भी तेजी से इजाफा होता चला जा रहा है। बच्चों के बीड़ी, सिगरेट, शराब, चोरी, झूठ, मार-पिटाई, कत्ल, स्कूल से गायब होना, वाहन चोरी, मोबाईल चोरी, अपहरण जैसे अपराधिक मामलों में बच्चों की भारी संख्या में उपस्थिति दर्ज हो रही है। सन् 1991 में कुल 29,591 बाल-अभियुक्त विभिन्न अपराधों के दोषों के तहत विवेचित किए गए, जिनमें 23,201 लडके और 6,390 लड़कियां शामिल थीं। इनमें अधिकतर बाल-अभियुक्त सेंधमारी, चोरी, दंगा, मद्यपान, जुआ और आबकारी के आपराधिक मामलों में संलिप्त थे। वर्ष 2007 में कुल 34,527 बाल-अपराध मामले दर्ज हुए, जिनमें 32,671 लड़के और 1,856 लड़कियां शामिल थीं।

देश में बाल शोषण के तेजी से बढ़ते मामले भी बेहद चौंकाने लगे हैं। मार्च, 2007 में गठित राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग को प्राप्त शिकायतों के तहत वर्ष 2007-08 में 35, वर्ष 2008 में 115 और वर्ष 2009-10 में कुल 222 मामले प्रकाश में आए। सबसे बड़ी ह्दयविदारक तथ्य यह है कि देश में बड़ी संख्या में मासूम बच्चों का यौन शोषण जैसे भयंकर अत्याचार का सामना भी करना पड़ता है। समाजशास्त्रियों के अनुसार बालक और बालिका श्रमिकों का यौन-शोषण मालिकों, ठेकेदारों, एजेन्टों, सहकर्मियों, अपराधियों आदि द्वारा इसीलिए किया जाता है, ताकि वे उनके अन्दर इस कद्र भय पैदा हो जाए, जिससे वे किसी भी तरह के शोषण के खिलाफ आवाज ही न उठा सकें। 

देश में बाल कन्याओं पर होने वाले अत्याचार तो रूह कंपाने वाले हैं। ‘स्टेटिस्टिस्टिक्स ऑन चिल्डेªन इन इण्डिया (1996)’ के आंकड़ों के अनुसार देश में सबसे ज्यादा शिशुओं की हत्या महाराष्ट्र (37.4 प्रतिशत) में, इसके बाद बिहार (17.6 प्रतिशत) व मध्य प्रदेश (14 प्रतिशत) होती हैं। इनमें मासूम बच्चियों की संख्या ज्यादा होती है। इसके साथ ही देश में होने वाली भ्रूण हत्याओं में भी कन्याओं की ही संख्या ज्यादा होती है। भू्रण हत्या के मामले में महाराष्ट्र (37.8 प्रतिशत) तथा मध्य प्रदेश (37.8 प्रतिशत) पहले स्थान पर और उसके बाद गुजरात (13.3 प्रतिशत) व राजस्थान (8.9 प्रतिशत) का स्थान था। अबोध बच्चियों की बिक्री के मामले में बिहार (33.5 प्रतिशत) पहले और उसके बाद महाराष्ट्र (21.8 प्रतिशत) व गुजरात (13.1 प्रतिशत) का स्थान था। वेश्यावृति के लिए होने वाली बच्चियों की बिक्री के मामलों में दिल्ली (44.2 प्रतिशत) पहले स्थान, इसके बाद आन्ध्र प्रदेश (23.5 प्रतिशत) व बिहार (13.7 प्रतिशत) का स्थान दर्ज हुआ।

सबसे बड़ी चाैंकाने वाली बात यह है कि राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय बाल-श्रम उन्मूलन नीतियों की मौजूदगी में देश में गैर-कानून तरीके से बच्चों से जोखिमपूर्ण व खतरनाक उद्योगों एवं उत्पादन की प्रक्रियाओं में काम लिया जा रहा है, जिसके कारण वे नाना प्रकार की बीमारियों का सहज शिकार हो रहे हैं। मासूम बच्चे गरीबी व अन्य कई प्रकार की लाचारियों के चलते शीशा सम्बंधी कार्यो, ईंट भठ्ठा, पीतल बर्तन निर्माण, बीड़ी उद्योग, हस्तकरघा एवं पॉवरलूम, जरी एवं कढ़ाई, रूबी एवं हीरा कटाई, रद्दी चुनने, माचिस पटाखा उद्योग, कृषि उद्योग, स्लेट उद्योग, चूड़ी उद्योग, मिट्टी-बर्तन निर्माण, पत्थर एवं स्लेट खनन, गुब्बारा उद्योग, कालीन उद्योग, ताला उद्योग जैसे खतरनाक कायों में संलंग्र बाल-श्रमिक निरन्तर दमा, जलन, नेत्रदोष, तपेदिक, सिलिकोसिस, ऐंठन, अपंगता, श्वास, चर्म, संक्रमण, टेटनस, श्वासनली-शोथ, खांसी, कैंसर, बुखार, निमोनिया जैसे रोगों का शिकार होने के साथ अन्य कई भयंकर दुर्घटनाओं के भी शिकार हो रहे हैं।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत देश में अधिकतर बच्चों की दयनीय व चिन्तनीय दशा बनी हुई है। बड़ी संख्या में बच्चे अत्यन्त अभावग्रस्त एवं अभिशप्त जीवन जीने के लिए बाध्य हैं। अनेक बच्चे दिहाड़ी, मजदूरी, बन्धुआ मजदूरी, होटल, रेस्तरां और घरों व दफ्तरों में चन्द रूपयों के बदले नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं। देश में कई ऐसे बड़े-बड़े गिरोह सक्रिय हैं, जो बच्चों से जबरदस्ती अनैतिक, असामाजिक व आपराधिक काम करवाते हैं। जो बच्चे उनके इशारों पर काम नहीं करते, उन्हें अपंग तक बना दिया जाता है। फूटपाथी जीवन जीने वाले, रद्दी-कूड़ा बीनकर गुजारा करने वाले और भीख मांगकर रोटी खाने वाले बच्चों की त्रासदी तो रूह कंपाने वाली है। बहुत बड़ी संख्या में मासूम बच्चे अपने परिवार वालों की गरीबी, लाचारी और उपेक्षा के साथ-साथ अय्यासी, नशाखोरी व कामचोरी जैसी कई अन्य लतों का खामियाजा अपना अनमोल बचपन और भावी जीवन अंधकारमय बनाकर चुका रहे हैं।

हालांकि देश में बच्चों पर होने वाले अत्याचारों व शोषणों पर अंकुश लगाने के लिए दो दर्जन से अधिक कानून के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों के अनुरूप नियम एवं कानून लागू किए गए हैं, लेकिन उन पर गम्भीतापूर्वक अमल में नहीं लाए जाते, जिनके चलते ये बाल-स्थिति में सुधार होने के बजाय समस्या निरन्तर गम्भीर से गम्भीरतम होती चली जा रही है। यदि सरकार व समाज गंभीरतापूर्वक अपने नैतिक, मानवीय व सामाजिक दायित्वों के निर्वहन करने के साथ-साथ कानूनों का भी भलीभांति पालन करे और कल के कर्णधारों का अच्छा भविष्य सुनिश्चित करने का संकल्प ले तो निश्चित तौर पर हमारे देश व समाज का भविष्य भी अत्यन्त उज्ज्वल होगा। 


Thursday 20 February 2014

क्या सरकार चलाने के मूड में थे केजरीवाल

अतुल मोहन सिंह 
अरविंद केजरीवाल ने जब मुख्यमंत्री पद संभाला था तो कहा था कि यह बदलाव का शाशन होगा, बहरहाल 50 दिनों तक भी नहीं चला। 14 फरवरी, 2014 को केजरीवाल ने तब इस्तीफा दे दिया जब सरकार दिल्ली सभा में जनलोकपाल बिल लाने में असमर्थ रही। जहाँ पर विपक्ष से इस बिल को बिलकुल भी समर्थन नहीं मिला। बीजेपी और कांग्रेस के तर्क के अनुसार उन्हें बिल को पढ़ने के लिए समय चाहिए था, इससे पहले कि वह उस पर वाद विवाद या वोट करते। आप के नेताओं ने उनसे उसी दिन वाद विवाद या उसके बिना वोट करने को कहा जिसका नतीजा यह निकला कि सभा के ज़्यादातर सदस्यों ने इसके खिलाफ वोट किया। 

क्या दिल्ली सरकार को नहीं चलाने का जनलोकपाल एक अच्छा बहाना था? 
अरविन्द केजरीवाल को इस्तीफा देने का एक बहाना मिल गया ताकि वह अपने आप को दिल्ली सरकार को चलाने से बचा सकें जो उनके लिए एक चुनौती की तरह उभर कर आने लगा था। यह माना जा रहा है कि सामान्य चुनाव आने में सिर्फ तीन महीने रह गए हैं और यह केजरीवाल द्वारा रचा एक खेल है ताकि वह भागने का तरीका निकाल पाएं और उस भूमिका को निभाएं जहाँ वह सहज महसूस करते हैं। और वह है सड़कों पर राजनीति और आंदोलन। 

लोग केजरीवाल से क्या उम्मीद लगाए बैठे थे? 
करीब डेढ़ महीने पहले जब शीला दीक्षित को भारी मतों से हरा कर अरविंद केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी तो लोगों की इनसे उम्मीदें बंध गयी थीं। उम्मीद थी कि दिल्ली की चिरस्थायी समस्या जैसे बिजली और पानी की कमी और जुर्म और महिलाओं की सुरक्षा के मुद्दे को ध्यान में रखकर यह सरकार काम करेगी। यह भी उम्मीद थी कि लोगों के लिए घर वहन योग्य होगा और पुराने नियम जैसे ऊँची इमारतों के बनने पर रोक में सुधार आयेगा। यही नहीं यह उम्मीद थी कि दिल्ली की औद्योगिक अर्थव्यवस्था एक अलग स्तर पर पहुँच जायेगी और इमारतों के विकास और अनुयोजकता में असर दिखेगा। हालांकि, इन सभी में दूरदर्शिता और समय और दिमाग लगाने की ज़रुरत थी। उनकी दूरदृष्टि के सवाल का जवाब नहीं दिया जा सकता पर केजरीवाल के पास निश्चित ही समय नहीं था। वह सब जल्दबाज़ी में करना चाहते थे और आने वाले आम चुनाव के पहले ही अपना लोहा मनवा लेना चाहते थे। 

सरकार विरोधी धर्मयोद्धा जो रहा एक जूझता हुआ मुख्य मंत्री 
सत्ता में आने के कुछ दिनों के बाद ही उन्होंने यह महसूस किया कि आंदोलन करना एक बात है और शाशन करना दूसरी। शाशन करना और शाशन में बदलाव लाने के लिए धैर्य की ज़रुरत होती है जो उनमें बिल्कुल भी नहीं थी। उन्होंने यह महसूस किया कि यह मुख्य मंत्री के बस में नहीं है कि वह बिजली के दाम कम कर दे क्योंकि इसके लिए एक बिजली नियंत्रक समिति है। इसलिए इसका उपाय था जांचा परखा हुआ आर्थिक सहायता देने का रास्ता, राजस्व सम्बन्धी समझदारी पर ध्यान नहीं देते हुए उन्होंने यह साबित कर दिया कि जब लोकवाद की बात आती है तो वह किसी से अलग नहीं। पर निर्वाचक वर्ग बिजली और पानी पर दिए गए अनुदान से भी खुश नहीं था क्योंकि उन्हें और मुफ्त उपहार चाहिए था जो लोकवाद की एक जगजाहिर समस्या है। जब उनके एक एमएलए को वोटरों ने थप्पड़ मारा क्यूंकि वह उन लोगों को पानी में अनुदान नहीं दिला पाया जिनके पास मीटर नहीं लगा था, तब केजरीवाल को पता चल गया कि वास्तव में तब क्या हाल होगा जब जल्द ही दिल्ली में गर्मियां आ जाएंगी जब यहाँ की आबादी बिजली और पानी की किल्लत से जूझती है। एक तरफ उन्होंने बड़े बड़े वादे किये थे और दूसरी तरफ बिजली बांटने वाली कंपनी एनटीपीसी द्वारा प्राप्त बिजली का भुगतान नहीं कर पा रही थी, इस सब का बीड़ा केजरीवाल को ही उठाना पड़ता।

क्या वह अच्छे शाशन व्यवस्था को कायम करने के लिए गंभीर थे?
विधि मंत्री सोमनाथ भारती का स्पैमिंग में निर्लिप्त होना और गणतंत्र दिवस से पहले दिल्ली पुलिस से विवाद में धरने पर बैठने के बाद भी सही नतीज़े नहीं आने पर केजरीवाल को इससे बाहर आने का एक उपाय चाहिए था और जनलोकपाल बिल एक अच्छा तरीका बनकर सामने आया। कुछ उपयुक्त सवाल अभी तक अनुत्तरित हैं। अगर केजरीवाल जनलोकपाल बिल को लेकर इतने ही गंभीर थे तो वह गवर्नर की स्वीकृति के लिए भी क्यों नहीं रुके? अंत समय तक बिल की विषय सूची को गुप्त रखने की और बिल के मेज पर न आने तक सभा में ना बताने की क्या ज़रुरत थी? श्री श्री रविशंकर के ट्वीट के अनुसार, "अरविन्द को इस्तीफा नहीं देना चाहिए था। वह कुछ मंत्रियों को जेल में डाल सकते थे। इसके लिए कई नियम बने हुए हैं।" जिससे यह साफ जाहिर होता है कि कई लोग इस इस्तीफे को उनकी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ने के रूप में ले रहे हैं। हालांकि उनकी सरकार के खिलाफ कोई नो-कॉन्फिडेंस मोशन पास नहीं किया गया। 

क्या उन्होंने दिल्ली के लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है? 
केजरीवाल ने भले एक बहुत बड़ा दांव लगाया है, समय ही बता पायेगा कि यह कितना सही साबित होता है या इसकी उल्टी प्रतिक्रिया होगी। उन्होंने गवर्नर से सभा को भंग करने की मांग भी की है। क्या इसका यह मतलब है कि उन्हें यह डर था कि उनके कई पहली बार सदस्यता पाने वाले एमएलए अपनी निस्ठा बदल देंगे? हालांकि यह तभी होगा जब बीजेपी सरकार बनाने में रूचि रखती हो। पर बड़ा सवाल यह है कि क्या केजरीवाल फिर से दिल्ली के विधान सभा चुनाव में हिस्सा लेंगे। क्या वह फिर से 'आप' के मुख्य मंत्री के उम्मीदवार की तरह खड़े होंगे और जनादेश की मांग करेंगे या फिर केजरीवाल अब दिल्ली विधान सभा चुनाव में रूचि नहीं रखते पर वह सिर्फ लोक सभा चुनाव के बारे में सोच रहे हैं? और अगर ऐसा है तो उनका दिल्ली में सरकार बनाने के पीछे क्या मकसद था? क्या यह सोची समझी साजिश थी? क्या कांग्रेस भी इस साजिश में मिली हुई थी? क्या इसमें केजरीवाल को सेंटर स्टेज पर लाने की साजिश थी ताकि एंटी-कांग्रेस वोट को बांटा जा सके? क्या इस बात की साजिश की गई और निश्चित किया गया कि जनलोकपाल बिल को पास नहीं होने दिया जाए? 'आप' एमएलए विनोद कुमार बिन्नी ने यह आरोप लगाया है कि 'आप' द्वारा जनलोकपाल को पारित करने की कभी कोशिश नहीं की गयी। उनके शब्दों में: "अरविंद केजरीवाल कभी भी जनलोकपाल को पारित नहीं करवाना चाहते थे। वह जनलोकपाल पर चल रही राजनीति को ज़िंदा रहने देना चाहते हैं और इसलिए इसे सुलझने नहीं देना चाहते। अगर वह इसके लिए ईमानदार होते तो इसे पारित करने के लिए जी जान लगा देते। उन्हें यह नौटंकी चाहिए थी।" लोग इस बात पर सवाल करने पर मजबूर हो जाते हैं कि क्या केजरीवाल कभी दिल्ली सरकार को चलाने को लेकर गंभीर थे। क्या सरकार बनाने की ज़रुरत सच में थी अगर वह इस्तीफा देने की ही सोच रहे थे? बिल को पारित करवाने के लिए आंदोलन क्यों नहीं किया गया? केंद्र और राज्य सरकार के बीच हमेशा से मतभेद रहे हैं पर कभी भी पदधारी सरकार ने सनक में और उत्तेजना में आकर पद का त्याग नहीं किया है।

क्या यह जनलोकपाल बिल के लिए था या आने वाले लोक सभा चुनाव के लिए? 
यह साफ है कि अब अरविन्द केजरीवाल लोक सभा चुनाव पर ध्यान केंद्रित कर पाएंगे और दिल्ली की समस्या उन्हें परेशान नहीं करेगी। यह भी साफ है कि इस पूरे मामले को पूंजीवाद विरोधी आंदोलन बनाने की एक गहरी साजिश चल रही है जिसमें शातिर तरीके से अम्बानी और अदानी को फंसा दिया गया है। कोई अरविन्द केजरीवाल को बताओ कि भले ही भारत भ्रष्टाचार से लड़ना चाहता है पर वह समाजवाद के उस दौर में नहीं पहुंचना चाहता जहाँ पर गैर सरकारी पूँजी और उद्योग उपक्रम नहीं थे। भारत यह चाहता है कि उद्योगपति काम को उत्पन्न करें ताकि अर्थव्यवस्था को लाभ हो। अंत में वह केजरीवाल और मेधा पाटकर नहीं होंगे पर उद्योगपति होंगे जो भारत के लाखों पढ़े लिखे युवाओं को नौकरी देंगे। गैस के दामों को लेकर विवाद से लड़ने का यह मतलब नहीं कि भारत उद्योग से पूरी तरह से दूर हो जाएगा। 

क्या उन्होंने अपने राजनितिक जीवन की सबसे बड़ी गलती की है? 
हालांकि नौटंकी अभी भी जारी है और दिल्ली सरकार को स्थगित कर दिया गया है, यह तय है कि केजरीवाल अपने निर्वाचक वर्ग की तरफ अपनी कहानी लेकर जायेंगे। यह भी संभव है कि उनको चाहने वाले अभी भी उनकी तरफदारी करेंगे पर सवाल यह उठता है कि ज्यादातर पढ़े लिखे और काम करने वाले लोग और व्यवसाय करने वाले लोग कैसा बर्ताव करेंगे। क्या वह फिर से उनकी कहानी पर विश्वास करेंगे? क्या अरविन्द केजरीवाल अंत में इस बात का अफसोस करेंगे कि उन्होंने दिल्ली पर 60 महीने शाशन करने का सुनहरा मौक़ा खो दिया जिसमें वह अपनी पार्टी और दूसरों के लिए एक मिसाल कायम कर सकते थे। अब समय ही बता पायेगा कि क्या अरविन्द केजरीवाल इस मुहावरे 'कायर कभी जीतते नहीं और जीतने वाले कभी कायर नहीं होते' का उदाहरण बनकर उभरेंगे। दिल्ली शापित हो चुकी है।

संसद से सड़क अराजकता की ओर


डा. विनोद बब्बर
कुछ वर्ष पूर्व एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन मंे उपस्थित पाकिस्तानी मूल के एक विद्वान ने आपसी चर्चा में कहा था, ‘हिन्दुस्तान और पाकिस्तान कभी एक थे लेकिन आज दोनो में बहुत फर्क है। भारत ने कानून के शासन की दिशा चुनी लेकिन ‘पाक स्थान’ अराजकता की राह पर चलते हुए बर्बादी के कगार पर है।’ लेकिन गत दिवस तेलंगाना के मुद्दे पर संसद में उग्र व्यवहार, दल के सदस्यों के अतिरिक्त मंत्री द्वारा अपना रेल बजट भाषण छोडकर हंगामें में शामिल होना, संसद परिसर में गाली-गलौज तक की नौबत, दिल्ली से कांग्रेसी सांसद संदीप दीक्षित द्वारा विपक्षी सांसदों को ‘देखता हूं कैसे दिल्ली में रहते हो’ की धमकीें अभूतपूर्व अपराधिक तरीके से मिर्च स्प्रे का छिड़काव, हाथापायी, दबंगता, अनेक सांसदों को अस्पताल ले जाये जाने के दृश्यों के बाद तेलंगाना बिल को पास कराने के लिए लोकसभा कार्यवाही का सीधा प्रसारण रोकने और सारे दरवाजे बंद करने मानो कोई आपातकालीन संकट की स्थिति हो की चर्चा करते हुए पूछा, ‘अराजकता क्या होती है? क्या हम अराजक हैं?’ तो पुरानी यादें ताजा हो उठी। ‘नियम-कानून को न मानते हुए अपनी मनमानी चलाना अराजकता है। रेड लाइट हमारी सुविधा और सुरक्षा के लिए होती है लेकिन उसकी परवाह किये बिना आगे बढ़ना अराजक और खतरनाक होता है। कोई भी इस तरह आजाद नहीं हो सकता कि वह किसी दूसरे को नुकसान पहुंचाये। अराजकता हमेशा गुलामी या विनाश की ओर ले जाती है। आजादी का अर्थ ऐसा कर्म और चिंतन है जो समूचे समाज को, देश को लाभ पहुंचा सके।’ इतना कह कर उस छात्र से तो छुट्टी पा ली लेकिन मन- मस्तिष्क बेचौन हो उठा क्योंकि यही एकमात्र घटना नहीं है जो अराजकता का प्रमाण हो। स्वयं को ‘एकमात्र’ ईमानदार राजनेता बताने वाले एक अभूतपूर्व मुख्यमंत्री तो स्वयं के आचरण से न केवल स्वयं को अराजक सिद्ध कर चुके हैं बल्कि गर्व से स्वयं को अराजक भी घोषित करते हैं।
भाषायी संयम का न रहना यदि अराजकता है तो हमें देखना पड़ेगा आजकल शब्दों का जहर घोला जा रहा है। राहुल गांधी ने कहा है कि नरेंद्र मोदी को जहरीली विचारधारा का प्रतिनिधि बताये जाने और सोनिया गांधी द्वारा ‘जहर की खेती’ जैसे जुमले प्रयोग करने पर भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी कम नहीं है। उन्होंने पलटवार करते हुए कहा कि कांग्रेस ने जहर बोया है और विभाजनकारी राजनीति के जरिए वही फसल काट रही है। इतना ही क्यों, वरिष्ठ कांग्रेसी नेता मणिश्ंाकर अय्यर ने मोदी का उपहास करते हुए उन्हें ‘चाय बेचने वाला’ करार दिया तो मोदी ने इसी को मुद्दा बनाते हुए स्वयं को गरीब चाय वाले के रूप में प्रस्तुत करना शुरू किया जिसे व्यापक समर्थन मिलता देख राहुल गांधी ने चुटकी लेते हुए कहा, ‘कुछ लोग चाय बनाते हैं, कुछ टैक्सी चलाते हैं, कुछ खेती का काम करते हैं. हमें चाय विक्रेता, किसानों और श्रमिकों, हर व्यक्ति का सम्मान करना चाहिए. लेकिन जो लोगों को उल्लू बनाता हो उसका सम्मान नहीं किया जाना चाहिए।’ आम आदमी के प्रतिनिधि होने का दावा करने वाली पार्टी के वरिष्ठ नेता योगेंद्र यादव ‘मोदी की चाय मीठी है या जहरीली?’ और जदयू प्रवक्ताता केसी त्यागी ‘जहरीली चाय बेचने वाले व्यक्ति को प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहिए’ कह कर आखिर किस भाषा और संस्कृति का परिचय दे रहे है? क्या शालीनता के त्याग को अराजकता माना जाए या नहीं?
एक जनप्रतिनिधि से सद् आचरण की आपेक्षा की जाती है। जब कोई सार्वजनिक जीवन में आना चाहता है तो उसे समझ लेना चाहिए कि उसकी हर हरकत पर दूसरों की नजर होगी। उसका आचरण दूसरों के लिए भी उदाहरण बनता है। जन-जीवन शासक के शब्द, व्यवहार और संकेतों से प्रेरणा लेते हुए उसी के अनुरूप व्यवहार भी करता है। श्रीमद्भागवत् गीता के तीसरे अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में में श्रीकृष्ण अर्जुन को संबोधित करते हुए कहते हैं-यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुचर्तते। इसलिए शासक का सबसे महत्वपूर्ण दायित्व ही है ‘सु-आचरण’। एक शासक ही जब स्थापित मूल्यों एवं संस्थागत -नीतियों का उल्लंघन करता दिखेगा तब तो स्वाभाविक ही है कि उसकी अनुगामी जनता भी वैसा ही आचरण करेगी जिससे अराजकता और असमंजस की स्थितियों की उत्पति होगी।
आज सत्ता का नशा सिर चढ़ बोल रहा है। सत्ता के ईद-गिर्द रहने वाले तक आकर्षण का केन्द्र बन रहे हैं। जिसे देखों वहीं राजनीति में आने के लिए मचल रहा है क्योंकि उसके लिए किसी योग्यता की आवश्यकता नहीं लेकिन समाज उनसे सद्व्यवहार की आपेक्षा तो अवश्य कर सकता है। आखिर सत्ता से शक्ति पाये लोग ही समाज की मर्यादाओं को पैरों तले रौंदेगे तो दूसरों को गलती करने से रोकने का नैतिक बल कहाँ से लाएगें?
आज सत्ता के लिए अनैतिकता की हद पार करना राजनीति का चरित्र बन चुका है। ऐसे में यक्ष प्रश्न यह है कि देश को अराजकता की दिशा में आगे बढ़ने से रोकने की जिम्मेवारी कौन निभायेगा?स्वयम्भू ईमानदार अरविन्द केजरीवाल जोकि जनलोकपाल के मुद्दे पर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर ईमानदारी के प्रवक्ता बनने को मचल रहे हैं,, उनके गुरु समाजसेवी अन्ना हजारे ने ही उनके इरादों की पोल खोल हुए कहा कि केजरीवाल के दिल में देश और समाज नहीं, बल्कि सत्ता है। अगर जनलोकपाल को लेकर कोई संवैधानिक मजबूरी थी, तो केजरीवाल को बीजेपी-कांग्रेस के साथ बैठकर इसे सुलझाना चाहिए था। यही नही ‘आप’ के संस्थापक प्रशांत भूषण कश्मीर में जनमत संग्रह की मांग करते हैं। उनका नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से सेना हटाने की मांग करना अराजकता की प्रकाष्ठा है या नहीं? वोटों के लिए स्वयं को पाकिस्तान की एजेंसी आई.एस.आई का एजेंट बताने वाले बुखारी और बरेली के कट्टर मौलाना की खुशामद करना धर्मनिरपेक्षता और दूसरे सम्प्रदाय की बात करने वाले गलत। तुष्टीकरण को धर्मनिरपेक्षता और बहुमत के हितों की उपेक्षा का विरोध सांप्रदायिकता बताने को अराजकता के अतिरिक्त किस श्रेणी में रखा जा सकता है?
स्पष्ट हीै कि केजरीवाल की अराजकता अति सक्रियता का परिणाम है परंतु संसद की दुर्घटना कांग्रेस के रहनुमाओं की निष्क्रियता से उपजी अमरबेल है। चुनावों के निकट आकर आज हम जिस अकल्पनीय अराजकता के घेरे में है उसके प्रति संविधान निर्माता और दलित, शोषितों के मसीहा डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने सावधान करते हुए कहा था कि भारत को सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को पाने के लिए क्रांति के रक्तरंजित तरीकों, सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह का रास्ता छोड़ देना चाहिए। जहाँ संवैधानिक रास्ते खुले हों, वहाँ असंवैधानिक तरीकों को सही नहीं ठहराया जा सकता है। ये तरीके और कुछ नहीं केवल अराजकता भर हैं और इन्हें जितना जल्दी छोड़ दिया जाए, हमारे लिए उतना ही बेहतर है.। गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर राष्ट्रपति भी लोकलुभावन अराजकता के प्रति देश की जनता को सावधान कर चुके है क्योंकि एक मुख्यमंत्री का पुलिस के खिलाफ धरना, गणतंत्र दिवस समारोह को बाधित करने की धमकी सारे देश के लिए एक नई चुनौती थी। लोकतंत्र और भीड़-तंत्र के अंतर को बनाये रखने के लिए ही तो संविधान में दंड का प्रावधान किया जाता है। ‘मिस्टर क्लीन’ का यह दावा कि संविधान को पढ़ने के बाद भी उन्हें दिल्ली विधानसभा में विधेयक पेश करने से संबंधित ऐसे किसी नियमों की जानकारी नहीं मिली’ उनकी कुतर्की बृद्धि का परिचायक है। क्या वे नहीं जानते कि सड़क पर बाए चलने सं संबधित कोई लिखित प्रमाण संविधान में नहीं है क्योंकि यह नियम हैै नियम और कानून के सूक्ष्म अंतर को ढ़ाल बनाकर कोई सड़क नियमों का उल्लंघन करे तो समझा जा सकता है कि सड़कों पर किस तरह की अराजकता होगी।
संविधान पर आस्था, लोकतंत्र पर विश्वास, संवैधानिक संस्थाओं का सम्मान और न्याय व्यवस्था पर भरोसा जैसे शब्द अभी भी हमारे देश में काफी मायने रखते हैं। यह सही है कि सरकार की गलत नीतियों के विरूद्ध जनजागरण करना हर दल का अधिकार है लेकिन संविधान द्वारा स्थापित परम्पराओं का उपहास करते हुए राजनैतिक लाभ लेने की प्रवृति खतरनाक है। ऐसी मानसिकता बेशक तात्कालिक रूप में ‘सुर्खियां’ बटोर ले लेकिन कालांतर में यह सब अपने ही पैरों की बेडि़या बनती है जैसाकि बात-बात पर धरना देनी ‘आप’ आदत उस समय भारी पड़ने लगी जब वायदें पूरे करवाने के लिए दूसरे उनके विरूद्ध धरने पर धरना देने लगें। स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है लेकिन ‘सुराज’ भी आवश्यक है। सुराज के बिना विकास का कोई अर्थ नहीं हो सकता। सुराज व्यवस्था और अनुशासन का पर्याय माना जाता है तो अव्यवस्था ‘अराजकता’ की सहोदर। यहाँ यह स्मरणीय है कि स्वतंत्रता के नाम पर संविधान का अपमान, हिंसा, नक्सलवाद, अलगाववाद कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। किसी जीव को केवल शारीरिक कष्ट पहुंचाना नहीं है, बल्कि आचरण एवं वाणी द्वारा किसी को कष्ट पहुंचाना भी ‘हिंसा’ की श्रेणी में ही आता है।
लोकतंत्र में मत भिन्नता की सदैव गुंजाइश रहती है लेकिन अराजकता और आतंक सड़क से संसद तक हर जगह खतरनाक है। आखिर अलग राज्य का बिल पास कराते समय अपारदर्शी ढंग से कार्य करना किस तरह नैतिक कहा जा सकता है। आम सहमति का मार्ग असफल हो जाने पर बहुमत की राय का आदर क्यों नहीं, इस पर चिंतन आवश्यक है ताकि भविष्य में कभी भी हमारी तुलना असफल लोकतंत्र के रूप में न हो। कांग्रेस का चुनावी पोस्टर भी ‘अराजकता नहीं, प्रशासन सुधार’ की बात करता है तो उसके नेतृत्व वाली सरकार के रहते अराजकता का रहना उसकी नीति से अधिक नियत पर प्रश्न चिन्ह है। वैसे असहमति का स्वर कोई नई बात नहीं है। सुप्रसिद्ध कवि धूमिल अपनी बहुचर्चित कविता ‘सड़क से संसद तक’ में कहा हैं-
वे सब के सब तिजोरियों के दुभाषिये हैं
वे वकील हैं। वैज्ञानिक हैं।
अध्यापक हैं, नेता है, दार्शनिक हैं।
लेखक हैं, कवि हैं, कलाकार हैं। यानी-
कानून की भाषा बोलता हुआ
अपराधियों का संयुक्त परिवार है।

केजरीवाल का इस्तीफा, उनकी कमजोरी या सीनाजोरी?


डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने १४ फरवरी को अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था। दरअसल सोनिया गान्धी की पार्टी ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाया ही त्यागपत्र देने के लिये था। होमियोपैथी में किसी दवाई की ताकत बढ़ाने के लिये उसकी पोटेन्सी बढ़ानी पड़ती है, तभी वह मरीज के लिये कारागार सिद्ध हो सकती है। केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनाना भी उसी रणनीति का हिस्सा था और उसका त्यागपत्र देना भी उसी का दूसरा हिस्सा है। केजरीवाल नाम की जिस दवाई का इस्तेमाल किया जा रहा है, उस की जाँच करने से पहले यह समझ लेना भी लाभदायक है कि इस पूरे घटनाक्रम में बीमार कौन है और उसे क्या बीमारी है ? इसमें कोई दो राय नहीं कि बीमार तो सोनिया गान्धी की पार्टी और उसको चलाने वाला कोर ग्रुप ही है। हाथ से रेत की तरह जब सत्ता फिसलती दिखाई देती हो, तो उस वक्त जो बीमारी लगती है, उसी की शिकार सोनिया गान्धी की पार्टी है। लेकिन सोनिया गान्धी की पार्टी का इलाज करने वाले डाक्टर समझ चुके हैं कि चुनावों में इतना कम समय रह गया है कि इतने कम समय में इस पार्टी को स्वास्थ्य करना संभव नहीं है। इसलिये आम आदमी पार्टी के नाम से मार्केट में नई दवाई लाँच की गई है, जो सोनिया गान्धी की पार्टी का स्थान लेने के लिये तेजी से आगे बढ़ रही दूसरी पार्टी को कम से कम कुछ समय के लिये रोक ले। सोनिया गान्धी की पार्टी के स्थान पर आगे बढ़ रही भाजपा को रोक देने में यदि आम आदमी पार्टी नाम की यह होमियोपैथी गोली कुछ सीमा तक भी कामयाब हो जाती है तो समझ लेना चाहिये कि अमेरिका के फोर्ड फाऊंडेशन की सहायता से तैयार की इस नई दवाई ने अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त कर ली है। लेकिन ऐन मौके पर दवाई कहीं फुस्स न हो जाये इस लिये इसकी पोटैन्सी बढ़ाते रहना जरुरी है।
राष्ट्रवादी ताकतों को कमजोर करने लिये अरविन्द केजरीवाल की उपयोगिता सोनिया गान्धी की पार्टी के साथ मिल कर भी है और उससे अलग रह कर भी ।लेकिन सोनिया गान्धी की पार्टी इस के साथ साथ एक दूसरे एजेंडा पर भी चल रही प्रतीत होती है। यदि हर हालत में उसे सत्ता से हटना ही पड़ता है तो वह ऐसी स्थिति पैदा कर देना चाहती है कि देश में अराजकता फैल जाये। पिछले दिनों तेलंगाना को लेकर लोकसभा में कांग्रेस के मंत्रियों ने जो व्यवहार किया और सदन में काली मिर्चों की बरसात की उससे पार्टी के हिडन एजेंडा का अन्दाजा लगाया जा सकता है। राज्यों का पुनर्गठन इससे पहले भी होता रहा है। लेकिन पूरी योजना से आन्ध्र प्रदेश के दो क्षेत्रों के लोगों के मन में एक दूसरे के प्रति स्थाई जहर घोलने का काम शायद सोनिया गान्धी की पार्टी ने ही किया है। यह सोनिया गान्धी और उनकी पार्टी चला रहे गिने चुने लोगों का इस देश में काम करने का तरीका है। इस से देश को कितना नुकसान हो रहा है ,उसका सहज ही अनुमान सीमान्ध्र और तेलंगाना की घटनाओं को देखकर लगाया जा सकता है। क्या देश को अराजकता की ओर ले जाने और सांविधानिक संस्थाओं को नपुंसक बनाने की तैयारी हो रही है ? इस तैयारी का दूसरा सिरा अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी से जुड़ता है। अरविन्द केजरीवाल को सोनिया गान्धी के लोगों द्वारा दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाने से लेकर १४ फरवरी २०१४ को मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देने तक के ४८ दिन के क्रियाकलाप इस का प्रमाण हैं। मुख्यमंत्री द्वारा केन्द्र सरकार के खिलाफ धरना दिया जाना तो उसका छोटा सा हिस्सा है। जनलोकपाल को लेकर केजरीवाल त्यागपत्र देंगे, यह सोनिया गान्धी को उस दिन भी पता था, जिस दिन उन्हें मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला कर, कांग्रेस की बैंड पार्टी दिल्ली में भंगडा डाल रही थी। जब केजरीवाल सारी लोकलाज को भूल कर सफेद झूठ बोल रहे थे कि उन्होंने अपने जनलोकपाल के बारे में देश के नामी विधि विशेषज्ञों की राय ले ली है और वे सभी विधि विशेषज्ञ अगले ही क्षण केजरीवाल के झूठ को नंगा कर रहे थे, तब भी सब जानते थे कि केजरीवाल की रुचि जनलोकपाल को लेकर उतनी नहीं है जितनी देश की सांविधानिक संस्थाओं पर अन्दर से चोट करने की है। बाबा साहेब अम्बेडकर ने छह दशक पहले ही ऐसे लोगों को लेकर चेतावनी दे दी थी। केजरीवाल दिल्ली विधानसभा में बिल प्रस्तुत करने की निर्धारित प्रक्रिया को जानबूझकर छोड़ रहे थे, ताकि बिल पेश करने से पहले ही हंगामा हो जाये। वे इस पूरे नाटक में शहीद का रुतवा प्राप्त करना चाहते थे और सोनिया गान्धी की पार्टी उन्हें यह रुतवा प्रदान करने में हर संभव सहायता कर रही थी। क्योंकि नरेन्द्र मोदी के रथ को रोकने का अब यही अंतिम प्रयास हो सकता था। केजरीवाल यह काम कर सकें, इस लिये पहले उनको मुख्यमंत्री बना कर उनका कद बड़ा करने की जरुरत थी, सोनिया गान्धी ने यह किया। लेकिन जिस बड़ी लड़ाई के लिये उन्हें तैयार किया जा रहा है, उसमें इतने से काम होने वाला नहीं है, यह सोनिया गान्धी भी जानती हैं और उनके नीति निर्धारित भी। उसके लिये केजरीवाल के लिये शहादत और त्याग का चोगा पहनना भी जरुरी समझा गया। दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देकर केजरीवाल ने वही चोगा पहनने का प्रयास किया है और उसके तुरन्त बाद अपने दफ्तर की खिड़की में खड़े होकर चीख लगाई है-अब मोदी की बारी है। मोदी की बारी यानि मोदी के हारने की बारी। लेकिन केजरीवाल को भी शायद पता था कि राजनीति में बह रही हवा को देखते हुये खिड़की के नीचे टोपियाँ पहन कर खड़े उनके अपने कार्यकर्ता भी शायद यह कहने का विश्वास नहीं जुटा पायेंगे, इसलिये इससे पहले एक और पंक्ति जोड़ी गई। पहले शीला हारी है-अब मोदी की बारी है । नीचे से किसी टोपी वाले की ही टिप्पणी थी, क्या कुछ ज्यादा ही नहीं बोल रहा ? उत्तर था, जब अन्धे के पैर के नीचे बटोर आ जाये तो चार पाँच महीने तक उसकी हरकतें ऐसी ही रहती हैं।
खिड़की में से चीख मारने के बाद केजरीवाल दिल्ली के लैफ्टीनैंट गवर्नर को दिल्ली विधान सभा भंग करने की सलाह देते हैं। केजरीवाल के पास विधान सभा की 70 सीटों में से कुल मिला कर 27 सीटें हैं और उसी के बलबूते वे विधान सभा भंग करना चाहते हैं। जब उनकी इच्छा पूरी नहीं होती तो उनकी नजर में यह आम जनता का अपमान है। वे विधानसभा का सत्र स्टेडियम में बुलाना चाहते हैं और बिल पास करने में वहाँ एकत्रित भीड़ को भी शामिल करना चाहते हैं। केजरीवाल जानते हैं कि यह लोकतंत्र नहीं भीडतंत्र है। लेकिन उनका मकसद भी इसी भीडतंत्र को आगे करके अराजकता फैलाना है। पूछा जा सकता है, वे ऐसा क्यों कर रहे हैं ? जो काम माओवादी अपने तमाम हथियारों के बल पर इतने साल के बाद भी इस देश में नहीं कर पाये, क्या उस काम को अब अरविन्द केजरीवाल की इस नई तकनीक से करने का प्रयास किया जा रहा है ? माओवादियों द्वारा विनायक सेन प्रयोग असफल हो जाने के बाद उस को अरविन्द केजरीवाल प्रयोग के नाम से पुनः कामयाब करने का प्रयास तो नहीं हो रहा ? दिल्ली के मुख्यमंत्री के रुप में केजरीवाल की ४८ दिनों की हरकतों की समीक्षा इसी पृष्ठभूमि में करनी होगी। यदि सोनिया गान्धी की पार्टी को सत्ता से हटना ही पड़ता है तो उसका स्थान माओवादी अराजकता चाहे ले ले, लेकिन राष्ट्रवादी ताकतें तो किसी भी कीमत पर नहीं आनी चाहिये। देशी विदेशी ताकतों के इसी प्रयोग को सफल बनाने में अरविन्द केजरीवाल की उपयोगिता है। उसी दिशा में उनका मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा है। लोकसभा के चुनाव में जितनी सीटें उनकी पार्टी जीतती है, वे तो बहुमूल्य है हीं, लेकिन जिन सीटों पर वह भाजपा को पराजित करने में सहायक होती है, वे तो अमूल्य ही कहीं जानी चाहिये। परन्तु सबसे बड़ा प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है। मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने से उनकी कमजोरी प्रकट होती है या सीनाजोरी ? इसका उत्तर तो आने वाले चुनावों में ही मिलेगा।