Thursday 20 February 2014

केजरीवाल का इस्तीफा, उनकी कमजोरी या सीनाजोरी?


डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने १४ फरवरी को अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था। दरअसल सोनिया गान्धी की पार्टी ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाया ही त्यागपत्र देने के लिये था। होमियोपैथी में किसी दवाई की ताकत बढ़ाने के लिये उसकी पोटेन्सी बढ़ानी पड़ती है, तभी वह मरीज के लिये कारागार सिद्ध हो सकती है। केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनाना भी उसी रणनीति का हिस्सा था और उसका त्यागपत्र देना भी उसी का दूसरा हिस्सा है। केजरीवाल नाम की जिस दवाई का इस्तेमाल किया जा रहा है, उस की जाँच करने से पहले यह समझ लेना भी लाभदायक है कि इस पूरे घटनाक्रम में बीमार कौन है और उसे क्या बीमारी है ? इसमें कोई दो राय नहीं कि बीमार तो सोनिया गान्धी की पार्टी और उसको चलाने वाला कोर ग्रुप ही है। हाथ से रेत की तरह जब सत्ता फिसलती दिखाई देती हो, तो उस वक्त जो बीमारी लगती है, उसी की शिकार सोनिया गान्धी की पार्टी है। लेकिन सोनिया गान्धी की पार्टी का इलाज करने वाले डाक्टर समझ चुके हैं कि चुनावों में इतना कम समय रह गया है कि इतने कम समय में इस पार्टी को स्वास्थ्य करना संभव नहीं है। इसलिये आम आदमी पार्टी के नाम से मार्केट में नई दवाई लाँच की गई है, जो सोनिया गान्धी की पार्टी का स्थान लेने के लिये तेजी से आगे बढ़ रही दूसरी पार्टी को कम से कम कुछ समय के लिये रोक ले। सोनिया गान्धी की पार्टी के स्थान पर आगे बढ़ रही भाजपा को रोक देने में यदि आम आदमी पार्टी नाम की यह होमियोपैथी गोली कुछ सीमा तक भी कामयाब हो जाती है तो समझ लेना चाहिये कि अमेरिका के फोर्ड फाऊंडेशन की सहायता से तैयार की इस नई दवाई ने अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त कर ली है। लेकिन ऐन मौके पर दवाई कहीं फुस्स न हो जाये इस लिये इसकी पोटैन्सी बढ़ाते रहना जरुरी है।
राष्ट्रवादी ताकतों को कमजोर करने लिये अरविन्द केजरीवाल की उपयोगिता सोनिया गान्धी की पार्टी के साथ मिल कर भी है और उससे अलग रह कर भी ।लेकिन सोनिया गान्धी की पार्टी इस के साथ साथ एक दूसरे एजेंडा पर भी चल रही प्रतीत होती है। यदि हर हालत में उसे सत्ता से हटना ही पड़ता है तो वह ऐसी स्थिति पैदा कर देना चाहती है कि देश में अराजकता फैल जाये। पिछले दिनों तेलंगाना को लेकर लोकसभा में कांग्रेस के मंत्रियों ने जो व्यवहार किया और सदन में काली मिर्चों की बरसात की उससे पार्टी के हिडन एजेंडा का अन्दाजा लगाया जा सकता है। राज्यों का पुनर्गठन इससे पहले भी होता रहा है। लेकिन पूरी योजना से आन्ध्र प्रदेश के दो क्षेत्रों के लोगों के मन में एक दूसरे के प्रति स्थाई जहर घोलने का काम शायद सोनिया गान्धी की पार्टी ने ही किया है। यह सोनिया गान्धी और उनकी पार्टी चला रहे गिने चुने लोगों का इस देश में काम करने का तरीका है। इस से देश को कितना नुकसान हो रहा है ,उसका सहज ही अनुमान सीमान्ध्र और तेलंगाना की घटनाओं को देखकर लगाया जा सकता है। क्या देश को अराजकता की ओर ले जाने और सांविधानिक संस्थाओं को नपुंसक बनाने की तैयारी हो रही है ? इस तैयारी का दूसरा सिरा अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी से जुड़ता है। अरविन्द केजरीवाल को सोनिया गान्धी के लोगों द्वारा दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाने से लेकर १४ फरवरी २०१४ को मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देने तक के ४८ दिन के क्रियाकलाप इस का प्रमाण हैं। मुख्यमंत्री द्वारा केन्द्र सरकार के खिलाफ धरना दिया जाना तो उसका छोटा सा हिस्सा है। जनलोकपाल को लेकर केजरीवाल त्यागपत्र देंगे, यह सोनिया गान्धी को उस दिन भी पता था, जिस दिन उन्हें मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला कर, कांग्रेस की बैंड पार्टी दिल्ली में भंगडा डाल रही थी। जब केजरीवाल सारी लोकलाज को भूल कर सफेद झूठ बोल रहे थे कि उन्होंने अपने जनलोकपाल के बारे में देश के नामी विधि विशेषज्ञों की राय ले ली है और वे सभी विधि विशेषज्ञ अगले ही क्षण केजरीवाल के झूठ को नंगा कर रहे थे, तब भी सब जानते थे कि केजरीवाल की रुचि जनलोकपाल को लेकर उतनी नहीं है जितनी देश की सांविधानिक संस्थाओं पर अन्दर से चोट करने की है। बाबा साहेब अम्बेडकर ने छह दशक पहले ही ऐसे लोगों को लेकर चेतावनी दे दी थी। केजरीवाल दिल्ली विधानसभा में बिल प्रस्तुत करने की निर्धारित प्रक्रिया को जानबूझकर छोड़ रहे थे, ताकि बिल पेश करने से पहले ही हंगामा हो जाये। वे इस पूरे नाटक में शहीद का रुतवा प्राप्त करना चाहते थे और सोनिया गान्धी की पार्टी उन्हें यह रुतवा प्रदान करने में हर संभव सहायता कर रही थी। क्योंकि नरेन्द्र मोदी के रथ को रोकने का अब यही अंतिम प्रयास हो सकता था। केजरीवाल यह काम कर सकें, इस लिये पहले उनको मुख्यमंत्री बना कर उनका कद बड़ा करने की जरुरत थी, सोनिया गान्धी ने यह किया। लेकिन जिस बड़ी लड़ाई के लिये उन्हें तैयार किया जा रहा है, उसमें इतने से काम होने वाला नहीं है, यह सोनिया गान्धी भी जानती हैं और उनके नीति निर्धारित भी। उसके लिये केजरीवाल के लिये शहादत और त्याग का चोगा पहनना भी जरुरी समझा गया। दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देकर केजरीवाल ने वही चोगा पहनने का प्रयास किया है और उसके तुरन्त बाद अपने दफ्तर की खिड़की में खड़े होकर चीख लगाई है-अब मोदी की बारी है। मोदी की बारी यानि मोदी के हारने की बारी। लेकिन केजरीवाल को भी शायद पता था कि राजनीति में बह रही हवा को देखते हुये खिड़की के नीचे टोपियाँ पहन कर खड़े उनके अपने कार्यकर्ता भी शायद यह कहने का विश्वास नहीं जुटा पायेंगे, इसलिये इससे पहले एक और पंक्ति जोड़ी गई। पहले शीला हारी है-अब मोदी की बारी है । नीचे से किसी टोपी वाले की ही टिप्पणी थी, क्या कुछ ज्यादा ही नहीं बोल रहा ? उत्तर था, जब अन्धे के पैर के नीचे बटोर आ जाये तो चार पाँच महीने तक उसकी हरकतें ऐसी ही रहती हैं।
खिड़की में से चीख मारने के बाद केजरीवाल दिल्ली के लैफ्टीनैंट गवर्नर को दिल्ली विधान सभा भंग करने की सलाह देते हैं। केजरीवाल के पास विधान सभा की 70 सीटों में से कुल मिला कर 27 सीटें हैं और उसी के बलबूते वे विधान सभा भंग करना चाहते हैं। जब उनकी इच्छा पूरी नहीं होती तो उनकी नजर में यह आम जनता का अपमान है। वे विधानसभा का सत्र स्टेडियम में बुलाना चाहते हैं और बिल पास करने में वहाँ एकत्रित भीड़ को भी शामिल करना चाहते हैं। केजरीवाल जानते हैं कि यह लोकतंत्र नहीं भीडतंत्र है। लेकिन उनका मकसद भी इसी भीडतंत्र को आगे करके अराजकता फैलाना है। पूछा जा सकता है, वे ऐसा क्यों कर रहे हैं ? जो काम माओवादी अपने तमाम हथियारों के बल पर इतने साल के बाद भी इस देश में नहीं कर पाये, क्या उस काम को अब अरविन्द केजरीवाल की इस नई तकनीक से करने का प्रयास किया जा रहा है ? माओवादियों द्वारा विनायक सेन प्रयोग असफल हो जाने के बाद उस को अरविन्द केजरीवाल प्रयोग के नाम से पुनः कामयाब करने का प्रयास तो नहीं हो रहा ? दिल्ली के मुख्यमंत्री के रुप में केजरीवाल की ४८ दिनों की हरकतों की समीक्षा इसी पृष्ठभूमि में करनी होगी। यदि सोनिया गान्धी की पार्टी को सत्ता से हटना ही पड़ता है तो उसका स्थान माओवादी अराजकता चाहे ले ले, लेकिन राष्ट्रवादी ताकतें तो किसी भी कीमत पर नहीं आनी चाहिये। देशी विदेशी ताकतों के इसी प्रयोग को सफल बनाने में अरविन्द केजरीवाल की उपयोगिता है। उसी दिशा में उनका मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा है। लोकसभा के चुनाव में जितनी सीटें उनकी पार्टी जीतती है, वे तो बहुमूल्य है हीं, लेकिन जिन सीटों पर वह भाजपा को पराजित करने में सहायक होती है, वे तो अमूल्य ही कहीं जानी चाहिये। परन्तु सबसे बड़ा प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है। मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने से उनकी कमजोरी प्रकट होती है या सीनाजोरी ? इसका उत्तर तो आने वाले चुनावों में ही मिलेगा।

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