Saturday 22 February 2014

प्रेम सबसे पवित्र भावना है


 डा शरद सिंह

प्रेम का अर्थ बताना या प्रेम की व्याख्या करना करना बहुत कठिन है। जैसे हवा को देखा नहीं जा सकता और पानी को मुट्ठी में बंद नहीं किया जा सकता उसी तरह प्रेम को भौतिक रूप से दर्शाया नहीं जा सकता है। प्रेम का सम्बन्ध अक्सर आसक्ति से जोड़ दिया जाता है जो कि बिल्कुल अलग चीज है। जबकि प्रेम का अर्थ, एक साथ महसूस की जाने वाली उन सभी भावनाओं से जुड़ा है, जो मजबूत लगाव, सम्मान, घनिष्ठता, आकर्षण और मोह से सम्बन्धित हैं। अपलक देखना, आलिंगन, चुबंन, कामचेष्टाएं प्रेम के स्तर अथ्वा प्रकार को व्यक्त करने का संकेत मात्र होते हैं, प्रेम की पूर्णता के प्रदर्शक नहीं। प्रेम को व्यक्त करने के लिए शरीर एक छोटा-सा माध्यम हो सकता है लेकिन प्रेम की विशदता उससे प्रकट नहीं हो सकती है। प्रेम में देह की उपस्थिति आवश्यक नहीं है। आप सात समुन्दर पार बैठ कर भी किसी को उससे अधिक प्रेम कर सकते हैं जितना कि दैहिक रूप से उसके निकट रह कर। वस्तुतः प्रेम अनुभव किया जाने वाला संवेग होगा है जो बाहर से प्रेरित हो का अन्दर से उपजता है। एक भावना जो पूरी तरह से महसूस होने पर भी पूरी तरह से व्यक्त नहीं की जा सकती है। प्रेम होने पर परवाह करने और सुरक्षा प्रदान करने की गहरी भावना व्यक्ति के मन में सदैव बनी रहती है। प्रेम वह अहसास है जो लम्बे समय तक साथ देता है और एक लहर की तरह आकर चला नहीं जाता। इसके विपरीत आसक्ति में व्यक्ति पर प्रबल इच्छाएं या लगाव की भावनाएं हावी हो जाती हैं। यह एक अविवेकी भावना है जिसका कोई आधार नहीं होता और यह थोड़े समय के लिए ही कायम रहती है लेकिन यह बहुत सघन, तीव्र होती है अक्सर जुनून की तरह होती है। प्रेम वह अनुभूति है, जिससे मन-मस्तिष्क में कोमल भावनाएं जागती हैं, नई ऊर्जा मिलती है व जीवन में मीठी यादों की ताजगी का समावेश हो जाता है। 
आचार्य रामचंद्र शुक्ल मानते थे कि प्रेेम एक संजीवनी शक्ति है। संसार के हर दुर्लभ कार्य को करने के लिए यह प्यार संबल प्रदान करता है। आत्मविश्वास बढ़ाता है। यह असीम होता है। इसका केंद्र तो होता है लेकिन परिधि नहीं होती।’ 
क्या सचमुच परिधि नहीं होती प्रेम की? यदि प्रेम की परिधि नहीं होती है तो सामाजिक संबंधों में बंधते ही प्रेम सीमित क्यों होने लगता है? क्या इसलिए कि धीरे-धीरे देह से तृप्ति होने लगती है और प्रेम एक देह की परिधि से निकल कर दूरी देह ढूंढने लगता है? निःसंदेह इसे प्रेम की स्थूल व्याख्या कहा जाएगा किन्तु पुरुष, पत्नी और प्रेमिका के त्रिकोण का समीकरण भी जन्म ले लेता है जबकि एक प्रेयसी से ही विवाह किया गया हो। यदि देह नहीं तो अधिकार भावना वह आधार अवश्य होगी जिस पर कोई भी प्रेम त्रिकोण बना होगा। यदि प्रेमी, प्रेमी न रह जाए और प्रेयसी, प्रेयसी न रह जाए तो प्रेम कैसा? फिर उनके बीच ‘सोशल कांट्रैक्ट’ हो सकता है, प्रेम का मौलिक स्वरूप नहीं। 
प्रेम बलात् नहीं पाया जा सकता। दो व्यक्तियों में से कोई एक यह सोचे कि चूंकि मैं फलां से प्रेम करता हूं तो फलां को भी मुझसे प्रेम करना चाहिए, तो यह सबसे बड़ी भूल है। प्रेम कोई ‘एक्सचेंज़ आॅफर’ जैसा व्यवहार नहीं है कि आपने कुछ दिया है तो उसके बदले आप कुछ पाने के अधिकारी बन गए। यदि आपका प्रेम पात्रा भी आपसे प्रेम करता होगा तो वह स्वतः प्रेरणा से प्रेम के बदले प्रेम देगा, अन्यथा आपको कुछ नहीं मिलेगा। बलात् पाने की चाह कामवासना हो सकती है प्रेम नहीं। वहीं, दो प्रेमियों के बीच कामवासना प्रेम का अंश हो सकती है सम्पूर्ण प्रेम नहीं। यदि प्रेम स्वयं ही अपूर्ण है तो वह प्रसन्नता, आह्ल्लाद कैसे देगा? वह दुख देगा, खिझाएगा और निरन्तर हठधर्मी बनाता चला जाएगा। प्रेम की इसी विचित्राता को रसखान ने इन शब्दों में लिखा है -
प्रेम रूप दर्पण अहे, रचै अजूबो खेल।
या में अपनो रूप कछु, लखि परिहै अनमेल।। 
हरि के सब आधीन पै, हरी प्रेम आधीन।
याही ते हरि आपु ही, याहि बड़प्पन दीन ।।
प्रेम के सूफि़याना स्तर का होना आवश्यक है। 
सूफ़ी संत रूमी से जुड़ा एक किस्सा है कि शिष्य ने अपने गुरु का द्वार खटखटाया। 
‘बाहर कौन है?’ गुरु ने पूछा।
‘मैं।’ शिष्य ने उत्तर दिया।
‘इस घर में मैं और तू एकसाथ नहीं रह सकते।’ भीतर से गुरू की आवाज आई। 
दुखी होकर शिष्य जंगल में तप करने चला गया। साल भर बाद वह फिर लौटा। द्वार पर दस्तक दी। 
‘कौन है?’ फिर वही प्रश्न किया गुरु ने।
‘आप ही हैं।’ इस बार शिष्य ने जवाब दिया और द्वार खुल गया। 
संत रूमी कहते हैं- ‘प्रेम के मकान में सब एक-सी आत्माएं रहती हैं। बस प्रवेश करने से पहले मैं का चोला उतारना पड़ता है।’
यह ‘मैं’ का चोला यदि न उतारा जाए और दो के अस्तित्व को प्रेम में मिल कर एक न बनने दिया जाए तो प्रेम में विद्रूपता आए बिना नहीं रहती है, फिर चाहे ‘विवाहित संबंध’ में रहा जाए या ‘लिव इन रिलेशन’ में या फिर महज प्रेमी-प्रेमिका के रूप में अलग-अलग छत के नीचे रहते हुए प्रेम को जीने का प्रयास किया जाए। जब दो व्यक्ति प्रेम की तीव्रता को जुनून की सीमा तक अपने भीतर अनुभव करें और एक-दूसरे के साथ रहने में असीम आनन्द और पूर्णता को पाएं तो वही प्रेम का अटूट और समग्र रूप कहा जा सकता है। इस प्रेम के तले कोई सामाजिक बंधन हो या न हो।
सूफी संत कवि लुतफी ने प्रेम के सच्चे स्वरूप को जिन शब्दों में व्यक्त किया है वह प्रेम के सच्चे स्वरूप और प्रेम की तीव्रता को बड़े ही सुन्दर ढंग से व्यक्त करता है -
खिलवत में सजन के मैं मोम की बाती हूं
यक पांव पर खड़ी हूं जलने पिरत पाती हूं
सब निस घड़ी जलूंगी जागा सूं न हिलूंगी
ना जल को क्या करूंगी अवल सूं मदमाती हूं।
मन में प्रेम का संचार होते ही एक ऐसा केन्द्र बिन्दु मिल जाता है जिस पर सारा ध्यान केन्द्रित हो कर रह जाता है। सोते-जागते, उठते-बैठते अपने प्रेम की उपस्थिति से बड़ी कोई उपस्थिति नहीं होती, अपने प्रेम से बढ़ कर कोई अनुभूति नहीं होती और अपने प्रेम से बढ़ कर कोई मूल्यवान वस्तु नहीं होती। 
पुरइन के पत्ते पर पानी की नन्हीं बूंद जितनी पवित्र होती है, प्रेम भी उतना ही पवित्र होता है। पुरइन का पत्ता पानी की बूंद को बड़े जतन से थामें रखता है। हवा के झोंके और जल की तरंगों से उसे बचाता है। बदले में क्या चाहता है? शायद उस बूंद के सौंदर्य की चमक को निहारना। इसके इतर और कुछ भी तो नहीं। प्रेम में यही समर्पण प्रेम की भावना को पूर्णता प्रदान करता है। 


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