Tuesday 18 February 2014

आखिर कैसी है यह मुनादी: कहीं विषयांतर तो नहीं

प्रभात रंजन दीन का संपादकीय और मठ बनाकर अधीश बनने की उनकी चाहतों का चिट्ठा

प्रभात रंजन दीन लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार हैं. कई बड़े अखबारों में रहे हैं. आजकल छोटे अखबारों के साथ कदम ताल कर रहे हैं. पिछले दिनों इन्होंने कैनविज टाइम्स को टाटा बाय बाय कर अपनी पूरी फौज के साथ एक अन्य अखबार वायस आफ मूवमेंट का झंडा थाम लिया. प्रभात रंजन दीन के इस कदम को लेकर कई तरह के सवाल उठे. उनके काम करने के तरीके व कई अखबारों के साथ उनकी पुरानी पारी को याद कर लोगों ने कई नतीजे भी निकाले. पर इससे दीन की सेहत पर कोई असर नहीं क्योंकि दीन कभी हीन नहीं हुए, अपनी मर्जी के मालिक ही रहे. उन्होंने अपने अंदाज में अपना संपादकीय वायस आफ मूवमेंट अखबार में पहले पन्ने पर लिखा-छापा है. उनके इस संपादकीय का पोस्टमार्टम करके अतुल मोहन समदर्शी ने भड़ास के पास भेजा है. पहले दीन का संपादकीय फिर अतुल का पोस्टमार्टम.
-एडिटर, भड़ास4मीडिया

मठ वाले अधीशों के खिलाफ महाभारत की मुनादी है...
-प्रभात रंजन दीन-
आप कैसे तय करेंगे कि कौन सा शब्द ब्रह्म है और कौन सा शब्द यम! आप यह कैसे तय करेंगे कि कौन सा शब्द पूर्ण सच है और कौन सा शब्द पूर्ण भ्रम! आप यह कैसे तय करेंगे कि कौन सा शब्द देवात्मिक है और कौन सा शब्द दुष्टात्मिक! शब्द के शोर में, शब्द के जोर में, शब्द की भीड़ में, शब्द के बाजार में जब ब्रह्म पर भ्रम, सच्चाई पर ढिठाई और मर्यादा पर निर्लज्जता आरोहित हो जाए तो सात्विक मौन का सृजन होता है। आंतरिक मौन। इसीलिए शायद मौन को सबसे सशक्त माना है ध्यानियों ने। सबके जीवन में कभी न कभी कोई ऐसा आंदोलन घटता है, जो जीवन को चमत्कृत भी कर देता है और सार्थक भी। ऐसा आंदोलन भोथरी आंखों को भौतिक दिखता है लेकिन मन की आंखों से देखने-समझने वालों के लिए ऐसा आंदोलन ईश्वर के पुरस्कार की तरह घटता है, बिल्कुल प्राकृतिक, नितांत नैसर्गिक, कैक्टस के फूल की तरह जो एक-डेढ़ दशक में कभी-कभार अचानक ही ईश्वर के प्रकट हो जाने की तरह खिलता है और देखने वाले को रोमांच से भर देता है।

कांटों से भरे जीवन के कैक्टस में इसी तरह का फूल खिला है दो-ढाई दशक की लम्बी ध्यान-यात्रा के बाद। सृजनात्मक आंदोलन जैसा घटित हो गया एक पल में। पत्रकारीय प्रतिष्ठा और सिद्धांतों को भौतिक धरातल पर उतारने और उसे जीवन-व्यवहार में लाने के मसले पर सम्पादक से स्वीपर तक एक साथ मुट्ठियां बांध ले, ऐसा कभी सुना है आपने! सम्पादक से लेकर स्वीपर तक के सारे भेद प्रकृति एकबारगी मिटा दे, तीन दर्जन लोगों की संख्या एक बृहत्तर शून्य में तब्दील हो जाए, कौन किस पद का, कौन किस वर्ग का, कौन किस जाति का, कौन किस धर्म का... यह भेद एक-दूसरे में विलीन हो जाए, कभी सुना है आपने ऐसा! ऐसे ही बृहत्तर शून्य की शक्ति से पत्रकारीय संसार का एक छोटा सा हिस्सा अपने अस्तित्व को झंकृत होते हुए देखने का गवाह बन बैठा। यह शून्य की ही तो यात्रा थी कि छोटे-छोटे हित और तुच्छ स्वार्थों को साधने की विधा की विशेषज्ञता के चकाचैंधी वर्चस्व का मोह ठोकरों से ठुकरा कर सब एकबारगी शून्य में आ गए! प्रकृति एक तरफ कुछ और करा रही थी और दूसरी तरफ कुछ और रच रही थी।

भौतिक दुनिया में जो लोग व्यक्तिपरक सुविधाएं और निजी हित-लक्ष्य साधने में लगे रहते हैं, उनके लिए यह आत्मचिंतन, विश्लेषण और शेष के लिए शोध का विषय है कि जिसने भी दूसरों के हित अपने हितों के साथ समायोजित किया, प्रकृति तत्क्षण उस समग्र हित-चिंता को अपने साथ समाहित कर लेती है। यही वजह है कि प्रकृति एक दिशा में ऊर्जा को संगठित कराने का जतन कर रही थी तो दूसरी तरफ उसका विघटन करा रही थी। उत्तर प्रदेश के ऊर्जावान पत्रकारों की एक बड़ी टीम प्रकृति की इसी प्रक्रिया से गुजरते हुए श्वॉयस ऑफ मूवमेंटश् में संगठित हो गए। प्रकृति ने इस आंदोलन के लिए आंदोलन को स्वर देने वाले अखबार श्वॉयस ऑफ मूवमेंटश् को चुना। एक आंदोलन दूसरे आंदोलन के साथ समाहित होकर विषद सृजनात्मक शक्ति के साथ संघर्ष यात्रा पर निकल पड़ा। जिसे अंधे सुरंग में गिरने के लिए उद्धत कदम बताए जाने का शोर था, वह शून्य-शक्ति के प्रभावकारी उत्पादक परिणाम के रूप में अभिव्यक्त होकर बाहर आ गया, उसके लिए जवाबी शोर की जरूरत थोड़े ही थी!
पत्रकारिता के इतिहास में... या हम इतिहास-भूगोल के चक्कर में क्यों पड़ें, बस यह दुर्लभ आंदोलन घट गया और स्थापित कर गया कि सकारात्मक ऊर्जा प्रकृति के अभिभावकत्व में संरक्षित रहती है। जिसने इस घटना को भोथरी आंखों से देखा और आंका, उसके जीव-शरीर की अवधि अभी शेष है। ...और जिसने इसका सात्विक भाव पहचाना, वह उसी सकारात्मक ऊर्जा का अंश है, वह चाहे कहीं भी, किसी भी कर्म में ध्यानस्थ हो। हम उस जमात का हिस्सा नहीं जो दुर्नीति पर चलते हैं और नीति पर बहस चलाए रखते हैं। दुराचार करते हैं और सदाचार की चर्चा चलाए रखते हैं। हम तो उस जमात के हैं जो सांस लेनेभर के लिए भी सख्त से सख्त चट्टानें तोड़ कर हवा बना देते हैं। वैन गॉग कहते थे कि हम जो करते हैं उसे ईश्वर देखता है, कोई और देखे या न देखे, इससे क्या फर्क पड़ता है। ...हम भी शब्दरचनाधर्मिता के संसार के सक्रिय सदस्य हैं और अपनी कला ईश्वर को सुपुर्द कर देते हैं, कोई और देखे या न देखे, इससे क्या फर्क पड़ता है। निजी सुख-सुविधाओं का ईंट-गारा तो हम भी लगा कर मठ बना लेते। जिंदगी की तरह स्वभाव को भी तम्बू बना लेने और जब मर्जी आए इसे उखाड़ कर कहीं और ले जाने का हठ... उन तमाम मठ वाले अधीशों के आगे महाभारत की मुनादी है।

...मैं भी चाहता तो बच सकता था
मगर कैसे बच सकता था
जो बचेगा
कैसे रचेगा?
न यह शहादत थी
न यह उत्सर्ग था
न यह आत्मपीड़न था
न यह सजा थी
किसी के भी मत्थे मढ़ सकता था
मगर कैसे मढ़ सकता था
जो मढ़ेगा
कैसे गढ़ेगा...?

मित्रो! यह विचित्र काल है या कहें कि यह अकाल है, जिसके हम साक्षी तो हैं, लेकिन उसका बंधुआ होने से हम इन्कार करते हैं। हम आखिरी समय तक अपने सपने के फूल अपनी चैतन्यता के गमले में सींचते रहेंगे, उसे मुरझाने नहीं देंगे। अपने अस्तित्व-यंत्र में ऊर्जा का उत्पाद जारी रखेंगे। रग-रग में, शिरा-शिरा में आंदोलन का गर्म लहू दौड़ाते रहेंगे। अपने हृदय के तलघर में निरंतर चल रहे प्रिन्टिंग प्रेस में नैतिक उम्मीदों के परचे छापते रहेंगे और आपसे बांटते रहेंगे... जो भी इस आंदोलन की धारा के हैं वे साथ दें... वॉयस ऑफ मूवमेंट अखबार नहीं, आपका प्रवक्ता होगा, यह ऐलान करता हूं...
प्रभात रंजन दीन
प्रधान संपादक
वायस आफ मूवमेंट

अतुल मोहन समदर्शी का पोस्टमार्टम

दीन का उपरोक्त संपादकीय पढ़ने के बाद उनके कथन, उनकी शब्द शैली और रचना की जितनी भी तारीफ की जाये, वह कम होगी। वास्तव में इस लेखन में लेखक की काबलियत झलक रही है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि लेखक शब्द शैली की रचना में माहिर खिलाड़ी है। मगर पाठक इस ध्यान से पढ़े तो स्पष्ट हो जायेगा लेखक चाहकर कर भी अपनी वास्तविकता और मनोदशा को छिपा नहीं पाया है। लेखक अपनी पत्रकारिता और पत्रकारिता की नीति का डंका तो पीट रहा है, मगर कही न कही उसकी लेखन शैली में उसकी स्वयं के वास्तविक व्यक्तित्व की ढिठाई और दुहाई स्पष्ट नजर आ रही है। कभी वह पत्रकारिता की नीति की बात करता है तो कभी अपनी गलत कार्य शैली की छल कपट को व्याहारिक जीवन का आधार करार दे रहा है।

लेखक के इस कथन से पूर्व में मैं लेखक की नैतिकता, विचारशीलता और पत्रकारिता की नीतियों को ध्यान में रखते हुए भावनात्मक रूप से उसकी नीतियों की आलोचना किया था। जिसके परिणाम स्वरूप लेखक ने अपने विचार और पत्रकारिता का नजरिया बतौर संपादक वाईस आंफ मूवमेंट अखबार के पहले पृष्ठ पर प्रकाशित किया था। मैं लेखक की लेखनी और उसकी कार्यशैली पर टिप्पणी करने के पूर्व यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं आज तक न तो लेखक के साथ कभी कार्य किया है और नहीं लेखक से किसी भी प्रकार का मतभेद है। जैसा कि कुछ लेाग मेरी पूर्व की टिप्पणी पर कर रहे थे। यदि लेखक से मेरा कोई मतभेद है भी तो सिर्फ और सिर्फ उसकी पत्रकारिता की नीति और उसके कुछ गलत सिद्धांतों से है।

लेखक ने सबसे पहला शब्द लिखा है कि मठ वाले अधिशों के खिलाफ मुनादी करना, लेकिन अफसोस की बात है कि लेखक स्वयं आज जिस संस्थान में गया उस संस्थान को अपना मठ बनाने और वहां का अधीश बनने की कोशिश किया। मगर जैसी ही उसकी नीति का संबंधित संस्थानों को पता चला उसका मठ बनाने और अधीश बनने का ख्वाब चकनाचूर हो गया है। जब उसका ख्वाब टूटा तब तब उसने अपनी नाकामी छुपाने के लिए पत्रकारिता के पवित्र नीति को अपना ढाल बनाया। इसका उदाहरण लेखक के उस कार्य क्षेत्र की गूढ़ता में जाकर देखा जा सकता है।

लेखक ने पाटलीपुत्र टाईम्स से कैरियर की शुरूआत कर इंडियन एक्सप्रेस, साधना न्यूज चैनल, आज, डेली न्यूजए कैनविज टाईम्स जैसे अनेकों नामीगिरामी बड़े संस्थानों के कार्य किया। मगर आश्चर्य की बात है कि लेखक किसी के भी साथ 3 साल से अधिक की अवधि गुजार नहीं सका है। सबसे बड़ी बात यह है कि लेखक का लगभग सभी संस्थानों से कुछ न कुछ मन मुटाव जरूर हुआ है। जिससे लेखक का मठ बनने से पहले ही उजड़ गया। अब सवाल यह उठता है कि क्या सारे के सारे संस्थान बेईमान, भ्रष्ट और पत्रकारिता की नीति के विपरीत थे। जो लेखक की कसौटी पर खरे नहीं उतर सके और लेखक अपने आत्म सम्मान से समझौता नहीं कर सका भभजिसका उसने अपने उपर्युक्त कथन में मुनादी की है्य्य और विवश होकर उन संस्थानों को छोड़ दिया, या फिर लेखक में ही कुछ कमी थी, जिसे किसी संस्थान ने 3 साल से अधिक झेलने में विवशता जताकर लेखक से तौबा कर लिया हो।

सच तो यह है कि सबसे बड़ा मठाधीश तो स्वयं ही है जिसका उदाहरण आप वाईस आफ मूवमेन्ट से निकाले गये 22 कर्मचारियों और कैनविज टाईम्स में कार्य कर रहे युवा पत्रकारों और अन्य कर्मचारियों के रूप में देखा जा सकता है। जो इन्हें मठाधीश के रूप में स्वीकार नहीं कर सके, इनके काबिल नहीं रहे, कुछ नये युवा जिनके सामने यह स्वयं को मठाधीश सिद्ध कर दिये है, उन्ही युवाओं का नेतृत्व कर रहे एक काबिल युवा जो वास्तव में ईमानदार है, मगर इनकी मठाधीशी की चकाचैंध में अपना अस्तित्व और पत्रकारिता के मूल उद्देश्य को भूल कर इनका गुणगान करता हैं, उसके फोन पर मैसेज कर कैनविज टाईम्स को एक झटके में अनाथ करने का निर्देश दे दिये थे। जिसने इनके निर्देश पालन करते हुए सभी को सूचना दी कि लेखक महोदय ने सभी को आफिस आने से मना कर दिया है।

अब वे अपना मठ नई जगह बना लिये हैं, सभी को वही चलना है। इस बात की भनक पूर्व में ही कैनविज टाईम्स के जिम्मेदारों को लग गई थी। जिस पर एक मीटिंग हुई। जिसमें लेखक के कुछ चेले को वहां से खिसकने के आहट की चिंता जाहिर की गई। मीटिंग में जिम्मेदारों ने यह निर्णय लिया कि जो उनके साथ कार्य चाहेगा, वह कार्य कर सकता है। कुछ कर्मचारी रुकने के लिए तैयार भी थे। उन लोगों का कहना था कि लेखक महोदय का तो तीन वर्ष का कांट्रैक्ट था जो अब पूरा हो गया। इस दौरान वह कंपनी के साथ अपने किये गये वादे को जब पूरा नहीं कर सके हैं तो ऐसे में कंपनी को जो करना है वह करे। इसमें हम लोगों से क्या मतलब? हम तो लोग एक सामान्य कर्मचारी है, हमें तो कार्य करना कहीं भी मेहनत से कार्य करेंगे, वहां हमें पारिश्रमिक प्रात होगा। इन पचड़ों से हमें क्या मतलब है। मगर लेखक को अपना मठाधीश मान चुके कुछ काहिल लोग इन सभी को अपने बहकावे में लेते हुए इनके साथ अपने नये मठ की ओर कूच कर दिये।

इस प्रकार की कार्यप्रणाली से लेखक ने यह मुनादी कर दी कि हम तो हम हैं। हमारा हित होना चाहिए। इसके बदले में भले कि किसी के बीबी बच्चे भूखों मरें, भले चाहे किसी के पेट पर लात पड़े, इससे हमासे क्या मतलब ? हमें तो केवल एक ऐसा मठ चाहिए, जहां के हम सदैव मठाधीश बने रहे। इस मसले पर जहां लोगों ने अपनी राय व्यक्त करते हुए कहाकि लेखक उत्तर प्रदेश में इस प्रकार की घटिया नीति की मुनादी कर न केवल पत्रकारिता को शर्मसार किया है बल्कि सभी मीडिया संस्थानों में लाखों की संख्या में कार्य कर रहे कर्मचारियों के प्रति भी अविस्वास की भावना का भी अगाज भी किया हैं। जिसका अंजाम किसी न किसी रूप में कर्मचारियों को ही भुगतना पडे़गा। जब कि कुछ ऐसे भी लोग थे लेखक को ईमानदार और व्यवहारिक मानते थे, जैसा कि लेखक भी स्वयं को सिद्ध करता है। इनका मानना था कि लेखक ने जो कुछ भी वह उचित था। उसने अपने साथियों से जो कमिटमेंट किया था, उसे पूरा भी किया गया है। सभी को उसने अपने साथ रोजगार दिलाया है। इनको कुछ लोगों ने कर्मठी, ईमानदार भी बताया है। मगर किसी ने वाईस आंफ मूवमेंट से निकाले गये कर्मचारियों के प्रति न तो सहानुभूति प्रकट की और न ही उनकी बेरोजगारी के बारे में सोचा है। क्या लेखक और उसके शार्गिदों की व्यवहारिकता यही है कि दूसरे के पेट पर लात मारकर अपना पेट भरा जाये ? दूसरी की रोटी छीनकर अपनी भूख मिटाई जाये ? क्या लेखक ने कभी यह सोचने की कोशिश की थी कि जिन लोगों के पेट पर लात मार कर खुद को मठाधीश घोषित कर रहा है, भला उसके परिवार का भरण कैसे होगा ? क्या लेखक की यही पत्रकारिता है, और व्यहारिकता यही है ?

अब रही बात लेखक की ईमानदारी और लेखक की काबिलियत की तो, मैं आप को बता दूं कि लेखक ने जैसे ही इस नये संस्थान की ओर कूच किया, वैसे ही यह सिद्ध हो गया था कि इनका भयानक पतन हो चुका है। जिस संस्थान को उसने ज्वाईन किया है उस संस्थान के बारे में तरह-तरह की नकारात्मक चर्चा मार्केट में है। नौकरशाही के पावर के दम पर पूर्ववर्ती बसपा सरकार के शासन में हुए घोटाले में शामिल भ्रष्ट अधिकारियों की ब्लैकमेलिंग से लेकर अपने नौकरशाही के पावर के दम पर कई बड़े शासन के अधिकारियों को निशाने पर लेकर पैसे लगवाने की चर्चाएं आम हैं। मैं लेखक के पूर्ववर्ती जीवन चक्र का विवरण देने के बजाय सिर्फ इतना ही विचार व्यक्त करना चाहूंगा कि भले ही वह ईमानदारी की डंका पीट रहा हो, मगर उसकी ईमानदारी उसी वक्त संदेह के घेरे में आ गई थी, जब उसने इस संस्थान की ओर कूच किया था। एक कहावत है कि 'बद अच्छा बदनाम बुरा''. मुझे उम्मीद है कि इसका मतलब लेखक को जरूर समझ में आयेगा।

अतुल मोहन समदर्शी

मैं विनीत राय. मैंने इस खबर से संबंधित एक कड़ी को पूर्व में भड़ास फार मीडिया पर प्रकाशित कराया. उस वक्त खबर के साथ मोबाइल नंबर अपने मित्र अतुल मोहन का उनकी मर्जी से दे दिया था क्योंकि मेरा मोबाइल खराब था जो अभी तक ठीक नहीं हुआ. आज करीब 12 से 1 बजे के बीच उनके मोबाइल नम्बर 9451907315 पर पत्रकारों का नेतृत्व करने वाले एक नेता और एक पत्रकार संगठन के उपाध्यक्ष द्वारा धमकी दी गई. इन महाशय ने कहा कि ये सब क्या नौटंकी है, जो इस संस्थान से निकाले गये जब उन्हें ऐतराज नहीं है, तो आपको क्या जरूरत है, इस संबंध में पड़ने की? मेरे मित्र अतुल मोहन ने जवाब देते हुए कहा कि हम तो सिर्फ वैचारिक बात कर रहे हैं, जो कहीं न कहीं पत्रकारिता और नैतिकता को आहत की थी. उन्होंने इसका जबाब देते हुए कहा कि ये सब बंद करो वर्ना आप के लिए कठिनाई हो जायेगी.  
विनीत राय

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