Friday 21 February 2014

हम भी कम नहीं हैं बिजूकों से


डॉ. दीपक आचार्य
जो हो रहा है, होने दो, और चुपचाप अपने काम करते हुए आगे बढ़ते चलो। जो कुछ हमारे सामने हो रहा है उससे हमारा क्या लेना-देना। आम तौर पर हमारी मानसिकता ऐसी ही हो चुकी है। हर कोई अपने काम से मतलब रखना चाहता है। कामी और स्वार्थियों की भीड़ के बीच अब सामाजिकता पलायन कर चुकी है। समुदाय से छिटक कर हम दूर होते जा रहे हैं,समाज और परिवेश से हमारा सिर्फ अब स्वार्थ तक का का संबंध ही रह गया है। स्वार्थ पूरे होने तक ही हमारा रिश्ता रहता है,उसके बाद सब कुछ खत्म।
पुरानी पीढि़यां हमें जो सौंप गई हैं उनका संवर्द्धन करना तो दूर की बात है,हम इन जीवंत और जड़ विरासतों का संरक्षण तक नहीं कर पा रहे हैं। हरे भरे खेतों और बागानों में सदियों से छायी रहने वाली हरियाली भी उतनी नहीं रही,न नदियों में पानी रहा,न नाले ही रहे सदानीरा। जब आँखों में भी पानी सूख गया,आदमी में ही नहीं रहा पानी, ऐसे में सुकून की बूंदों की उम्मीदें कहाँ से रखें।
जो कुछ हमारे पास था वह लुट गया,हमारी अपनी ही गलतियों और संकीर्णताओं की बदौलत भारतमाता का अखण्ड स्वरूप विखण्डित होता रहा। अनेकता में एकता,सौहार्द और भाईचारों के उद्यानों में आतंकवाद की खरपतवार और जहरीले जीवों ने जमीन खोखली करने में कसर बाकी नहीं रखी। जो कुछ बचा था उसे हमारे अपने चूहों और दीमकों ने ठिकाने लगा दिया।
‘मेरे देश की धरती सोना उगले‘ और ‘ये देश है वीर जवानों का...’ जैसी धाराओं का उद्घोष करने वाले भारतवर्ष में स्रष्टा भाव समाप्त होता जा रहा है और उसका स्थान ले लिया है मूक द्रष्टा भाव ने। हम जिस तरह का बर्ताव करने लगे हैं उससे साफ झलकता है कि हमें अपने आस-पास से कोई सरोकार नहीं रहा, हमारे पड़ोसी कौन हैं,हमारे मोहल्ले में कौन-कौन लोग हैं,वे कैसे रहा करते हैं,उनकी क्या तकलीफें हैं?आदि से हमें कोई मतलब नहीं रहा।
दिहाड़ी मजदूर की तरह घर से निकलते हैं और पस्त होकर रात को घर लौट आते हैं,टीवी के सामने बैठकर पसर जाते हैं और अगली सवेरे फिर दौड़ शुरू। कइयों को तो यह भी पता नहीं चलता कि सूरज कब उगा और कब अस्त हो गया। हममें से कई सारे लोगों की स्थिति आजकल लगभग ऐसी ही हो गई है जैसे कि बिजूके खड़े कर दिए हों,जिन्हें इससे कोई मतलब नहीं होता कि वे कहाँ हैं और क्यों हैं?बस वे इसीलिए हैं कि इन्हें खड़ा कर दिया गया है रखवाली के लिए।
वे न चल-फिर सकते हैं, न देख, बोल-सुन सकते हैं,सिर्फ हिल-डुल सकते हैं और वह भी हवाओं की दया या कृपा पर। हवाएं जिधर रूख करती हैं उधर खींच कर तन जाते हैं और फिर उतने ही वेग से उल्टी दिशा पा लेते हैं। बस यहीं तक ये बिजूके अपनी फर्ज अदायगी समझकर विवशता का लबादा ओढ़े रहते हैं जब तक चिंदी-चिंदी होकर अस्तित्वहीन न हो जाएं।
आज हमारे सामने जो कुछ हो रहा है उसे चुपचाप देखने-सुनने और प्रतिक्रियाहीन सफर की जो विचित्र मानसिकता हमने अपना ली है उसी का परिणाम है कि आज ऐसा कुछ होने लगा है जो न हमारे लिए अच्छा है,न समाज और देश के लिए,और न ही हमारी आने वाली पीढि़यों के लिए।
बिजूकों की तरह हम चुप्पी साधे रहें,सर हिलाते रहें और शरीर को मटकाते ही रहें तो वह दिन दूर नहीं जब आने वाली पीढि़याँ बिजूकों के रूप में हमारे अक्स का इस्तेमाल कर दुनिया को यह संदेश देंगी कि इन्हीं नालायकों,कमीनों और स्वार्थियों की वजह से आज हम अधःपतन की ओर बढ़ने लगे हैं।
बिजूकों के सारे स्वभाव को हमने अंगीकार कर लिया है। हवाओं से हिलते बिजूकों की मानिंद हम भी अपने दो टके के स्वार्थ पूरे करने भर के लिए हर किसी सच्ची-झूठी बात को पूरी विनम्रता सेगर्दन हिलाते हुएस्वीकार कर लिया करते हैं। हमें अपना भान तक नहीं है बल्कि जैसा जमाना चलाता है,जिस तरह हवाएँ झुलाती हैं वैसे ही प्रतिक्रिया करने लग जाते हैं।
आक्षितिज पसरे हुए खेत में लहलहाने वाली फसलों के सब्जबाग दिखाकर कोई भी हमें कहीं भी खड़ा कर सकता है,और हम हैं कि अपने उपयोग को गर्व तथा गौरव के रूप में स्वीकार करते हुए किसी भी धर्मशाला, मयखाने, सुलभ सुविधालय, जात-जात के बाड़ों और गलियारों में खड़े हो जाते हैं और अग्रिम आदेश मिलने तक वहीं जमा रहते हुए अपने आपको अत्यंत उपकृत महसूस करते रहते हैं।
हवाओं की बदचलनी के शिकार बिजूकों की तरह हम सभी लोग आज भले कितने ही बेपरवाह हों, मगर सीमाओं की आग कभी भी अपनी पड़ोसी हो सकती है। जमाने भर में जो चल रहा है उसे चुपचाप देखते-सुनते ही न रहें,वरना वह सब कुछ खो देंगे जिसे अपना बनाने के लिए हम सर्वस्व समर्पण की मुद्रा में सर नीचा कर कहीं भी किसी के भी सामने या तो परोस दिए जाते हैं या खुद को स्वेच्छा से परोस दिया करते हैं।
बिजूकों का भविष्य फसल पकने तक ही रहता है, उसके बाद उनका कोई अस्तित्व नहीं होता,या तो खुद सड़-गल कर हवाओं के साथ बह चलते हैं अथवा अपने आकाओं के हाथों खुद ही चिंदी-चिंदी होकर बच्चों के लिए बॉल के स्वरूप में ढल जाते हैं।

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