Friday 7 March 2014

चुनावी मुस्लिम तुष्टिकरण देशघातक है


राजीव गुप्ता

संसद के अखिरी सत्र के समाप्त होने के साथ ही लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका. सभी राजनीतिक दल चुनावी मैदान में हैं. आने वाले दिनों में हर दल अपने दृ अपने ढंग से मतदाताओं को लुभाने हेतु लोकलुभावनी घोषणाएँ करेगा. वहीं इन दलों के घोषणा पत्रों पर चुनाव आयोग की पैनी नजर भी रहने वाली है. इसका संकेत चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों को दिशानिर्देश जारी करते हुए दे दिया. इतना ही नही विभिन्न राजनीतिक दलों के साथ सात फरवरी को हुई बैठक में चुनाव आयोग ने उनके विचारों को चुनावी आचार संहिता के रूप में जोड भी लिया है. अब तक के मिले संकेतों से यह साफ हो गया है कि मह्ंगाई, भ्रष्टाचार इत्यादि मुद्दों के साथ-साथ राजनीतिक दलों का लोकलुभावनी घोषणाओं का केन्द्रबिन्दु ‘मुस्लिम मतदाता’ ही होगा, ऐसा आभास देश के दो बडी राष्ट्रीय पार्टियों ने दे भी दिया है. कांग्रेस ने ठीक लोकसभा चुनाव से पहले सच्चर समिति की सिफारिशों की आड लेकर इसी वर्ष की 20 फरवरी को बहुप्रतीक्षित ‘समान अवसर आयोग (ईओसी)’ गठित करने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी. यह एक विधिक न्यायिक आयोग होगा जिसका प्रमुख कार्य नौकरियों एवं शिक्षा में अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव पर लगाना होगा. ध्यातव्य है कि मुसलमानों के सामाजिक एवं आर्थिक पिछडेपन का अध्ययन करने वाली सच्चर कमेटी ने समान अवसर आयोग गठित करने की सिफारिश की थी. इसी प्रकार भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने ‘नरेन्द्र मोदी मिशन 272 प्लस- मुसलमानों की भूमिका’ विषय पर कहा कि अगर कहीं उनसे कोई गलती या कमी हुई है तो वें उसके लिए माफी मांगेगे और शीश भी झुकाएगें.
मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने हेतु यह कोई पहला मामला नही है. इससे पहले भी उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के समय में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने पार्टी ने भी मुस्लिम मतदाताओं को ‘कोटे के लोटे से अफीम चटाने’ की बात कही थी. ध्यातव्य है कि मुलायाम सिंह यादव ने अपने ‘माई’ (मुस्लिम-यादव) चुनावी- समीकरण के अंतर्गत मुस्लिम अल्पसंख्यकों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण उपलब्ध कराने की घोषणा की तो कांग्रेस के नेता और तत्कालीन केन्द्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने ओबीसी के कोटे से मुसलमानों को साढे चार प्रतिशत से बढाकर नौ प्रतिशत आरक्षण तक की बात कह डाली और यह मामला राष्ट्रपति तक पहुँच गया. तत्कालीन कानून मंत्री को इसके लिए माफी मांगनी पडी तब जाकर यह मसला शांत हुआ. तत्कालीन कांग्रेस महासचिव राहुल गाँधी ने भी उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान अपनी पार्टी को मुस्लिमों को रहनुमा बताते हुए मुस्लिम आरक्षण पर सपा सुप्रीमो को घेरा था. आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर पिछले वर्ष के मार्च मास में सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने लखनऊ के झूलेलाल पार्क में आयोजित ‘अल्पसंख्यक जागरूकता सम्मेलन’ में केन्द्र की सत्तारूढ संप्रग सरकार को चुनौती देते हुए कहा कि यदि सच्चर कमेटी की सिफारिशें लागू नही की जाती हैं तो उसे केन्द्र से जाना होगा. अपने आपको मुस्लिम-हितैषी दिखाने की कोशिश में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पिछले वर्ष के 20 अगस्त को एक और चुनावी पासा फेंका. उन्होने घोषणा की कि उनकी सरकार ने मुस्लिमों के लिए 30 विभिन्न विभागों में चल रही 85 सरकारी योजनाओं में अल्पसंख्यकों के लिए 20 फीसदी का आरक्षण दिया है.
दरअसल यह मुस्लिम तुष्टीकरण की बात करना कोई नई बात नही है. यदि हम इतिहास के झरोखे में देखते हुए उसकी बारिकियों को समझने का प्रयास करें तो पाएंगे कि 1857 के स्वतंत्रता-समर से ही अंग्रेजों हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोडने के लिए भारत में ‘बांटो और राज करो’ की नीति अपनाया. इस बात की पुष्टि हमें तत्कालीन गवर्नर लार्ड एलफिंस्टोन ने ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा गठित कमेटी को उस मंत्र से मिलता है जिसमें उन्होने लिखा था दृ ‘फूट डालो और यह देश हमारा होगा.’ इसी क्रम में 3 मार्च, 1862 को लार्ड एल्जिन को भेजे गए पत्र में तत्कालीन राज्य सचिव चार्ल्स वुड ने लिखा दृ “हमने एक के खिलाफ दूसरे को खडा कर अपनी सत्ता पुनरू प्राप्त कर ली है, हमें इसे निरंतर बनाए रखना होगा. सबके अन्दर एक भावना पनप ही न सके, इसके लिए जो उचित हो वो करें.”
इसी पृष्ठभूमि में हमें 1875 में सैय्यद अहमद द्वारा अलीगढ एंग्लों ओरियंटल कालेज की स्थापना को देखना चाहिए जिसके नींव की आधारशिला खुद तत्कालीन वायसराय ने रखी. जो बाद में अलीगढ मुस्लिम यूनीवर्सिटी के नाम से प्रसिद्ध हुई और कालांतर में वहीं से स्वतंत्र पाकिस्तान का जन्म हुआ. इस बात की पुष्टि 1954 में अलीगढ के छात्रों को संबोधित करते हुए आगा खां ने कहकर की कि ‘सभ्य इतिहास प्रायरू विश्वविद्यालयों ने देश के बौद्धिक व अध्यात्मिक जागरण में प्रमुख निभाई है. अलीगढ भी अपवाद नही है. किंतु हम यह गौरव के साथ दावा कर सकते हैं कि स्वतंत्र पाकिस्तान का जन्म अलीगढ के मुस्लिम विश्वविद्यालय में हुआ.’ सर सैय्यद ने हिन्दू बनाम मुस्लिम, हिन्दी बनाम ऊर्दू, संस्कृत बनाम फारसी का मुद्दा उठाकर मुसलमानों को हिन्दुओं के खिलाफ खडा करने में कोई कमी नही छोडी. इस बात की पुष्टि हम 16 मार्च, 1888 को मेरठ में दिए गए उनके उस भाषण से कर सक्ते हैं जिसमें उन्होने कहा था कि ‘फर्फ करो अंग्रेज भारत में नही हैं तो कौन शासक होगा ? क्या यह संभव है कि हिन्दू और मुस्लिम एक ही ताज पर बराबर के हक से बैठेगें ? मुस्लिम आबादी तो हिन्दुओं से कम है, साथ ही अंग्रेजी शिक्षित तो और भी कम है परंतु उन्हें कमजोर नही समझना चाहिए. वें अपने दम पर अपनी मंजिल पाने में सक्षम है.’
1905 के बंगाल विभाजन, 1909 के मार्ले मिंटो सुधार से लेकर खिलाफत आन्दोलन तक हमारे नेताओं द्वारा अपनाई गई इसी मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के चलते ही कालांतर में द्विराष्ट्र की परिकल्पना ने अपना मूर्त रूप लिया. वैचारिक मतभेद हो सकता है परंतु क्या यह सच नही है कि 1909 में मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग मानना, 1919 में मुस्लिम लीग और कांग्रेस के बीच हुए लखनऊ समझौते से ही देश बंटवारे के रास्ते पर चल पडा और कालांतर में 14 अगस्त, 1947 को भारत का विभाजन मजहबी आधार पर स्वीकार कर लिया गया. एक प्रसिद्ध कहावत है कि जो देश अपने अतीत के इतिहास को भूल जाता है उसकी उम्र अधिक नही होती है. इस सच्चाई को भला कौन नकार सकता है कि भारत का एक तिहाई भू दृ भाग 1947 के देश विभाजन के समय में हमसे अलग हो गया. इस समय भले ही चुनावी माहौल हो परंतु क्या यह सच नही है कि आए दिन के राजनीतिक दल 1857 की तरह ही ‘बांटो और सत्ता पाओ’ के नए सूत्र पर अग्रसर नही हो रहे हैं ? 19 दिसंबर, 1930 के मुस्लिम लीग के वार्षिक अधिवेशन में इकबाल ने मजहब-आधारित पृथक राष्ट्र बनाने का एक खाका खींचा और 1933 में चौधरी रहमत अली ने पाकिस्तान की रूपरेखा तैयार किया. हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि अपने चरमोत्कर्ष काल में भी हिन्दू महासभा मात्र चार प्रतिशत जनसंख्या को अपने साथ रख पाने में सफल नही हुई.
वर्तमान समय में देश की जनसंख्या लगभग 125 करोड से भी अधिक हो गई है. 2001 की जनगणना के अनुसार मुस्लिम जनसंख्या लगभग 14 करोड है. सर्वेक्षणों से पता चलता है कि भारतीय मुसलमान परिवार नियोजन के उपायों को अपेक्षाकृत कम अपनाने को तैयार हैं. साथ ही कम उम्र में विवाह होने के कारण मुस्लिम महिलाओं में प्रजनन अवधि अधिक होती है. 1983 में केरल में के.सी जचारिया द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि औसत रूप से मुस्लिम महिलाओं ने 4.1 बच्चों को जन्म दिया और हिन्दू महिला ने 2.9 के औसत से बच्चों को जन्म दिया. 1998-1999 में आयोजित राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार भारतीय मुसलमान दंपति भारतीय हिन्दू परिवारों की तुलना में अधिक बच्चों को जन्म देने को आदर्श मानते हैं. 1996 में लखनऊ जिले में आयोजित एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि लगभग 34 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएँ परिवार-नियोजन को अपने धर्म के खिलाफ मानती हैं. भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त 2006 की समिति के अनुसार भारत की मुस्लिम आबादी भारत की कुल अनुमानित जनसंख्या का लगभग 18 प्रतिशत हो जाएगी. परंतु इस ‘जनसंख्या-विस्फोट’ पर कोई भी राजनीतिक दल गंभीर नही दिखाई पडता. आने वाले समय में जनसंख्या-आधारित चुनावी आरक्षण की बात भी शुरू हो जाना भी कोई आश्चर्य की बात नही होगी. पिछले दिनों भोपाल में दिए गए विश्व हिन्दू परिषद के संरक्षक अशोक सिंघल का बयान कुछ इसी तरफ इशारा करता है.

जनतंत्र ही जीवनशैली है


हृदयनारायण दीक्षित

असहमति का आदर जनतंत्र जीवनशैली का प्राण है। जनतंत्र में विपरीत विचार वाले शत्रु नहीं होते। कोई भी समाज एक विचार वाला नहीं हो सकता। विचार भिन्नता ही समाज को गतिशील बनाती है। भारत और दुनिया के ज्ञान इतिहास में ऋग्वेद सबसे पुराना है। यहां अनेक विचार हैं। भौतिकवाद, यथार्थवाद के साथ अव्यक्त को समझने के भी प्रयास हैं। अद्वैत के साथ द्वैत की भी धारा है। ढेर सारे देवता हैं, अनेक देवोपासनाएं हैं। लेकिन उपासक अन्य देव उपासकों को अपशब्द नहीं कहते। वैदिक काल से लेकर महाकाव्य काल तक परमसत्ता की आस्था के समानान्तर दार्शनिक यथार्थवाद का प्रवाह भी चलता है। यहां नियतिवाद है तो पुरूषार्थवाद भी है। वाल्मीकि रामायण के महानायक श्रीराम में दोनो एक साथ हैं। वनगमन के समय श्रीराम कहते हैं, दोष कैकेई का नहीं। वह तो आदरणीय मां है। सारा खेल नियति का है। लेकिन यही श्रीराम रावण को मारने के बाद कहते हैं - नियति के क्रूर चक्र के विपरीत हमने पुरूषार्थ के माध्यम से महाबली रावण को मार गिराया है। यहां नियतिवाद पर पुरूषार्थवाद की विजय है। भारत की संस्कृति और सभ्यता का विकास अनेक विचारधाराओं के परस्परावलम्बन से हुआ।
भारतीय राजनीति संस्कृति से प्रेरणा नहीं लेती। प्राचीन संस्कृति के उद्धरण भी यहां साम्प्रदायिक बताए जाते हैं। चुनावी आरोप प्रत्यारोप श्लील-अश्लील की सीमा पार कर चुके हैं। शब्दबेधी वाण चल रहे हैं। असहमति के आदर का स्वर्णसूत्र सिरे से गायब है। “तू-तू मैं मैं” में लोकतंत्र की मर्यादा का चीरहरण जारी है। भारत का मन आहत है। ऐसी राजनीति भारत की मूल प्रकृति नहीं है। भारत की मेधा का सर्वोत्तम विकास मधुमय आध्यात्मिक भौतिकवाद में हुआ। यहां सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य की तुलना में आचार्य विष्णु गुप्त कौटिल्य को ज्यादा सम्मान मिला। राजा सेनापति पुष्यमित्र शुंग की तुलना में पतंजलि को ज्यादा आदर मिला। शंकराचार्य किसी भी राजा की तुलना में ज्यादा श्रद्धेय हुए। बुद्ध की आभा और दीप्ति से दुनिया की आंखे चौंधियां गयीं। विवेकानंद की अनुभूति दिग्विजयी जानी गयी। दयानंद की प्रतिभा नमस्कारों के योग्य है ही। प्रधानमंत्री पं0 नेहरू की तुलना में गांधी भारत की श्रद्धा के केन्द्र हुए। अन्ना हजारे ताजे हैं। राजनेताओं की तुलना में हजारे का सम्मान हमारे सामने है। मूलभूत प्रश्न है कि भारत के मन की इस विशिष्ट पसंद का आधार क्या है?
दरअसल, राजनेता वास्तव में उतने विशाल हृदय नहीं होते जितना उनका प्रचार होता है। चिन्तक, विचारक और प्रज्ञापुरूष अपनी लोकप्रियता की तुलना में बहुत बड़े होते हैं। प्रधानमंत्री ढेर सारे हो गये। पं0 नेहरू और अटल बिहारी बाजपेयी के अलावा बाकी के नाम जनसामान्य भूल गया है। नेहरू जी भी उतना ही याद आते हैं, जितना कार्य उन्होंने गांधी जी के साथ किया था। स्वतंत्र भारत के शुरूवाती दिनों की सफलताएं असफलताएं भी याद की जा सकती हैं। अटल बिहारी बाजपेयी अपने मधुमय व्यक्तित्व, सांस्कृतिक अधिष्ठान और राजनीति में शील व मर्यादा की स्थापना के लिए याद किए जाते हैं। गांधी, सुभाष, विपिन चन्द्र पाल, रवीन्द्रनाथ टैगोर, लोहिया और अम्बेडकर या डॉ0 हेडगेवार अपने सांस्कृतिक वैशिष्ट्य व विचार विशेष के लिए भुलाएं भी नहीं भूलते। भारत का मन उन्हें अपने अंतस् में ही रखता है। वे महान भारत के दीर्घकालिक सपनों के लिए जिए। लेकिन राजनीति अल्पकालिक उद्यम है। अगला चुनाव जीतने का उपक्रम। राष्ट्रनिर्माण का काम दीर्घकालीन है। संस्कृति और सभ्यता का विकास या निर्माण सिर्फ 5 बरस में नहीं होता। इसके लिए दीर्घकाल की जरूरत होती है। असाधारण व्यक्तित्व जीवन को क्षणभंगुर जानते हुए भी दीर्घकालीन तप कर्म की योजना बनाते हैं। कुछ काम वे अपने जीवन में कर जाते हैं और शेष काम के लिए प्रेरणा ऊर्जा छोड़ जाते हैं। समाज उनकी प्रेरणा से आगे बढ़ता है।
गांधी, अम्बेडकर, लोहिया के जीवन प्रेरणा के मधुरस से उफनाए हुए हैं। उनके चिन्तन, जीवन और कर्म के गैरराजनैतिक भाग मधुगंधा है। जीवन के राजनैतिक भाग वैसे ही सघन माधुर्य से भरेपूरे नहीं है। राजनीति में सृजनकर्म की गुंजाइश कम है। राजनैतिक सफलता का अर्थ चुनावी जीत या पद प्राप्ति ही लगाया जाता है। लेकिन इसे वास्तविक सफलता नहीं कहा जा सकता। वास्तविक सफलता जीत या हार में नहीं प्रकट होती। वास्तविक सफलता हमेशा सृजन में ही प्रकट होती है। कुछ दल या नेता इतिहास की गति में हस्तक्षेप करते हैं। गांधी जी ने भारतीय इतिहास में प्रभावी हस्तक्षेप किया। डॉ0 अम्बेडकर ने इतिहास के साथ सामाजिक संरचना में भी हस्तक्षेप किया। डॉ0 लोहिया ने वामपंथ को चुनौती दी। उन्होंने भारतीय संस्कृति आधारित समाजवाद का विकल्प पेश किया। तीनों प्रेरणा पुरूष राजनीति के क्षेत्र में असफल रहे। गांधी ने हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रश्न पर पराजय स्वीकार की। उन्होंने खिलाफत आन्दोलन का समर्थन किया। यह दुनिया का सबसे बड़ा साम्प्रदायिक आन्दोलन था। वे राजनीति में असफल रहे लेकिन राष्ट्र निर्माण में प्रथम।
राजनीति ‘वास्तविक सफलता’ का क्षेत्र नहीं है। यहां पदों की मारामारी है। राजनीति स्वयं अपने ही बनाए नीति, सिद्धांतों से पलटी मारने का सार्वजनिक उद्यम है। राजनीति संवेदना का क्षेत्र है ही नहीं। आम जन की घनीभूत पीड़ा की यहां कोई जगह नहीं। जीवन का सत्य यहां क्रूर रूप में ही प्रकट होता। इस सत्य में शिव नहीं होता। राजनैतिक सत्य और शिव में सौन्दर्य नहीं होता। राजनीति में सत्यं, शिवम्, सुन्दरम् की जगह है ही नहीं। राजनीति के अपने सत्य हैं-जो जीता वही सिकन्दर यहां मूल सत्य है। बहुमत का गलत निर्णय भी यहां शिव है। इस निर्णय में शिव कल्याण की गारंटी नहीं। राजनैतिक क्षेत्र का सौन्दर्य सत्ता है। सत्ता की अपनी हंसी है, और अपना लावण्य। राजनेताओं के पोस्टरों की हंसी ध्यान देने योग्य होती है। सत्ताहीनता यहां कुरूपता है और सत्ताप्राप्ति ही सौन्दर्य है। लेकिन प्राचीन भारत की राजनीतिक परम्परा लोकमंगल का तपकर्म थी।
प्राचीन भारत में राजनीति की तुलना में राष्ट्रनीति ज्यादा महत्वपूर्ण थी। प्राचीन साहित्य में राजनीति शास्त्र के कई नाम थे। इसे दण्डनीति, अर्थशास्त्र, राजधर्म, राजशास्त्र आदि नामों से जाना जाता था लेकिन सबसे ज्यादा लोक प्रिय नाम था “नीतिशास्त्र”। संस्कृत विद्वानों के अनुसार नीति का अर्थ मार्गदर्शन होता है। शुक्रनीति आदि ग्रन्थों में राजनीति पर व्यापक सामग्री है। यहां शासकीय नियुक्तियों में वंश, वर्ण आदि न देखने और कार्यक्षमता के आधार पर ही पद देने के निर्देश हैं। नीति स्वाभाविक रूप में वास्तविक राजनीति थी। ऋग्वेद प्राचीनतम इतिहास साक्ष्य है। यहां स्वराज्य (1.80 व 8.93), राजधर्म (5.37 व 1.174) राजकर्म (1.25 व 4.42) सहित राजा इन्द्र वरूण आदि की स्तुतियों में राजनीति विषयक अनेक सूक्त हैं। अग्नि को भी राजा की तरह नमस्कार किया गया। ऋग्वेद में सभा और समितियां लोकतंत्र का प्राण है। (10.34.6 व 6.28.6 आदि) यजुर्वेद में भी सभा समितियां हैं। सभाध्यक्ष भी है। अथर्ववेद में सभा और समिति प्रजापति की दो पुत्रियां हैं। (अथर्व0 7.12.1) इनकी उत्पत्ति विराट पुरूष से हुई है। (वही, 8.10.1-8) उत्तरवैदिक काल के प्रमुख ग्रन्थ तैत्तिरीय संहिता में भी सभा है। सभा के योग्य लोग सभ्य थे। परस्पर विचार विमर्श से ही निर्णय होते थे। इसी सभ्यता से भारत का राष्ट्रजीवन भी जनतंत्री बना। लेकिन आधुनिक जनतंत्र की गाड़ी पटरी से उतर गयी है।

साम्प्रदायिकता को दो टूक व्याख्यायित करने का सही समय


-धाराराम यादव 
देश में चुनावी मौसम आते ही भारत के विभिन्न राजनीतिक दलों के मूर्धन्य राजनेता प्रतिदिन ‘साम्प्रदायिकता‘ एवं ‘पंथनिरपेक्षता‘ जैसे शब्दों का दर्जनों बार अपने भाषणों एवं वक्तव्यों में प्रयोग करना शुरू कर देते हैं। दुर्भाग्य से ये दोनों भारतीय राजनीति में दैनिक रूप से बहु प्रयुक्त शब्द किसी कानून में व्याख्यायित एवं परिभाषित नहीं किये गये हैं। भारतीय इतिहास विशेषकर विगत एक शताब्दी के इतिहास के परिप्रेक्ष्य में देश के किसी विद्वान राजनेता, साहित्यकार, इतिहासवेत्ता, भाषाविद् समाजशास्त्री अथवा मौलिक विचारक ने इन दोनों शब्दों को दो टूक व्याख्यायित एवं परिभाषित करने का साहस नहीं किया। यहां तक कि किसी महत्वपूर्ण वाद में देश के किसी उच्च न्यायालय अथवा स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने इन शब्दों को परिभाषित करने का कष्ट नहीं उठाया।
जब तक ये दोनों शब्द कानून अथवा न्यायपालिका द्वारा व्याख्यायित नहीं कर दिये जाते, तब तक ‘ंपंथनिरपेक्ष‘ के शाब्दिक अर्थ के अनुसार पंथों और उनके अनुयायियों के प्रति निरपेक्ष दृष्टिकोण रखना ही किसी सरकार अथवा संगठन के लिए आवश्यक है। इसके अन्तर्निहित अर्थ एवं भाव यही है कि सरकार देश के सभी नागरिकों के प्रति उनके पंथ विशेष से जुड़े तथ्य को पूर्णतया नजरअंदाज करते हुए समान व्यवहार संविधान और कानून के प्रावधानों के अनुसार सुनिश्चित करे। भारतीय संविधान के विभिन्न प्रावधान सरकार को देश के सभी नागरिकों के प्रति समान व्यवहार करने के लिए विवश करते हैं।
समता के अधिकार के अंतर्गत संविधान का नीचे उद्धृत अनुच्छेद 14 निम्नवत् हैः-
‘‘अनुच्छेद-14 विधि के समक्ष समता- राज्य भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।‘‘
इसी से लगा हुआ दूसरा अनुच्छेद नीचे उद्धृत हैः-
‘‘अनुच्छेद-15-धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध-राज्य, किसी नागरिक के विरूद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।‘‘
उक्त दोनों संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार राज्य (सरकार) द्वारा धर्म को आधार बनाकर किसी धर्मानुयायी या पंथानुयायी के साथ किसी प्रकार के विशेष हित साधने का प्रयास नहीं किया जा सकता। 
लोक नियोजन से संबंधित निम्न संवैधानिक प्रावधान भी दृष्टव्य हैः-
‘‘अनुच्छेद-16 लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता-(1) राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समता होगी। 
(2) राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के संबंध में केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्मस्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर न तो कोई नागरिक अपात्र होगा और न उससे विभेद किया जायेगा।‘‘
अनुच्छेद-16 के उपखण्ड (1) एवं (2) में निहित प्रावधानों के अनुसार किसी पांथिक समुदाय को धर्म के आधार पर लोक नियोजन में न तो अपात्र ठहराया जा सकता है और न विभेद किया जा सकता है। यानी उन्हें न तो आरक्षण का कोई लाभ दिया जा सकता है और न उन्हंे न्यायसंगत ढंग से लोक नियोजन से वंचित किया जा सकता है। इन स्पष्ट संवैधानिक प्रावधानों के विरूद्ध केन्द्र की संप्रग सरकार एवं उ.प्र की सपा सरकार पंथनिरपेक्षता के नाम पर बार-बार आरक्षण का लालीपाप अल्पसंख्यकों को दिखाती रही है। आंध्र प्रदेश की कांग्रेस सरकार अल्पसंख्यक मुस्लिमों को करीब तीन बार धर्म के आधार पर लोक नियोजन में आरक्षण दे चुकी है। किन्तु सर्वोच्च न्यायपालिका द्वारा इसे संविधान के विरूद्ध मानते हुए निरस्त कर दिया गया। इसी प्रकार केन्द्र सरकार 2012 के विधानसभाओं के चुनावों के पूर्व अल्पसंख्यकों को 4.5 प्रतिशत आरक्षण देकर उसका हश्र देख चुकी है। 
संविधान के भाग-4 में ‘राज्य की नीति के निर्देशक तत्व‘ शीर्षक के अंतर्गत ‘पंथनिरपेक्षता‘ की टेस्ट लेने वाला एक अन्य प्रावधान अनुच्छेद-44 (निम्नवत् है) का परीक्षण भी अपरिहार्य हैः-
‘‘अनुच्छेद-44 नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिताः राज्य, भारत के समस्त राज्य क्षेत्र मे नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।‘‘
इस प्रावधान को ‘मौलिक अधिकारों‘ का अंग न होने के कारण न्यायपालिका द्वारा लागू नहीं कराया जायेगा। पंथनिरपेक्षता वादियों द्वारा इन प्रावधानों को लागू करने की मांग को ही साम्प्रदायिक करार दे दिया गया है। अगर इस अनुच्छेद को लागू कराने की मांग साम्प्रदायिकता है तो संविधान में इसे शामिल करने वाली संविधान सभा की साम्प्रदायिक मानी जायेगी। यदि संविधान में ऐसे प्रावधान हैं जिनका अनुपालन करने से साम्प्रदायिकता बढ़ जायेगी, तो ऐसे संवैधानिक प्रावधान को ही हटा दिया जाना चाहिए, चाहे इसके लिए संविधान संशोधन करना पड़े। 
संविधान के उक्त सभी प्रावधान सरकारों और संगठनों को पूर्ण पंथनिरपेक्ष रहने के लिए विवश करते हैं। इन प्रावधानों की उपेक्षा करके या उल्लंघन करके किसी पंथ विशेष के अनुयायियों को धर्म का आधार बनाकर लाभान्वित करने की चेष्टा करना पंथनिरपेक्षता कदापि नहीं मानी जा सकती। ऐसा करके ‘पंथनिरपेक्ष‘ होना मात्र ढांेग ही माना जा सकता है। अन्य पिछड़े वर्गों के लिए कतिपय शर्तों के अधीन कुछ विशेष सहूलियतें संविधान के अनुच्छेद 16 के उपखण्ड (4) में निहित प्रावधानों के अंतर्गत राज्य द्वारा दी गयी है, किन्तु उनमें कहीं धर्म को आधार नहीं बनाया गया है। अन्य पिछड़े वर्गों की सूची में इक्कीस मुस्लिम जातियां भी शामिल हैं। इसे ‘सामाजिक एवं शैक्षणिक‘ रूप से पिछड़ेपन के आधार पर तैयार किया गया है और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी अन्य पिछड़े वर्गों को प्रदत्त सुविधा को संविधान सम्मत घोषित कर दिया गया है। 
जहां तक देश के गरीबों एवं कमजोरों को संरक्षण प्रदान करने का प्रश्न है, इसका किसी क्षेत्र में विरोध नहीं है। विरोध तो संविधान के प्रावधानों का खुला उल्लंघन करते हुए धर्म को बीच में लाने पर है।
यहीं पर पंथनिरपेक्षता को लक्षणों एवं कारकतत्वों सहित व्याख्यायित एवं परिभाषित करने की आवश्यकता प्रतीत होती है। उ.प्र की सपा सरकार 2012 में अस्तित्व में आते ही उसके द्वारा यह आदेश पारित किया गया कि हाईस्कूल परीक्षा उत्तीर्ण करने वाली मुस्लिम लड़कियों को एकमुश्त तीस हजार रूपये अनुदान या छात्रवृत्ति के रूप में दिये जायेंगे। केवल पंथ को आधार बनाकर दिया गया यह आर्थिक अनुदान वर्तमान संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत ‘पंथनिरपेक्ष‘ निर्णय तो कदापि नहीं माना जा सकता। भारतीय संविधान में वांछित संशोधन किये बिना सच्चर समिति अथवा रंगनाथ मिश्र आयोग की संस्तुतियों को आधार बनाकर पंथनिरपेक्षता के आवरण में लपेटकर इस प्रकार लिए गये निर्णय संविधान सम्मत तो हो ही नहीं सकते। उक्त अनुच्छेदों के अधिकांश प्रावधानों में धर्म या पंथ के आधार पर विभेद करने की मनाही है। उ.प्र की वर्तमान सपा सरकार द्वारा प्रदेश में हुए विभिन्न विस्फोटों के सिलसिले में गिरफ्तार मुस्लिम युवकों को रिहा करने के आदेश दिये गये हैं, किन्तु न्याय पालिका द्वारा सरकार को फटकार लगाते हुए उसके निर्णय को अनुचित करार दिया गया है। अब क्या किसी भी कानून के अंतर्गत अभियुक्तों को उनके अपराध के अनुसार दण्ड देने के बजाय उनका धर्म देखकर उन्हें दोषमुक्त मान लिया जायेगा ?
केन्द्र की संप्रग सरकार के गृहमंत्री द्वारा राज्य सरकारों को पत्र लिखकर निर्देशित किया गया है कि आतंकी विस्फोटों के सिलसिले में मुस्लिम नवयुवकों को बहुत सावधानी से गिरफ्तार किया जाय और यदि न्यायालय द्वारा उन्हें दोषमुक्त करार दिया जाय तो उन्हें मुआवजा दिया जाय। हिन्दू आतंकवादियों के निर्दोष करार दिये जाने पर मुआवजे से वंचित रखने का क्या औचित्य है ?
एक दिन भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह ने यह सार्वजनिक घोषणा कर दी कि देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का है। उनके इस कथन का अर्थ सभी सेकुलरों द्वारा व्याख्यायित किये जाने की आवश्यकता है, साथ ही इस कथन की पूर्ण सार्थकता एवं इसमें निहित पंथनिरपेक्षता का मूल भाव अल्पसंख्यक मुस्लिमों को संविधान के विभिन्न प्रावधानों का उल्लंघन करते हुए एवं अन्य पंथों के अनुयायियों की उपेक्षा करते हुए सभी क्षेत्रों मे ंलाभान्वित करना है, तो साहस के साथ खुलकर यह घोषणा कर देनी चाहिए। इसमें सत्तारूढ़ दल को पहल करने की आवश्यकता है। उ.प्र की कथित पंथनिरपेक्ष सपा सरकार द्वारा एक शासनादेश जारी करके यह निर्देश दिया गया था कि मुजफ्फरनगर के मुस्लिम समुदाय के दंगा पीडि़तों को पांच-पांच लाख रूपये मुआवजा दिया जाय। इस पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा उ.प्र सरकार को फटकार लगाये जाने पर वह शासनादेश वापस ले लिया गया और दूसरा शासनादेश जारी करके सभी दंगा पीडि़तों को पांच-पांच लाख रूपये मुआवजा देने का आदेश दिया गया। यदि देश के अल्पसंख्यक मुस्लिमों के प्रति हर क्षेत्र में पक्षपात करना ही ‘पंथनिरपेक्षता‘ है तो सभी सेकुलर मिलकर ह घोषणा कर दें कि असली पंथनिरपेक्षता मुस्लिमों को संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन करके भी लाभान्वित करना होना चाहिए। 
देश के सभी गरीबों, निराश्रितों, असहायों, कमजोरों को राज्य का संरक्षण मिलना ही चाहिए। ‘ंपंथनिरपेक्षता‘ तो तब मानी जायेगी जब दुःखी नागरिक का दुःख बिना उसका धर्म देखे दूर किया जाय। देश के सभी नागरिकों को बिना उनके पंथ को ध्यान में रखे खुशहाल करना राज्य का कर्तव्य है। यदि किसी धर्म या पंथ विशेष के अनुयायियों को ही खुशहाल बनाने की घोषणा करके लाभान्वित करने की चेष्टा की जायेगी, तो वह पंथनिरपेक्षता कैसे मानी जा सकती है ?
अब पहले देश की सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस बताये की उसकी पंथनिरपेक्षता का क्या अर्थ एवं स्वरूप है ? जब तक यह शब्द लक्षणों एवं कारकतत्वों सहित दो टूक परिभाषित नहीं किया जाता, तब तक वह पंथनिरपेक्ष होने का दावा नहीं कर सकती। यही चुनौती उ.प्र में सत्तारूढ़ सपा के लिए भी है। उसके सर्वोच्च नेता मुलायम सिंह अपने प्रबुद्ध साथियों से परामर्श करके पंथनिरपेक्षता को पहले दो टूक परिभाषित कर दें, फिर अपने पंथनिरपेक्ष होने का दावा करें।
इसी प्रकार बहु प्रयुक्त शब्द साम्प्रदायिकता है। सपा के नेता बिना सोचे समझे रात दिन साम्प्रदायिक शक्तियों से लड़ने की अंहकारपूर्ण घोषणा करते रहते हैं। पहले सपा के सभी बुद्धिजीवी मिलकर साम्प्रदायिकता को दो टूक उसके लक्षणों एवं कारकतत्वों सहित परिभाषित कर दें। उसके बाद उसका प्रयोग करें। परिभाषा बताते समय किसी संगठन का नाम लेने की आवश्यकता नहीं है। साम्प्रदायिकता शब्द की व्याख्या करते समय सभी पंथनिरपेक्षतापूर्ण समर्थक आपस में खुलकर और मिलजुलकर विचार विमर्श कर सकते हैं।
चुनावी मौसम आते ही पंथनिरपेक्षता एवं साम्प्रदायिकता जैसे शब्दों का प्रयोग काफी बढ़ जाता है। यह निष्कर्ष निकालना अनुचित नहीं होगा कि इन दोनों शब्दों का प्रयोग करते समय प्रयोगकर्ता नेताओं और संगठनों का उद्देश्य एक विशेष पंथानुयायियों का वोट बैंक बनाना होता है। आखिरकार सभी अल्पसंख्यकों (सिख, जैन, बौद्ध, यहूदी, पारसी आदि) की उपेक्षा करके सभी योजनाएं केवल मुस्लिम पंथ के अनुयायियों के लिए क्यों बनाई जा रही हैं? वे सभी योजनाएं देश के गरीबों के लिए बनाई जानी चाहिए। उसमें मुस्लिम गरीब स्वयं आच्छादित हो जायेंगे। संविधान के कई अनुच्छेदों में धर्म या पंथ को आधार बनाकर भेदभाव करने का निषेध किया गया है। इसीलिए जो मामले न्यायपालिका के समक्ष पहुंच रहे हैं, वे निरस्त हो जाते हैं। उदाहरण के लिए लोक नियोजन में आरक्षण की व्यवस्था को कई बार निरस्त किया जा चुका है। अतः यह आवश्यक है कि पहले पंथनिरपेक्षता एवं साम्प्रदायिकता को लक्षणों एवं कारकतत्वों सहित सर्व सम्मति से व्याख्यायित कर दिया जाय।

चुनावी जंग का अखाड़ा बना यूपी 

-अरविन्द विद्रोही 


लोकसभा चुनाव का जंग लड़ने व जीतने के लिए राजनेताओं-राजनैतिक दलों ने चुनावी रण में अपने-अपने योद्धाओं को उतारना शुरू कर दिया है। 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर-प्रदेश में प्रत्येक दल अपनी पकड़ बनाने के लिए बैचेन है। उप्र में रैलियों में उमड़ रहे जन रेला ने राजनेताओं और चुनावी पंडितों को अजब झमेले में डाल दिया है । रैली चाहे मोदी की हो या मुलायम की या फिर माया व राहुल की उमड़ रहा जनसैलाब रैलीस्थल को छोटा कर देता दिखा है। पूरब में राजभर-अंसारी बंधुओं की जोड़ी, इलाहाबाद की अनुप्रिया पटेल ,बाराबंकी के बेनी प्रसाद वर्मा, केंद्रीय इस्पात मंत्री, भारत सरकार अपना-अपना जलवा लगातार दिखला रहे हैं। आप के भी कई प्रत्याशी उप्र में चुनावी ताल ठोंकते दिख रहे हैं। दिल्ली विधानसभा चुनावों में चुनावी रण से खुद पे विश्वास ना होने के कारण भागने वाले कुमार विश्वास उत्तर-प्रदेश में राहुल गांधी के खिलाफ अमेठी में लड़ने को बेताब-बेकरार हैं । मुजफ्फरनगर दंगों से उपजे राजनैतिक-सामाजिक हालात के कारण पश्चिम उत्तर-प्रदेश में खासा दखल रखने वाले चौधरी अजित सिंह को इस बार लोकसभा चुनाव में अपनी प्रतिष्ठा बचाये रखने की चुनौती का सामना करना पड़ेगा जाटलैंड में पकड़ बनाये रखने के लिए जयंत चैधरी, सांसद द्वारा किये जा रहे व्यापक जनसम्पर्क अभियान का मतदाताओं पर पड़ने वाला असर भविष्य के गर्भ में छुपा है। विभिन्न दलों से गठबंधन करने की भाजपा की रणनीति और पश्चिम उप्र में भाजपा का बढ़ा प्रभाव भांपते हुये किसी भी वक्त राजनीति के अद्भुत खिलाड़ी के रूप में पाला बदलने में माहिर चौधरी अजित सिंह भाजपा में या उसके गठबंधन में पुनः शामिल हो सकते हैं। अतीत के पन्नों में दर्ज चौधरी अजित सिंह का राजनैतिक आचरण इसका पुख्ता-प्रत्यक्ष प्रमाण है। पीस पार्टी के डॉ अय्यूब अंसारी उत्तर-प्रदेश विधान सभा चुनाव में सिर्फ 4 सीट को जीतने और फिर विधायकों के टूटकर बिखरने के पश्चात् अपने संगठन को धार देने की कोशिशों के बावजूद कोई कारगर माहौल नहीं बना पायें हैं। 

और तो और जिन अमर सिंह की तूती सपा संगठन व मुलायम सरकार में बोलती थी ,सपा से अलग होने के पश्चात् अपने दल लोकमंच से उत्तर-प्रदेश विधानसभा 2012 का चुनाव तमाम सीटों पर लड़वाने और बुरी तरह शिकस्त खाने के बाद ईद का चांद हो चुके अमर सिंह अब सिर्फ बयान जारी कर सकते हैं। सपा में छत्रिय नेता के रूप में माने जाने वाले अमर सिंह के साथ उनके अति प्रिय छत्रिय नेता भी नहीं खड़े हुये थे। यही हाल पूर्व में सपा से अमर-जयाप्रदा के कारण अलग हुये आजम खान का था। जब आजम खान सपा से अलग हुये थे तो कितने मुस्लिम नेता उनके साथ सपा से गये थे यह शोध का विषय हो सकता है। उत्तर-प्रदेश की राजनीति में सपा से अलग होने के बाद भी एक सशक्त हस्ताक्षर के तौर पर अपना वजूद एवं हनक बरकरार रखने वाला सिर्फ एक नेता है और वह हैं बेनी प्रसाद वर्मा। बसपा-भाजपा से बाहर गये तमाम दिग्गज नेता भी अपने-अपने दल से बाहर जाकर कोई राजनैतिक प्रभाव नहीं बना सके। बसपा में आर के चैधरी और भाजपा में कल्याण सिंह की पुनर्वापसी से दोनों नेताओं और दोनों दलों को फायदा होता दिख रहा है। 

विशाल भूभाग वाले उप्र की राजनीति विषमताओं और दुरुहताओं से भरी है। जातीय -धार्मिक जकड़न में जकड़ी उत्तर-प्रदेश की राजनीति में विकास के मुद्दे बहुत प्रभावी व कारगर नहीं होते रहे हैं परन्तु इस लोकसभा चुनाव में जातीय-धार्मिक उन्माद-उत्तेजना के बीच विकास का मुद्दा अपना हस्तक्षेप स्थापित कर चुका है। राजनेताओं की विकास परक सोच, उनके द्वारा अभी तक कराये गये विकास कार्य, छवि की चर्चा मीडिया-मतदाता दोनों ही कर रहे हैं। भाजपा-कांग्रेस-सपा में तो छवि चमकाने-निखारने की तगड़ी प्रतिस्पर्धा चल रही है। मीडिया का भरपूर इस्तेमाल अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार सभी कर रहे हैं और छवि बनाओं अभियान में पिछड़ने पर मीडिया को कोस भी रहें हैं। बसपा प्रमुख मायावती प्रचार युद्ध में छवि गढ़ने-निखारने के चक्कर से दूर जातीय समीकरणों को दुरुस्त करके बूथवार कमेटी के बलबूते संसद मार्ग की तरफ बसपा के हाथी को पहुँचाने का इरादा रखती हैं । 

उत्तर-प्रदेश के लोकसभा चुनावी समर में सेनानी बनने के लिए इस मर्तबा तमाम नौकरशाह भी बेकरार है। सेवा निवृत्ति के पश्चात् तो कई स्वैछिक सेवानिवृत्ति लेकर तथा कुछ अपनी पत्नी-पुत्री-पुत्र को लोकसभा पहुंचाने की जुगत में लगे हैं। लोकतान्त्रिक व्यवस्था के तहत कोई भी नागरिक चुनाव लड़ सकता है यह ताकत भी और दुर्भाग्य भी। वातानुकूलित कमरों में ऐशों-आराम का जीवन गुजरने वाले ये नौकरशाह व उनके परिजन किस ध्येय से राजनीति में उतरते हैं सभी जानते हैं । राजनीति सिर्फ पद-सत्ता प्राप्ति का मार्ग ना होकर समाज के प्रति दायित्वों के निर्वाहन और वंचितों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने का पथ भी होता है। अपराधियों के पश्चात् अब नौकरशाहों ने भी अपनी काली कमाई के बूते राजनैतिक कार्यकर्ताओं के हक पर डाका डालना शुरू कर दिया है। राजनैतिक शुचिता-ईमानदारी का ढिंढोरा पीटने वाले तमाम दल बेशर्मी पूर्वक यह राजनैतिक कदाचरण-बेईमानी करते चले जा रहे हैं। 

बिगड़ी कानून व्यवस्था व अनवरत हुये दंगों के अभिशाप के साथ-साथ सैफई महोत्सव में चले रास रंग के व्यापक विरोध-आलोचना से निपटने के लिये सपा प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव, मुख्यमंत्री उप्र ने जंतर-मंतर से लखनऊ तक की युवाओं की साइकिल यात्रा 23 फरवरी को रवाना करी। इसी दिन व्यापारियों की यात्रा लखनऊ से सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव ने रवाना की और इसी दिन राजधानी से सटे बाराबंकी जनपद में भी समाजवादियों ने हक-न्याय के लिए संघर्ष यात्रा शुरू कर दी है। एक चिंगारी किस कदर भारी तबाही का सबब बन जाती है असंख्य उदहारण मौजूद हैं । अनवरत दंगों से उपजे रोष से हल्का हलकान सपा नेतृत्व मुस्लिमों के विरोध को झेल रहा है ,सपा सरकार द्वारा मुस्लिम हित की तमाम योजनाओं-घोषणाओं के बावजूद मुस्लिम वर्ग की नाराजगी जगजाहिर है। बाराबंकी में 15 जनवरी को दिनदहाड़े हुई सपा युवा नेता अरविन्द यादव, जिला महासचिव यूथ ब्रिगेड की निर्मम हत्या और तत्पश्चात बाराबंकी कारागार में निरुद्ध कुख्यात माफिया द्वारा स्व. अरविन्द यादव के परिजनों को धमकी दिए जाने से ग्रामीणों खासकर यदुवंशियों युवाओं में जबर्दस्त आक्रोश है। 1 मार्च को छाया चैराहा बाराबंकी स्थित कमला नेहरू पार्क में श्रद्धांजलि-संकल्प सभा का आयोजन भी किया जाना सुनिश्चित है। 

मुजफ्फरनगर दंगा, टांडा-कुण्डा में हुए हत्याकांड हो या फिर बाराबंकी के सपा युवा नेता अरविन्द यादव की हत्या सभी मुद्दे सत्तारूढ़ सपा सरकार के लिए परेशानी का सबब ही हैं । बाराबंकी के ही बेनी प्रसाद वर्मा पहले से ही सपा की अखिलेश यादव सरकार को दंगाइयों की सरकार घोषित कर चुके हैं। बाराबंकी के ही राम मनोरथ वर्मा की हत्याकांड के विरोध में बड़े विरोध प्रदर्शन के बाद अब अरविन्द यादव की याद में आयोजित कार्यक्रम में भारी भीड़ जुटने की बात सपा यूथ ब्रिगेड जिला अध्यक्ष प्रीतम सिंह वर्मा और सपा जिला सचिव ज्ञान सिंह यादव द्वारा कही जा रही है। सपा सरकार चैतरफा घिरी हुई है। 

उप्र में मचे चुनावी घमासान में सपा के प्रति तेजी से फैली हवा अब सपा विरोधी लहर में तब्दील हो रही है। भाजपा नेता नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व के प्रभाव के चलते उप्र में भाजपा की बढ़त निश्चित मानी जा रही है। अधिकतर अल्पसंख्यक मतदाताओं का रुझान फिलहाल सपा से खिसक कर कांग्रेस, बसपा की तरफ जाता प्रतीत हो रहा है। यह निश्चित माना जा रहा है कि इस लोकसभा चुनाव में अल्पसंख्यक समुदाय भाजपा के प्रत्याशियों को हराने वाले प्रत्याशियों को मत देगा, दल गौण रहेंगे।




-अरविंद विद्रोही, लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार व सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता हैं।

परीक्षा का डर भगाएंगी होम्योपैथी की मीठी गोलियां

परीक्षा का डर भगाएंगी होम्योपैथी की मीठी गोलियां

-डा. अनुरुद्ध वर्मा 

हर साल की तरह इस बार फिर आ गया परीक्षा का मौसम। हर तरफ परीक्षा का ही शोर है। अभिभावक परेशान हैं कि उनके बच्चों को कैसे अच्छे अंक मिले और छात्र परेशान हैं कि वहकैसे अच्छे अंक लाकर अपने माता पिता के लाडले बने रहें। परीक्षा का मौसम कभी-कभी छात्रों के लिए अनेक परेशानियां लेकर आता है। परीक्षा के डर से होने वाली परेशानियों को चिकित्सीय भाषा में एक्ज़ाम फीवर या फोबिया कहते हैं। इससे बच्चों में अनेक परेशानियां उत्पन्न हो सकती  हैं जैसे, बच्चों का मन पढ़ाई के दौरान एकाग्र नही हो पाता है।

परीक्षा कक्ष काल कोठरी जैसा लगता है उसमें प्रवेश से पहले अजीब सी बेचैनी, घबराहट एवं सिहरन होने लगती है, बार बार पेशाब व दस्त की शिकायत हो जाती है, याद किया हुआ भूल जाता है, बार बार आत्महत्या का विचार आता है, नींद उड़ जाती है, फेल हो जाने का भय सताता है। परीक्षा के समय पसीना आता है। छात्रों की इन तमाम परेशानियों को दूर करने की ताकत होम्योपैथी की मीठी-मीठी गोलियो में है।

यह कहना है केन्द्रीय होम्योपैथिक परिषद के सदस्य एवं होम्योपैथिक चिकित्सक डा. अनुरुद्ध वर्मा का। डा. वर्मा के अनुसार, एक्ज़ाम फीवर एक मानसिक परेशानी है इससे लगभग 30 से 40 प्रतिशत छात्र प्रभावित होते हैं। परीक्षा में अच्छे अंकों से पास होने का दबाव इसकी सबसे बड़ी वजह है, ज्यादातर यह दबाव अभिभावकों द्वारा बनाया जाता है जिसके कारण बच्चे परीक्षा के दौरान एक कमरे में कैद होकर रह जाते हैं । 
परीक्षा के दौरान खाने-पीने का रुटीन बदल जाता है। उन्होंने कहा कि यह स्थिति ठीक नही है, परीक्षा के दौरान बच्चों को कमरे में कैद होने के बजाए, पढ़ाई के साथ-साथ थोड़ा घूमना, फिरना तथा मनोरंजन भी जरुरी है। डा. वर्मा का कहना है कि अभिभावक बच्चों के धैर्य को बनाए रखने में उनकी सहायता करें। उनका कहना है कि छात्रों को किसी भी परीक्षा से डरने की जरुरत नहीं है क्यांेकि कई बार उचित सलाह के बाद भी कई छात्र इन परेशानियों से नही बच पाते हैं।

उन्होंने बताया कि होम्योपैथी में परीक्षा के दौरान होने वाली परेशानियो से निजात दिलाने की अनेक कारगर औषधियां उपलब्ध हैं सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनका शरीर पर कोई कुप्रभाव भी नहीं पड़ता है। डा. वर्मा ने बताया कि यदि परीक्षा में जाते समय डर लगे तो लाइकोपोडियम एवं साइलीसिया का प्रयोग किया जा सकता है। यदि परीक्षा के समय सिरदर्द, बार-बार पेशाब लगने, दस्त एवं घबराहट की शिकायत हो तो जेल्सीमियम एवं अर्जेन्ट्रमनाइट्रिकम का प्रयोग लाभदायक हो सकता है।

उन्होंने बताया कि परीक्षा की तारीख पास आने पर ज्यादातर बच्चों मंे अनिद्रा की शिकायत हो जाती है इन बच्चों के लिए नक्सवोमिका फायदेमंद होती है। परीक्षा की पूरी तैयारी के बाद भी लगे कि कुछ याद नही है तो एनाकाडिंयम एवं कालीफांस का प्रयोग किया जा सकता है। उन्हांेने कहा कि कुछ छात्र परीक्षा के दौरान ज्यादा तैयारी के लिए नींद न आने वाली दवाइयां ले लेते हैं जो स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित नही है। डा. वर्मा ने कहा कि सिर पर सवार परीक्षा ने छात्रों के लिए होली का रंग फीका कर दिया है, उन्होंने सलाह दी कि होली के दौरान छात्रों को रंग खेलने से परहेज करना चाहिए क्यांकि यदि रंग आॅख में पड़ गया तो आॅख में दर्द एवं जलन हो सकती है जो छात्र की परीक्षा में व्यवधान उत्पन्न कर सकती है।

उन्होंने छात्रो को होली में तली-भूनी चीजें न खाने की सलाह दी है क्यांेकि इससे आलस्य आता है तथा पेट खराब होने का डर बना रहता है। डा. वर्मा ने अभिभावकांे को अपने बच्चों पर ज्यादा दबाव न बनाने की सलाह दी है क्यांेकि इससे बच्चे तनाव में  आ जाते हैं जिससे उन्हें परीक्षा के दौरान अनेक परेशानियो का सामना करना पड़ता है। उन्होंने छात्रों से कहा कि परीक्षा से डरने की जरुरत नहीं है पूरी मेहनत और लगन के साथ खेल भावना से परीक्षा देना चाहिए।

उन्होंने कहा कि होम्योपैथी की दवाईयां आप के दिमाग से परीक्षा का भूत निकाल देगी तथा परीक्षा के सफर में आपका पूरा साथ निभाकर आपको सफलता दिलाने में  आपका सहयोग करेंगी। परन्तु ध्यान रहे कि होम्यापैथिक दवाईयां केवल प्रशिक्षित चिकित्सकों की सलाह से ही लेनी चाहिए। साथ ही बोर्ड परीक्षार्थियों की सहायता के लिए बनाये गये कंट्रोल रुम के नम्बर 9415075558 पर भी निःशुल्क सलाह ली जा सकती है।

Thursday 6 March 2014

सौर ऊर्जा से बदल रही राजस्थान की तस्वीर

पूनमचंद विश्नोई
दुनिया के सबसे बड़े सोलर पार्क की स्थापना राजस्थान में होने से बढ़ी विकास की उम्मीदें, 900 कम्पनियों ने परियोजना लगाने के लिए कराया पंजीकरण
भारत सरकार के जवाहरलाल नेहरू सोलर मिशन के तहत जोधपुर जिले के बडला गांव में कुछ समय पहले दुनिया के सबसे बड़े सोलर पार्क का शिलान्यास केंद्रीय नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्री फारूख अब्दुल्ला व राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने किया। इसका विकास तीन चरणों में किया जाएगा। कुल 10,000 हेक्टेयर जमीन का चयन किया जा चुका है, जिसमें से पहले चरण के तहत 3,000 हेक्टेयर जमीन का सर्वेक्षण किया गया है। प्रथम चरण में 75 मेगावाट की सात परियोजनाएं स्थापित की जाएंगी। मार्च 2014 तक इनका निर्माण पूरा होने की उम्मीद है। वर्ष 2018 तक यहां चार गीगीवाट बिजली का उत्पादन किया जा सकेगा।
900 कंपनियां लगाएंगी सोलर प्लांट
भारत सरकार के इस मिशन के तहत देश की 900 प्रतिष्ठित कम्पनियों ने सौर ऊर्जा परियोजनाएं लगाने के लिए राजस्थान को चुना है। इन कम्पनियों ने राजस्थान में निवेश करने के लिए पंजीकरण करवाएं हैं। ये कम्पनियां हजार मेगावाट की परियोजनाएं स्थापित करेंगी। पूरे देश के लिहाज से गुजरात के बाद राजस्थान में सर्वाधिक सोलर प्रोजेक्ट स्थापित हो रहे हैं। खासकर पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों में सूरज का ताप सोना उगलेगा। यहां जोधपुर में 293 मेगावाट, जैसलमेर में 94 व बीकानेर में 65.9 मेगावाट के प्रोजेक्ट लग चुके हैं। आने वाले पूरे राजस्थान में पैदा होने वाली सोलर एनर्जी का सबसे ज्यादा हिस्सा इसी क्षेत्र से मिलेगा।
सूरज से बरसेगा सोना
भारत सरकार के जवाहरलाल नेहरू सोलर मिशन से राजस्थान में दूर-दूर तक फैले अथाह रेत के टीलों की फिजा अब बदलने लगी है। इसका बड़ा कारण यहां ऊर्जा का उत्पादन है। यह राज्य पहले पवन ऊर्जा और अब सोलर हब बनने की राह पर अग्रसर हो रहा है। यूपीए सरकार के नवीन एवं नवीकरण ऊर्जा मंत्रालय की योजना के तहत राजस्थान में विकसित किए जा रहे सौर ऊर्जा प्लांटों से हजारों बेरोजगारों को रोजगार मिल रहा है। सौर ऊर्जा से निकली इस रोजगार रूपी रोशनी से आज समूचा पश्चिम राजस्थान जगमग हो रहा है। एक प्रकार से ग्रामीणों पर धन वर्षा हो रही है। कभी दूसरे प्रदेशों में जाकर दो जून की रोटी का जुगाड़ करने वाले युवाओं को अब गांवों में ही रोजगार उपलब्ध होने लगा है।
घर में ही रोजगार
भारत सरकार के नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय की योजना से ग्रामीणों में रोजगार की उम्मीद जगी है। कानासर गांव के रहने वाले किशनलाल सियाग क्षेत्र में लग रही सोलर इकाइयों से काफी खुश हैं। उन्होंने बताया कि वह पहले गुजरात में मजदूरी के लिए जाता था। अब उसे यहीं रोजगार मिल रहा है। कभी पूरे इलाके में दूर-दूर तक लोग नजर नहीं आते थे। अब लोगों की स्थानीय स्तर पर रोजगार मिलने लगा है। यही नहीं, जब से यहां सोलर एनर्जी की इकाइयां लगने लगीं, तब से महिलाओं को आमदनी होने लगी है। पशु पालन व अन्य गृह उद्योग चल पड़े हैं। बाप निवासी सुशीला बताती हैं कि उन्होंने डेयरी फार्म खोल लिया है। रोजाना सौ लीटर दूध बिकता है। इसी तरह अन्य उत्पाद बिकने से अच्छी आमदनी हो जाती है।
सामुदायिक विकास की राह खुली
भारत सरकार की इस महती योजना से यहां के लोगों का जीवन स्तर सुधरने लगा है। बाप निवासी दिलीप कुमार शर्मा कहते हैं कि सोलर एनर्जी प्रोजेक्ट आने से लोगों के मकान किराये पर चढ़ गए हैं। सैकड़ों होटल बन रहे हैं। नए मकान बन रहे हैं। कभी पूरे इलाके में मीलों तक गांव नहीं होते थे। अब सोलर कंपनियां गांवों के सामुदायिक विकास पर जोर दे रही हैं। रावरा गांव में दर्जनों प्रोजेक्ट लगे हैं। यहां के सरपंच पहाड़ सिंह बताते हैं कि सोलर कंपनियां गांव में कई विकास कार्य करवा रही हैं। रावरा में उप स्वास्थ्य केंद्र खुल गया है। सामुदायिक केंद्र व सड़कों का निर्माण हो रहा है। इसी तरह बड़ी स्टिड गांव में तीन सामुदायिक केंद्र बनावाये गए हैं। पूरे क्षेत्र में वृक्षारोपण का अभियान चलाया जा रहा है। कई कंपनियां निर्माण क्षेत्र में लगे लोगों के बच्चों की शिक्षा के लिए प्रयासरत हैं। बाप को तहसील उपखंड का दर्जा दिया है। इस बार पुलिस थाने को अपग्रेड किया गया है। यहां आईटीआई खुल रही है। साथ ही औद्योगिक क्षेत्र की प्लानिंग चल रही है। सोलर प्लांटों की सुरक्षा के लिए अलग से पुलिस चौकी प्रस्तावित है।
50 प्रतिशत सब्सिडी की योजना से बनेगा सोलर हब
भारत सरकार के जवाहरलाल नेहरू सोलर मिशन से पूरा मध्य प्रदेश सोलर हब के रूप में उभरने लगा है। सोलर प्लांट लगाने के लिए 50 प्रतिशत सब्सिडी दी जा रही है। कुछ समय पहले टाटा ग्रुप के चेयरमैन साइरस मिस्त्री ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से मिलकर राजस्थान में सोलर एनर्जी में निवेश करने के संकेत दिए। यही नहीं पिछले तीन साल में  513 मेगावाट के प्रोजेक्ट लगे हैं। इनमें से 330 मेगावाट के प्रोजेक्ट तो जोधपुर जिले में ही स्थापित हुए। मिशन के तहत इस साल राजस्थान में 270 मेगावाट के सोलर प्लांट मंजूर किए गए। इनमें से 200 मेगावाट के प्रोजेक्ट अकेले जोधपुर में लग रहे हैं। वर्ष 2018 तक चार गीगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य बनाया गया है। इसमें 15 हजार करोड़ रुपये का निवेश होगा। इतने निवेश से हजारों लोगों को रोजगार मिलेगा। साथ ही राजस्थान बिजली के मामले में आत्मनिर्भरता की और बढ़ेगा।
संस्थान ढांणियां सोलर लाइटों से रोशन
सोलर प्रोजेक्ट आने से पश्चिम राजस्थान में ढांणियां भी सोलर लाइटों से जगमग हो रही हैं। वर्षों से अंधेरे में रह रहे यहां के लोगों के लिए यह किसी वरदान से कम नहीं है। इसमें भी उपभोक्ताओं को 50 प्रतिशत का अनुदान दिया जा रहा है। यही नहीं शैक्षणिक संस्थाओं, औद्योगिक इकाइयों, अस्पताल, नर्सिंग होम, होटल एवं रिसोर्ट्स, सरकारी संस्थानों और वाणिज्यिक संस्थानों को भी सोलर प्रोजेक्ट लगाने में अनुदान दिया जा रहा है। इस स्कीम के तहत क्रमशरू 24, 37, 100, 250, 500 व 1000 वाट क्षमता के उपकरण उपलब्ध करवाए जा रहे हैं।
सौर ऊर्जा पंप सिंचाई प्रणाली लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड में दर्ज
भारत सरकार के नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा विभाग व राजस्थान उद्यानिकी विभाग द्वारा राजस्थान में संचालित सौर ऊर्जा पंप सिंचाई प्रणाली को लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड में दर्ज किया गया है। लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स के अधिकारियों ने हाल ही में इस रिकॉर्ड का प्रमाण पत्र नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रि फारूख अब्दुल्ला व राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को प्रदान किया। सोलर पंप प्रणाली में भी किसानों को 50 प्रतिशत सब्सिडी दी जा रही है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

उच्च शिक्षा में स्वर साधने की व्यर्थ कवायद

डॉ0 दिलीप अग्निहोत्री
जो लोग केवल पठन-पाठन का उद्देश्य लेकर उच्च शिक्षा सेवा में दाखिल हुए थे, उन्हंे अब नये सिरे से सोचना होगा। उनसे अब पहले जैसी अपेक्षा नहीं रही। मुख्य उद्देश्य पहले जैसा नहीं रहा। पहचान का मापदण्ड बदल गया। अध्ययन और अध्यापन के प्रति पहले जैसे समर्पण की आवश्यकता नहीं रही। कक्षा छोड़कर प्रमाण-पत्र बटोरने का संदेश दिया जा रहा है। इसे एक हद तक बाध्यकारी बनाने का प्रयास हो रहा है। बच्चों को क्या पढ़ाया, कितना पढ़ाया, किस तरह पढ़ाया, इसका महत्व कम किया जा रहा है। इसमंे संदेह नहीं कि समय के साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी परिवर्तन होना चाहिए। पाठ्यक्रम तथा तकनीक मंे आवश्यकता के अनुरूप बदलाव होने चाहिए। इस प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता। लेकिन परिवर्तन की दिशा-दशा पर अवश्य विचार होना चाहिए। क्या किसी शिक्षक का वास्तविक आकलन राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनार में भागीदारी से हो सकता। अब तो बात भागीदारी तक सीमित नहीं रही। सेमिनार मंे शोध-पत्र प्रस्तुत करने पर ही उसके कैरियर मंे अंक जुड़ेंगे। क्या शोध पत्र लेखन से शिक्षक की उपयोगिता प्रमाणित हो सकती है। क्या किताब न लिखने वाले शिक्षक को अच्छा नहीं माना जा सकता। परिवर्तन बड़ी तेजी से चल रहे हैं। अब  किताब पर आईएसबीएन नम्बर होगा, तभी शिक्षक के अपने नम्बर बढ़ेंगे। किताब कैसी है, कितनी उपयोगी है, उसकी क्या सार्थकता है, विद्यार्थियों या समाज के लिये उसका क्या महत्व है, इन बातों का कोई मतलब नहीं। इधर आईएसबीएन नम्बर मिला, उधर शिक्षक की योग्यता मंे पच्चीस नम्बर बढ़ गये।
परिवर्तन के इन प्रयोगों से थोड़ा पीछे लौटिए। विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों मंे शिक्षा के प्रति पूरी तरह समर्पित शिक्षकों की कमी नहीं थी। इनमंे ऐसे अनेक शिक्षक होते थे, जिन्होंने अपने जीवन में कोई किताब नहीं लिखी, प्रोजेक्ट नहीं किये, विदेश यात्रा की कौन कहे, वह अपना शहर छोड़ने के पहले भी चार बार सोचते थे। उनका लक्ष्य केवल एक होता था कि किस प्रकार अपनी क्लास में बेहतर शिक्षा दें। क्लास के बाहर भी गुरू-शिष्य परम्परा का निवाघर््ह करते थे। छात्रों के हित के लिये सदैव तत्पर रहते थे। मैं जब यह लिख रहा हूं, मुझे स्नातक-स्नातकोत्तर के समय अपने शिक्षक याद आ रहे हैं। पूरे सत्र में मैंने कभी नहीं सुना कि वह किसी राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय सेमिनार मंे शामिल होने गये हैं, इसलिए क्लास में नहीं आयेंगे। कभी नहीं सुना कि वह शोध-पत्र या किताब लिखने में बहुत व्यस्त हैं, इसलिए क्लास पर कम ध्यान दे रहे हैं। ऐसे अध्यापकों को मैंने लिखते नहीं देखा, लेकिन सदैव पढ़ते देखा। घर में, पुस्तकालय में उनको पढ़ाते ही देखा। लगा कि वह हम विद्यार्थियों को ज्ञान देने, अपडेट करने के लिये इतनी मेहनत करते हैं। वहीं ऐसे भी शिक्षक थे जो स्वेच्छा से किताबें, शोध पत्र लिखते थे। लेकिन इसके पीछे आत्म प्रेेरणा थी। बाध्यता नहीं थी। उद्देश्य उनका भी वही था। क्लास में अच्छी शिक्षा देना। यह उनका परम लक्ष्य था। लेखन साथ-साथ स्वाभाविक रूप में चलता था। दोनों भूमिकाओं में कोई टकराव नहीं था। अब बाध्यता है, इसलिए विसंगति है।
मैंने अपनी पीएचडी प्रो0 मदन मोहन पाण्डेय के निर्देशन मंे की थी। वह डीएवी कानपुर मंे राजनीति शास्त्र के विभागाध्यक्ष थे। उन्होंने अपने जीवन में केवल दो किताबें लिखीं। लेकिन क्लास रूम में उनके बारे में प्रसिद्ध था कि उन्हंे राजनीतिशास्त्र की सैकड़ों किताबों की लाइनें और पेज संख्या तक याद है। आदर्श शिक्षक माने जाते थे। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी डीएवी कानपुर में उनके शिष्य थे। प्रो0 पाण्डेय से पढ़ने के लिये विद्यार्थी लालायित रहते थे। वह बाद में कानपुर के ही डीबीएस पोस्ट ग्रेजुएट कालेज में प्राचार्य हुए थे। बात पुरानी है। स्व0 प्रो0 पाण्डेय जैसे आदर्श शिक्षक आज प्रोफेसर बनने के लिये फार्म भरने लायक नहीं माने जाते। बिना आईएसबीएन नम्बर वाली मात्र दो किताबें उन्हें अयोग्यों की श्रेणी में पहुंचा देतीं।
उच्च शिक्षा मंे कमजोर कडि़यां उस समय भी थीं, वही आज भी क्लास मंे शिक्षा देने को अपना लक्ष्य मानने वाले योग्य व समर्पित शिक्षक हैं। लेकिन इनमें अनेक शिक्षक अब विश्वविद्यालयों में रीडर, प्रोफसर नहीं बन सकते। उन्हंे प्वाइंट के बल पर अपनी योग्यता साबित करनी  होगी। अन्यथा वह दौड़ से बाहर रहेंगे। कैसी विडम्बना है। यदि कोई शिक्षक अपने एक-दो दशकों के कैरियर में निष्ठा से पढ़ाता रहा, उसने अन्य कार्यों पर ध्यान नहीं दिया, तो उसके लिये संदेश साफ है। वह प्रोफेसर रीडर पद के लिये आवेदन नहीं कर सकता।  उसके लिये पिछले दशकों का कोई महत्व नहीं रहा। कुछ महीने पहले आदेश निर्गत हुआ फिर प्वाइंट के आधार पर अर्हता का निर्धारण शुरू हो गया। रिक्तियां निकलीं। फार्म मंे कालम बना दिये गये। इसमंे सेमिनार के प्रेजेन्टेशन पर प्वाइंट बताने हैं, आईएसबीएन नम्बर वाली किताबों के प्वाइंट हैं, रिफ्रेसर-ओरिएन्टेशन के प्वाइंट हैं, निर्धारित जर्नल्स में प्रकाशित शोध पत्रों के प्वाइंट हैं। जितने कालम दिये गये, वही भरने हैं। इसके बाहर ज्ञान का क्षेत्र समाप्त हो जाता है। फरमान यही है। कालम में चार सौ प्वाइंट हो जाएं, तभी फार्म मंजूर होगा। यह राजाज्ञा है। किसी ने मौलिक लेखन किया, लेकिन आईएसबीएन नम्बर नहीं मिला, तो उसे कूड़ा समझा जायेगा।
देश के विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों मंे ऐसे विभाग होना आम बात है, जहां केवल एक स्थायी शिक्षक है। उससे भी अपेक्षा की जा रही है कि वह रिफ्रेसर-ओरिएन्टेशन, सेमिनार में शामिल होता रहे। क्लास वरीयता में नहीं रहे। शिक्षकों से लेखन की अपेक्षा की जा सकती है। लेकिन इसे योग्यता या कैरियर से जोड़कर बाध्यकारी बनाना गलत है। पहले वरिष्ठ शिक्षक कनिष्ठों के सामने उदाहरण पेश करते थे। वह खूब पढ़ते-पढ़ाते थे। आज कैसे लोग प्रेरणा दे रहे हैं। जो पांच-दस पेपर लिखकर पूरे देश में घूमते हैं। घुमा-फिराकर हर जगह वही बातें। यह सिलसिला दशकों तक चलता है। ये सेमिनार-संगोष्ठियों के विशेषज्ञ हो जाते हैं। नीति-निर्माण पर उनका प्रभाव होता है। वैसे ही नियम बन रहे हैं। शिक्षा मंे सुधार दिखाई नहीं दे रहा है। योग्यता निर्धारण के नियमों से ऐसा अवश्य लगता है जैसे कोई लाठियों से मार-मार कर किसी को गाने के लिये बाध्य कर रहा है। ज्ञान की धारा कैसे बहेगी? शिक्षा सरस कैसे होगी। इन प्रश्नों का जवाब नीति निर्याताओं के पास नहीं है।

(लेखक डॉ0 दिलीप अग्निहोत्री चर्चित स्तम्भकार हैं। डॉ. अग्निहोत्री समय-समय पर आलेख लेखन का कार्य पूरी निष्ठा के साथ निष्पादित करते हैं। डॉ. अग्निहोत्री की तमाम पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं।)

आम आदमी नहीं होता अराजक


मृत्युंजय दीक्षित 
49 दिनों तक दिल्ली में मुख्यमंत्री रहते हुए हर बात पर अराजकता फैलाने वाले अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी के लोग अब पूरी तरह से अनुषासनहीन और अराजक हो गये हैं। कुछ राजनैतिक विष्लेषक उनकी अराजकता और उदंडता को अनुभवहीनता का परिचायक बताकर बचाव कर रहे हैं। अपनी राजनीति को चमकाने के लिए अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी के लोग आम आदमी पार्टी की सफेद पोटी पहनकर राजमोहन गांधी जैसे समाज के चुके हुए लोगों के सहारे संसदीय राजनीति में अपनी पताका पहराने का स्वन देख रहे हैं। 
जब से जनलोकपाल के बेसिर पैर के मुददे पर दिल्ली की जनता से झूठ बोलकर मुख्यमंत्री पद से भागे हैं। तभी से वे लगातर झूठ पर झूठ बोलकर भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी और काग्रेसी युवराज राहुल गांधी के खिलाफ सुनियोजित प्रायोजित अभियान चला रखा है। यह बात अब साफ हो गयी है कि केंजरीवाल पूरी तरह मानसिक रूप से अपराधी, हिंसक मनोवृत्ति वाले दो टके के सड़क छाप नेता हैं।जब उन्हें मोदी को बदनाम करने के लिए कुछ नहीं मिला तब उन्होंने गुजरात के विकास का रियलिटी टेस्ट करने व मोदी को गुजरात में ही घेरने की गरज से वहांका दौरा करने का प्रयास किया।लोकतंत्र मेंहरकिसी को चुनाव लड़ने जनता के बीच जाने और अपनी बात रखने का अधिकार दिया गया है।लेकिन इसके बीच भी कुछ कानूनी सीमाएं होती है, नियम होते हेैं। अरविंद केजरीवाल व आम आदमी पार्टी के लोग इन सब बातों को भूलकर सभी संवैधानिक मर्यादाओं व लांेकतांत्रिक परम्पराओं का हनन करने पर उतारू हो गये हैंे। 
छह मार्च को चुनाव आयोग की ओर से आदर्ष आचार संहिता लगाने के बाद वे बिना अनुमति के रोड षो निकालना चाह रहे थे। लेकिन जब उनके काफिले के साथ पांच सौ लोग भी नहीं जुट पाये तब उन्होनें एक सोची समझी राजनीति के तहत अपनी स्क्रिप्ट बदल दी। गुजरात पुलिस उन्हंे किसी भी कीमत पर गिरफ्तार नहीं करना चाह रही थी लेकिन जनता के बीच में हीरो बनने के लिए मोदी को गाली देने के लिए स्वांग रच ही दिया।
प्ूारी तरह से नौटंकीबाज केजरीवाल ने यहां पर फिर झूठ का सहारा लिया। अपनी गिरफ्तारी की खबर एक एसएमएस के माध्यम से दिल्ली पहुचा दी। जिसके बाद आम आदमी पार्टी के तथाकथित नेताओं का मीडिया में आने का तथाकथित प्रेम एक बार फिर उजागर हो गया। देषद्रोही बयान देेने के लिए लोकप्रिय प्रषांत भूषण व तथाकथित पत्रकार आषुतोष गुजरात व मोदी को गालियां देने के लिए मैदान में कूद पड़े।लेकिन जब यह दांव भी उल्टा पड़ने लगा तो केजरीवाल ने एक बार फिर पार्टी कार्यकर्ताओं को उकसा दिया। उसके बाद देर षाम के बाद देषभर के कई हिस्सों में आम आदमी पार्टी के नेताओं ने राजधानी दिल्ली सहित अन्य षहरों में भाजपा कार्यालयों पर हमला बेाला उसे टीवी पर सोषल मीडिया में सभी ने देखा। दिल्ली में आम आदमी पार्टी के नेता आषुतोष व तथाकथित नकली गांधीवादी राजमोहन गांधी ने जिस प्रकार का व्यवहार प्रदर्षन किया उससे इन लोगों के प्रचंड पाखंड की कलई खुल गयी है। इनका एकमात्र मकसद मोदी को बदनाम करना ही था। जोकि अब इनके विपरीत जा रहा है।
आम आदमी पार्टी अब लोकतांत्रिक नहीं अपितु पूुरी तरह से भीड़तंत्र में स्थापित हो चुका है।यह गुंडा तंत्र है। केजरीवाल को यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए की अब देष की जनता समझदार है अगर सिर आंखों पर बैठाती हो तो वह राजनैतिक परिदृष्य से ऐसे नेताओं को गायब भी कर देती है। वह नियमों के विपरीत जाना चाहते हैं। अरविंद केजरीवाल का यह बड़ा सौभाग्य है कि वह भारत में जन्मे हैं।यदि अमेरिका आदि में कानून तोड़ते तो वे वहां क्या करते ? 
लोकतंत्र में विरोध करने का अपना एक तरीका होता है। लोकतंत्र में जनता का दिल हिंसा और अराजकाता फैलाकर नहीे जीता जा सकता है। अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के नेताओं के खिलाफ अब एफआईआर दर्ज हो चुकी है। चुनाव आयोग और दिल्ली पुलिस आम आदमी के नेताओं के खिलाफ कार्यवाही कर रही है। उस पर भी आम आदमी पार्टी को लगता है कि सब कुछ मोदी के इषारे पर हो रहा है। यह लोग भाजपा और मोदी की बढ़त से जल गये हैं। आम जनता और प्रबुद्ध वर्ग के बीच इन लोगों के प्रचंड पाखंड की पोल खुल चुकी है।आम आदमी पार्टी के नेताओं की एकाध सीटों को छोड़कर पूरे देष में जमानत जब्त होने जा रही है। जिसे केजरीवाल भलीभांति जान गये हैं। इसलिए सीआईए के पैसे के बल पर दंगा फैलाने , अराजकाता फैलाने पर भी उतारू हो गये हैं।देष की जनता ऐसे नेताओं को सबक सिखयेगी।

जन भावनाओं का मखौल मत उड़ाइये केजरीवाल साहब!


दिन-रात जनता के हित में काम करने का वायदा किया था और कहाँ आप ‘पोलिटिकली करेक्ट स्टैंड’ के फिक्रमंद हुए जा रहे हैं. इस मुल्क के मतदाता ने बहुत धोखे खाए हैं, लिहाजा हम इत्मीनान से नहीं बैठ सकते जनाब केजरीवाल! हम पहले दिन से ही, पहले घंटे से ही आपके किये के मुन्तजिर हैं...
कश्यप किशोर मिश्र
‘हिन्दू-मुस्लिम एका’ के प्रतीक पुरुष माने जाने वाले जिन्ना को जब कांग्रेस में गाँधी के सामने अपना छोटा होता कद स्वीकार नहीं हुआ, तो उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया. राजनीति से ज़िन्ना का यह संन्यास अपने आप में स्पष्ट करता था कि ज़िन्ना की राजनीति ‘व्यक्तिवादी’ थी और उनको अपनी समाजसेवा की मेहनत का ईनाम चाहिए था.
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एक अंतराल के बाद ज़िन्ना अपनी दुरभसंधियों के साथ वापिस आये और ‘मुसलमान एक अलग कौम’ की अलग तान छेड़ बैठे. पता भी न चला और बस एक दशक के भीतर ज़िन्ना के पीछे-पीछे चला समूह एक अलग कौम पाकिस्तान बन गया. इस धुन के फ़रेब से जबतक पाकिस्तानी भाइयो की आँख खुलती, तबतक दो कौमियत के उसूल को तमाचा लगाते पाकिस्तान से एक अलग मुल्क बांग्लादेश बन चुका था.
ऐसा नहीं है, कि ज़िन्ना का पाकिस्तान किसी बहुत सोच-विचार का नतीज़ा था. ज़िन्ना की कल्पनाओं में जहाँ एक तरफ सदर-ऐ-मुल्क होने का ख़्वाब था, तो दूसरी तरफ अपने सप्ताहांत की छुट्टियाँ बम्बई के अपने बंगले में बिताने जैसा एकदम विरोधी ख्याल भी शामिल था.
अपने ख़्वाब की तामीर के पहले उदबोधन की बिना पर तो ज़िन्ना का पाकिस्तान, नेहरू के हिंदुस्तान के मुकाबले कई गुना ज्यादा सेकुलर होने वाला था, पर विमान से जब उन्होंने शरणार्थियों के हूजूम देखे, तो सिर पकड़ बैठ गए और बस उनके मुंह से यही निकला ‘हे भगवान् ! मैंने ये क्या कर दिया’. बीमारी के दौरान ज़िन्ना ने अपने चिकित्सक से पाकिस्तान को अपनी ज़िन्दगी की हिमालयी भूल कहा था. कम से कम ज़िन्ना, ईमानदार थे कि उन्होंने ख़ुद को गलत माना.
इधर आज़ादी के साथ ही नेहरू ने 'ट्राईस्ट विथ डेस्टिनी' के राग में आम आवाम को झूमाना शुरू किया और निर्गुट आन्दोलन के जरिये अपने लिए एक विश्व-नागरिक की पहचान का ईनाम ढूढने चल दिए. नेहरू के सपनों का ‘अंतिम अंग्रेज’ बस भारतीयों के ही नहीं, बल्कि दुनिया के दिलों पर राज करना चाहता था, पर भारत पर चीन के हुए हमले ने, नेहरू के फ़रेबी-राग को भंग कर दिया और सामान्य भारतीय जनता मानो सोते से जाग गयी. जनता की प्रतिक्रिया आये, इसके पहले नेहरू की मौत हो गई.
लालबहादुर शास्त्री ने अपने छोटे से कार्यकाल में पाकिस्तान को युद्ध में मात दी और युद्ध में जीती जमीन समझौते की मेज पर हार आये. समझौते के तुरंत बाद ताशकंद में ही शास्त्री जी की मौत हो गई और इंदिरा गाँधी परिदृश्य पर उभर आयीं. गूंगी गुड़िया इंदिरा के लिए जोड़-तोड़ का काम कामराज ने किया था.
अपने चौदह महीने के शासन के साथ इंदिरा गाँधी चौथी-लोकसभा के चुनाव का सामना कर रही थी. कांग्रेस के आतंरिक झगड़ो से आम आदमी ऊबा हुआ था. जर्जर अर्थव्यवस्था जहाँ हिंदुस्तान के मध्यम वर्ग की थाली पर असर डाल रही थी, तो निरंतर रुपये के अवमूल्यन से पैदा हुई महंगाई गरीबों को बदहाल कर रही थी. उत्तर पूर्व में मिजो आदिवासी असंतोष बगावत की शक्ल अख्तियार कर रहा था, तो मजदूर अपनी मजदूरी काम के घंटों और सुविधाओं के लिए आंदोलनरत थे.
पंजाब में भाषाई और धार्मिक अलगाववाद उभार पर था और इन सब पर भारी अकाल ने आम-आदमी के असंतोष को उभार दिया. अत्यंत सीमित विकल्पों के बाद भी भारत की जनता ने नीचले सदन में कांग्रेस से 60 सीटें छीन लीं और विधानसभा चुनावों में बिहार, केरल, उड़ीसा, मद्रास, पंजाब और पश्चिम बंगाल से कांग्रेस की सत्ता जाती रही.
अब यह ज़रूरी था कि गूंगी गुड़िया रही इंदिरा गाँधी खुलकर सामने आये. उन्होंने सबसे पहले अपने शुरू से ही मुखर विरोधी रहे, मोरारजी भाई देसाई को नवम्बर-69 में अनुशासनहीनता का आरोप लगाते कांग्रेस से निकाल बाहर किया. कांग्रेस दो हिस्से में बंट गयी, कांग्रेस (ओ) और कांग्रेस (ई).
किसी राजनीतिक दल के साथ संगठन वाद या विचार से इतर किसी व्यक्ति का इस तरह महत्वपूर्ण हो उठना उस वक़्त तक भारतीय राजनीति में ज़िन्ना के बाद व्यक्तिवाद का पहला उदाहरण था. इंदिरा का उभार किसी भी लिहाज से एक अत्यंत दुर्लभ राजनीतिक घटना थी, क्योंकि भारतीय राजनीति में बिना किसी वाद, विचार या संगठन के एक व्यक्ति का किसी दल को इस तरह हथिया लेना इसके पहले कभी नहीं हुआ था.
इंदिरा ने कांग्रेस-संगठन से अलग होकर कांग्रेस (ई) बनाई. यह व्यक्तिवाद की पराकाष्ठा थी और उससे एक कदम आगे जाते हुए, जैसे ख़ुद की कांग्रेस को ही मूल कांग्रेस की तरह स्थापित करने में सफल रही उसने भारतीय राजनीति में ‘चारण युग’ का सूत्रपात किया.
इंदिरा अब चतुराई से राजनीति करना सीख चुकी थी. उन्होंने एक साल अल्पमत की सरकार चलाई और दिसंबर-70 में एक साल पहले ही मध्यावधि चुनाव का शंख फूंक दिया. देश का एक बड़ा वर्ग अत्यंत निर्धन था. अपनी बदहाली के लिए वह सत्ता के विरुद्ध कोई प्रतिक्रिया करता उसके पहले ही इंदिरा ने उनके लिए अत्यंत ‘श्रुति-सुखकर’ नारा ‘गरीबी-हटाओ’ का ईजाद कर लिया.
बस इस एक अकेले नारे के साथ इंदिरा चुनाव में कूद पड़ी और जनता को भरमाने में भी सफल रहीं. चौथी लोकसभा की 283 सीटों के मुकाबले इंदिरा के पांचवी लोकसभा में 352 सांसद थे. इस बढ़त ने इंदिरा को प्रचंड आत्मविश्वास से भर दिया. दिसंबर-71 में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम की विजय ने इंदिरा की छवि लौह महिला की बना दी.
पर इन सबका कोई भी फ़ायदा भारत की जनता को नहीं मिल रहा था. उल्टे युद्ध की भारी लागत, तेल की बढती कीमतों और घटते औद्योगिक उत्पादन ने लोगों का जीना मुहाल कर दिया था. पर इंदिरा अब जनता को बहलाना सीख चुकी थी. उनकी भंगिमायें और कार्य भावनात्मक तौर पर जनता पर असर करते थे. उन्होंने भारतीय जनता को आत्ममुग्ध करने की कसरत शुरू कर दी.
वो एक तरफ भारतीय जनता को कभी परमाणु-विस्फोट से तो कभी प्रिवी-पर्स की समाप्ति और बैंकों के निजीकरण से बहला लिए जा रही थीं, तो दूसरी तरफ एक-एक कर अपने विरोध में उठने वाली हरेक आवाज को दबाती भी जा रही थी. अब इंदिरा किसी भी विरोध से बेपरवाह एक निर्विघ्न शासक बन गयी थी, जहा प्रतिरोध के स्वर नगण्य थे.
पर इन सबसे अलग, इलाहाबाद उच्च-न्यायालय के एक अकेले फ़ैसले ने इंदिरा के आधिपत्य को चुनौती दे दी. 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने चुनावी भ्रष्टाचार के आधार पर इंदिरा के 1971 के चुनाव को अवैध ठहरा दिया. इंदिरा अब तक बेलगाम हो चुकी थीं. उनकी मनःस्थिति एक लोकतंत्र के प्रधान की बजाय एक राजतंत्र वाले राजा की हो चुकी थी, जिसकी ख़ुद की सनक की कीमत भी उसके प्रजा को चुकानी पड़ती थी.
इंदिरा ने मध्यकाल के राजाओं वाली सनक का परिचय देते हुए बजाय इस्तीफ़ा देने के 26 जून को आपातकाल की घोषणा कर दी और पूरे विपक्ष को जेल में डाल दिया. यह सबकुछ इतना त्वरित और अकल्पनीय था कि इसकी खबर जनता को सुबह के समाचार से मिली.
आपातकाल के इक्कीस महीने, देश की जनता को अपने मताधिकार के सूझ-बूझ से इस्तेमाल करने के सबसे बड़े सबक थे. सारे नागरिक अधिकार समाप्त कर दिए गए. यह भारत के लोकतंत्र के सबसे अँधेरे दिन थे जब एक तरफ इंदिरा का अमर्यादित व्यवहार किसी तानाशाह की तरह का था, तो दूसरी तरफ उनके पुत्र संजय गाँधी, वस्तुतः दूसरे सत्ता ध्रुव बन गए थे, इन सबसे इतर संजय का एक चारण-भाट दल अत्यंत प्रभावी हो चुका था.
संजय का चापलूस और चारण यह दल एक से एक अमर्यादित कृत्य करता रहता. उस वक़्त सत्ता में प्रभावी रहा दल-बल लूट के हर मौके और तरीके को बड़ी ही निर्लज्जता से अमल में ला रहा था. भारतीय लोक ने अपनी बेबसी की जो वीभत्सतम कल्पना की थी, यह काल उससे भी वीभत्स था. 21 मार्च 1977 को आपातकाल समाप्त हुआ और इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग कर चुनाव कराने की सिफारिश कर दी।
जनता ने इंदिरा और उनके दल बल को करारा जबाब दिया और इंदिरा के विरोध में बने जनता पार्टी को अपना विश्वास सौपते हुए सत्ता सौप दी. मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने. जनता पार्टी को भारत की जनता ने सिर्फ सत्ता ही नहीं, अपने विश्वास की थाती भी सौपी थी.
उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली से कांग्रेस का एक भी उम्मेदवार विजयी नहीं हुआ. ख़ुद इंदिरा गांधी रायबरेली से चुनाव हार गयीं और कांग्रेस के मात्र 153 सांसद लोकसभा में पहुंचे. यह एक भयानक पराजय थी और विरोधी दलों की प्रचंड विजय भी.
भारतीय जनता, जिसका अहम् आपातकाल में बुरी तरह रौंदा गया था, ने कांग्रेस के सिर्फ उन्ही चेहरों को लोकसभा की राह दिखाई थी, जिसे उसने इंदिरा की व्यक्तिवादी और उन्मक्त राजनीति से इतर समझा था. जनता इंदिरा से इतनी बिफरी हुई थी कि जिसने भी इंदिरा का विरोध किया या इंदिरा द्वारा आपातकाल में प्रताड़ित हुआ उसे विजयी बना दिया.
जनता ने बड़े हुमक के साथ इंदिरा को बेदखल कर के यह प्रमाणित करने की कोशिश की कि ‘लोकतंत्र का राजा लोक होता है, तंत्र के शीर्ष पर बैठे लोग नहीं और शीर्ष पर बैठे लोग लोकजीवन से जुड़े हितों के प्रहरी मात्र होते हैं.’
जून 75 की शुरुआत में जयप्रकाश नारायण ने सम्पूर्ण क्रांति का नारा दिया था. जयप्रकाश नारायण जिन्हें जेपी भी कहा जाता था, के साथ पूरा बिहार हुंकार भर के खड़ा हो गया. जून के अंत में इंदिरा ने आपातकाल लगा दिया और जेपी को गिरफ्तार कर लिया, पर सम्पूर्ण क्रांति के स्वर दबाने में वह असफल रही.
जनता पार्टी के सूत्रधार जेपी थे, पर अधिक उम्र और अस्वस्थता की वजह से उनका सक्रिय रहना कठिन था, लिहाजा खूब सारी रार, मान मनौअल के बाद मुरारजी देसाई ने जनता पार्टी के प्रधानमंत्री के तौर पर मार्च-77 के अंत में शपथ ग्रहण की. प्रधानमंत्री पद के दूसरे दावेदार और प्रधानमंत्री की कुर्सी न मिलने से खफा चौधरी चरण सिंह उप-प्रधानमंत्री बने.
जनता पार्टी की सरकार तो बन गयी, पर स्थिति ‘मुंडे-मुंडे मतिभिन्ना’ की थी. सरकार बन जाने के बाद जनता पार्टी से जुड़े लोग अपना हित देख रहे थे, जबकि मोरारजी देसाई कायदे के बड़े सख्त थे, उनके भीतर प्रशाशनिक सख्ती भी बहुत थी, साथ ही वो एक बेलाग-लपेट बात करने वाले आदमी थे. लिहाजा सरकार बनने के साथ ही गुटबाजी और आपसी खींचतान नज़र आने लगी. जनता ने बड़े भरोसे से जनता पार्टी के हाथ में शासन की बागडोर सौपी थी, पर सरकार एक तमाशा बन गई थी.
जनता इस तमाशे से विचलित थी, पर जनता पार्टी से जुड़े लोग अड़ियल रुख से काम कर रहे थे, यहाँ तक कि जनता पार्टी ने शासन में आते ही उन नौ राज्यों में जहाँ कांग्रेस की सरकार थी, उन्हें भंग कर दिया और वहां चुनाव की घोषणा कर दी. यह अत्यंत असंवैधानिक, अलोकतांत्रिक और गलत निर्णय था, पर जनता पार्टी सारी आलोचनाओ को दरकिनार कर अपने रुख पर कायम रही.
कांग्रेस भी चुप नहीं बैठी थी, उसने चौधरी चरण सिंह और हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे लोगों को तोड़ना शुरू कर दिया कांग्रेस की धुर विरोधी जनसंघ ने जनता पार्टी में अपना विलय कर लिया था, पर उसकी एक इकाई ‘आरएसएस’ जो राजनीतिक दल के रूप में पंजीकृत नहीं थी, अपने अस्तित्व को कायम रखे हुए थी. पूर्ववर्ती जनसंघ के सदस्यों के ‘आरएसएस’ से सम्बन्ध के मुद्दे को चरण सिंह ने हवा देना शुरू किया और इसी मुद्दे पर चरण सिंह ने जनता सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया.जनता अवसरवादिता के इस निकृष्ट उदाहरण की बेबस गवाह बनने को मजबूर थी.
जिस कांग्रेस विरोध में उसने जनता पार्टी को अपना मत दिया, उसी का एक हिस्सा बड़ी ही बेशर्मी से चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने का दावा कर रहा था. चौधरी चरण सिंह अवसरवादिता के इस घटिया गठजोड़ के प्रधानमंत्री बने और यह सरकार पांच महीने तक चली, जिसमें चौधरी चरण सिंह कभी संसद नहीं गए.
आम जनता के साथ यह करारा विश्वासघात था. जनता ने समाजवाद और राष्ट्रवाद के जिस घालमेल को नजरअंदाज कर, लोकद्रोही इंदिरा को हरा जनता पार्टी को अपना विश्वास सौंपा था, उस विश्वास की जनता पार्टी के धड़े अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और अंतरविरोधों की खुलेआम अभिव्यक्ति से खिल्ली उड़ा रहे थे.
दूसरी तरफ अपने खिलाफ़ चल रहे आक्रामक जाँच के तेवरों से इंदिरा फिर से सहानुभूति का पात्र बन रही थी. इंदिरा जनता पार्टी के नेताओं के मुकाबले कई गुणा ज्यादा चतुर थी. उन्होंने जनता पार्टी के नेताओं की फूहड़ता का पूरा फ़ायदा उठाया और पांच महीने बाद चरण सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया.
भारतीय जनता के पास अब कोई विकल्प नहीं था. इंदिरा के रूप में एक अकेला चरित्र था, जो मजबूत सरकार दे सकता था और सातवें आम चुनाव में इंदिरा कांग्रेस ने 350 जबकि जनता पार्टी ने 32 सीट प्राप्त कीं. जनता पार्टी ने भारतीय जनता से तगड़ा विश्वासघात किया था और वह अपने को मूर्ख बना महसूस कर रही थी.
इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद अंतरिम प्रधानमंत्री बने ‘मि. क्लीन’ राजीव गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने भारी बहुमत से जीत हासिल की और 409 लोकसभा सीटों के प्रचंड बहुमत से वह सत्ता में आई. पर राजनीति में अनुभवहीन राजीव गाँधी पार्टी के भीतर चल रहे भितरघात और गुटबाजी से निबटने में इंदिरा की तरह सक्षम नहीं थे.
राजीव को अभी राजनीति के प्रारम्भिक पाठ भी सीखने थे और उनका पाला बड़े ही घाघ राजनीतिज्ञों से था. कांग्रेस के भीतर का ही एक गुट राजीव की कैम्ब्रीज की पढाई और आम आदमी से जुडाव न होने की ख़बरे उड़ाया करता. राजीव युवा थे और उस वक़्त भारतीय उपमहाद्वीप की भू-राजनीतिक परिस्थितियां जटिल थी.
राजीव ने मालदीव में सत्ता-पलट की एक कोशिश नाकाम की और वाहवाही लूटील, पर तमिल समस्या उनके गले की फांस बन गयी. आपरेशन ब्रास ट्रैक्स के जरिये पाकिस्तान पर दबाव बनाया, तो बोफ़ोर्स का जिन्न उछल कर सामने आ गया. राजीव पर उसके ही मंत्रिमंडल के सहयोगी विश्वनाथ प्रताप सिंह आक्षेप करने लगे.
एक तरफ सहयोगियों का आक्षेप तो दूसरी तरफ राष्ट्रपति जैल सिंह से मनमुटाव की खबरों के बीच राजीव ने अपने राजनीतिक जीवन की भयानक भूल की. राजीव ने प्रेस-अध्यादेश लाकर अखबारों की स्वतंत्रता सिमित करने की कोशिश की, जिसे चौतरफ़ा विरोध के बाद उन्होंने वापस ले लिया. पर प्रेस उनका विरोधी हो चुका था.
अखबारी जगत ने राजीव को खलनायक बना दिया और मंत्रिमंडल से बर्खास्त किये जाने के बाद कांग्रेस और लोकसभा में अपनी सदस्यता से इस्तीफा देकर, अरुण नेहरू और आरिफ मोहम्मद खान के साथ जन मोर्चा नाम से अपना दल बनाकर राजीव विरोध की राजनीति कर रहे ‘विश्वनाथ प्रताप सिंह’ को जननायक बनाकर पेश कर दिया.
जनता विश्वनाथ प्रताप सिंह और मीडिया की जुगलबंदी को समझ नहीं पाई और एक बार फिर फ़रेब का शिकार हुई. अखबारों ने ‘वीपी सिंह’ की ‘राजा नहीं फ़कीर’ की छवि गढ़ दी और राजीव की छवि बोफ़ोर्स के दलाल की गढ़ दी गई. वीपी एक मंझे हुए राजनीतिज्ञ थे, उनके मुकाबले राजीव अनाड़ी थे. विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जान-बूझकर इस अफवाह को हवा दी कि उनके पास बोफ़ोर्स मामले से जुडी एक ऐसी फाइल है, जिससे राजीव का राजनीतिक जीवन तबाह हो जायेगा.
वीपी अपनी जनसभाओं में एक पॉकेट डायरी निकालते और दावा करते इस डायरी में बोफ़ोर्स से जुड़े खातों और व्यक्तियों के नाम के विवरण मौजूद हैं और वह उन्हें बेनकाब करके रहेंगे. वीपी का यह दावा बाद में सफ़ेद झूठ निकला, उनके पास ऐसी कोई जानकारी नहीं थी और वे आम जनता को धोखा दे रहे थे. जनता वीपी सिंह के फ़रेब का शिकार हुई और उसने एक झूठ बोलकर फ़रेब गढ़ रहे आदमी को भारत का प्रधानमंत्री बनने का मौका दे दिया.
वीपी सिंह बोफ़ोर्स से जुडा कोई दावा सामने नहीं ला सके. उनके कार्यकाल की दो प्रमुख स्मृतियाँ बीजेपी का उभार और मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करना रही. वीपी की मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने की काट बीजेपी ने रथयात्रा से करने की कोशिश की, जिसका अंत सरकार से बीजेपी के समर्थन वापसी के रूप में सामने आया.
वीपी सिंह के पास विश्वास मत हारने के बाद कोई चारा नहीं बचा. उन्होंने नवम्बर-90 में इस्तीफ़ा दे दिया. कांग्रेस ने, 64 सांसदों के साथ जनता दल से अलग हो गए चंद्रशेखर की समाजवादी जनता पार्टी को बाहर से समर्थन देकर सरकार बनवाई, जो मार्च-91 के शुरू तक चली. कांग्रेस विरोध के नाम पर आये चंद्रशेखर अपने दल के साथ कांग्रेस के समर्थन से सरकार चला रहे थे और देश की जनता इस विडंबना की मूक गवाह बने रहने को मजबूर थी.
दसवें आम चुनाव के दौरान राजीव गाँधी की हत्या हुई और 232 सीटों के साथ कांग्रेस ने पीवी नरसिंहराव के नेतृत्व में अल्पमत सरकार बनायी. यह सरकार लगातार घोटालों के आरोप में रही. विश्वास मत पाने के लिए इस सरकार पर सांसदों की ख़रीद-फ़रोख्त के आरोप लगे, जो कालांतर में सही साबित हुए और कुछ करने की बजाय यह सरकार कुछ न करने के लिए ज्यादा जानी गई.
इसी सरकार के दौरान अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाया गया. यह आरोप लगे कि विवादित ढांचे को ढहाने में नरसिंह राव की मूक सहमति थी. ग्यारहवें आम चुनाव के बाद संसद त्रिशंकु थी. सबसे पहले बीजेपी के अटल बिहारी वाजपेयी ने मई में प्रधानमंत्री का पद सम्भाला और तेरह दिनों के भीतर उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा, जिसके बाद जनता दल के नेता देवेगौड़ा ने जून में संयुक्त मोर्चा गठबंधन की सरकार बनाई.
यह सरकार 18 महीने चली और अंत में एक बार फिर से जनता ने देखा कि बीस बरस भी पूरे नहीं हुए और इस छोटी सी समयावधि में कांग्रेस विरोध के नाम पर चुने लोगों की सरकार को कांग्रेस तीसरी बार समर्थन दे रही थी. कांग्रेस के बाहरी समर्थन से, देवेगौड़ा के विदेश मंत्री इंद्रकुमार गुजराल ने प्रधानमंत्री के रूप में अप्रैल 1997 में पदभार संभाला, जो नवम्बर-97 तक चली.
बाद के छः वर्ष तक बीजेपी का शासन रहा जिसमे बारहवें और तेरहवें लोकसभा चुनाव के साथ साथ वाजपेयी की पहले तेरह महीने और फिर पांच साल का शासन शामिल था. लोकसभा के चौदहवें आम चुनाव के साथ कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई. तमाम नाटकीय घटनाक्रम के बाद मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री बने, पर शुरूआती उम्मीद जगाने के बाद कुल मिलाकर उन्होंने जनता को निराश ज्यादा किया.
इसी निराशा के माहौल में अन्ना हजारे लोक जीवन के प्रतिनिधि बनके उभरे. अन्ना के सहयोगियों में से कुछ ने उनसे अलग होकर एक राजनीतिक आम आदमी पार्टी बनायी और 2014 में होने वाले सोलहवें आम चुनाव के पूर्व एक पायलट प्रोजक्ट के तौर पर दिल्ली विधानसभा के चुनाव में शिरकत की.
दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 32, केजरीवाल के दल को 28 जबकि कांग्रेस को 8 सीटें मिलीं. आज की तारीख में जनता कांग्रेस के बाहर से समर्थन से दिल्ली विधानसभा में चल रही केजरीवाल की सरकार की साक्षी है.
यह जनता, जिसका एक बड़ा हिस्सा बढती शीत के साथ-साथ कांपता है, जिसकी रातें पूस हों तो गहराते जाने के साथ-साथ और गहरी नहीं, उनींदी होती हैं, वो ठंडाते रहते हैं रातभर! फागुनी रातें बस उनका मन ही नहीं भिगोतीं, उनके घर को भी, उनके शरीर को और उसकी जमा-पूँजी को भी गीला करती हैं. उनकी पूरी की पूरी जेठ की दुपहरी और रात गर्मी से भीगते तन-बदन के साथ बीतती है.
इन बीते बरसों में हिन्दुस्तान का आम-मतदाता हो सकता है मूर्ख नहीं रहा हो, राजनीतिक रूप से चतुर हो गया हो, नेताओं को पहचाने भी लगा हो, पर कुल मिलाकर बीतते हर बरस के साथ सत्ता-प्रतिष्ठानों के सामने बेचारा और, और ज्यादा बेचारा ही हुआ है. यह बेचारगी, कम से कम वे लोग जो किसी भी तरह से,किसी भी सत्ता प्रतिष्ठान से नहीं जुड़े हैं, रोज अनुभव करते है.
‘इन्टरप्रेटेशन ऑफ़ डीड्स, डाकुमेंट्स एंड लॉ’ हमें यह सिखाता है कि शब्दों के अर्थों से ज्यादा अर्थवान शब्दों के गर्भित अर्थ होते हैं. जैसा की ‘देरिदा’ भी कहा करते थे ‘शब्दों के मूलपाठ में नहीं, अर्थ उनके अंतरपाठ में होता है’ और जिसे कूटनीतिक तबके में और तरीके से ‘बिट्वीन द लाइंस’ कहते हैं.
इस देश का आम मतदाता न तो अंतरपाठ समझता है, न वाक्य मध्य के आशय जानता-बूझता है. वह अपनी बात सीधी-सीधी कहता है और दूसरों की बात सीधी-सीधी ही समझता भी है. अब अगर कोई आदमी यह कहता है कि वह उनके बीच का ही, उनके जैसा ही एक आम-आदमी है, तो यह असल वाला आम-आदमी यही मान लेगा कि उसके कहे का वही मतलब है, जैसा कि उसने कहा है.
तो जब विश्वनाथ प्रताप सिंह अपनी पॉकेट डायरी दिखाते हुए हरेक जनसभा में कहते फिरते थे कि इस डायरी में बोफ़ोर्स से जुड़े खातों के नंबर उनके पास मौजूद हैं और वह उन्हें बेनकाब करके रहेंगे, तो लोग उस पर बिना ‘तीन पांच’ किये भरोसा करते थे. यह भरोसा टूटा तो ‘राजा नहीं फ़कीर देश की तकदीर’ का नारा लगाने वाले इसी आम आदमी ने उनकी मौत की ख़बर तक को कितनी तवज्जो दी, यह बहुत पुरानी बात नहीं.
ठीक वैसे ही जब केजरीवाल अक्टूबर-13 के दौरान कहते फिरते थे कि उनके पास शीला दीक्षित के खिलाफ़ 370 पेजों के सबूत हैं तो एक आम-आदमी मान लेता था कि हां! इस आदमी के पास सबूत हैं और यह इसे साबित भी करेगा.
क्योंकि केजरीवाल चाहे जो भी हों, पर थे तो ‘भारतीय राजस्व सेवा’ के कमिश्नर रैंक के पूर्व अधिकारी ही, जिन्हें यह भली भांति पता था कि ‘विधि सम्मत सबूत’ क्या होता है. जब वो अपने पास सबूत होने का दावा करते थे, तो उसे साबित करने की जिम्मेदारी भी उनकी ही बन जाती थी.
और अब! जब केजरीवाल कहते हैं, ‘अगर कोई सबूत है तो लेकर आइये दो घंटे में जांच होगी’ तो वह इस आम-आदमी के भरोसे का मखौल उड़ा रहे होते हैं. यहाँ सीधे-सीधे जिम्मेदारी दूसरों के पाले में डाल देने की बात भी है. अर्थात जो सबूत लायेगा, साबित करने की जिम्मेदारी भी उसकी ही होगी कि आरोप सही हैं. यहाँ केजरीवाल किसी भी तरह की जबाबदेही से परे रहेंगे.
अभी जुम्मा जुम्मा चार दिन हुए हैं, पर इस तरह की पलटबयानी के बाद हम इत्मीनान से कैसे रहें? कहाँ तो केजरीवाल ने दिन-रात जनता के हित में काम करने का वायदा किया था और कहाँ वह ‘पोलिटिकली करेक्ट स्टैंड’ के फिक्रमंद हुए जा रहे हैं.
इस मुल्क के मतदाता ने बहुत धोखे खाए हैं, लिहाजा हम इत्मीनान से नहीं बैठ सकते. जनाब केजरीवाल! हम पहले दिन से ही, पहले घंटे से ही आपके किये के मुन्तजिर हैं. हम आपको तगड़ा सपोर्ट भी करेंगे और हम आपका तगड़ा विरोध भी करेंगे.
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कश्यप किशोर मिश्र पेशे से चार्टर्ड ट हैं. अकाउंटेंट हैं.