Friday 7 March 2014

जनतंत्र ही जीवनशैली है


हृदयनारायण दीक्षित

असहमति का आदर जनतंत्र जीवनशैली का प्राण है। जनतंत्र में विपरीत विचार वाले शत्रु नहीं होते। कोई भी समाज एक विचार वाला नहीं हो सकता। विचार भिन्नता ही समाज को गतिशील बनाती है। भारत और दुनिया के ज्ञान इतिहास में ऋग्वेद सबसे पुराना है। यहां अनेक विचार हैं। भौतिकवाद, यथार्थवाद के साथ अव्यक्त को समझने के भी प्रयास हैं। अद्वैत के साथ द्वैत की भी धारा है। ढेर सारे देवता हैं, अनेक देवोपासनाएं हैं। लेकिन उपासक अन्य देव उपासकों को अपशब्द नहीं कहते। वैदिक काल से लेकर महाकाव्य काल तक परमसत्ता की आस्था के समानान्तर दार्शनिक यथार्थवाद का प्रवाह भी चलता है। यहां नियतिवाद है तो पुरूषार्थवाद भी है। वाल्मीकि रामायण के महानायक श्रीराम में दोनो एक साथ हैं। वनगमन के समय श्रीराम कहते हैं, दोष कैकेई का नहीं। वह तो आदरणीय मां है। सारा खेल नियति का है। लेकिन यही श्रीराम रावण को मारने के बाद कहते हैं - नियति के क्रूर चक्र के विपरीत हमने पुरूषार्थ के माध्यम से महाबली रावण को मार गिराया है। यहां नियतिवाद पर पुरूषार्थवाद की विजय है। भारत की संस्कृति और सभ्यता का विकास अनेक विचारधाराओं के परस्परावलम्बन से हुआ।
भारतीय राजनीति संस्कृति से प्रेरणा नहीं लेती। प्राचीन संस्कृति के उद्धरण भी यहां साम्प्रदायिक बताए जाते हैं। चुनावी आरोप प्रत्यारोप श्लील-अश्लील की सीमा पार कर चुके हैं। शब्दबेधी वाण चल रहे हैं। असहमति के आदर का स्वर्णसूत्र सिरे से गायब है। “तू-तू मैं मैं” में लोकतंत्र की मर्यादा का चीरहरण जारी है। भारत का मन आहत है। ऐसी राजनीति भारत की मूल प्रकृति नहीं है। भारत की मेधा का सर्वोत्तम विकास मधुमय आध्यात्मिक भौतिकवाद में हुआ। यहां सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य की तुलना में आचार्य विष्णु गुप्त कौटिल्य को ज्यादा सम्मान मिला। राजा सेनापति पुष्यमित्र शुंग की तुलना में पतंजलि को ज्यादा आदर मिला। शंकराचार्य किसी भी राजा की तुलना में ज्यादा श्रद्धेय हुए। बुद्ध की आभा और दीप्ति से दुनिया की आंखे चौंधियां गयीं। विवेकानंद की अनुभूति दिग्विजयी जानी गयी। दयानंद की प्रतिभा नमस्कारों के योग्य है ही। प्रधानमंत्री पं0 नेहरू की तुलना में गांधी भारत की श्रद्धा के केन्द्र हुए। अन्ना हजारे ताजे हैं। राजनेताओं की तुलना में हजारे का सम्मान हमारे सामने है। मूलभूत प्रश्न है कि भारत के मन की इस विशिष्ट पसंद का आधार क्या है?
दरअसल, राजनेता वास्तव में उतने विशाल हृदय नहीं होते जितना उनका प्रचार होता है। चिन्तक, विचारक और प्रज्ञापुरूष अपनी लोकप्रियता की तुलना में बहुत बड़े होते हैं। प्रधानमंत्री ढेर सारे हो गये। पं0 नेहरू और अटल बिहारी बाजपेयी के अलावा बाकी के नाम जनसामान्य भूल गया है। नेहरू जी भी उतना ही याद आते हैं, जितना कार्य उन्होंने गांधी जी के साथ किया था। स्वतंत्र भारत के शुरूवाती दिनों की सफलताएं असफलताएं भी याद की जा सकती हैं। अटल बिहारी बाजपेयी अपने मधुमय व्यक्तित्व, सांस्कृतिक अधिष्ठान और राजनीति में शील व मर्यादा की स्थापना के लिए याद किए जाते हैं। गांधी, सुभाष, विपिन चन्द्र पाल, रवीन्द्रनाथ टैगोर, लोहिया और अम्बेडकर या डॉ0 हेडगेवार अपने सांस्कृतिक वैशिष्ट्य व विचार विशेष के लिए भुलाएं भी नहीं भूलते। भारत का मन उन्हें अपने अंतस् में ही रखता है। वे महान भारत के दीर्घकालिक सपनों के लिए जिए। लेकिन राजनीति अल्पकालिक उद्यम है। अगला चुनाव जीतने का उपक्रम। राष्ट्रनिर्माण का काम दीर्घकालीन है। संस्कृति और सभ्यता का विकास या निर्माण सिर्फ 5 बरस में नहीं होता। इसके लिए दीर्घकाल की जरूरत होती है। असाधारण व्यक्तित्व जीवन को क्षणभंगुर जानते हुए भी दीर्घकालीन तप कर्म की योजना बनाते हैं। कुछ काम वे अपने जीवन में कर जाते हैं और शेष काम के लिए प्रेरणा ऊर्जा छोड़ जाते हैं। समाज उनकी प्रेरणा से आगे बढ़ता है।
गांधी, अम्बेडकर, लोहिया के जीवन प्रेरणा के मधुरस से उफनाए हुए हैं। उनके चिन्तन, जीवन और कर्म के गैरराजनैतिक भाग मधुगंधा है। जीवन के राजनैतिक भाग वैसे ही सघन माधुर्य से भरेपूरे नहीं है। राजनीति में सृजनकर्म की गुंजाइश कम है। राजनैतिक सफलता का अर्थ चुनावी जीत या पद प्राप्ति ही लगाया जाता है। लेकिन इसे वास्तविक सफलता नहीं कहा जा सकता। वास्तविक सफलता जीत या हार में नहीं प्रकट होती। वास्तविक सफलता हमेशा सृजन में ही प्रकट होती है। कुछ दल या नेता इतिहास की गति में हस्तक्षेप करते हैं। गांधी जी ने भारतीय इतिहास में प्रभावी हस्तक्षेप किया। डॉ0 अम्बेडकर ने इतिहास के साथ सामाजिक संरचना में भी हस्तक्षेप किया। डॉ0 लोहिया ने वामपंथ को चुनौती दी। उन्होंने भारतीय संस्कृति आधारित समाजवाद का विकल्प पेश किया। तीनों प्रेरणा पुरूष राजनीति के क्षेत्र में असफल रहे। गांधी ने हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रश्न पर पराजय स्वीकार की। उन्होंने खिलाफत आन्दोलन का समर्थन किया। यह दुनिया का सबसे बड़ा साम्प्रदायिक आन्दोलन था। वे राजनीति में असफल रहे लेकिन राष्ट्र निर्माण में प्रथम।
राजनीति ‘वास्तविक सफलता’ का क्षेत्र नहीं है। यहां पदों की मारामारी है। राजनीति स्वयं अपने ही बनाए नीति, सिद्धांतों से पलटी मारने का सार्वजनिक उद्यम है। राजनीति संवेदना का क्षेत्र है ही नहीं। आम जन की घनीभूत पीड़ा की यहां कोई जगह नहीं। जीवन का सत्य यहां क्रूर रूप में ही प्रकट होता। इस सत्य में शिव नहीं होता। राजनैतिक सत्य और शिव में सौन्दर्य नहीं होता। राजनीति में सत्यं, शिवम्, सुन्दरम् की जगह है ही नहीं। राजनीति के अपने सत्य हैं-जो जीता वही सिकन्दर यहां मूल सत्य है। बहुमत का गलत निर्णय भी यहां शिव है। इस निर्णय में शिव कल्याण की गारंटी नहीं। राजनैतिक क्षेत्र का सौन्दर्य सत्ता है। सत्ता की अपनी हंसी है, और अपना लावण्य। राजनेताओं के पोस्टरों की हंसी ध्यान देने योग्य होती है। सत्ताहीनता यहां कुरूपता है और सत्ताप्राप्ति ही सौन्दर्य है। लेकिन प्राचीन भारत की राजनीतिक परम्परा लोकमंगल का तपकर्म थी।
प्राचीन भारत में राजनीति की तुलना में राष्ट्रनीति ज्यादा महत्वपूर्ण थी। प्राचीन साहित्य में राजनीति शास्त्र के कई नाम थे। इसे दण्डनीति, अर्थशास्त्र, राजधर्म, राजशास्त्र आदि नामों से जाना जाता था लेकिन सबसे ज्यादा लोक प्रिय नाम था “नीतिशास्त्र”। संस्कृत विद्वानों के अनुसार नीति का अर्थ मार्गदर्शन होता है। शुक्रनीति आदि ग्रन्थों में राजनीति पर व्यापक सामग्री है। यहां शासकीय नियुक्तियों में वंश, वर्ण आदि न देखने और कार्यक्षमता के आधार पर ही पद देने के निर्देश हैं। नीति स्वाभाविक रूप में वास्तविक राजनीति थी। ऋग्वेद प्राचीनतम इतिहास साक्ष्य है। यहां स्वराज्य (1.80 व 8.93), राजधर्म (5.37 व 1.174) राजकर्म (1.25 व 4.42) सहित राजा इन्द्र वरूण आदि की स्तुतियों में राजनीति विषयक अनेक सूक्त हैं। अग्नि को भी राजा की तरह नमस्कार किया गया। ऋग्वेद में सभा और समितियां लोकतंत्र का प्राण है। (10.34.6 व 6.28.6 आदि) यजुर्वेद में भी सभा समितियां हैं। सभाध्यक्ष भी है। अथर्ववेद में सभा और समिति प्रजापति की दो पुत्रियां हैं। (अथर्व0 7.12.1) इनकी उत्पत्ति विराट पुरूष से हुई है। (वही, 8.10.1-8) उत्तरवैदिक काल के प्रमुख ग्रन्थ तैत्तिरीय संहिता में भी सभा है। सभा के योग्य लोग सभ्य थे। परस्पर विचार विमर्श से ही निर्णय होते थे। इसी सभ्यता से भारत का राष्ट्रजीवन भी जनतंत्री बना। लेकिन आधुनिक जनतंत्र की गाड़ी पटरी से उतर गयी है।

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