Friday 7 March 2014

साम्प्रदायिकता को दो टूक व्याख्यायित करने का सही समय


-धाराराम यादव 
देश में चुनावी मौसम आते ही भारत के विभिन्न राजनीतिक दलों के मूर्धन्य राजनेता प्रतिदिन ‘साम्प्रदायिकता‘ एवं ‘पंथनिरपेक्षता‘ जैसे शब्दों का दर्जनों बार अपने भाषणों एवं वक्तव्यों में प्रयोग करना शुरू कर देते हैं। दुर्भाग्य से ये दोनों भारतीय राजनीति में दैनिक रूप से बहु प्रयुक्त शब्द किसी कानून में व्याख्यायित एवं परिभाषित नहीं किये गये हैं। भारतीय इतिहास विशेषकर विगत एक शताब्दी के इतिहास के परिप्रेक्ष्य में देश के किसी विद्वान राजनेता, साहित्यकार, इतिहासवेत्ता, भाषाविद् समाजशास्त्री अथवा मौलिक विचारक ने इन दोनों शब्दों को दो टूक व्याख्यायित एवं परिभाषित करने का साहस नहीं किया। यहां तक कि किसी महत्वपूर्ण वाद में देश के किसी उच्च न्यायालय अथवा स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने इन शब्दों को परिभाषित करने का कष्ट नहीं उठाया।
जब तक ये दोनों शब्द कानून अथवा न्यायपालिका द्वारा व्याख्यायित नहीं कर दिये जाते, तब तक ‘ंपंथनिरपेक्ष‘ के शाब्दिक अर्थ के अनुसार पंथों और उनके अनुयायियों के प्रति निरपेक्ष दृष्टिकोण रखना ही किसी सरकार अथवा संगठन के लिए आवश्यक है। इसके अन्तर्निहित अर्थ एवं भाव यही है कि सरकार देश के सभी नागरिकों के प्रति उनके पंथ विशेष से जुड़े तथ्य को पूर्णतया नजरअंदाज करते हुए समान व्यवहार संविधान और कानून के प्रावधानों के अनुसार सुनिश्चित करे। भारतीय संविधान के विभिन्न प्रावधान सरकार को देश के सभी नागरिकों के प्रति समान व्यवहार करने के लिए विवश करते हैं।
समता के अधिकार के अंतर्गत संविधान का नीचे उद्धृत अनुच्छेद 14 निम्नवत् हैः-
‘‘अनुच्छेद-14 विधि के समक्ष समता- राज्य भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।‘‘
इसी से लगा हुआ दूसरा अनुच्छेद नीचे उद्धृत हैः-
‘‘अनुच्छेद-15-धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध-राज्य, किसी नागरिक के विरूद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।‘‘
उक्त दोनों संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार राज्य (सरकार) द्वारा धर्म को आधार बनाकर किसी धर्मानुयायी या पंथानुयायी के साथ किसी प्रकार के विशेष हित साधने का प्रयास नहीं किया जा सकता। 
लोक नियोजन से संबंधित निम्न संवैधानिक प्रावधान भी दृष्टव्य हैः-
‘‘अनुच्छेद-16 लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता-(1) राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समता होगी। 
(2) राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के संबंध में केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्मस्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर न तो कोई नागरिक अपात्र होगा और न उससे विभेद किया जायेगा।‘‘
अनुच्छेद-16 के उपखण्ड (1) एवं (2) में निहित प्रावधानों के अनुसार किसी पांथिक समुदाय को धर्म के आधार पर लोक नियोजन में न तो अपात्र ठहराया जा सकता है और न विभेद किया जा सकता है। यानी उन्हें न तो आरक्षण का कोई लाभ दिया जा सकता है और न उन्हंे न्यायसंगत ढंग से लोक नियोजन से वंचित किया जा सकता है। इन स्पष्ट संवैधानिक प्रावधानों के विरूद्ध केन्द्र की संप्रग सरकार एवं उ.प्र की सपा सरकार पंथनिरपेक्षता के नाम पर बार-बार आरक्षण का लालीपाप अल्पसंख्यकों को दिखाती रही है। आंध्र प्रदेश की कांग्रेस सरकार अल्पसंख्यक मुस्लिमों को करीब तीन बार धर्म के आधार पर लोक नियोजन में आरक्षण दे चुकी है। किन्तु सर्वोच्च न्यायपालिका द्वारा इसे संविधान के विरूद्ध मानते हुए निरस्त कर दिया गया। इसी प्रकार केन्द्र सरकार 2012 के विधानसभाओं के चुनावों के पूर्व अल्पसंख्यकों को 4.5 प्रतिशत आरक्षण देकर उसका हश्र देख चुकी है। 
संविधान के भाग-4 में ‘राज्य की नीति के निर्देशक तत्व‘ शीर्षक के अंतर्गत ‘पंथनिरपेक्षता‘ की टेस्ट लेने वाला एक अन्य प्रावधान अनुच्छेद-44 (निम्नवत् है) का परीक्षण भी अपरिहार्य हैः-
‘‘अनुच्छेद-44 नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिताः राज्य, भारत के समस्त राज्य क्षेत्र मे नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।‘‘
इस प्रावधान को ‘मौलिक अधिकारों‘ का अंग न होने के कारण न्यायपालिका द्वारा लागू नहीं कराया जायेगा। पंथनिरपेक्षता वादियों द्वारा इन प्रावधानों को लागू करने की मांग को ही साम्प्रदायिक करार दे दिया गया है। अगर इस अनुच्छेद को लागू कराने की मांग साम्प्रदायिकता है तो संविधान में इसे शामिल करने वाली संविधान सभा की साम्प्रदायिक मानी जायेगी। यदि संविधान में ऐसे प्रावधान हैं जिनका अनुपालन करने से साम्प्रदायिकता बढ़ जायेगी, तो ऐसे संवैधानिक प्रावधान को ही हटा दिया जाना चाहिए, चाहे इसके लिए संविधान संशोधन करना पड़े। 
संविधान के उक्त सभी प्रावधान सरकारों और संगठनों को पूर्ण पंथनिरपेक्ष रहने के लिए विवश करते हैं। इन प्रावधानों की उपेक्षा करके या उल्लंघन करके किसी पंथ विशेष के अनुयायियों को धर्म का आधार बनाकर लाभान्वित करने की चेष्टा करना पंथनिरपेक्षता कदापि नहीं मानी जा सकती। ऐसा करके ‘पंथनिरपेक्ष‘ होना मात्र ढांेग ही माना जा सकता है। अन्य पिछड़े वर्गों के लिए कतिपय शर्तों के अधीन कुछ विशेष सहूलियतें संविधान के अनुच्छेद 16 के उपखण्ड (4) में निहित प्रावधानों के अंतर्गत राज्य द्वारा दी गयी है, किन्तु उनमें कहीं धर्म को आधार नहीं बनाया गया है। अन्य पिछड़े वर्गों की सूची में इक्कीस मुस्लिम जातियां भी शामिल हैं। इसे ‘सामाजिक एवं शैक्षणिक‘ रूप से पिछड़ेपन के आधार पर तैयार किया गया है और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी अन्य पिछड़े वर्गों को प्रदत्त सुविधा को संविधान सम्मत घोषित कर दिया गया है। 
जहां तक देश के गरीबों एवं कमजोरों को संरक्षण प्रदान करने का प्रश्न है, इसका किसी क्षेत्र में विरोध नहीं है। विरोध तो संविधान के प्रावधानों का खुला उल्लंघन करते हुए धर्म को बीच में लाने पर है।
यहीं पर पंथनिरपेक्षता को लक्षणों एवं कारकतत्वों सहित व्याख्यायित एवं परिभाषित करने की आवश्यकता प्रतीत होती है। उ.प्र की सपा सरकार 2012 में अस्तित्व में आते ही उसके द्वारा यह आदेश पारित किया गया कि हाईस्कूल परीक्षा उत्तीर्ण करने वाली मुस्लिम लड़कियों को एकमुश्त तीस हजार रूपये अनुदान या छात्रवृत्ति के रूप में दिये जायेंगे। केवल पंथ को आधार बनाकर दिया गया यह आर्थिक अनुदान वर्तमान संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत ‘पंथनिरपेक्ष‘ निर्णय तो कदापि नहीं माना जा सकता। भारतीय संविधान में वांछित संशोधन किये बिना सच्चर समिति अथवा रंगनाथ मिश्र आयोग की संस्तुतियों को आधार बनाकर पंथनिरपेक्षता के आवरण में लपेटकर इस प्रकार लिए गये निर्णय संविधान सम्मत तो हो ही नहीं सकते। उक्त अनुच्छेदों के अधिकांश प्रावधानों में धर्म या पंथ के आधार पर विभेद करने की मनाही है। उ.प्र की वर्तमान सपा सरकार द्वारा प्रदेश में हुए विभिन्न विस्फोटों के सिलसिले में गिरफ्तार मुस्लिम युवकों को रिहा करने के आदेश दिये गये हैं, किन्तु न्याय पालिका द्वारा सरकार को फटकार लगाते हुए उसके निर्णय को अनुचित करार दिया गया है। अब क्या किसी भी कानून के अंतर्गत अभियुक्तों को उनके अपराध के अनुसार दण्ड देने के बजाय उनका धर्म देखकर उन्हें दोषमुक्त मान लिया जायेगा ?
केन्द्र की संप्रग सरकार के गृहमंत्री द्वारा राज्य सरकारों को पत्र लिखकर निर्देशित किया गया है कि आतंकी विस्फोटों के सिलसिले में मुस्लिम नवयुवकों को बहुत सावधानी से गिरफ्तार किया जाय और यदि न्यायालय द्वारा उन्हें दोषमुक्त करार दिया जाय तो उन्हें मुआवजा दिया जाय। हिन्दू आतंकवादियों के निर्दोष करार दिये जाने पर मुआवजे से वंचित रखने का क्या औचित्य है ?
एक दिन भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह ने यह सार्वजनिक घोषणा कर दी कि देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का है। उनके इस कथन का अर्थ सभी सेकुलरों द्वारा व्याख्यायित किये जाने की आवश्यकता है, साथ ही इस कथन की पूर्ण सार्थकता एवं इसमें निहित पंथनिरपेक्षता का मूल भाव अल्पसंख्यक मुस्लिमों को संविधान के विभिन्न प्रावधानों का उल्लंघन करते हुए एवं अन्य पंथों के अनुयायियों की उपेक्षा करते हुए सभी क्षेत्रों मे ंलाभान्वित करना है, तो साहस के साथ खुलकर यह घोषणा कर देनी चाहिए। इसमें सत्तारूढ़ दल को पहल करने की आवश्यकता है। उ.प्र की कथित पंथनिरपेक्ष सपा सरकार द्वारा एक शासनादेश जारी करके यह निर्देश दिया गया था कि मुजफ्फरनगर के मुस्लिम समुदाय के दंगा पीडि़तों को पांच-पांच लाख रूपये मुआवजा दिया जाय। इस पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा उ.प्र सरकार को फटकार लगाये जाने पर वह शासनादेश वापस ले लिया गया और दूसरा शासनादेश जारी करके सभी दंगा पीडि़तों को पांच-पांच लाख रूपये मुआवजा देने का आदेश दिया गया। यदि देश के अल्पसंख्यक मुस्लिमों के प्रति हर क्षेत्र में पक्षपात करना ही ‘पंथनिरपेक्षता‘ है तो सभी सेकुलर मिलकर ह घोषणा कर दें कि असली पंथनिरपेक्षता मुस्लिमों को संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन करके भी लाभान्वित करना होना चाहिए। 
देश के सभी गरीबों, निराश्रितों, असहायों, कमजोरों को राज्य का संरक्षण मिलना ही चाहिए। ‘ंपंथनिरपेक्षता‘ तो तब मानी जायेगी जब दुःखी नागरिक का दुःख बिना उसका धर्म देखे दूर किया जाय। देश के सभी नागरिकों को बिना उनके पंथ को ध्यान में रखे खुशहाल करना राज्य का कर्तव्य है। यदि किसी धर्म या पंथ विशेष के अनुयायियों को ही खुशहाल बनाने की घोषणा करके लाभान्वित करने की चेष्टा की जायेगी, तो वह पंथनिरपेक्षता कैसे मानी जा सकती है ?
अब पहले देश की सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस बताये की उसकी पंथनिरपेक्षता का क्या अर्थ एवं स्वरूप है ? जब तक यह शब्द लक्षणों एवं कारकतत्वों सहित दो टूक परिभाषित नहीं किया जाता, तब तक वह पंथनिरपेक्ष होने का दावा नहीं कर सकती। यही चुनौती उ.प्र में सत्तारूढ़ सपा के लिए भी है। उसके सर्वोच्च नेता मुलायम सिंह अपने प्रबुद्ध साथियों से परामर्श करके पंथनिरपेक्षता को पहले दो टूक परिभाषित कर दें, फिर अपने पंथनिरपेक्ष होने का दावा करें।
इसी प्रकार बहु प्रयुक्त शब्द साम्प्रदायिकता है। सपा के नेता बिना सोचे समझे रात दिन साम्प्रदायिक शक्तियों से लड़ने की अंहकारपूर्ण घोषणा करते रहते हैं। पहले सपा के सभी बुद्धिजीवी मिलकर साम्प्रदायिकता को दो टूक उसके लक्षणों एवं कारकतत्वों सहित परिभाषित कर दें। उसके बाद उसका प्रयोग करें। परिभाषा बताते समय किसी संगठन का नाम लेने की आवश्यकता नहीं है। साम्प्रदायिकता शब्द की व्याख्या करते समय सभी पंथनिरपेक्षतापूर्ण समर्थक आपस में खुलकर और मिलजुलकर विचार विमर्श कर सकते हैं।
चुनावी मौसम आते ही पंथनिरपेक्षता एवं साम्प्रदायिकता जैसे शब्दों का प्रयोग काफी बढ़ जाता है। यह निष्कर्ष निकालना अनुचित नहीं होगा कि इन दोनों शब्दों का प्रयोग करते समय प्रयोगकर्ता नेताओं और संगठनों का उद्देश्य एक विशेष पंथानुयायियों का वोट बैंक बनाना होता है। आखिरकार सभी अल्पसंख्यकों (सिख, जैन, बौद्ध, यहूदी, पारसी आदि) की उपेक्षा करके सभी योजनाएं केवल मुस्लिम पंथ के अनुयायियों के लिए क्यों बनाई जा रही हैं? वे सभी योजनाएं देश के गरीबों के लिए बनाई जानी चाहिए। उसमें मुस्लिम गरीब स्वयं आच्छादित हो जायेंगे। संविधान के कई अनुच्छेदों में धर्म या पंथ को आधार बनाकर भेदभाव करने का निषेध किया गया है। इसीलिए जो मामले न्यायपालिका के समक्ष पहुंच रहे हैं, वे निरस्त हो जाते हैं। उदाहरण के लिए लोक नियोजन में आरक्षण की व्यवस्था को कई बार निरस्त किया जा चुका है। अतः यह आवश्यक है कि पहले पंथनिरपेक्षता एवं साम्प्रदायिकता को लक्षणों एवं कारकतत्वों सहित सर्व सम्मति से व्याख्यायित कर दिया जाय।

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