Thursday 6 March 2014

उच्च शिक्षा में स्वर साधने की व्यर्थ कवायद

डॉ0 दिलीप अग्निहोत्री
जो लोग केवल पठन-पाठन का उद्देश्य लेकर उच्च शिक्षा सेवा में दाखिल हुए थे, उन्हंे अब नये सिरे से सोचना होगा। उनसे अब पहले जैसी अपेक्षा नहीं रही। मुख्य उद्देश्य पहले जैसा नहीं रहा। पहचान का मापदण्ड बदल गया। अध्ययन और अध्यापन के प्रति पहले जैसे समर्पण की आवश्यकता नहीं रही। कक्षा छोड़कर प्रमाण-पत्र बटोरने का संदेश दिया जा रहा है। इसे एक हद तक बाध्यकारी बनाने का प्रयास हो रहा है। बच्चों को क्या पढ़ाया, कितना पढ़ाया, किस तरह पढ़ाया, इसका महत्व कम किया जा रहा है। इसमंे संदेह नहीं कि समय के साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी परिवर्तन होना चाहिए। पाठ्यक्रम तथा तकनीक मंे आवश्यकता के अनुरूप बदलाव होने चाहिए। इस प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता। लेकिन परिवर्तन की दिशा-दशा पर अवश्य विचार होना चाहिए। क्या किसी शिक्षक का वास्तविक आकलन राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनार में भागीदारी से हो सकता। अब तो बात भागीदारी तक सीमित नहीं रही। सेमिनार मंे शोध-पत्र प्रस्तुत करने पर ही उसके कैरियर मंे अंक जुड़ेंगे। क्या शोध पत्र लेखन से शिक्षक की उपयोगिता प्रमाणित हो सकती है। क्या किताब न लिखने वाले शिक्षक को अच्छा नहीं माना जा सकता। परिवर्तन बड़ी तेजी से चल रहे हैं। अब  किताब पर आईएसबीएन नम्बर होगा, तभी शिक्षक के अपने नम्बर बढ़ेंगे। किताब कैसी है, कितनी उपयोगी है, उसकी क्या सार्थकता है, विद्यार्थियों या समाज के लिये उसका क्या महत्व है, इन बातों का कोई मतलब नहीं। इधर आईएसबीएन नम्बर मिला, उधर शिक्षक की योग्यता मंे पच्चीस नम्बर बढ़ गये।
परिवर्तन के इन प्रयोगों से थोड़ा पीछे लौटिए। विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों मंे शिक्षा के प्रति पूरी तरह समर्पित शिक्षकों की कमी नहीं थी। इनमंे ऐसे अनेक शिक्षक होते थे, जिन्होंने अपने जीवन में कोई किताब नहीं लिखी, प्रोजेक्ट नहीं किये, विदेश यात्रा की कौन कहे, वह अपना शहर छोड़ने के पहले भी चार बार सोचते थे। उनका लक्ष्य केवल एक होता था कि किस प्रकार अपनी क्लास में बेहतर शिक्षा दें। क्लास के बाहर भी गुरू-शिष्य परम्परा का निवाघर््ह करते थे। छात्रों के हित के लिये सदैव तत्पर रहते थे। मैं जब यह लिख रहा हूं, मुझे स्नातक-स्नातकोत्तर के समय अपने शिक्षक याद आ रहे हैं। पूरे सत्र में मैंने कभी नहीं सुना कि वह किसी राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय सेमिनार मंे शामिल होने गये हैं, इसलिए क्लास में नहीं आयेंगे। कभी नहीं सुना कि वह शोध-पत्र या किताब लिखने में बहुत व्यस्त हैं, इसलिए क्लास पर कम ध्यान दे रहे हैं। ऐसे अध्यापकों को मैंने लिखते नहीं देखा, लेकिन सदैव पढ़ते देखा। घर में, पुस्तकालय में उनको पढ़ाते ही देखा। लगा कि वह हम विद्यार्थियों को ज्ञान देने, अपडेट करने के लिये इतनी मेहनत करते हैं। वहीं ऐसे भी शिक्षक थे जो स्वेच्छा से किताबें, शोध पत्र लिखते थे। लेकिन इसके पीछे आत्म प्रेेरणा थी। बाध्यता नहीं थी। उद्देश्य उनका भी वही था। क्लास में अच्छी शिक्षा देना। यह उनका परम लक्ष्य था। लेखन साथ-साथ स्वाभाविक रूप में चलता था। दोनों भूमिकाओं में कोई टकराव नहीं था। अब बाध्यता है, इसलिए विसंगति है।
मैंने अपनी पीएचडी प्रो0 मदन मोहन पाण्डेय के निर्देशन मंे की थी। वह डीएवी कानपुर मंे राजनीति शास्त्र के विभागाध्यक्ष थे। उन्होंने अपने जीवन में केवल दो किताबें लिखीं। लेकिन क्लास रूम में उनके बारे में प्रसिद्ध था कि उन्हंे राजनीतिशास्त्र की सैकड़ों किताबों की लाइनें और पेज संख्या तक याद है। आदर्श शिक्षक माने जाते थे। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी डीएवी कानपुर में उनके शिष्य थे। प्रो0 पाण्डेय से पढ़ने के लिये विद्यार्थी लालायित रहते थे। वह बाद में कानपुर के ही डीबीएस पोस्ट ग्रेजुएट कालेज में प्राचार्य हुए थे। बात पुरानी है। स्व0 प्रो0 पाण्डेय जैसे आदर्श शिक्षक आज प्रोफेसर बनने के लिये फार्म भरने लायक नहीं माने जाते। बिना आईएसबीएन नम्बर वाली मात्र दो किताबें उन्हें अयोग्यों की श्रेणी में पहुंचा देतीं।
उच्च शिक्षा मंे कमजोर कडि़यां उस समय भी थीं, वही आज भी क्लास मंे शिक्षा देने को अपना लक्ष्य मानने वाले योग्य व समर्पित शिक्षक हैं। लेकिन इनमें अनेक शिक्षक अब विश्वविद्यालयों में रीडर, प्रोफसर नहीं बन सकते। उन्हंे प्वाइंट के बल पर अपनी योग्यता साबित करनी  होगी। अन्यथा वह दौड़ से बाहर रहेंगे। कैसी विडम्बना है। यदि कोई शिक्षक अपने एक-दो दशकों के कैरियर में निष्ठा से पढ़ाता रहा, उसने अन्य कार्यों पर ध्यान नहीं दिया, तो उसके लिये संदेश साफ है। वह प्रोफेसर रीडर पद के लिये आवेदन नहीं कर सकता।  उसके लिये पिछले दशकों का कोई महत्व नहीं रहा। कुछ महीने पहले आदेश निर्गत हुआ फिर प्वाइंट के आधार पर अर्हता का निर्धारण शुरू हो गया। रिक्तियां निकलीं। फार्म मंे कालम बना दिये गये। इसमंे सेमिनार के प्रेजेन्टेशन पर प्वाइंट बताने हैं, आईएसबीएन नम्बर वाली किताबों के प्वाइंट हैं, रिफ्रेसर-ओरिएन्टेशन के प्वाइंट हैं, निर्धारित जर्नल्स में प्रकाशित शोध पत्रों के प्वाइंट हैं। जितने कालम दिये गये, वही भरने हैं। इसके बाहर ज्ञान का क्षेत्र समाप्त हो जाता है। फरमान यही है। कालम में चार सौ प्वाइंट हो जाएं, तभी फार्म मंजूर होगा। यह राजाज्ञा है। किसी ने मौलिक लेखन किया, लेकिन आईएसबीएन नम्बर नहीं मिला, तो उसे कूड़ा समझा जायेगा।
देश के विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों मंे ऐसे विभाग होना आम बात है, जहां केवल एक स्थायी शिक्षक है। उससे भी अपेक्षा की जा रही है कि वह रिफ्रेसर-ओरिएन्टेशन, सेमिनार में शामिल होता रहे। क्लास वरीयता में नहीं रहे। शिक्षकों से लेखन की अपेक्षा की जा सकती है। लेकिन इसे योग्यता या कैरियर से जोड़कर बाध्यकारी बनाना गलत है। पहले वरिष्ठ शिक्षक कनिष्ठों के सामने उदाहरण पेश करते थे। वह खूब पढ़ते-पढ़ाते थे। आज कैसे लोग प्रेरणा दे रहे हैं। जो पांच-दस पेपर लिखकर पूरे देश में घूमते हैं। घुमा-फिराकर हर जगह वही बातें। यह सिलसिला दशकों तक चलता है। ये सेमिनार-संगोष्ठियों के विशेषज्ञ हो जाते हैं। नीति-निर्माण पर उनका प्रभाव होता है। वैसे ही नियम बन रहे हैं। शिक्षा मंे सुधार दिखाई नहीं दे रहा है। योग्यता निर्धारण के नियमों से ऐसा अवश्य लगता है जैसे कोई लाठियों से मार-मार कर किसी को गाने के लिये बाध्य कर रहा है। ज्ञान की धारा कैसे बहेगी? शिक्षा सरस कैसे होगी। इन प्रश्नों का जवाब नीति निर्याताओं के पास नहीं है।

(लेखक डॉ0 दिलीप अग्निहोत्री चर्चित स्तम्भकार हैं। डॉ. अग्निहोत्री समय-समय पर आलेख लेखन का कार्य पूरी निष्ठा के साथ निष्पादित करते हैं। डॉ. अग्निहोत्री की तमाम पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं।)

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