Friday 7 March 2014

चुनावी मुस्लिम तुष्टिकरण देशघातक है


राजीव गुप्ता

संसद के अखिरी सत्र के समाप्त होने के साथ ही लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका. सभी राजनीतिक दल चुनावी मैदान में हैं. आने वाले दिनों में हर दल अपने दृ अपने ढंग से मतदाताओं को लुभाने हेतु लोकलुभावनी घोषणाएँ करेगा. वहीं इन दलों के घोषणा पत्रों पर चुनाव आयोग की पैनी नजर भी रहने वाली है. इसका संकेत चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों को दिशानिर्देश जारी करते हुए दे दिया. इतना ही नही विभिन्न राजनीतिक दलों के साथ सात फरवरी को हुई बैठक में चुनाव आयोग ने उनके विचारों को चुनावी आचार संहिता के रूप में जोड भी लिया है. अब तक के मिले संकेतों से यह साफ हो गया है कि मह्ंगाई, भ्रष्टाचार इत्यादि मुद्दों के साथ-साथ राजनीतिक दलों का लोकलुभावनी घोषणाओं का केन्द्रबिन्दु ‘मुस्लिम मतदाता’ ही होगा, ऐसा आभास देश के दो बडी राष्ट्रीय पार्टियों ने दे भी दिया है. कांग्रेस ने ठीक लोकसभा चुनाव से पहले सच्चर समिति की सिफारिशों की आड लेकर इसी वर्ष की 20 फरवरी को बहुप्रतीक्षित ‘समान अवसर आयोग (ईओसी)’ गठित करने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी. यह एक विधिक न्यायिक आयोग होगा जिसका प्रमुख कार्य नौकरियों एवं शिक्षा में अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव पर लगाना होगा. ध्यातव्य है कि मुसलमानों के सामाजिक एवं आर्थिक पिछडेपन का अध्ययन करने वाली सच्चर कमेटी ने समान अवसर आयोग गठित करने की सिफारिश की थी. इसी प्रकार भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने ‘नरेन्द्र मोदी मिशन 272 प्लस- मुसलमानों की भूमिका’ विषय पर कहा कि अगर कहीं उनसे कोई गलती या कमी हुई है तो वें उसके लिए माफी मांगेगे और शीश भी झुकाएगें.
मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने हेतु यह कोई पहला मामला नही है. इससे पहले भी उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के समय में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने पार्टी ने भी मुस्लिम मतदाताओं को ‘कोटे के लोटे से अफीम चटाने’ की बात कही थी. ध्यातव्य है कि मुलायाम सिंह यादव ने अपने ‘माई’ (मुस्लिम-यादव) चुनावी- समीकरण के अंतर्गत मुस्लिम अल्पसंख्यकों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण उपलब्ध कराने की घोषणा की तो कांग्रेस के नेता और तत्कालीन केन्द्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने ओबीसी के कोटे से मुसलमानों को साढे चार प्रतिशत से बढाकर नौ प्रतिशत आरक्षण तक की बात कह डाली और यह मामला राष्ट्रपति तक पहुँच गया. तत्कालीन कानून मंत्री को इसके लिए माफी मांगनी पडी तब जाकर यह मसला शांत हुआ. तत्कालीन कांग्रेस महासचिव राहुल गाँधी ने भी उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान अपनी पार्टी को मुस्लिमों को रहनुमा बताते हुए मुस्लिम आरक्षण पर सपा सुप्रीमो को घेरा था. आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर पिछले वर्ष के मार्च मास में सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने लखनऊ के झूलेलाल पार्क में आयोजित ‘अल्पसंख्यक जागरूकता सम्मेलन’ में केन्द्र की सत्तारूढ संप्रग सरकार को चुनौती देते हुए कहा कि यदि सच्चर कमेटी की सिफारिशें लागू नही की जाती हैं तो उसे केन्द्र से जाना होगा. अपने आपको मुस्लिम-हितैषी दिखाने की कोशिश में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पिछले वर्ष के 20 अगस्त को एक और चुनावी पासा फेंका. उन्होने घोषणा की कि उनकी सरकार ने मुस्लिमों के लिए 30 विभिन्न विभागों में चल रही 85 सरकारी योजनाओं में अल्पसंख्यकों के लिए 20 फीसदी का आरक्षण दिया है.
दरअसल यह मुस्लिम तुष्टीकरण की बात करना कोई नई बात नही है. यदि हम इतिहास के झरोखे में देखते हुए उसकी बारिकियों को समझने का प्रयास करें तो पाएंगे कि 1857 के स्वतंत्रता-समर से ही अंग्रेजों हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोडने के लिए भारत में ‘बांटो और राज करो’ की नीति अपनाया. इस बात की पुष्टि हमें तत्कालीन गवर्नर लार्ड एलफिंस्टोन ने ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा गठित कमेटी को उस मंत्र से मिलता है जिसमें उन्होने लिखा था दृ ‘फूट डालो और यह देश हमारा होगा.’ इसी क्रम में 3 मार्च, 1862 को लार्ड एल्जिन को भेजे गए पत्र में तत्कालीन राज्य सचिव चार्ल्स वुड ने लिखा दृ “हमने एक के खिलाफ दूसरे को खडा कर अपनी सत्ता पुनरू प्राप्त कर ली है, हमें इसे निरंतर बनाए रखना होगा. सबके अन्दर एक भावना पनप ही न सके, इसके लिए जो उचित हो वो करें.”
इसी पृष्ठभूमि में हमें 1875 में सैय्यद अहमद द्वारा अलीगढ एंग्लों ओरियंटल कालेज की स्थापना को देखना चाहिए जिसके नींव की आधारशिला खुद तत्कालीन वायसराय ने रखी. जो बाद में अलीगढ मुस्लिम यूनीवर्सिटी के नाम से प्रसिद्ध हुई और कालांतर में वहीं से स्वतंत्र पाकिस्तान का जन्म हुआ. इस बात की पुष्टि 1954 में अलीगढ के छात्रों को संबोधित करते हुए आगा खां ने कहकर की कि ‘सभ्य इतिहास प्रायरू विश्वविद्यालयों ने देश के बौद्धिक व अध्यात्मिक जागरण में प्रमुख निभाई है. अलीगढ भी अपवाद नही है. किंतु हम यह गौरव के साथ दावा कर सकते हैं कि स्वतंत्र पाकिस्तान का जन्म अलीगढ के मुस्लिम विश्वविद्यालय में हुआ.’ सर सैय्यद ने हिन्दू बनाम मुस्लिम, हिन्दी बनाम ऊर्दू, संस्कृत बनाम फारसी का मुद्दा उठाकर मुसलमानों को हिन्दुओं के खिलाफ खडा करने में कोई कमी नही छोडी. इस बात की पुष्टि हम 16 मार्च, 1888 को मेरठ में दिए गए उनके उस भाषण से कर सक्ते हैं जिसमें उन्होने कहा था कि ‘फर्फ करो अंग्रेज भारत में नही हैं तो कौन शासक होगा ? क्या यह संभव है कि हिन्दू और मुस्लिम एक ही ताज पर बराबर के हक से बैठेगें ? मुस्लिम आबादी तो हिन्दुओं से कम है, साथ ही अंग्रेजी शिक्षित तो और भी कम है परंतु उन्हें कमजोर नही समझना चाहिए. वें अपने दम पर अपनी मंजिल पाने में सक्षम है.’
1905 के बंगाल विभाजन, 1909 के मार्ले मिंटो सुधार से लेकर खिलाफत आन्दोलन तक हमारे नेताओं द्वारा अपनाई गई इसी मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के चलते ही कालांतर में द्विराष्ट्र की परिकल्पना ने अपना मूर्त रूप लिया. वैचारिक मतभेद हो सकता है परंतु क्या यह सच नही है कि 1909 में मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग मानना, 1919 में मुस्लिम लीग और कांग्रेस के बीच हुए लखनऊ समझौते से ही देश बंटवारे के रास्ते पर चल पडा और कालांतर में 14 अगस्त, 1947 को भारत का विभाजन मजहबी आधार पर स्वीकार कर लिया गया. एक प्रसिद्ध कहावत है कि जो देश अपने अतीत के इतिहास को भूल जाता है उसकी उम्र अधिक नही होती है. इस सच्चाई को भला कौन नकार सकता है कि भारत का एक तिहाई भू दृ भाग 1947 के देश विभाजन के समय में हमसे अलग हो गया. इस समय भले ही चुनावी माहौल हो परंतु क्या यह सच नही है कि आए दिन के राजनीतिक दल 1857 की तरह ही ‘बांटो और सत्ता पाओ’ के नए सूत्र पर अग्रसर नही हो रहे हैं ? 19 दिसंबर, 1930 के मुस्लिम लीग के वार्षिक अधिवेशन में इकबाल ने मजहब-आधारित पृथक राष्ट्र बनाने का एक खाका खींचा और 1933 में चौधरी रहमत अली ने पाकिस्तान की रूपरेखा तैयार किया. हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि अपने चरमोत्कर्ष काल में भी हिन्दू महासभा मात्र चार प्रतिशत जनसंख्या को अपने साथ रख पाने में सफल नही हुई.
वर्तमान समय में देश की जनसंख्या लगभग 125 करोड से भी अधिक हो गई है. 2001 की जनगणना के अनुसार मुस्लिम जनसंख्या लगभग 14 करोड है. सर्वेक्षणों से पता चलता है कि भारतीय मुसलमान परिवार नियोजन के उपायों को अपेक्षाकृत कम अपनाने को तैयार हैं. साथ ही कम उम्र में विवाह होने के कारण मुस्लिम महिलाओं में प्रजनन अवधि अधिक होती है. 1983 में केरल में के.सी जचारिया द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि औसत रूप से मुस्लिम महिलाओं ने 4.1 बच्चों को जन्म दिया और हिन्दू महिला ने 2.9 के औसत से बच्चों को जन्म दिया. 1998-1999 में आयोजित राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार भारतीय मुसलमान दंपति भारतीय हिन्दू परिवारों की तुलना में अधिक बच्चों को जन्म देने को आदर्श मानते हैं. 1996 में लखनऊ जिले में आयोजित एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि लगभग 34 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएँ परिवार-नियोजन को अपने धर्म के खिलाफ मानती हैं. भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त 2006 की समिति के अनुसार भारत की मुस्लिम आबादी भारत की कुल अनुमानित जनसंख्या का लगभग 18 प्रतिशत हो जाएगी. परंतु इस ‘जनसंख्या-विस्फोट’ पर कोई भी राजनीतिक दल गंभीर नही दिखाई पडता. आने वाले समय में जनसंख्या-आधारित चुनावी आरक्षण की बात भी शुरू हो जाना भी कोई आश्चर्य की बात नही होगी. पिछले दिनों भोपाल में दिए गए विश्व हिन्दू परिषद के संरक्षक अशोक सिंघल का बयान कुछ इसी तरफ इशारा करता है.

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