Wednesday 5 March 2014

राजनीति में शुचिता का सवाल


साठ और 70 के दशक में जब कोई नई पार्टी बनाता था तब उसके सामने एक आदर्श होता था। आज वह आदर्शवाद कहां है? आइये वह समझते हैं। -अशोक कुमार सिन्हा


पहले बात दूसरी थी। कोई नई पार्टी बनाता या किसी पार्टी से अलग होकर दूसरी पार्टी बनाता था तब भी उसके मूल में वैचारिक मतभेद होता था, उसे यह विश्वास होता था कि उसके विचार के समर्थक उसे सहयोग करेंगे। लेकिन 80 के दशक में ये तस्वीर बदल गई। पार्टियां अपने वैचारिक सहयोगियों से समर्थन से नही बल्कि अन्य स्रोतों से चलने लगी। इससे कोई राजनैतिक दल अछूता नही है। इसी को देखते हुए भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष रहे कुशाभाऊ ठाकरे ने सहयोग का एक ढांचा बनाया था, लेकिन समय के साथ ही वो ढांचा भी अप्रासांगिक हो गया। अरविंद केजरीवाल की शुरूआत ही ऐसे रास्तों से हो रही है जिससे राजनैतिक दल अपने शुरूआती समय में बचत रहे। इंडिया अंगेस्ट करप्शन अभियान से आंदोलन बनता इसे पहले ही राजनैतिक महत्वाकांक्षा ने उससे बिखेर दिया। अन्ना और अरविंद में मतभेद वैचारिक नही बल्कि इस मतभेद का आधार अविश्वास और राजनैतिक महत्वकांक्षा है। जब तक अरविंद केजरावाल को लगा कि अन्ना को अपने अनुसार चला सकते हैं तब तक उनके पीछे रहे। लेकिन जैसे ही अन्ना हजारे ने पैसे और पारदर्शिता का सवाल उठाया तब से मतभेद शुरू हुए, और अब अरविंद केजरीवाल संसदीय राजनीति के रास्ते पर निकल चुके हैं। उन वादों के साथ, जो कभी आजादी के बाद सत्ता में आने वाले नेताओं ने किए और बाद में जेपी आंदोलन से निकले हुए राजनेताओं ने किए। अब उन्हीं नेताओं के खिलाफ उन्हीं की ही तरह के वादों के साथ केजरीवाल आए हैं। फैसला देश की जनता को करना है।

अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल की आखिरी साझा बैठक 19 सितंबर, 2012 को दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में हुई। बैठक के बाद बाहर आते ही अन्ना ने मीडिया से चौंकाने वाली बात कही। उन्होंने साफ कर दिया कि कोई भी उनके नाम या चित्र का उपयोग नहीं करेगा। बैठक में मौजूद लोगों के मुताबिक अन्ना ने केजरीवाल से एक सूत्र सवाल किया था। वह था कि आपके संगठन के लिए धन कहां से आएगा? इस सवाल पर केजरीवाल ने कहा कि जैसे औरों को आता है। इस जवाब में कई रहस्य छुपा था। दूसरे लोग इसे समझ रहे थे। यही वजह थी कि अन्ना ने तत्काल स्वयं को इससे अलग कर लिया।

अन्ना ने अरविंद केजरीवाल से यह सवाल यूं ही नहीं पूछा था, बल्कि इसकी वजह थी। केजरीवाल के गैर सरकारी संगठन पर धन के स्रोतों को लेकर सवाल उठते रहे हैं। इस बाबत एक जनहित याचिका भी दिल्ली हाईकोर्ट में दायर हो चुकी है। खैर, यहां केजरीवाल और उनके संगठनों की पड़ताल से पहले कुछ तथ्यों को समझना उचित रहेगा है। अमेरिकी खुफिया एंजेसी सीआईए और फोर्ड फाउंडेशन के दस्तावेजों पर आधारित एक किताब 1999 में आई थी। किताब का नाम है ‘हू पेड द पाइपर? सीआईए एंड द कल्चरल कोल्ड वार’। फ्रांसेस स्टोनर सांडर्स ने अपनी इस किताब में दुनियाभर में सीआईए के काम करने के तरीके को समझाया है। दस्तावेजों के आधार पर लेखक सान्डर्स ने सीआईए और कई नामचीन संगठनों के संबंधों को उजागर किया है। किताब के मुताबिक फोर्ड फाउंडेशन और अमेरिका के मित्र देशों के कई संगठनों के जरिए सीआईए दूसरे देशों में अपने लोगों को धन मुहैया करवाता है। इतना ही नहीं, बल्कि अमेरिकी कांग्रेस ने 1976 में एक कमेटी बनाई थी। इस कमेटी की तहकीकात में जो जानकारी सामने आई, वह और चौंकाने वाली थी। जांच में पाया गया कि उस समय अमेरिका ने विविध संगठनों को 700 बार दान दिए, इनमें से आधे से अधिक सीआईए के जरिए खर्च किए गए।

यह पहली किताब नहीं है, जिसने इन तथ्यों को सामने रखा है। इसके पहले भी इस तरह की खुफिया एजेंसिओं के देश विरोधी गतिविधियों का पर्दाफाश होता रहा है। पहले के सोवियत संघ की खुफिया एजेंसी केजीबी अब नही हैं। लेकिन केजीबी के कारनामे अब सबके सामने हैं। दस्तावेजों के आधार पर केजीबी पर किताब आ चुकी है। किताब कई खंडों में है। इसका नाम ‘द मित्रोखिन आर्काइव-द केजीबी एंड द वर्ल्ड’ है। इस किताब के दूसरे खंड के 17वें और 18वें अध्याय में भारत में केजीबी की गतिविधियों के बारे नें बताया गया है। पैसे के बल पर केजीबी ने भारत में अपने अनुकूल महौल समय-समय पर बनाता रहा। इसमें फोर्ड का भी जिक्र आया है। केजीबी से पैसा लेने वाले नाम बडे है। केजीबी की विदेशी गतिविधियों से संबंधित अभिलेख जिसके जिम्में था, वही वासिली मित्रोखिन इस किताब के लेखक हैं।

केजीबी अब नही है, लेकिन सीआईए अब भी है। इसकी सक्रियता अपने चरम पर है। सीआईए की गतिविधि का एक सिरा केजरीवाल और उनके संगठनों पर विचाराधीन एक जनहित याचिका से जुड़ा है। दिल्ली हाईकोर्ट में इस याचिका के स्वीकार होने के बाद गृह मंत्रालय ने एफसीआरए के उल्लंघन के संदेह पर ‘कबीर’ नाम की गैर सरकारी संगठन के कार्यालय में छापे मारे। यह संस्था टीम अरविंद के प्रमुख सदस्य मनीष सिसोदिया के देख-रेख में चलती है। और यह अरविंद के दिशा निर्देश पर काम करती है। बहरहाल, कबीर के खिलाफ यह कार्रवाई 22 अगस्त, 2012 को हुई थी। सुप्रीम कोर्ट के वकील मनोहर लाल शर्मा की इस याचिका में आठ लोगों को प्रतिवादी बनाया गया था, इनमें अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया के अलावा गृहमंत्रालय और फोर्ड फाउंडेशन भी शामिल है। केन्द्र सरकार को तीन महीने में जवाब देना था जो अवधि अगस्त महीने में पूरी हो चुकी। सरकार की तरफ से कोई जवाब नही आया। यहां सवाल ये उठता है कि केन्द्र सरकार अरविंद केजरीवाल के मामले में इतनी उदासीन क्यों है? इस सवाल के जवाब में यचिकाकर्ता मनोहरलाल शर्मा कहते है “ केन्द्र सरकार अरविंद केजरीवाल को इसलिए बचा रही है क्योंकि अरविंद केजरीवाल की मुहिम से कांग्रेस अपना राजनैतिक फायदा देख रही है”मनोहरलाल शर्मा यही नही रुकते वो कहते हैं “ कांग्रेस सरकार के लिए अरविंद केजरीवाल अगर मुसीबत होते तो बाबा रामदेव और नतिन गडकरी की तरह ही जांच होती और अदालत में सरकार अपना पक्ष रख चुकी होती। कांग्रेस को दिख रहा है कि अरविंद का प्रभाव शहरी मध्यमवर्ग पर है, यही भाजपा का वोट बैंक है, यदि इसमें सेंध लगती है तो इसका सीधा फायदा कांग्रेस को है। इसीलिए कांग्रेस सरकार केजरीवाल को बचा ही नही रही बल्कि कई सूचनाएं उपलब्ध भी करवा रही है।” मनोहर लाल शर्मा इस पूरे मामले मे सीआईए की भी भूमिका देखते है। शर्मा कहते है “ केजरीवाल की भ्रष्टाचार भगाने की मुहिम फोर्ड फाउंडेशन के पैसे से चल रही है, फोर्ड फाउंडेशन अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए का फ्रंटल ऑर्गेनाइजेशन है जो दुनिया के कुछ देशों में सिविल सोसाइटी नाम से मुहिम चला रहा है। फोर्ड फाउंडेशन कई देशों में सरकार विरोधी आंदोलनों को समर्थन देता रहा है। साथ ही आर्थिक सहयोग भी मुहैया कराता है। इसी रास्ते उन देशों में अपना एजेंडा चलाता है। केजरीवाल और उनकी टीम के अन्य सदस्य संयुक्त रूप से फोर्ड फाउंडेशन से आर्थिक मदद लेते रहे हैं। शर्मा ने आगे कहा कि केजरीवाल ने खुद स्वीकारा है कि उन्होंने फोर्ड फाउंडेशन, डच एम्बेसी और यूएनडीपी से पैसे लिए हैं। फाउंडेशन की वेबसाइट के मुताबिक 2011 में केजरीवाल व मनीष की ‘कबीर’ नामक संस्था को करीब दो लाख अमेरिकी डॉलर का अनुदान मिला था। फॉरेन कॉन्ट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट-2010 के मुताबिक विदेशी धन पाने के लिए भारत सरकार की अनुमति लेना और राशी खर्च करने के लिए निर्धारित मानकों का पालन करना जरूरी होता है, लेकिन टीम केजरीवाल के सदस्यों ने नियमों का पालन नहीं किया”

देश में जो सवालों का सिलसिला शुरू हुआ है, उसमें सवाल पूछने वाले अपनी सुविधा के अनुसार सवाल पूछ रहे हैं। जवाब भी लोग अपनी सुविधा के अनुसार ही दे रहे हैं। पर इस प्रक्रिया में जितना कहा जा रहा है, उससे कहीं अधिक छुपाने की कोशिश नजर आती है। कांग्रेस पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी केजरीवाल पर कई सवाल उठाए हैं, पर वे भी सीधी बात नहीं कर रहे हैं। पर इशारों-इशारों में दो बातें कही हैं। पहली यह कि आखिर फोर्ड फाउंडेशन अरविंद केजरीवाल की मदद क्यों कर रहा है?दूसरा सवाल भी है। यह अरविंद केजरीवाल की नौकरी को लेकर है। पूछा जा रहा है कि आखिर कोई पारदर्शी और ईमानदार अधिकारी 20 सालों तक दिल्ली में ही कैसे नौकरी करता रहा? क्या राजनेता और बड़े अधिकारियों की मदद से अरविंद को यह सुविधा मिलती रही? वैसे सामान्य नियम तो यह है कि किसी भी राजस्व अधिकारी को एक निश्चित स्थान व पद पर तीन वर्ष के लिए ही तैनात किया जा सकता है। इतना ही नहीं, अरविंद की पत्नी पर भी उनके महकमें की कृपा रही। ऐसे में सवाल तो उठेंगे ही, क्योंकि अशोक खेमका, नीरज कुमार, खैरनार और अशोक भाटिया जैसे अधिकारियों की हालत जनता देख रही है। इनमें हालिया उदाहरण अशोक खेमका का ही है। इन्हें 19 साल की नौकरी में 43 तबादलों का सामना करना पड़ा है। नीरज कुमार को 15 साल के कैरियर में 15 बार इधर-उधर किया गया। इतना ही नहीं, उन्हें सात साल निलंबित रखा गया। बहरहाल, अरविंद केजरीवाल इन सवालों का जवाब दें या फिर न दें, पर ऐसे कई सवाल हैं, जिनका जवाब उन्हें और उनकी टीम को देना चाहिए। सवाल अरविंद केजरीवाल और उनकी संस्थाओं के पीछे खड़ी विदेशी शक्तियों को लेकर है। पहला सवाल तो यही है कि फोर्ड फाउंडेशन और अरविंद केजरीवाल के बीच क्या संबंध हैं? दूसरा सवाल है कि क्या हिवोस भी उनकी संस्थाओं को मदद देता है? तीसरा सवाल, क्या डच दूतावास के संपर्क में अरविंद केजरीवाल या फिर मनीष सिसोदिया रहते हैं? इन सवालों का जवाब केजरीवाल को इसलिए भी देना चाहिए, क्योंकि इन सभी संस्थाओं से एक चर्चित अंतरराष्ट्रीय खुफिया एजेंसी के संबंध होने की बात अब सामने आ चुकी है।

पहले बाद करते हैं फोर्ड फाउंडेशन और अरविंद केजरीवाल के संबंधों पर। जनवरी 2000 में अरविंद छुट्टी पर गए। फिर ‘परिवर्तन’ नाम से एक गैर सरकारी संस्था (एनजीओ) का गठन किया। केजरीवाल ने साल 2006 के फरवरी महीने से ‘परिवर्तन’ में पूरा समय देने के लिए सरकारी नौकरी छोड़ दी। इसी साल उन्हें उभरते नेतृत्व के लिए मैगसेसे का पुरस्कार मिला। यह पुरस्कार फोर्ड फाउंडेशन की मदद से ही सन् 2000 में शुरू किया गया था। केजरीवाल के प्रत्येक कदम में फोर्ड फाउंडेशन की भूमिका रही है। पहले उन्हें 38 साल की उम्र में 50,000 डॉलर का यह पुरस्कार मिला, लेकिन उनकी एक भी उपलब्धि का विवरण इस पुरस्कार के साथ नहीं था। हां, इतना जरूर कहा गया कि वे परिवर्तन के बैनर तले केजरीवाल और उनकी टीम ने बिजली बिलों संबंधी 2500 शिकायतों का निपटारा किया। विभिन्न श्रेणियों में मैगसेसे पुरस्कार रोकफेलर ब्रदर्स फाउंडेशन ने स्थापित किया था। इस पुरस्कार के साथ मिलने वाली नगद राशि का बड़ा हिस्सा फोर्ड फाउंडेशन ही देता है। आश्चर्यजनक रूप से केजरीवाल जब सरकारी सेवा में थे, तब भी फोर्ड उनकी संस्था को आर्थिक मदद पहुंचा रहा था। केजरीवाल ने मनीष सिसोदिया के साथ मिलकर 1999 में ‘कबीर’ नामक एक संस्था का गठन किया था। हैरानी की बात है कि जिस फोर्ड फाउंडेशन ने आर्थिक दान दिया, वही संस्था उसे सम्मानित भी कर रही थी। ऐसा लगता है कि यह सब एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा थी। फोर्ड ने अपने इस कदम से भारत के जनमानस में अपना एक आदमी गढ़ दिया। केजरीवाल फोर्ड फाउंडेशन द्वारा निर्मित एक महत्वपूर्ण आदमी बन गए। हैरानी की बात यह भी है कि ‘कबीर’ पारदर्शी होने का दावा करती है, लेकिन इस संस्था ने साल 2008-9 में मिलने वाले विदेशी धन का व्योरा अपनी वेबसाइट पर नहीं दिया है, जबकि फोर्ड फाउंडेशन से मिली जानकारी बताती है कि उन्होंने ‘कबीर’को 2008 में 1.97 लाख डॉलर दिए। इससे साफ होता है कि फोर्ड फाउंडेशन ने 2005 में अपना एजेंडा आगे बढ़ाने के लिए अरविंद केजरीवाल को चुना। उसकी सारी गतिविधियों का खर्च वहन किया। इतना ही नहीं, बल्कि मैगससे पुरस्कार दिलवाकर चर्चा में भी लाया।

एक ‘बियॉन्ड हेडलाइन्स’ नामक वेबसाइट ने ‘सूचना के अधिकार कानून’ के जरिए ‘कबीर’ को विदेशी धन मिलने की जानकारी मांगी। इस जानकारी के अनुसार ‘कबीर’ को 2007 से लेकर 2010 तक फोर्ड फाउंडेशन से 86,61,742 रुपए मिले हैं। कबीर को धन देने वालों की सूची में एक ऐसा भी नाम है, जिसे पढ़कर हर कोई चौंक जाएगा। यह नाम डच दूतावास का है। यहां सवाल उठता है कि आखिर डच दूतावास से अरविंद केजरीवाल का क्या संबंध है? क्योंकि डच दूतावास हमेशा ही भारत में संदेह के घेरे में रहा है। अभी हाल ही का जिक्र करता हूं। 16 अक्टूबर, 2012 को अदालत ने तहलका मामले में आरोप तय किए हैं। इस पूरे मामले में जिस लेख को आधार बनाया गया है, उसमें डच की भारत में गतिविधियों को संदिग्ध बताया गया है। इसके अलावा सवाल यह भी उठता है कि किसी देश का दूतावास किसी दूसरे देश की अनाम संस्था को सीधे धन कैसे दे सकता है? आखिर डच दूतावास का अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया से क्या रिश्ता है? यह रहस्य है। न तो स्वयं अरविंद और न ही टीम अरविंद ने इस बाबत कोई जानकारी दी है।

इतना ही नहीं, बल्कि 1985 में पीएसओ नाम की एक संस्था बनाई गई थी। इस संस्था का काम विकास में सहयोग के नाम पर विशेषज्ञों को दूसरे देशों में तैनात करना था। पीएसओ को डच विदेश मंत्रालय सीधे धन देता है। पीएसओ हिओस समेत 60 डच विकास संगठनों का समूह है। नीदरलैंड सरकार इसे हर साल 27 मिलियन यूरो देती है। पीएसओ ‘प्रिया’ संस्था का आर्थिक सहयोगी है। प्रिया का संबंध फोर्ड फाउंडेशन से है। यही ‘प्रिया’ केजरीवाल और मनीष सिसोदिया की संस्था ‘कबीर’ की सहयोगी है। इन सब बातों से साफ है कि डच एनजीओ, फोर्ड फाउंडेशन,डच सरकार और केजरीवाल के बीच परस्पर संबंध है। इतना ही नहीं, कई देशों से शिकायत मिलने के बाद पीएसओ को बंद किया जा रहा है। ये शिकायतें दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप से संबंधित हैं। 2011 में पीएसओ की आम सभा ने इसे 1 जनवरी, 2013 को बंद करने का निर्णय लिया है। यह निर्णय दूसरे देशों की उन्हीं शिकायतों का असर माना जा रहा है।

हाल ही में पायनियर नामक अंग्रेजी दैनिक अखबार ने कहा कि हिवोस ने गुजरात के विभिन्न गैर सरकारी संगठन को अप्रैल 2008 और अगस्त 2012 के बीच 13 लाख यूरो यानी सवा नौ करोड़ रुपए दिए। हिवोस पर फोर्ड फाउंडेशन की सबसे ज्यादा कृपा रहती है। डच एनजीओ हिवोस इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस द हेग (एरासमस युनिवर्सिटी रोटरडम) से पिछले पांच सालों से सहयोग ले रही है। हिवोस ने “परिवर्तन” को भी धन मुहैया कराया है। इस संस्था की खासियत यह है कि विभिन्न देशों में सत्ता के खिलाफ जनउभार पैदा करने की इसे विशेषज्ञता हासिल है। डच सरकार के इस पूरे कार्यक्रम का समन्वय आईएसएस के डॉ.क्रीस बिकार्ट के हवाले है। आईएसएस के बनाए माहौल की बदौलत जार्जिया में चल रहे सामाजिक आंदोलन(रोज रिवल्युशन) की देखरेख डॉ.सुशील तन्खा करते हैं। इसके साथ-सथ मीडिया को साधने के लिए एक संस्था खड़ी की गई है। इस संस्था के दक्षिणी एशिया में सात कार्यालय हैं। जहां से इनकी गतिविधियां संचालित होती हैं। इस संस्था का नाम ‘पनोस’ है।

सीआईए,फोर्ड,हिवोस और डच सरकार

फोर्ड फाउंडेशन 1936 में बनी थी। हेनरी फोर्ड हिटलर का प्रशंसक और यहूदी विरोधी था। सीआईए और फोर्ड फाउंडेशन का आपसी सहयोग 1953 में शुरू हुआ। जॉन मैक्लाय उस समय फोर्ड फाउंडेशन के निदेशक थे। फोर्ड फाउंडेशन के अभिलेखागार में उपलब्ध दस्तावेजों के अध्ययन से कई शोधकर्ताओं ने फोर्ड फाउंडेशन और सीआईए के संयुक्त प्रोजेक्टों का खुलासा किया है। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण इस्टर्न यूरोपियन फंड, द कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम, इंटरनेशनल रेस्क्यू कमेटी प्रमुख हैं। सीआईए और फोर्ड जैसी संस्थाओं के संबंधों पर कई किताबें आ चुकी हैं। ऐसी ही किताब ‘हू पेड द पाइपर’ में खुलासा किया गया है कि 1950 से लेकर अबतक संस्थाओं के क्षेत्र में सीआईए का दखल काफी व्यापक है। इस किताब में कहा गया है कि 1976 में अमेरिकी कांग्रेस की जांच में पाया गया कि अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों के लिए दिए गए करीब 700 सहायताओं में से आधी सीआईए ने ही अपने फाउंडेशन रूट से दी। सीआईए का मानना है कि फोर्ड जैसी संस्थाएं विदेशों में अपनी गतिविधियों की फंडिंग के लिए सबसे मुफीद और सुविधाजनक तरीका है। सीआईए में काम कर चुके एक अधिकारी का तो यहां तक कहना है इन जानी मानी संस्थाओं के साथ जुड़कर सीआईए किसी भी देश में युवा-मजदूर संगठनों,बुद्धिजीवियों, मीडिया मे अपने लोगों को आसानी से धन उपलब्ध करवा सकता है। फोर्ड फाउंडेशन के लिए भारत कितना महत्वपूर्ण है, इसका अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि उसका अमेरिका से बाहर पहला और सबसे बड़ा कार्यालय दिल्ली में ही है। इस कार्यालय से नेपाल और श्रीलंका की गतिविधियां भी संचालित होती हैं।

बहरहाल डच सरकार और सीआईए के बीच के संबंध की कुछ और पर्तें उधेड़ते है। वैसे तो डच सरकार और अमेरिका के संबंध कई बार उजागर हुए हैं। उनका आकलन इन तथ्यों के साथ किया जा सकता है। बात 9 अगस्त, 2005 की है। डच सरकार के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ.रुड़ लुबर्स की बातचीत डच रेडियो से प्रसारित की गई था। इस बातचीत में उन्होंने स्वीकार किया था कि डच सरकार की आंतरिक खुफिया एजेंसी बीवीडी और अमेरिका चाहता था कि पाकिस्तान को परमाणु बम बनाने में मदद करनी चाहिए, क्योंकि शीत युद्ध के दौरान पाकिस्तान हमारे लिए मददगार साबित हुआ था। भारत तब सोवियत रूस के करीब था। डच सरकार की आंतरिक खुफिया एजेंसी बीवीडी और सीआईए मिलकर काम करते हैं। इस बात का खुलासा बीवीडी के जासूस रहे फ्रिट होकेस्ट्रा ने अपनी किताब ‘डीन्सट वन दे’ (इनसाइड बीवीडी) में की है। यह किताब उन्होंने 2004 में लिखी थी, जिसमें उन्होंने बताया है कि कैसे बीवीडी और अमेरिकन एजेंसी ने मिलकर कई अंतरराष्ट्रीय ऑपरेशन को अंजाम दिया। खासकर चीन और दूसरे साम्यवादी आंदोलन के खिलाफ। इस किताब में सीआईए और बीवीडी के संबंध को भी समझाया गया है। ये दोनों एजेंसियां कैसे तीसरी दुनिया के देशों में विरोध पैदा करने का माहौल बना रही है। यह भी समझाया गया है। पिछले साल विकीलीक्स ने भी डच संगठनों की भूमिका उजागर की थी। डच सरकार की आंतरिक खुफिया एजेंसी बीवीडी एक अलग तरह की एजेंसी है। बताया जा रहा है कि बीवीडी अब भी सीआईए के साथ मिलकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काम कर रही है, क्योंकि डच सरकार ने अपनी बाह्य खुफिया एजेंसी आईवीडी को बंद कर दिया है। यह सब समझने के बाद क्या सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि अरविंद केजरीवाल और उनके संगठन को फोर्ड फाउंडेशन क्यों मदद कर रहा है। इसमें डच सरकार की क्या भूमिका है और इन सबके पीछे कौन लोग हैं?अरविंद के साथ ज्यादातर वे ही गैर सरकारी संगठन हैं, जिन्हें किसी न किसी तरीके से इन विदेशी एजेंसियों से धन मिलता है।

बहरहाल, अरविंद केजरीवाल अब राजनीतिक दल बनाने की तैयारी में लगे। 60 और 70 के दशक में जब कोई नई पार्टी बनाता था तब उसके सामने एक आदर्श होता था। यही नही कोई किसी पार्टी से अलग होकर यदि दूसरी पार्टी बनाता था तब भी उसके मूल में वैचारिक मतभेद होता था, उसे यह विश्वास होता था कि उसके विचार के समर्थक उसे सहयोग करेंगे। लेकिन 80 के दशक में ये तस्वीर बदल गई। पार्टियां अपने वैचारिक सहयोगियों से समर्थन से नही बल्कि अन्य स्रोतों से चलने लगी। इससे कोई राजनैतिक दल अछूता नही है। इसी को देखते हुए भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष रहे कुशाभाऊ ठाकरे ने सहयोग का एक ढांचा बनाया था, लेकिन समय के साथ ही वो ढांचा भी अप्रासांगिक हो गया। अरविंद केजरीवाल की शुरूआत ही ऐसे रास्तों से हो रही है जिससे राजनैतिक दल अपने शुरूआती समय में बचत रहे। इंडिया अंगेस्ट करप्शन अभियान से आंदोलन बनता इसे पहले ही राजनैतिक महत्वाकांक्षा ने उससे बिखेर दिया। अन्ना और अरविंद में मतभेद वैचारिक नही बल्कि इस मतभेद का आधार अविश्वास और राजनैतिक महत्वकांक्षा है। जब तक अरविंद केजरावाल को लगा कि अन्ना को अपने अनुसार चला सकते हैं तब तक उनके पीछे रहे। लेकिन जैसे ही अन्ना हजारे ने पैसे और पारदर्शिता का सवाल उठाया तब से मतभेद शुरू हुए, और अब अरविंद केजरीवाल संसदीय राजनीति के रास्ते पर निकल चुके हैं। उन वादों के साथ, जो कभी आजादी के बाद सत्ता में आने वाले नेताओं ने किए और बाद में जेपी आंदोलन से निकले हुए राजनेताओं ने किए। अब उन्हीं नेताओं के खिलाफ उन्हीं की ही तरह के वादों के साथ केजरीवाल आए हैं। फैसला देश की जनता को करना है।

(निदेशक, लखनऊ जनसंचार एवं पत्रकारिता संस्थान)

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