Thursday 20 February 2014

क्या सरकार चलाने के मूड में थे केजरीवाल

अतुल मोहन सिंह 
अरविंद केजरीवाल ने जब मुख्यमंत्री पद संभाला था तो कहा था कि यह बदलाव का शाशन होगा, बहरहाल 50 दिनों तक भी नहीं चला। 14 फरवरी, 2014 को केजरीवाल ने तब इस्तीफा दे दिया जब सरकार दिल्ली सभा में जनलोकपाल बिल लाने में असमर्थ रही। जहाँ पर विपक्ष से इस बिल को बिलकुल भी समर्थन नहीं मिला। बीजेपी और कांग्रेस के तर्क के अनुसार उन्हें बिल को पढ़ने के लिए समय चाहिए था, इससे पहले कि वह उस पर वाद विवाद या वोट करते। आप के नेताओं ने उनसे उसी दिन वाद विवाद या उसके बिना वोट करने को कहा जिसका नतीजा यह निकला कि सभा के ज़्यादातर सदस्यों ने इसके खिलाफ वोट किया। 

क्या दिल्ली सरकार को नहीं चलाने का जनलोकपाल एक अच्छा बहाना था? 
अरविन्द केजरीवाल को इस्तीफा देने का एक बहाना मिल गया ताकि वह अपने आप को दिल्ली सरकार को चलाने से बचा सकें जो उनके लिए एक चुनौती की तरह उभर कर आने लगा था। यह माना जा रहा है कि सामान्य चुनाव आने में सिर्फ तीन महीने रह गए हैं और यह केजरीवाल द्वारा रचा एक खेल है ताकि वह भागने का तरीका निकाल पाएं और उस भूमिका को निभाएं जहाँ वह सहज महसूस करते हैं। और वह है सड़कों पर राजनीति और आंदोलन। 

लोग केजरीवाल से क्या उम्मीद लगाए बैठे थे? 
करीब डेढ़ महीने पहले जब शीला दीक्षित को भारी मतों से हरा कर अरविंद केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी तो लोगों की इनसे उम्मीदें बंध गयी थीं। उम्मीद थी कि दिल्ली की चिरस्थायी समस्या जैसे बिजली और पानी की कमी और जुर्म और महिलाओं की सुरक्षा के मुद्दे को ध्यान में रखकर यह सरकार काम करेगी। यह भी उम्मीद थी कि लोगों के लिए घर वहन योग्य होगा और पुराने नियम जैसे ऊँची इमारतों के बनने पर रोक में सुधार आयेगा। यही नहीं यह उम्मीद थी कि दिल्ली की औद्योगिक अर्थव्यवस्था एक अलग स्तर पर पहुँच जायेगी और इमारतों के विकास और अनुयोजकता में असर दिखेगा। हालांकि, इन सभी में दूरदर्शिता और समय और दिमाग लगाने की ज़रुरत थी। उनकी दूरदृष्टि के सवाल का जवाब नहीं दिया जा सकता पर केजरीवाल के पास निश्चित ही समय नहीं था। वह सब जल्दबाज़ी में करना चाहते थे और आने वाले आम चुनाव के पहले ही अपना लोहा मनवा लेना चाहते थे। 

सरकार विरोधी धर्मयोद्धा जो रहा एक जूझता हुआ मुख्य मंत्री 
सत्ता में आने के कुछ दिनों के बाद ही उन्होंने यह महसूस किया कि आंदोलन करना एक बात है और शाशन करना दूसरी। शाशन करना और शाशन में बदलाव लाने के लिए धैर्य की ज़रुरत होती है जो उनमें बिल्कुल भी नहीं थी। उन्होंने यह महसूस किया कि यह मुख्य मंत्री के बस में नहीं है कि वह बिजली के दाम कम कर दे क्योंकि इसके लिए एक बिजली नियंत्रक समिति है। इसलिए इसका उपाय था जांचा परखा हुआ आर्थिक सहायता देने का रास्ता, राजस्व सम्बन्धी समझदारी पर ध्यान नहीं देते हुए उन्होंने यह साबित कर दिया कि जब लोकवाद की बात आती है तो वह किसी से अलग नहीं। पर निर्वाचक वर्ग बिजली और पानी पर दिए गए अनुदान से भी खुश नहीं था क्योंकि उन्हें और मुफ्त उपहार चाहिए था जो लोकवाद की एक जगजाहिर समस्या है। जब उनके एक एमएलए को वोटरों ने थप्पड़ मारा क्यूंकि वह उन लोगों को पानी में अनुदान नहीं दिला पाया जिनके पास मीटर नहीं लगा था, तब केजरीवाल को पता चल गया कि वास्तव में तब क्या हाल होगा जब जल्द ही दिल्ली में गर्मियां आ जाएंगी जब यहाँ की आबादी बिजली और पानी की किल्लत से जूझती है। एक तरफ उन्होंने बड़े बड़े वादे किये थे और दूसरी तरफ बिजली बांटने वाली कंपनी एनटीपीसी द्वारा प्राप्त बिजली का भुगतान नहीं कर पा रही थी, इस सब का बीड़ा केजरीवाल को ही उठाना पड़ता।

क्या वह अच्छे शाशन व्यवस्था को कायम करने के लिए गंभीर थे?
विधि मंत्री सोमनाथ भारती का स्पैमिंग में निर्लिप्त होना और गणतंत्र दिवस से पहले दिल्ली पुलिस से विवाद में धरने पर बैठने के बाद भी सही नतीज़े नहीं आने पर केजरीवाल को इससे बाहर आने का एक उपाय चाहिए था और जनलोकपाल बिल एक अच्छा तरीका बनकर सामने आया। कुछ उपयुक्त सवाल अभी तक अनुत्तरित हैं। अगर केजरीवाल जनलोकपाल बिल को लेकर इतने ही गंभीर थे तो वह गवर्नर की स्वीकृति के लिए भी क्यों नहीं रुके? अंत समय तक बिल की विषय सूची को गुप्त रखने की और बिल के मेज पर न आने तक सभा में ना बताने की क्या ज़रुरत थी? श्री श्री रविशंकर के ट्वीट के अनुसार, "अरविन्द को इस्तीफा नहीं देना चाहिए था। वह कुछ मंत्रियों को जेल में डाल सकते थे। इसके लिए कई नियम बने हुए हैं।" जिससे यह साफ जाहिर होता है कि कई लोग इस इस्तीफे को उनकी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ने के रूप में ले रहे हैं। हालांकि उनकी सरकार के खिलाफ कोई नो-कॉन्फिडेंस मोशन पास नहीं किया गया। 

क्या उन्होंने दिल्ली के लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है? 
केजरीवाल ने भले एक बहुत बड़ा दांव लगाया है, समय ही बता पायेगा कि यह कितना सही साबित होता है या इसकी उल्टी प्रतिक्रिया होगी। उन्होंने गवर्नर से सभा को भंग करने की मांग भी की है। क्या इसका यह मतलब है कि उन्हें यह डर था कि उनके कई पहली बार सदस्यता पाने वाले एमएलए अपनी निस्ठा बदल देंगे? हालांकि यह तभी होगा जब बीजेपी सरकार बनाने में रूचि रखती हो। पर बड़ा सवाल यह है कि क्या केजरीवाल फिर से दिल्ली के विधान सभा चुनाव में हिस्सा लेंगे। क्या वह फिर से 'आप' के मुख्य मंत्री के उम्मीदवार की तरह खड़े होंगे और जनादेश की मांग करेंगे या फिर केजरीवाल अब दिल्ली विधान सभा चुनाव में रूचि नहीं रखते पर वह सिर्फ लोक सभा चुनाव के बारे में सोच रहे हैं? और अगर ऐसा है तो उनका दिल्ली में सरकार बनाने के पीछे क्या मकसद था? क्या यह सोची समझी साजिश थी? क्या कांग्रेस भी इस साजिश में मिली हुई थी? क्या इसमें केजरीवाल को सेंटर स्टेज पर लाने की साजिश थी ताकि एंटी-कांग्रेस वोट को बांटा जा सके? क्या इस बात की साजिश की गई और निश्चित किया गया कि जनलोकपाल बिल को पास नहीं होने दिया जाए? 'आप' एमएलए विनोद कुमार बिन्नी ने यह आरोप लगाया है कि 'आप' द्वारा जनलोकपाल को पारित करने की कभी कोशिश नहीं की गयी। उनके शब्दों में: "अरविंद केजरीवाल कभी भी जनलोकपाल को पारित नहीं करवाना चाहते थे। वह जनलोकपाल पर चल रही राजनीति को ज़िंदा रहने देना चाहते हैं और इसलिए इसे सुलझने नहीं देना चाहते। अगर वह इसके लिए ईमानदार होते तो इसे पारित करने के लिए जी जान लगा देते। उन्हें यह नौटंकी चाहिए थी।" लोग इस बात पर सवाल करने पर मजबूर हो जाते हैं कि क्या केजरीवाल कभी दिल्ली सरकार को चलाने को लेकर गंभीर थे। क्या सरकार बनाने की ज़रुरत सच में थी अगर वह इस्तीफा देने की ही सोच रहे थे? बिल को पारित करवाने के लिए आंदोलन क्यों नहीं किया गया? केंद्र और राज्य सरकार के बीच हमेशा से मतभेद रहे हैं पर कभी भी पदधारी सरकार ने सनक में और उत्तेजना में आकर पद का त्याग नहीं किया है।

क्या यह जनलोकपाल बिल के लिए था या आने वाले लोक सभा चुनाव के लिए? 
यह साफ है कि अब अरविन्द केजरीवाल लोक सभा चुनाव पर ध्यान केंद्रित कर पाएंगे और दिल्ली की समस्या उन्हें परेशान नहीं करेगी। यह भी साफ है कि इस पूरे मामले को पूंजीवाद विरोधी आंदोलन बनाने की एक गहरी साजिश चल रही है जिसमें शातिर तरीके से अम्बानी और अदानी को फंसा दिया गया है। कोई अरविन्द केजरीवाल को बताओ कि भले ही भारत भ्रष्टाचार से लड़ना चाहता है पर वह समाजवाद के उस दौर में नहीं पहुंचना चाहता जहाँ पर गैर सरकारी पूँजी और उद्योग उपक्रम नहीं थे। भारत यह चाहता है कि उद्योगपति काम को उत्पन्न करें ताकि अर्थव्यवस्था को लाभ हो। अंत में वह केजरीवाल और मेधा पाटकर नहीं होंगे पर उद्योगपति होंगे जो भारत के लाखों पढ़े लिखे युवाओं को नौकरी देंगे। गैस के दामों को लेकर विवाद से लड़ने का यह मतलब नहीं कि भारत उद्योग से पूरी तरह से दूर हो जाएगा। 

क्या उन्होंने अपने राजनितिक जीवन की सबसे बड़ी गलती की है? 
हालांकि नौटंकी अभी भी जारी है और दिल्ली सरकार को स्थगित कर दिया गया है, यह तय है कि केजरीवाल अपने निर्वाचक वर्ग की तरफ अपनी कहानी लेकर जायेंगे। यह भी संभव है कि उनको चाहने वाले अभी भी उनकी तरफदारी करेंगे पर सवाल यह उठता है कि ज्यादातर पढ़े लिखे और काम करने वाले लोग और व्यवसाय करने वाले लोग कैसा बर्ताव करेंगे। क्या वह फिर से उनकी कहानी पर विश्वास करेंगे? क्या अरविन्द केजरीवाल अंत में इस बात का अफसोस करेंगे कि उन्होंने दिल्ली पर 60 महीने शाशन करने का सुनहरा मौक़ा खो दिया जिसमें वह अपनी पार्टी और दूसरों के लिए एक मिसाल कायम कर सकते थे। अब समय ही बता पायेगा कि क्या अरविन्द केजरीवाल इस मुहावरे 'कायर कभी जीतते नहीं और जीतने वाले कभी कायर नहीं होते' का उदाहरण बनकर उभरेंगे। दिल्ली शापित हो चुकी है।

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