Tuesday 18 February 2014

समाजवादी सरकार की गिरती साख से परेशान नेताजी


-अरविन्द विद्रोही 

उत्तर प्रदेश में सपा के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव के मुख्यमंत्रित्व में वर्तमान सरकार कार्य कर रही है। प्रदेश के सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग के द्वारा, सपा के प्रवक्ता एवं प्रदेश के कैबिनेट मंत्री राजेंद्र चौधरी और खुद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के द्वारा बारम्बार दोहराया जाता है कि सपा के द्वारा विधानसभा उप्र आम चुनाव 2012 के दौरान जारी घोषणा-पत्र में किये गये तमाम वायदों को पूरा कर दिया गया है। सरकारी-सपाई दावों के विपरीत आम जनमानस में अखिलेश यादव की सरकार की छवि धूमिल ही हुई है और इस तथ्य को मीडिया का, विपक्षी दलों का दुष्प्रचार कहते रहने से बेहतर है कि जमीनी यथार्थ को जानने-समझने की चेष्टा सरकारी अमला व सपा नेतृत्व करे। वैसे स्वयं सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव इस वस्तुस्थिति से वाकिफ हैं और यही कारण है कि वे पार्टी के वरिष्ठों से लेकर, सरकार के मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायकों, पार्टी प्रत्याशियों और कार्यकर्ताओं को चेतावनी और सीख भी देते रहते हैं। अनुशासन की सीख देते देते समय सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव अपने कार्यकर्ताओं से यहां तक कह देते हैं कि भाजपा के कार्यकर्ताओं से अनुशासन व संयम सीखने की जरुरत है। कानून व्यवस्था तोड़ने वाले और गुंडई करने वाले सपाइयों के खिलाफ कठोर कार्यवाही करने की चेतावनी देने और उस पर अमल करने के बावजूद स्थिति व सपाइयों की हरकतों पर प्रभावी नियंत्रण कायम नहीं हो पा रहा है और यह हालात समाज, प्रदेश के आम जनों के साथ-साथ सपा नेतृत्व के लिए भी चिंता का विषय है। अखिलेश यादव के तमाम निर्देशों की सरेआम अवहेलना सपा नेताओं-जिम्मेदारों द्वारा बदस्तूर जारी है।

सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव की असल चिंता यह कदापि नहीं है कि वे स्वयं प्रधानमंत्री कैसे बनेंगे? उनकी असल चिंता का कारण उत्तर-प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार के वे मंत्री-विधायक-पदाधिकारी व नौकरशाह हैं जिनके गैरजिम्मेदाराना बयानों, हरकतों व कृत्यों से उम्मीदों की साइकिल पर सवार होकर उप्र के मुख्यमंत्री पद तक पहंुचने वाले अखिलेश यादव की राजनैतिक-व्यक्तिगत छवि धूमिल हो चुकी है। यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि मुलायम सिंह यादव ने अपनी इस राजनैतिक ताकत व संगठन का निर्माण स्वयं अपने बलबूते 4-5 नवंबर, 1992 को तपे-तपाये समाजवादियों को एक साथ एक झंडे के नीचे करके किया था और अखिलेश यादव को राजनीति में स्थान व महत्व बिना प्रारंभिक संघर्ष के ही मुलायम सिंह का पुत्र होने के ही नाते मिला। यह अलग बात है कि जब कन्नौज से लोकसभा प्रत्याशी के रूप में अखिलेश यादव चुनाव लड़ने पहुंचे तो छोटे लोहिया जनेश्वर मिश्रा ने पत्रकारों के सवाल के जवाब में कहा था कि यह सत्ता का नहीं संघर्ष का परिवारवाद है। ध्यान रखने की बात यह भी है कि इस वक्त जब राजनीति में अखिलेश यादव का पदार्पण हुआ, से दशकों पहले से साये की तरह ,एक कार्यकर्ता की तरह शिवपाल यादव, काबिना मंत्री अपने अग्रज मुलायम सिंह यादव के साथ कन्धा से कन्धा मिलाकर उनके निर्देशन में राजनीति करते रहे हैं। आश्चर्यजनक रूप से 2012 में अखिलेश यादव के नेतृत्व में सरकार गठन के पश्चात् शिवपाल यादव के व्यक्तित्व-छवि में जबर्दस्त निखार आया है और उनके प्रति सपा नेताओं और  कार्यकर्ताओं के मन में सम्मान-स्नेह बढ़ा ही है। 

अखिलेश यादव की राजनीति की असल ताकत मुलायम सिंह यादव के पुत्र होने के साथ-साथ युवा फ्रंटल संगठनों का प्रभारी रहना ,युवा वर्ग से जुड़ाव होना ही है । अफसोसजनक तरीके से उप्र में सरकार गठन के तत्काल बाद उप्र में युवा प्रकोष्ठों को भंग कर दिया गया था । लम्बे अर्से के पश्चात् अभी हाल ही में एक के बाद एक चारों फ्रंटल संगठन के उप्र अध्यक्षों की नियुक्ति और संगठन गठन का कार्य हुआ, इससे एक बार पुनः सपा के युवाओं में ऊर्जा-उत्साह का कुछ संचार हुआ है। लोकसभा चुनाव सिर पर हैं, सपा नेतृत्व ने युवाओं को पुनः संघर्ष की राह पर रवाना करते हुये सरकार की उपलब्धियां बताने एवं विपक्षियों को माकूल जवाब देने की जिम्मेदारी दे दी है। उप्र विधानसभा चुनाव 2012 की चुनावी बेला में चंद ऐसे युवा सपा नेता अपने संघर्ष ,आंदोलन के बूते मीडिया में सुर्खियां बने जिन्होंने विपक्षी दलों यहां तक कि राहुल गांधी तक के होश फाख्ता अपने विरोध प्रदर्शन के बूते कर दिया था। उप्र के सरकार में सत्ता की रेवड़ी के बंटवारे से लेकर संगठन की महती जिम्मेदारी मिलने के सर्वथा योग्य व अधिकारी ये चंद युवा आज भी उपेक्षित हंै, सत्ता के नेपथ्य में हैं लेकिन संघर्ष की राह पे अभी भी एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। तत्कालीन पुलिस ही नहीं विपक्षी दलों के नेताओं तक के हाथों बुरी तरह मारे-पीटे, अपमानित किये गये ,विरोध प्रदर्शन, पुतला दहन में अपना हाथ तक जला बैठे ये युवा सपाई निष्ठा व समाजवादी मूल्यों के युवा प्रतीक ही हैं। लोहिया के ये युवा अनुयायी चुपचाप सपा नेतृत्व के निर्देशानुसार तयशुदा कार्यक्रमों को सफल बनाने में पूरे मनोयोेग से जुटे हुये हैं वही लाल बत्ती से नवाजे गये तमाम लोग सपा के लिए सरदर्द साबित हुये हैं। संघर्ष की राजनीति को प्राथमिकता देने वाले लोहिया के ये युवा सिपाही सत्ता की गणेश परिक्रमा में असफल ही साबित हुये हैं।

दरअसल समाजवादी पार्टी के स्थापना काल से ही युवा चेहरों को अत्यधिक तरजीह मुलायम सिंह यादव ने दिया था। यह मुलायम सिंह यादव की अपनी संगठन क्षमता ही थी कि छोटे लोहिया जनेश्वर मिश्र, मोहन सिंह, बृजभूषण तिवारी से लेकर रघु ठाकुर, बेनी प्रसाद वर्मा, रामशरण दास, कपिल देव सिंह, राजेंद्र चौधरी आदि धुर समाजवादियों को उस दौर में अपने साथ कर ले गये थे। जब 1992 में मुलायम सिंह ने सपा बनाई थी तो बड़ेसमाजवादी नेता चंद्रशेखर व जॉर्ज फर्नांडीज भी अपनी-अपनी पार्टी बना कर सक्रिय थे। तपे-तपाये तमाम समाजवादियों को और युवा शक्ति को एक साथ अपनी बनाई पार्टी में एक साथ कर लेना ही 1992 में सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के सांगठनिक कौशल का नमूना था। वक्त गुजरा, कई एक कारणों खासकर अमर प्रेम-प्रभाव के चलते एक के बाद एक धुर समाजवादी मुलायम से अलग अपना रास्ता चुनते गये और रिक्त स्थान की पूर्ति हेतु मुलायम सिंह भी बाहुबलियों तक को जोड़ते गये। 4-5 नवंबर, 1992 को लोहिया के विचारों की पार्टी बनाते समय सभी समाजवादियों के मन में यही कल्पना थी कि समाजवादी सरकार का गठन किया जायेगा। कालांतर में मुलायम के अति अमर प्रेम-प्रभाव के चलते अलग हुये समाजवादियों के अतिरिक्त तमाम धुर समाजवादी नियति के नियम के अनुसार काल के गाल में समां गये। संयोगवश अमर प्रेम भी मिथ्या साबित हुआ और रिश्तों की कड़वाहट सुर्खियों में छाने लगी। खैर तमाम संघर्षों और राजनैतिक हालातों के गर्भ से 2012 में अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा सरकार बनी और लोगों की उम्मीदें आसमान छूने लगी। अब 2 वर्ष होने को है और लोकसभा चुनाव के कारण सपा को भी उप्र के जनमानस के बीच अपने कार्यों-उपलब्धियों के आधार पर मत-समर्थन मांगने जाना पड़ रहा है।  निश्चित रूप से जातीय जकड़न व धार्मिक उन्माद की अतिरेक भावना में जकड़ी राजनीति के बीच विकास कार्यों व उपलब्धियों के आधार पर ही राजनीति कर पाना असंभव है। आज दंगे पर दंगे व बिगड़ी कानून व्यवस्था के मुद्दे पर सपा का आधार मतदाता ही नाराज है और यह नाराजगी कोई गुपचुप नहीं है बल्कि मुखरित है। और तो और मुलायम सिंह यादव के तीन दशक पुराने मित्र बेनी प्रसाद वर्मा-केंद्रीय इस्पात मंत्री, भारत सरकार आज उनके और सपा के लिए सबसे बड़ी मुसीबत बन चुके हैं। सिर्फ अपने तीक्ष्ण -बेबाक बयानों से ही नहीं वरन अपने मात्र तीन वर्ष के इस्पात मंत्री के कार्यकाल में 13 इस्पात कारखाने व विद्युत संयंत्र की आधारशिला रख देने वाले, विकास कार्यों को गति देने वाले बेनी प्रसाद वर्मा ने पिछड़े इलाकों के विकास के सवाल पर बड़ी प्रखता-चपलता से सपा सरकार को कठघरे में खड़ किया है। जगह-जगह बैठकों, कार्यक्रमों, सम्मेलनों में बडे़ सहज भाव से बेनी प्रसाद वर्मा कहते रहते हैं कि नरेंद्र मोदी व मुलायम सिंह एक दूसरे के हित के लिए राजनीति कर रहे हैं ,दोनों नूराकुश्ती कर रहे हैं । दोनों की मिलीभगत की देन है उप्र में दंगे। बेनी प्रसाद वर्मा खुली चुनौती भी मोदी-मुलायम को देते हैं कि एक मंच पे आकर उनके सवालों का दोनों जवाब दें। बहरहाल बेनी प्रसाद वर्मा के इन बेबाक सवालों का जवाब ना तो मुलायम सिंह देते हैं और ना ही मोदी अलबत्ता मोदी-मुलायम एक दूजे को ताल ठोंककर ललकारते जरुर हैं।

उप्र की चुनावी राजनीति में एक बार पुनः सत्ताधारी दल के खिलाफ जनमन बन चुका है। जनता के आक्रोश को मतों में परिवर्तित कर सत्ता में आई सपा मात्र दो वर्षों में तमाम विरोधाभासों का शिकार हुई ,आज उसके द्वारा गिनाई जा रही उपलब्धियां फीकी पड़ रही हैं और विपक्षी नेताओं के द्वारा उठाये जा रहे सवाल जनमानस को पसंद आ रहे हैं । लोकसभा चुनाव उप्र में बड़ा घमासान रूप अख्तियार करेगा, लोकसभा चुनाव के परिणाम और सीटों का गणित सिर्फ प्रधानमंत्री पद के तमाम उम्मीदवारों को ही नहीं प्रभावित करेगा बल्कि उप्र की सत्ता -सरकार पर अपना असर छोड़ जायेगा।


-अरविंद विद्रोही, लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार व सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता हैं।

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