Sunday 16 November 2014

साहित्य की सामाजिक जवाबदेही


·    अतुल मोहन सिंह
 देश में परिवर्तन की की बयार है. आशाओं के नूतन स्वप्न हैं, हर बार की तरह स्वघोषित घोषणाएं हैं. हर सही गलत फैसलों के पीछे अच्छे दिनों की चाश्नी है. देश कितना आगे बढ़ेगा या पीछे हटेगा, आर्थिक फलक और बुनियादी कैनवस पर बदलाव किस कदर नज़र आयेगा. अच्छे दिनों की परिधि में स्थान पाने या दिलाने की जद्दोजेहद में कहीं परिधि का आकार परिवर्तित न हो जाये बहरहाल यह सब वक्त के हवाले छोड़ते हैं. समय की नब्ज़ और उसकी कसौटी हर दावे, वादे और नारे की पोल खोलने के लिए खाफी है. फिलहाल साहित्य के सर्जकों और रचनाधर्मियों को अपनी मूल स्थिति, वस्तुस्थिति से भटकाव अथवा ठहराव से बचना चाहिए. आज के कालखंड में प्रायः सभी प्रमुख साहित्यकारों में भी राजनीति और तिकड़मबाजी का असर देखने को मिल रहा है. उनकी कलम एक बार फिर शहर की चमचमाती सड़कों पर विचरण करना को उछाल मार रही है. किसी शिशु कि भांति ही नव यौवनाओं की गोद में आरामतलबी की शिकार होना चाहती है. आज का लेखक तंग और अधेंरी गलियों में घुसने से भयभीत होता है. उसकी कलम किसान के हल और गांव की गंदगी से घबराती है. उसे परम्परागत भारतीय समाज और सामाजिक परम्पराएं आज वर्जनाएं लगती हैं. परिवार और घरों को तोड़ने की अघोषित मुनादी पीटते साहित्यकारों के दल न जाने किस दलदल में जाकर आखिर विश्राम लेंगे.
परम्परा बनाम आधुनिकता के इस विचार युद्ध में वो रंगीली और सपनीली दुनिया में मुंह के बल गिरने में ही अपने लिए गौरव की अनुभूति कर रहे हैं. उनकी चर्चा में अब प्रकृति संरक्षण, पर्यावरण, गांव, गोबर, गाय और ग्वाले नहीं हैं. जल, जंगल, जन, जमीन और जानवर पर लिखना जैसे अपना समय बर्बाद करने जैसा ही लगता है. गांव की स्मृतियों व शेष की गिनती अब खंडहर और अवशेषों के रूप में की जा रही है. आज साहित्य के सामने दोहरी लड़ाई है. पूंजीवाद के जिस सर्वव्यापीकरण की प्रक्रिया में वैश्वीकरण हमारे सामने काबिज है, और वह बाजार के अधिकाधिक प्रबल और व्यापक तौर पर हमारे सामने आ रहा है. बाज़ार के वर्तमान आचरण के लिए हिन्दी में बाजारवाद शब्द प्रचलित हुआ है. इस बाज़ार ने हमारे दैनिक जीवन में अप्रत्याशित हस्तक्षेप किया है. आधुनिक युग का व्यक्ति केवल उपभोक्ता मात्र बनकर रह गया है इसी में उसकी सार्थकता चिन्हित और निर्मित की जा रही है. बाजारवाद और उपभोक्तावाद को हिन्दी साहित्य ने भी स्वागत किया है. मुझे यह कहने में कोई भय नहीं कि साहित्य ने उसके फलने-फूलने के लिए बाकायदा ज़मीन भी तैयार की है. जिस ज़मीन पर ही चलकर बाज़ार ने हमें अपने मोहपाश में ऐसे फसाया है कि जिसमे साहित्य के सरोकार और उसकी सामाजिक प्रतिबद्धता भी संदेह के घेरे में है. आज का कथाकार कहानी में कथ्य और पात्रों का चयन भी बाज़ार के हवाले कर चुका है. प्रगतिशीलता और सुधारवाद के नाम पैदा हुआ हिन्दी नई कहानी आन्दोलन भी आखिरकार बाज़ार के ही चुल्लू से पानी पीता हुआ देखा जा सकता है. इस बाज़ार आक्रामक, मोहक और उपभोक्ता को एक ओर तो उत्तेजित और चमत्कृत करने लगा, दूसरी ओर हमें लगातार विवेक शून्य भी कर रहा है. आज के साहित्य के सम्मुख एक बार फिर से इस बात की चुनौती पहाड़ की तरह खड़ी है कि वह अपने पाठकों को यह पुनर्परिभाषित करने का प्रयास करे कि वह अपने विवेक की कसौटी को बाज़ार की प्रतियोगिता से बाहर रखे और उसमें यह निर्णय करने की त्वरित क्षमता भी उत्पन्न हो सके कि उसके लिए सही और गलत क्या है. उसे किस बात पर ध्यान देना चाहिए और किस बात को सिर्फ कल्पना की उपज मानकर उसे त्यागना ही ज्यादा श्रेयस्कर होगा.
ऐसा नहीं कि साहित्य में विवेकशून्यता बढ़ी है तो साहित्य में सरोकार या उनकी सामाजिक उपादेयता खत्म हो चुकी है तस्वीर का श्वेत पक्ष यह भी है कि नई पीढ़ी के लेखकों ने पाठकों का ध्यान इस ओर भी खींचने का प्रयास किया है. आज वह इस बात को ज्यादा भरोसे के साथ कह सकते हैं कि मुक्त कंठ से बाजार का स्वागत करने वालों को जल्द ही इस चकाचौंध की हकीकत से साक्षात्कार होगा. जिसमें उसके पास फिर से अपने संयुक्त परिवार और उन्हीं बुजुर्गों के पास वापस लौटने के सिवा कोई और रास्ता नहीं बचेगा जिनको वह पूर्व में दकियानूस, असामयिक, आउटडेटेड और न जाने क्या-क्या घोषित कर चुका था. ‘पब कल्चर’, ‘बार कल्चर’, ‘लिव इन रिलेशनशिप कल्चर’ और ‘समानलिंगी प्रेम’ जैसी अवधारणायें सिर्फ मिथ्या अवधारणाएं हैं पाठक को यह समझाने की जिम्मेदारी भी साहित्य और साहित्यकारों को अपने कंधे पर लेनी होगी. साहित्य में सबकुछ स्वीकार्य वाली बनी बनाई लीक से हटकर इस बात को समझाना होगा कि साहित्य विश्वसनीयता की बुनियाद पर ही खड़ा होकर समाज में अपनी जगह बनाता है. हमने शायद इसीलिये अपसंस्कृति को भी अपनाने से पहले उसकी जांच-पड़ताल नहीं की थी कि उसे साहित्य ने बड़े भरोसे के साथ में अच्छी पैकेजिंग में परोसा था हमें. हमें यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि उन साहित्यकारों ने अपने पाठकों के साथ न सिर्फ बहुत बड़ा अन्याय किया है बल्कि एक सोची समझी साज़िश के तहत उनके साथ विश्वास का आघात किया है. उनके उस समर्पण श्रद्धा और भावनाओं का क़त्ल हुआ है जिसमें उन्होंने एक साहित्यकार को सत्य का आग्रही मानकर यथावत स्वीकार करने की एक छोटी सी भूल की थी. उसका खामियाजा उनको अपने घरों को तोड़कर चुकाना पड़ा है. आज साहित्यकारों ने अपना घर फूंककर चलने के बजाय बाज़ार के हाथों बिकने और पाठकों के घर को जलाना ज्यादा जरूरी समझा है.
आज की इस युवा पीढ़ी को इस बात की चिंता भी करनी चाहिए कि उसको परोसा जाने वाला साहित्य ही सिर्फ सच नहीं है उसको सत्य, कथ्य और तथ्य का हंस की भांति ही नीर और छीर को अलग करने के विवेक की तरह से छल और धोखाधड़ी के षणयन्त्र को समझना चाहिए. उसे अपनी परिधि और वर्जनाओं को खुद समझना चाहिए. उसे खुद ही तय करना चाहिए कि उसके लिए सही और गलत, नैतिक और अनैतिक, धार्मिक और अधार्मिक, सत्य या झूठ तथा मानवीय और अमानवीय के मध्य में फर्क क्या है. वरना खुद को बाज़ार के हवाले कर चुके साहित्यकार पाठकों को कुछ भी बेच देने की मानसिकता को सच समझते रहेंगे.   

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