Sunday 16 November 2014

संभावनाओं के रथ पर सवार

·        अतुल मोहन सिंह
   भारतीय युवा जिसे युवा के स्थान पर वायु कहना ज्यादा समीचीन होगा. कारण स्पष्ट और पुष्ट हैं कि उसकी प्रकृति और परिवेश किसी वायु के झोंके से कमतर नहीं है. कभी आंधी बनकर तेज चलने का जोखिम उठाने की उत्कट अभिलाषा तो कभी न चलने की अलसाई विवशता. दोनों ही स्थितियों पर वह अपने आपको असहज और अकेला पाता है. एक ओर जहां उसमें शारीरिक परिवर्तनों के चलते खुद को ‘कठिन काल’, ‘दबाव’, ‘तनाव और तूफ़ान के काल’, ‘संधि काल’, ‘भद्दी अवस्था’, ‘लैंगिक असहजता’, ‘दुःखद स्थिति’, ‘भविष्य निर्माण के काल’ जैसी स्थिति में महसूस करने की अनचाही मजबूरी है वहीं दूसरी ओर उसके मानसिक पटल पर रेंगते पीढ़ीगत अंतराल से जूझने और विजय रथ पर सवार होकर उससे बाहर निकलने की अधकचरी कवायद ने उसे और भ्रमित करने का प्रयास ही किया है.
वायु जब तक अपनी स्वाभाविक प्रकृति से चलती है तो वातावरण सामान्य रहता है. जब भी परिवेश में विचलन, स्थानापन्न स्वस्था अथवा भौगोलिक बदलाव होता है तो वह भी अपनी सहज और स्वाभाव के विपरीत व्यवहार करती है. उसके इसी परिवर्तित स्वरूप को आंधी अथवा वायुशून्यता का विकार कह सकते हैं. जब भी हम इसकी स्वाभाविक प्रकृति अथवा चाल में परिवर्तन लाने का कृत्रिम प्रयास करते हैं. वह अपना मुखर प्रतिरोध दर्ज करवाती है. पथ से सिथिल होने पर शीतकाल में भी पसीने निकाल देने और तेज होने पर कई विध्वंसक स्थितियों से हमें दो चार होना पड़ सकता है. दरख्तों को अपनी शाखों से भी हाथ धोना पड़ता है. समुद्र तक में ज्वार भाटा और सुनामी जैसी प्रलय की आशंका भी निर्मूल नहीं कही जा सकती. ठीक ऐसी ही सांचे की बनावट लिए हुए आज का युवा भी अपनी किसी आशा, इच्छा, आवश्यकता, मांग, अभिलाषा और अधिकार की किसी भी कटौती या अल्पता को किसी भी सूरत में स्वीकार करने की स्थिति में नहीं दिखता. उसकी उत्कंठा इतनी प्रबल और उर्ध्वगामी कही जा सकती है कि उसे आज पता है कि वह किसी भी जल्दबाजी में नहीं है. उसे भविष्य निर्माण के रास्ते में आने वाली दीर्घकालिक चुनौतियों की गंभीरता का अहसास भी है. तो उसे इससे निबटने की जुगत भी आती है पर उसे भ्रमित करता है पीढ़ीगत अंतराल जिसे अपने जैसे ही जल्दी है. उसे अपने मां-बाप की तरह हाथ पीले करने या शहनाई बजवाने की जल्दबाजी नहीं है. उसे इस बात की फिक्र भी है कि कोई उसकी व्यक्तिगत पूंजी अर्थात क्षमता, योग्यता, प्रतिभा और मेधा का दुरूपयोग न करने पाए. पर वह इस भिज्ञता के बावजूद मजबूर है अदृश्य बेरोजगारी का शिकार बनने के लिए. आज देश का युवा दुनिया में किसी को भी मात देने का हौसला रखता है मगर फिर भी वह हार जाना स्वीकार करता है इसलिए कि जहां उसके अपने खुद उसके सामने युद्धक्षेत्र में हैं और उससे पराजय स्वीकार करने के लिए याचना करते दीख पड़ते हैं. हिन्दुस्तान का युवा आज भी महाभारत से सीखने को आतुर है. वह तो युधिष्ठिर को मात देने के लिए तैयार बैठा है. उसमें यह क्षमता भी है कि वह कथ्य, तथ्य और सत्य को साक्षी मानते हुए मन, बचन और कर्म के आधार पर अपनी पूरी क्षमता के साथ सत्य के लिए आग्रह करता हुआ दिखाई पड़ना चाहता है. उसमें अर्जुन की भांति जीतने की अभिलाषा तो है पर वह सहर्ष जानते हुए भी पराजय स्वीकार करना ज्यादा नैतिक समझता है उसमें साक्षात ईश्वर से भी वाद-विवाद और प्रतिवाद करने और अपनों से हार स्वीकार करना ज्यादा मानवीय और उपयुक्त लगता है. सीखने के मामले में भी वह अर्जुन के स्थान पर एकलव्य का अनुगामी बनना चाहता है. गोपेश्वर का साथ भी प्राप्त करना चाहता है पर ‘आपत्ति काले मर्यादा नास्ति’ के समर्थन की शर्त पर नहीं. उसकी महती अभिलाषा है कि वह अपने भविष्य निर्माण का महाभारत भी पूरी ईमानदारी, निष्ठा, कर्मठता, लगन और मानवीय संवेदना के साथ विजित करे. उसकी इस इच्छा के रास्ते में कुछ अकर्यमन्यता और जुगाडू सेनायें आज भी साम, दाम और दण्ड के भेद को समाप्त कर उसे असफल करना चाहती हैं. प्रतिभा, योग्यता, मेधा और क्षमता का रथी आज महारथियों से नहीं बल्कि आरक्षण रूपी बैसाखियों पर सवार मानसिक बिकलांगता के शिकार शिखंडियों के हाथों हारने पर मजबूर है. धर्मसंकट इतना ही नहीं है यह युद्ध उन्हें अब कई बार लड़ना है. ‘एजूकेशन’, ‘सेलेक्शन’ और ‘प्रमोशन’ में ‘रिजर्वेशन’ ने आज उस युवा की हवा निकालकर रख दी है जिसमें तूफ़ान जैसा वेग है प्रलय की संभावना जिसकी परिणिति.
आज समस्याओं, विषमताओं, चुनौतियों और परीक्षाओं के जमघट ने ऐसा चक्कर चलाया है कि उसके बचपन की अठखेलियां और मित्र मंडली अब कहीं नहीं दिखती. अब दिखती है तो शिक्षा और रोजगार की मृग मारीचिका बिछाए हुए उन दुकानों में जहां से उसे हर हाल में लुटकर या लुटाकर ही जाना है. अब तो खच्चर को भी यह सफलता के दिवास्वप्न दिखाने वाले भविष्य निर्माण के ठेकेदार घोड़ा बनाने की गारंटी ले रहे हैं. जुगाडू व्यवस्थाओं और मूल सभ्यताओं के मध्य हर दिन एक नया युद्ध लड़ा जाता है. आज प्रतियोगिता की अंधी दौड़ में साइकिल सवार को भी जेट से उड़ने वाले की बराबरी करनी है. ये दीगर बात है कि यह साइकिल भी उसकी अपनी नहीं है पर फिर भी उसको दौड़ना ही है क्योंकि उसके अपनों की ‘आन’, ‘बान’, ‘मान’, ‘सम्मान’, ‘स्वाभिमान’ और ‘प्रतिष्ठा’ का प्रश्न है. फिर भी ऐसा नहीं कि हर बार जेट सवार ही आगे निकल जायें क्योंकि उन्होंने शायद आज भी कछुआ और खरगोश वाली कहानी नहीं पढ़ी है. वह अपनी उसी साइकिल के साथ जीतता है क्योंकि उसे मालुम है कि अपने तरुणाई में उसके पिताजी ने भी इसी साइकिल से दौड़ना शुरू किया था पर उनके हाथ खाली के खाली ही रह गए थे उसको न सिर्फ अपने सपने पूरे करने हैं बल्कि पिछली पीढ़ी के उस हस्तक्षेप को भी ज़िंदा रखना है जिसका साहस उसके अपने बाप ने किया था. अपनी संभावनाओं की दौड़ में वह अकेले तो नहीं दौड़ता उसके मां ने भी अपने आचल से आसूं पोछकर न सिर्फ सहारा दिया बल्कि पीठ पर स्नेह का स्पर्श भी. ये दीगर बात है कि उसकी छोटी बहन यह नहीं जानती कि उसका अपना भाई आखिर किताबी दुनिया में अपने लिए क्या तलाशता रहता है पर उसकी राखी इस बार भी कर्मवती से कम उम्मीद नहीं रखती है. इसलिए आज के उस युवा को भी जीतना ही होगा क्योंकि उसके और सारे रास्ते बंद हैं. इस अभिमन्यु की निगाहें इस बार सातवें द्वार पर ही टिकीं हैं ‘विजयश्री’ अब ‘अंगूर के गुच्छे’ नहीं बल्कि ‘अरुणोदय’ है जिसके बाद निर्धारित है कि उम्मीदों के ‘सूर्य’ का उदय अवशम्भावी है. इस बार के ‘चक्रव्यूह’ में अभिमन्यु भी ठीक वैसा ही है अकेला, निर्भीक, निहत्था और ‘संभावनाओं’ के रथ पर सवार..............

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