Wednesday 19 September 2012

आखिर ये उग्रता कहाँ रुकेगी

        मुद्दा कोई जाति, धर्म या सम्प्रदाय का नहीं है। युवा पीढी में उग्रता और आक्रामकता बढ़ती जा रही है केवल युवा ही नहीं बच्चों तक में उग्रता, आक्रामकता तथा जिद्दीपन सीमाएं पार कर रहा है। वे समझना भी नहीं चाहते और सोचते हैं कि वे जो कुछ भी पाना चाहते हैं, वह उनका अधिकार है। जब उनका मनवांक्षित नहीं प्राप्त होता है तो वे बलात और कभी-कभी तो गलत तरीके भी हासिल करना चाहते है। असहिष्णुता इतनी बढ़ चुकी है कि दूसरों को चोट पहुचाने खुद चोट खाने में भी लोग संकोच नहीं करते। यही उग्रता हिंसात्मक स्वरूप में सामने आ रही है। छोटे-छोटे मसलों पर भी तोड़-फोड़ सार्वजनिक परिवहन के वाहनों पर पत्थरबाजी की घटनाएं आम विरोध प्रदर्शनों का मिजाज़ बनता जा रहा है। यह वही उग्रता और आक्रामकता है जो अब जाति, धर्म, सम्प्रदाय से परे है फिर रमजान के पाक माह में देश के विभिन्न शहरों में मुस्लिम समुदाय के जो उग्र-प्रदेशन हुए वे ही चर्चा का विषय क्यों ? भारतीय लोकतंत्र को पतीला लगाने में कोई भी तो पीछे नहीं है।
          राजस्थान का गूर्जर आन्दोलन कौन भूल सकता है जिसकी आंच दिल्ली तक भी पहुँच गयी थी और जिस आन्दोलन में सड़क जाम, तोड़-फोड़ पथराव हुया। यातायात बाधित हुया तो देश के अरबों रूपये के राजस्व का घाटा भी हुया। उग्र प्रदर्शनकारी हिंसा और अपराध पर अमादा हो गए तो मीणाओं और गूर्जरों के बीच वर्ग संघर्ष की स्थिति भी उत्पन्न हो गयी थी। फिर गूर्जरों के नेता कर्नल किरोड़ी सिंह बैसला को राजनैतिक दल हांथों-हाँथ लेने लगे। जो आदमी देश की क़ानून को चुनौती बन गया था वह नेता बना दिया गया। ऐसी घटनाओं से देश का लोकतांत्रिक इतिहास भरा पडा है। लोग देख रहें हैं कि हिन्दुस्तान की राजनीति में स्थान बनाने और चर्चित होने का सरल रास्ता हिंसा का ही है तो जो भी राजनीति में जगह बनाना चाह रहे हैं वे उसी रास्ते को अख्तियार कर रहे हैं।  
          मुम्बई में जी हिंसा हुयी वह एक सम्प्रदाय विशेष की आयोजित रैली के माध्यम से हुई। नेता ने भावनाएं भड़काकर भीड़ तो इकठ्ठी कर ली लेकिन उसे नियोजित नहीं कर पाया या नियंत्रित करना चाहा नहीं और उसका परिणाम यह हुया कि देश की आर्थिक राजधानी उस दिन उग्र आन्दोलनकारियों की गिरफ्त में कसमसाती रही। अलविदा की नमाज़ के दिन जो उपद्रव लखनऊ में हुया उसकी सच्चाई भी बहुत हद तक ऐसी ही थी। शायद लोग भूलें नहीं होगें कि अलविदा के दिन ही लखनऊ के ही एक धार्मिक नेता ने सरकार के घेराव का एलान किया था। जब आलोचना बढ़ गयी तो उन्होंने ऐन वक्त पर अपने घेराव की घोषणा वापस ले ली, लिकिन भावनाओं में आग तो लग ही चुकी थी और वह विस्फोट के रूप में अलविदा की नमाज़ के बाद सामने भी आई। मतलब साफ़ है कि सारा तमाशा सियासी था और सरकार की घेराव की घोषणा का मकसद महज सरकार की नज़र में अपनी हैसियत दर्शाना भर था।
          यह कहना गलत होगा कि प्रदर्शन में मुसलमान शामिल नहीं थे। वे थे तो मुसलमान ही भले ही वी इस्लाम के उसूलों में आस्था रखतें हों या न रखतें हों। उग्र प्रदर्शनकारियों पर शख्ती न करने के सरकारी निर्देश (यदि ऐसा निर्देश दिया गया हो) की आलोचना हो सकती है, लेकिन अंदेशी परिणामों को सोचकर यदि सरकार यदि ऐसा निर्णय तो वह चित भी था। यदि सख्ती होती, पुलिस की लाठियां बरसती, तो उसका शिकार वे मुसलमान भी हो सकते थे जो इस बवाल में शामिल नहीं थे और शांतिपूर्ण तरीके से नमाज़ के बाद मस्जिद से वापस लौट रहे थे और शायद आम शहरी भी चोट खाते। प्रशाशनिक तंत्र की आलोचना करना आसान है लेकिन उसकी भी अपनी सीमाएं हैं। यदि प्रशासन ने सख्ती नहीं की, तो उसकी आलोचना हो रही है यदि सख्ती की गयी होती तो शायद और अधिक आलोचना हो रही होती।
        जहां तक मीडिया पर हमले की बात है तो शायद यह उस भीड़ के अति उत्साह का परिणाम रहा होगा। उन्हें कुछ न कुछ बवाल करना ही था, चूंकि मीडिया वाले उस भीड़ की गतिविधियों को कवर कर रहे थे, वे ही उस भीड़ के सबसे ज्यादा नज़दीक थे और शायद इसलिए उन्हें सबसे आसान शिकार जानकार निशाना बनाया गया। जहां तक स्वामी महावीर और भगवान बुद्ध की प्रतिमाओं को क्षतिग्रस्त करने का मामला है तो यह भी एक सोची समझी रणनीति का ही परिणाम थ। दोनों धर्मों के अनुयाइयों की अपेक्षाकृत कम और शांतिप्रिय लोगों की लोगों के कारण उन्हें भी आसान निशाना बना लिया गया। यदि किसी हिन्दू धार्मिक स्थल पर ऐसा कुछ हुया होता तो साम्प्रदायिक हिंसा के तांडव को रोक पाना आसान भी नहीं होता।
        फिलहाल जो भी हुया वो पूरी तरह घृणित और निंदनीय कृत्य था। जिन्होनें किया वो खुद नहीं जानते थे कि वे कैसी आग को हवा देने जा रहें हैं, किन्तु जिन्होंने कराया उन्हें किसी भी कीमत पर माफ़ नहीं किया जाना चाहिए। यदि सरकार और राजनैतिक दल अपने स्वार्थ के कारण उनका विरोध नही करते तो समाज के प्रबुद्ध वर्ग द्वारा ऐसे लोगों के सामाजिक बहिष्कार की अपील की जानी चाहिए।
        अलगाववाद को हवा देने वाले और समाज में वित्रिश्ना पैदा करने वाले चाहें कितने ही धार्मिक ग्रंथों को चाट डालें और चाहें कितने ही विद्वान क्यों न हों उनका विरोध किया ही जाना चाहिए। जो समाज की शान्ति का शत्रु हो वह मानवता का सबसे बड़ा शत्रु है। ऐसे लोग किसी समाज के हितैसी नहीं कहे जा सकते। लोकतंत्र तभी समर्थ, समृद्ध, और सुव्यवस्थित हो सकता है, जब लोक संस्थाएं संगठन और उनके नेतृत्वकर्ता लोकहित के प्रति समर्पित तथा आस्थावान हों। ऐसी अपेक्षा धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक तीनों तरह के नेताओं से की जाती है। वे नेता भी अपना गिरेबान झांके क्योकि नफरत बोकर उन्हें अपने लिए भी अच्छे की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
        ( लेखिका- कविता, लखनऊ में रहकर स्वतंत्र पत्रकारिता और सामयिक विषयों पर निष्पक्ष लेखन के लिए प्रतिबद्ध हैं।)  

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