Thursday 20 September 2012

महात्मा गांधी के सपनों का भारत और मौजूदा लोकतंत्र

           
            महात्मा शब्द गांधी जी के लिए इसलिए प्रयुक्त हुआ, क्योकि वह आम आदमी नहीं थे। वह महामानव थे कर्म से भी और विचारों से भी। दुर्भाग्य यह है की जिसने लंगोटी पहनकर भारत को पराधीनता से मुक्त कराने की लड़ाई सारा जीवन लड़ी, विजय हासिल की और जिसके सद्प्रयासों से ही भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश बना, उसी देश और देश के आधुनिक रहनुमाओं ने उस महत्मा को भुला दिया। अब जो गांधी जी के नाम को भुना रहे हैं, वे उनके आदर्शों, सिद्धांतों तथा आचरण से दूर-दूर तक का रिश्ता नहीं रखते। गांधीजी ने अपने त्याग, अपने संघर्ष का इस देश से अपने लिए कोई प्रतिदान भी नहीं चाहा था लेकिन आज भी वो लोग उस महामानव पर उँगलियाँ उठाने से बाज नहीं आते जो गांधीवाद का ककहरा भी नहीं जानते। भारतीय मुद्रा पर गांधीजी का चित्र अंकित कर देने, उनके नाम पर प्रतिष्ठान स्थापित कर उन्हें कमाई का जरिया बना लेने या उनके जन्मदिवस और निर्वाण दिवस पर उनकी परतिमाओं, चित्रों पर माल्यार्पण कर देने से यह देश उस महत्मा के ऋनाभार से मुक्त नहीं हो सकता और सच्चाई तो यह है कि बिना उनके आदर्शों उनकी परिकल्पनाओं को मूर्तिरूप दिए यह देश न तो शम्प्रभु बन सकता है न ही विश्व समुदाय के बीच अपनी आत्मनिर्भर छवि ही स्थापित कर सकता है।
         गांधीजी के शरीर की ह्त्या भले ही गोडसे द्वारा की गयी हो, लेकिन उससे बड़े हत्यारे और गुनहगार वे हैं जो प्रायः रोज ही उनके विचारों, आदर्शों, सिद्धांतों की ह्त्या कर रहें हैं, आज भारत में लोकतंत्र का जो स्वरुप है, जैसी व्यवस्था का संचालन, शासन प्रशासन द्वारा किया जा रहा है और देश के जनप्रतिनिधियों का जो आचरण है वैसे स्वाधीन भारत की परिकल्पना तो गांधीजी ने नहीं की थी। तब शोषकतंत्र केवल एक था , अंग्रेजी सरकार लेकिन आज सारे देश में शोषकों की भरमार है। सरकारी आकलन के अनुसार अंग्रेजों ने भारत पर करीब ढाई सौ वर्ष शासन के दौरान यहाँ से एक लाख करोड़ की संपदा लूटी थी और वर्तमान लोकतंत्र में केंद्र सरकार का एक मंत्री महज 45 मिनट के खेल में देश को 1लाख 76 हजार करोड़ की चपत लगा देता है। इसे क्या कहेंगे कि सरकार फिर भी उस लोतेरे और बेईमान मंत्री के पक्ष में खड़ी नज़र आती है ? उसे मत्रिमंडल से हटाने का साहस तक नहीं कर पाती और उसे जेल तभी भेजा जा पाता है जब न्यायपालिका विवशता में अपनी न्यायिक सक्रियता पर उतारू हो जाती है। ज़रा एस एक 1 लाख 76 हजार करोड़ को देश की कुल जन्शंख्या पर बाँट कर देखिये तो नवजात शिशु के हिस्से में भी 1408 रूपये आता है। यह पैसा कृतिम महगाई पैदाकर वसूला भी जा रहा है, क्या हम आप इसे समझ पा रहे हैं ?
       सच यह है गांधीजी केवल अंग्रेजों के देश छोड़कर चले जाने भर से संतुष्ट नहीं थे। वह इस देश से अंग्रेजियत को भी भगाना चाहते थे। दुर्भाग्य से वह भारत में लोकतंत्र को मूर्तरूप लेते नहीं देख पाए। उनके महाप्रयाण के बाद जिन हांथो में लोकतंत्र की बागडोर सौपी गयी उनमें से उनमें से अधिकाँश लोगग अंग्रेजियत में ही पले बढे थे इसलिए भारतीय लोकतंत्र का ढाचा भी यूरोपीय व्यवस्था की नक़ल के आधार पर ही विकसित किया गया। उस व्यवस्था में न तो गांधी जी के हिंद स्वराज्य की को ही और न ही रामराज्य को। हाँ रावंराज और शायद रावणराज से भी से भी कुछ अधिक इस देश में विकसित, पुष्पित, पल्लवित होता रहा है। स्वाधीनता से पूर्व अंग्रेजों ने इस देश को कभी रूस बनाने की कोशिश की तो कभी चीन बनाने की। आज देश के रहनुमा आज देश की व्यवस्था के नियंता हिन्दुतान को अमेरिका बनाने के लिए प्राण-प्रण से प्रयास कर रहे हैं। पब संस्कृति, महिलाओं के छोटे होते जा रहे देह दिखाऊ परिधान, समलैंगिकता को कानूनी मान्यता, लिव-इनरिलेसनशिप की स्वीकार्यता, मुक्त यौनानंद की वकालत, यह भारत की संस्कृति यो नहीं हो सकती। प्रशन यह है कि भारत को भारत बनाए रखने के प्रयास क्यों नहीं किये गए ? जो भारत में भारतीयता का पक्षधर नहीं क्या वे ही गांधीजी के वास्तविक हत्यारे नहीं माने जाने चाहिए ?
       हिंद स्वराज्य की परिकल्पना में बाजारवाद और सरकारवाद दोनों को नकारा गया है लेकिन आज ये दोनों ही चीजें देश की सारी व्यवस्था को नियंत्रित और संचालित कर रहीं हैं। बापू के सपनों का भारत ऐसा तो नहीं था। हिंद स्वराज्य में राजनीति की आवश्यकता को कम से कम इस्तेमाल करने की बात कही गयी है, लेकिन आज हर काम में राजनीति का इश्तेमाल हो रहा है। हिंद स्वराज्य सकल घरेलू उत्पाद को देश के विकास का पैमाना नहीं मानता, उसके विकास का पैमाना आम आदमी का जीवन स्तर, गावों और का विकास हो, फिर क्या हम गांधीजी के हिंद स्वराज्य और सपनों का मजाक नहीं उड़ा रहे हैं ?
       सकल घरेलू उत्पाद को आधार मानकर कहा जा रहा है कि भारत तरक्की पर है, प्रशन यह है कि भारत केवल देश या पूंजीवादी, उद्यमी और नौकरशाह वर्ग है? क्या भारत केवल देश की गगनचुम्बी इमारतों, बंगलों और आलीशान भवनों तक ही सीमित है? समृद्धि के वैश्विक आंकड़ों में कहा गया है कि भारत की 46 फीसदी से भी अधिक जनसंख्या भी के है और भारत के का आधार यह है की देश का जो शहरी 32 रूपये रुजाना और तथा जो ग्रामीण 26 रूपये रूज खर्च करने की क्षमता रखता है वह गरीब नहीं है। क्या यही था गांधीजी के सपनों का भारत कि वे जो दीद भर में 100 रूपये से अधिक का बोतलबंद पानी (मिनिरल वाटर) डकार जाते हैं, वे यह निर्धारित करें कि देश में 26 रूपये रोज की दिहाड़ी कमा लेने वाला आदमी गरीब नहीं अमीर है ?
        वह व्यक्ति हो, समाज हो या देश जब वह अपने आपको अपने आधार पर चलाता है तो उसे खुद पर गर्व होता है उसका स्वाभिमान सर उंचा करके चलता है, और वे जब नकलकर चल पाते हैं तो उनमें, कुंठा, लाचारी, बेबसी घर कर जाती है, उनका स्वाभिमान मर जाता है। क्या ऐसा ही इस समय भारत के साथ नहीं हो रहा है ? एक पीढी ने इस देश से अंग्रेजों को खदेड़ बाहर किया था आज की पीढी के सामने फिर एक चुनौती है अंग्रेजियत को खदेड़कर देश से बाहर करना। हम सदियों पुराने अंग्रेजों के बनाए कानोंऊँ को अब भी ढो रहे हैं। व्यवस्था की रगों में अब भी गुलामी के अवशेष विद्यमान हैं। जब देश स्वाधीनता संघर्ष के दौर से गुजर रहा था तब सारे देश का एक सवाल था-देश की आज़ादी, अपना देश, अपनी सरकार, और अपने नियम, कायदे, क़ानून। आज देश आज़ाद है और सच यह है की देश सवालों के ढेर पर नहीं खुद सवाल बन गया है। गांधीजी की स्वाधें भारत की परिकल्पना ऐसी तो नहीं थी। प्रशन यह है की  क्या देश की वर्तमान पीढी आज की चुनौतियों का सामना करने को तैयार है। यदि नहीं तो उन्हें और उनके स्वाभिमान को जगाना ही होगा। शायद इसके अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग भे नहीं है।

No comments: