Wednesday 19 September 2012

ये लखनऊ तो नहीं !



           ये वो लखनऊ है जिसे साड़ी दुनिया में शहर-ए-तहजीब के नाम से जाना जाता है। फिरकापरस्ती की  
में जब बटवारे के वक्त सारा देश जल रहा था तब भी लखनऊ ने अपनी रवायत बरकरार रखी और जिन मुसलमानों को हिन्दुस्तान छोड़कर पाकिस्तान जाना था वे गए, जिन्हें इस मुल्क की मिट्टी से मोहब्बत थी वे नहीं गए। छिटपुट वाएदातें भी हुई लेकिन इस तहजीब के शहर के दामन पर ऐसा कोई दाग नहीं लगा कि
हिन्दू-मुसलामानों के बीच नाइत्तिफ़ाकी पैदा हो जाती। आज़ादी आई और आधी शदी बाखुशी अपने-अपने मामलात से जूझते हुए गुज़र गई। फिर तयां सियासत रामजन्मभूमि और बाबरी मस्जिद के मसले को लेकर देश भर में और खाशकर उत्तरी हिन्दुस्तान में एक लम्बी तल्खी का दौर चला। फिर उसी फिरकापरस्ती में बाबरी ढहा दी गयी, ज़मीदोज़ कर दी गयी। देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर-प्रदेश की  राजधानी लखनऊ में भी लोगों की नीदें हराम थीं, कि जवाब में कोई बवाल हो सकता है, फिरकापरस्ती की आग यहाँ भी फ़ैल सकती है। लिकिन वह केवल बद्खयाली थी लखनऊ में कुछ नहीं हुआ यानि की लखनऊ ने अपनी गंगा-जमुनी तहजीब पर आंच नहीं आने दी।
        हम मिलकर रहते हैं, मिलकर सहते हैं और किसी भी मशायल पर शायद ही तल्खी से पेश आते हैं। बाबरी शहीद होने पर मुम्बई में जवाबी बम धमाके हुए, सैकड़ों बेगुनाह बेवज़ह उस तल्खी की आग में हलाक कर दिए गए, लेकिन लखनऊ में कही कोई तल्खी नहीं थी। इसका  है कि हम समझदार हैं, तमीजदार हैं। यहाँ मुसलमानों के ही दो फिरके मज़हबी खयालात को लेकर आपस में लड़ते रहे हैं लेकिन हिन्दू-मुसलामानों के बीच कभी बदमनी की शायद ही कोई वादात हुई हो। जब शिया और सुन्नियों के बीच खुनिं वारदातें हुयीं थीं तो अक्लियतों को सबसे अधिक दुःख पहुंचा था। उस वक्त के मशहूर और अब मरहूम शायर कैफ़ी आज़मी का दुःख शाया हुया, उन्हीं की लफ़्ज़ों में-
"टपक रहा है जो रह-रह के दोनों फिरकों के,
                      बगौर देखो वो इस्लाम का लहू तो नहीं। 
अजां में बहते थे आंसू यहाँ लहू तो नहीं,
ये कोई और शहर होगा लखनऊ तो नहीं।"
         लखनऊ की तरबियत के बारे में इतना गहरा भरोसा और उसी लखनऊ में मुसलमान अमन को दागदार करने पर अमादा हो जाएं। दूसरे मजहबों के पैगम्बरों के बुतों को तोडनें लगें, यह कैसे हो सकता है। यह तो तालिबानी रवायत है, और तालिबानी सोच के लोग लखनऊ के कैसे हो सकते हैं। मैं नहीं समझती की 
जिन्होंने तोड़-फोड़, बवाल किया, मीडियाकर्मियों से बदसलूकी की, गौतम बुद्ध तथा स्वामी महावीर के बुतों को नुक्सान पहुचाया वे मुसलमान थे और लखनऊ के मुसलमान थे। और अगर वो मुसलमान थे और लखनऊ के मुसलमान थे तो यह बहुत ही शर्म की बात है की हम अपनी रवायतों को भूलते जा रहें हैं यह जांच होनी चाहिए की अमन के खिलाफ यह साजिश कहाँ रची गयी, किसने की यह साजिश।वे गुनहगार चेहरे सामने आने चाहिए क्योकि यह सारी मुसलमान कौम को बदनाम करने की साजिश है और उन्हें किसी भी कीमत पर मुआफ नहीं किया जाना चाहिए। 
       मीडिया किसी भी मज़हब की मिल्कियत नहीं है। मीडिया में हर कौम के लोग हैं जिन पर हमले जिए वो हिन्दू-मुसलमान दोनों ही थे। उनकी गलती क्या थी कि उन्हें निशाना बनाया गया? मीडिया सबका है, सबके लिए है। अगर के लिए भी हो तो उसके लिए उनकें जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता जो ख़बरें बटोरते हैं और अपने प्रकाशनों/प्रसारण संस्थानों को पहुँचाते है। गलती किसी और की भी हो और नुकसान किसी और को पहुचाया जाये यह तो और भी बड़ा गुनाह है। यह जाहिलों की हरकत है बिलकुल जाहिलाना हरकत।
       जहाँ तक लोकतंत्र का सवाल है तो उसके दरवाजे सबके लिए खुले हैं। मुसलमान क्यों बहक जाते हैं, झूठे नारों और वायदों पर? क्यों वे खुले दिमाग से अच्छे लोगों को अपना नुमाइंदा नहीं चुनते ? खुद बार-बार गलती कर रहें हैं और खुद ही गुस्से का इज़हार भी करते हैं अभी पिचले दिनों दिल्ली के शाही इमाम ने उत्तर-प्रदेश की मौजूदा सरकार के खिलाफ तेवर दिखाये थे, उनके दमाद को रुतबे से नवाज़ दिया गया तो तेवर बदल गए। क्या उन्होंने सरकार या सरकार चलाने वाली पार्टी के मुखिया से कौम की बेहतरी की एक मांग भी रखी थी? जब तक खुद मुसलमान अपने अच्छे-बुरे के बारे में सोचने को तैयार नहीं होगा, तब तक उसके साथ यही सब होता भी रहेगा।
        मेरे मरहूम ससुर हयातुल्लाह अंसारी को सच कहने की सजा दी गयी। उन्हें उनके पुश्तैनी फिरंगी महल से बेदखल कर दिया गया था लेकिन आवाम ने उन्हें सर आँखों पर बिठाया। उन्होंने देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद का प्रतिनिधित्व किया था। वह अनपे जमाने के बड़े कलमकार और बड़े उम्दा किशम के सम्पादक रहे। उन्हें मुल्क की हर कौम ने इज्जत बक्शी लेकिन अपनों ने नहीं। अलग और सही रास्ते पर चलने में दुश्वारियां आती हैं। यह मुझसे बेहतर और कौन जान सकता है। मैंने अपनी सास की बनायी तंजीम "बज्में खवातीन" के नाम को आगे बढाया तो हमें अपनों और अपनी बिरादरी की ही खिलाफत का सामना करना पडा। कई बार बड़ी दुश्वारियां आयीं, वज़ह यह भी थी कि हम मुसलमान औरतों को रोशन-ए-ख़याल बनाना थे। उनें तालीम की दौलत से मालामाल करना चाहते थे। कुछ दकियानूस लोगों को यह जायज नहीं लग रहा था। हमें देश भर की तमाम ख्वातीनों तक तालीम की रोशनी पहुचाई, कारवां बड़ा होता गया और आज हमें अपने काम पर फख्र है।
       लड़ना गुनाह नहीं है लेकिन हममे यह समझ भी होनी चाहिए कि हमें किसके खिलाफ लड़ना है। जब समाज बुराइयों के खिलाफ लड़ता है, बुरे रिवाजों के खिलाफ लड़ता है, अंधेरों के खिलाफ लड़ता है तो वह उजाले की और बढ़ता है, तरक्की के रास्ते पर बढ़ता है। जब अपनों से लड़ता है, अपने ही खिलाफ लड़ता है तो वह बदमनी और अंधेरों की ओर बढ़ता है। समाज में समझदार और नासमझ दोनों तरह के लोग रहते हैं। समझदारों का यह फर्ज है कि वे नासमझों को सच और झूठ का फर्क समझाएं। मेरा मतलब है कि कौम की अक्लियतें आगे आयें। यही एक रास्ता है। जो हो गया, उसके लिए आंसू बहाने के बजाय फिक्र इस बात की की जाये कि ऐसी वारदातें दोबारा न हों, क्योकि इससे सारी कौम बदनाम होती है।  
                 (लेखिका- बेगम शहनाज़ सिदरत, तहजीब के शहर से ताल्लुख रखतीं हैं तथा वो एक इत्तेहादी तंजीम "बज्में खवातीन" की सद्र भी हैं।)

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