Monday 17 September 2012

वे मुसलमान नहीं, गुंडे थे

         

             माह-ए-रमजान, जब इस्लाम में यकीन रखने वाला आदमी रोजा रखकर खुद को खुदा की खिदमत में पेश करता है। जब वह सारी दुनिया की सलामती के लिए अल्लाह पाक से दुआ माँगता है।जब वह अपनी साल भर की कमाई का इक वाजिब हिस्सा दूसरों की मदद के लिए बाखुशी खैरात में देने के लिए राजी होता है। जब वह बिना नागा नमाज़ अदा करता है, नियत का अहद करता है, उसी वक्त वह बदनीयत कैसे हो सकता है? मुम्बई में कैसे क्या हुआ, मुसलमान, पुलिस वालों और खबरनवीशों पर क्यों हमलावर हुए, यह तो पता नहीं लेकिन अदब के शहर लखनऊ में बिना बात बिना विवाद हुजूम की शक्ल में मीडिया वालों पर हमला करना, लाठी डंडों को सड़कों पर लहराना और दुसरे मज़हब के पैगम्बरों के बुतों पर ईंट, पत्थर चलाकर उन्हें नुक्सान पहुचाने वाले मुसलमान कैसे हो सकते हैं? ऐसी जाहिलाना हरकतें केवल गुंडे ही कर सकते हैं और जिन्होनें भी यह किया वह केवल गुंडे थे और गुंडों के अलावा कुछ भी नहीं। वे मुसलमान तो हो ही नहीं सकते। शायद कोई भी मज़हब किसी को भी नुक्सान पहुचाने की इजाजत नहीं देता और इस्लाम यो कतई नहीं। आज इस्लाम अगर दुनिया के इक बड़े हिस्से में माना जाता है, अगर वह तेजी से फैला है तो अपने मोहब्बत भरे उसूलों की वजह से। इस्लाम कभी भी तेग-ओ-तलवार के दम पर नहीं फैला। यह बात दीगर है की हिन्दुस्तान में कुछ नफरत के सौदागरों ने मज़हबी कसादात पैदा करने की कोशिशें की लेकिन फिर भी यह खाई इतनी चौड़ी नहीं हो पाई कि उसे पार न किया जा सके। बाबरी के ज़मींदोज होने के बाद हिन्दू-मुसलामानों के बीच दूरियां पैदा करने की साजिशें हुयी, लेकिन दोनों ही फिरके के लोग इतना तंगदिल नहीं थे। वे जानते थे की जिन्होनें भी बक्शी को ढहाया वे हिन्दू नहीं थे। वे भी गुंडे ही थे क्योकि हिन्दू धर्म में भी किसी इबादतगाह को  गिराना या नुक्सान पहुचाना जायज नहीं ठहराया गया। जिस प्रकार बाबरी को ढहाने वाले हिन्दू नहीं थे।उसी तरह मीडिया वालों पर हमला करने वाले और महात्मा बुद्ध और स्वामी महावीर के बुतों को नुक्सान पहुचाने वाले भी मुसलमान नहीं हो सकते।
            कहावत है की लोग अपने दुःख से दुखी नहीं होते दूसरों का सुख देखकर दुखी होते है। यही कहावत आज देश दुनिया का भी सच है। खुद को सबसे बड़ी ताकत मानने वाला मुल्क अमेरिका शायद दुनिया का सबसे बड़ा आतातायी देश भी है। हिरिशिमा, नागाशाकी जैसे शहर अमेरिका ने ही तबाह किये। रूस को टुकड़ों में बांटकर आतंकियों की फौज अमेरिका ने ही तैयार की है। अब वे आतंकी जमातें बड़ी ताकतों में बदल चुकीं हैं। वे उलझीं रहें और खुद अमेरिका के लिए नुकसानदेह न बन जाए, इसलिए उनकी दिशा को अमरीका ही उन मुकलों की ओर मोड़ा करता है जो मुल्क अमनपसंद है तरक्की के रस्ते पर है और जहां आपसी झगडे नहीं हैं या कम हैं।
          हिन्दुस्तान में बहुत सी जबानें (भाषाएँ) हैं, बहुत सारे मज़हब और मजहबीं जमातें हैं। अलग मज़हब अलग तरीके रश्मों-रिवाज़ इबादत के अलग-अलग तरीकों के बावजूद सारा मुल्क एक है। एक दुसरे के त्यौहार में हम हिस्सेदारी निभाते हैं और यही बात इस मुल्क के दुश्मनों को सांसे ज्यादा खल रही है। हम तो दुश्मन को भी दुश्मन नहीं मानते। उअही हमारी रवायत है, तहजीब है, परम्परा है लेकिन फिर भी हम और हमारी एकता उन आँखों में काँटा बनकर चुभ रही है जो हमारी तरक्की से जलते हैं। चाहे वो देश के अन्दर होने वाली वारदातें हों या अभी जो कई शहरों में हुया वैसे फसादात, इनमें जो हाँथ दिखाई देते हैं वे ही असली हाँथ नहीं हैं। इन हांथों की डोर किन्हीं और हाथों में है और समझना भी मुश्किल नहीं है कि वे हाँथ कोन हैं।
            मुल्क में सवा सौ लोगों की इकट्ठा ताकत सारी दुनिया पर भारी पड़ सकती है, गेर उन लोगों उन मुल्कों की बादशाहत कैसे कातम रह पायेगी जी हैं तो मुठ्ठी भर लेकिन दुनिया के दारोगा बने रहना चाहते हैं, वो गुंडों को अपने पैसे पर पालते हैं और दूसरे मुल्कों में बदनीयती पैदा करने के लिए मौके-बेमौके उनका इश्तेमाल किया करते हैं। माह-ए-रमजान को नापाक करने की जो भी हरकते हिन्दुस्तान के शहरों में हुईं, उनके पीछे ऐसी ही साजिशें थी और जिन्होनें उन्हें अंजाम दिया वे उन्हीं साजिश करने वालों के पाले हुए गुंडे थे आम मुसलमान नहीं थे।
             हमारे दुश्मन हमें नेक और एक नहीं देखना चाहते। हमारे हुक्मरान या तो इस सच को समझ नहीं पा रहे हैं, या जानते हुए भी लालच की वजह से समझना नहीं चाहते, वे लोग नहीं रहे जिनके लिए कौम, मुल्क और आम आदमी की तरक्की, बेहतरी अपने निजी मशल्हत से भी ज्यादा मायने रखती थी। अब लालची, मौकापरस्त, तिकड़मी, फसादी लोगों की तादात सियासी पार्टियों, सत्ता और प्रशासन में ज्यादा है। वे इस मुल्क के विवादों में उलझे रहने से खुद को ज्यादा महफूज़ समझते हैं और ज्यादातर लोग इन्हीं विवादों, फसादों की आग में अपनी रोटियाँ सेंक रहे हैं। उन्हें पहचानना और दरकिनार किया जाना जरूरी है हम हमारे निजी मामलात भी तभी तक महफूज़ हैं जब तक कि यह मुल्क और मुल्क की ज्न्हुरियत महफूज़ है।
         मैं समझता हूँ की उक्त अक्लियतों की जिम्मेदारी बढ़ चुकी है। वे समझदार लोग हैं उन्हें आगे आना चाहिए क्योकि कम पढ़े-लिखे लोग दिमाग का सही इस्तेमाल न कर पाने के कारण तिकड़मी और सियासी मौकापरस्तों साजिश का शिकार हो सकते हैं उन्हें ऐसे लोगों से खबरदार करने का काम केवल अक्लियतें ही कर सकती हैं।
         हम शुक्रगुजार हैं 'जर्नलिस्ट्स मीडिया एंड राइटर्स वेलफेयर एसोसियेशन'  और 'ख्वाजा गरीब नवाज़ अकादमी' के कि इन तंजीमों ने "जम्हूरियत में मीडिया और मुसलमानों" के रोल के बारे में एक वैचारिक मंच खडा करने की कोशिश की है। हम उम्मीद करते हैं की यह कोशिश रंग लायेगी और इसके बेहतर नतीजे सामने आयेंगें

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