Monday 17 September 2012

भारत के सौदागर कौन ?

         
           शुरुवात शायद देश की आर्थिक राजधानी मुंबई से पहले तोड़-फोड़ उओ मेदिअकर्मियों पर हमला/ फिर अलविदा से ठीक एक दिन पहले इलाहाबाद, कानपुर, पटना, और कई बड़े शहरों में वही हुआ। अलविदा के दिन अलविदा की नमाज़ के ठीक बाद ताज्जीब के शर उत्तर-प्रदेश की राजधानी लखनऊ में में तो उपद्रवियों ने तो हद ही कर दी। तोड़-फोड़ मीडियाकर्मियों पर लाठी डंडों से हमले, उनके कैमरे तोड़ डालना और फिर गौतम बुद्ध तथा महावीर स्वामी की प्रतिमाओं पर अपना धावा बोलाकर उन्हें क्षतिग्रस्त करना। वे मुस्लिम सम्प्रदाय के लोग थे उन्हें देखकर यह स्पस्ट अहसास हो रहा था,लेकिन वे मुसलमान अर्थात इस्लाम में आस्था रखने वाले लोग नहीं हो सकते। यज गौर करने की बात है कि\जिस पंथ या सम्प्रदाय का सबसे बड़ा त्यौहार ठीक दी दिन बाद आने वाला हो और वे लोग उस त्योहार की पवित्रता नस्त करने की साजिश पर अमादा हों तो क्या अपनी धर्म के प्रति आस्था और निष्ठा संदिग्ध नहीं मानी जानी चाहिए?
           हिंसक वारदातों पर लोगों के अपने-अपने तर्क। कोई इन घटनाओं को असम में असमियों द्वारा  गैरअसमियों पर किये गए हमलों की प्रतिक्रिया कह रहा था, और कोई म्यांमार की हिंसा के खिलाफ इसे आक्रोश का नाम देने पर अमादा। अब ज़रा गौर करें, म्यांमार में यदि कुछ हुया भी हो तो  उसके खिलाफ भारत को कैसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? और यदि इस उपद्रव को असम हिंसा की प्रतिक्रया कहा जाए तो क्या वहाँ क्या वहाँ लोगों में किसी जाति  या धर्म विशेष पर ज्यादती की थी, कि  एक सम्प्रदाय विशेष के लोग लाठियां और डंडे लेकर निकल पड़ें। एज सवाल और यह भी है कि मुम्बई हो या लखनऊ, मीडिया पर हमला क्यों किया गया? कुआ ब्याम्मार या असम कि हिंसा के लिए मीडिया को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
          इससे पहले बेंगलूर, चेन्नई, हैस्राबाद और पुणे से हजारों पूर्वोत्तर भारत के प्रवाशी बदहवाश हालत ट्रेनों और बसों में भेड़-बकरियों जैसे ठूंसकर भागे थे। उनमें बुजुर्ग थे, दुधमुहें बच्चों की माये थीं, रोते हुए बच्चे थे और एक अनजान खौफ से सहमें हुए नौजवान थे वज़ह यह की कुछ लोगों को अनजान लोगों द्वारा एसएमएस भेजकर बताया गया था कि अगस्त की फलां तारीख को उन पर हमला होगा। चूँकि एसएमएस संदेश से पहले ही पुणे में पूर्वोत्तर के कुछ नौजवानों पर हिंसक हमले हो चुके थे, इसलिए सब पर दहसत का तारी होना स्वाभाविक था। उससे भी पहले मुम्बई में जिस तरह अराजक भीड़ ने महिला पुलिसकर्मियों के साथ बदसलूकी की, सिपाहियों के हांथों से बंदूके छीन लीं, पत्रकारों को पीटा और उनके कैमरे तोड़ डाले। वे मीडिया वाले जो अब तक अपनी टीआरपी बढाने के लिए हादशों को भी तमाशा बनाकर बेचने में भी सबसे आगे रहें हैं, उनके बड़े-बड़े मूवी कैमरे तो दूर से ही दिख जाते हैं और मुम्बई में सांसे पहले उनको ही निशाने पर लिया गया। लखनऊ में तो ठीक अलविदा की नमाज़ के बाद पत्रकारों और खासकर छायाकारों को प्रमुखता से निशाना बनाया गया।
           मुम्बई हो या लखनऊ दोनों शहरों में पत्रकारों ने न तो कोई भीड़ को उकसाया था और न ही भीड़ की किसी गतिविधि का विरोध ही किया था, फिर उन पर हमला क्यों किया गया। भारत का मीडियातंत्र पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष है, इसमें कहीं कोई शंका की गुंजाइश नहीं है फिर भी यदि मीडिया को निशाना बनाया गया तो उसे सुनी-सुनायी घटनाओं की प्रतिक्रया कहकर हलके में नहीं लिया जा सकता। निशित तौर पर यह 'नफ़रत के सौदागरों' की साजिश थी। जिन्होंने परदे के पीछे साजिशें रचीं, वे ट्रेनों में लदकर भागते बदहवाश लोगों, पिटते पत्रकारों और बेकाबू होते उपद्रवियों को देखकर खुश हो रहे होगें, कि इस देश के लोग किस कदर महज़ अफवाहों के बल पर गुमराह किये जा सकते हैं ?
          यह कहावत है कि ज्ञान प्रकाश देता है और रास्ते सुगम हो जाते हैं, लिकिन पिचले दिनों जो कुछ भी हुया उसमें सबसे बड़ी भूमिका उन्हीं युवा लोगों की थी जिन्हें हम शिक्षित कहते हैं। फेशबुक और ट्विटर पर अफवाहें फैलानें वाले, भड़काऊ वीडिओ अपलोड करने वाले, गाँव देहात के या बिना पढ़े-लिखे लोग नहीं थे, जबकि ऐसे वीडिओ द्रश्यों और एसएमएस संदेशों को भी महज भावनाएं भड़कानें के लिए फर्जी तौर पर गढ़ा गया था। यह वही सोशल मीडिया है जिसके खिलाफ इन दिनों भारत सरकार की त्योरियां तनी हुयी हैं और बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका सोशल मीडिया की स्वतन्त्रता की बात कर रहा है। सोशल मीडिया को वरदान मानने वाले लोग, उससे उत्पन्न हुयी परिस्थितियों और भात्नाओं के बाद किन तर्कों के सहारे ट्विटर और फेशबुक साइट्स के पक्ष में खड़े हो सकेगें ? वरदान यदि अभिशाप बन जाए, भस्मासुर का रूप धारण करने लगे तो ऐसे वरदान का किया जाना चाहिए ?
        यह तय है कि देश में जो कुछ भी हुया, वह नफरत के सौदागरों की एज साजिश थी। भले ही इस साजिश का ताना बाना न बुना गया हो लिकिन उसे अंजाम देने वाले लोग हमारे और आपके बीच छिपे बैठे हैं। वे चेहरे बेनकाब किये जाने चाहिए, और वे कितने ही रसूखदार क्यों न हों, उन्हें उनके अंजाम ताल पहुचाया हव्व जाना चाहिए, जो हुआ उसे केवल हादसे और आक्रोश का नाम भी नहीं दिया जा सकता, क्योकि न तो यह आक्रोश था और न ही यह आकस्मिक रूप से घटा कोई हादशा ही था। सब कुछ एक सुनियोजित साजिश के तहत किया गया और हमारे अपने ही लोग उन शणयन्त्रकारियों के हाथों के खिलौने हो गए। शायद इससे अधिक जाहिलाना हरकत दूसरी हो भी नहीं सकती कि हम अपना ही नुकसान करके, अपने ही घर में आग लगाकर खुशी मनाएं।
        क्या कोई व्यक्ति भारतीय मीडिया पर धर्मनिरपेक्षता पर उंगली उठा सकता है ? भारतीय लोकतंत्र के रहनुमाओं और भारत के राजनेताओं की धर्मनिरपेक्षता भले ही संदिग्ध हो लेकिन भारत की मीडिया न हिन्दू है, न मुसलमान, न शिख, न इसाई। हाँ इतना जरूर है कि मीडिया से भी गलतियां होती रहीं हैं, हो भी रहीं हैं। वह अपने उद्देश्यों से कई बार बटकता नज़र आया है। अगर मीडिया धर्म के झंडाबरदारों, राजनैतिक मठाधीशो को आम आदमी और उसकी समस्याओं को ज्यादा अहमियत देता है तो उसे सोचना होगा कि क्या वह अपनी भूमिका और अपनी जिम्मेदारियों के साथ न्याय कर रहा है।
         भारतीय लोकतंत्र का सजग पहरेदार कहा जाने वाला मीडिया और लोकतंत्र की धुरी आम आदमी जो जाति, धर्म, सम्प्रदाय की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता, दोनों को मिलकर भारत की सार्वभौमिकता और लोकतंत्र की हिफाज़त करनी होगी, क्योकि साजिशें इस देश को तोड़ने की हो रहीं हैं और उसमें केवल विदेशी
शक्तियां ही नहीं, स्वार्थी राजनेताओं, राष्ट्रदोहियों, विघ्नसंतोषियों की भी बड़ी भूमिका है। जो हो गया उसे बदला नहीं जा सकता, लेकिन भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति से बचा जाना चाहिए और
सज़िशक र्ताओं को भी यह बता दिया जाना चाहिए कि भारतीय लोकतंत्र की जड़ें इतनी कमजोर नहीं हैं कि उन्हें
आसानी से खरोंच भी पहुंचाई जा सके।

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