Friday 21 September 2012

भारतीय मीडिया का गौरव और कलंक


         भारत की सबसे बड़ी उपलब्धियों मे से एक उपलब्धि यह है कि हमारे पास एक स्वतंत्र और ताकतवर प्रेस है। यह सीधे तौर पर लोकतंत्र की प्रासंगिकता व निपुणता को प्रदर्शित करता है। अगर विरोधी आवाजों का गला घोंटा जाता है और सूचना का दमन किया जाता है तो इससे  निरंकुशता पनपती है और उसकी जड़ें मजबूत होती हैं। भारतीय लोकतंत्र का जीवन तथा इसका फलना-फूलना बहुत हद तक प्रेस की स्वतंत्रता और उसके पौरुष पर निर्भर करता है।  मैंने कई बार यह  महसूस किया है कि इस पौरुष को संतुलित करने की आवश्यकता है, ताकि विभिन्न लक्ष्यों को लेकर विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न ना हो। कुछ उदाहरण ऐसे हैं जिनमें जानबूझकर तथा संगठित रुप से अमेरिका में  ब्रिटिश राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवाओं और इसी तरह यूरोप की लोक स्वास्थ्य व्यवस्थाओं का गलत चरित्र चित्रण किया गया है। यह इस बात के बावजूद हुआ है जब अमेरिका में ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ जैसे कुछ बेहतरीन अख़बार मौजूद हैं। राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवाओं और दूसरी इसी तरह की मेडिकल व्यवस्थाओं को लेकर एक तरह का भय भी पनपा है जिसे “सोशलाइज्ड मेडिसिन” के नाम से जाना जाता है (मैंने सुना है कि अमेरिका के बच्चों को ‘ब्रोकोली’ खाने के लिए यह कह कर मनाया जाता है कि नहीं खाने पर उन्हें ‘सोशलाइज्ड मेडिसिन’ लेनी पड़ेगी।) पेशेवर दक्षता तथा यथार्थ  भारतीय न्यूज  मीडिया की सीमाओं के बावजूद, जिसमें से कुछ का मैं जिक्र  करुंगा, हमारे पास हर वह वजह है जिसके कारण हमें स्वतंत्र मीडिया की प्रशंसा करनी चाहिए। इसमें एक कारण यह भी है कि हमारे पास एक निर्भीक प्रेस है,जो कि लोकतांत्रिक भारत के लिए  पूंजी के समान है। इसके बावजूद भारतीय मीडिया बहुत आगे जाने की नही सोच सकता। इसके सामने दो बड़ी बाधाएं है जिसकी यहां पर चर्चा की जानी चाहिए: पहला मामला, मीडिया के आंतरिक अनुशासन से जुड़ा हुआ है और दूसरा मीडिया और समाज के संबन्धों से जुड़ा हुआ है। पहली समस्या का संबन्ध पेशेवर दक्षता में शिथिलता या कमी से है।   दूसरे का संबंध किसी पक्षपात या झुकाव से है जो पूरी तरह सोच-विचार के किया जाता है। इसके अंतर्गत किस ख़बर का चुनना और खारिज करना शामिल है। यह पक्षपात भारत में जातिगत विभेद के संदर्भ में उजागर होता है। भारतीय रिपोर्टिंग कुछ मायनों में बहुत ही अच्छी है। मैं कई बार रिपोर्टरों के कौशल पर आश्चर्यचकित  होता हूं, जो कई बार बहुत से तथ्यों को हमारे सामने  लेकर आते हैं। कुछ ख़बरें  ऐसी होती हैं जिसका पूरी तरह से सार प्रस्तुत करना मुश्किल होता है।  वे यह काम अच्छी तरह करते हैं । कई बार बहुत ही कम उम्र के लड़के और लड़कियां ऐसे काम कर रहे होते हैं।   हालांकि भारतीय रिपोर्टिंग में बहुत विविधता  नजर आती है।  कई मौकों पर मीडिया के जरिए हुई चूक के दूरगामी प्रभाव पड़ते हैं। ज्यादातर समय खुद सचेत होने की वजह से मैं भाग्यशाली महसूस करता हूं। मैं यह जानता हूं कि दूसरों  को किस प्रकार की समस्याएं पेश आती हैं। कई बार उन्हें मैं अपने अनुभवों के रुप में भी देखता हूं। एक भारतीय पाठक के रुप में मैं इसे लेकर निश्चिंत हो जाना चाहता हूं कि जब मैं सुबह का अखबार खोलूं, तो जो कुछ भी मैं पढ़ रहा हूं वह बिल्कुल सही हो। इस बात को सुनिश्चत कर पाना मुश्किल है।
         
           प्रेस की रिपोर्टिंग को लेकर कुछ अच्छे अनुभवों  की बात करने से पहले मैं अपने कुछ दूसरे अनुभवों की बात करना चाहता हूं। कुछ दिनों पहले मैंने एक सार्वजनिक बहस के दौरान लोकपाल को लेकर की जा रही पहल के संबन्ध में एक प्रश्न के जवाब में कहा था कि ‘भ्रष्टाचार की समस्या का समाधान भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंदर ही होना चाहिए’ (जिसमें हमारी कोर्ट और संसद शामिल है), साथ ही कहा कि ‘मैने अभी तक प्रभावी लोकपाल को लेकर एक भी रुपरेखा  नही देखी है – ना ही सरकार की तरफ से ना ही विपक्ष द्वारा’। बाद में जब मैंने वेब खोला और इस तरह की हेडलाइन वाली रिपोर्ट को देखा जिसमें लिखा था  “लोकपाल बिल सही योजना और सोच विचार के बाद बनाया गया है: अमर्त्य सेन” (द टाइम्स ऑफ इण्डिया, इण्डिया टुड़े, जी न्यूज, एनडीटीवी व अन्य); और “लोकपाल बिल सही तरह से सोच विचार व योजना के साथ नही बनाया गया है: अमर्त्य सेन” (डीएनए न्यूज, मनी कंट्रोल, दी टेलीग्राफ [जिसने इसे हैडलाइन नही बनाया था] व अन्य।)। एक अख़बार ने सर्वप्रथम पहली स्टोरी को वितरित किया और बाद में दूसरी स्टोरी को।  इस बात का ध्यान नहीं रखा गया कि यहां पर एक सुधार या करेक्शन है। मुझे इसलिए भी हंसी आई क्योंकि यह अख़बार ‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ था, जिसके साथ मैं स्वयं भी एक समय जुड़ा था।  कुछ साल पहले मुझे इस अख़बार का एक दिन के लिए संपादन करने का मौका मिला था। (यह मेरे लिए एक अच्छा दिन था, हालांकि बाद में मुझे संपादक ने कहा कि मैंने उन लोगों को दिन भर इधर-उधर दौड़ाया और बार- बार पुन: लिखने के लिए कहा।) उसी दिन कोलकाता की एक मीटिंग पर आधारित, कैंसर  फाउण्डेशन ऑफ इण्डिया में  दिए एक लेक्चर पर मैंनेये हेडलाइन देखी: “सिगरेट पीना व्यक्तिगत पसंद है” (द स्टेट्समैन) और “सिगरेट पीने पर रोक लगानी चाहिए: अमर्त्य” (हिंदुस्तान टाइम्स)। ये सारी ख़बरें एक दिन की ही थीं। यह दुर्भाग्यपूर्ण इसलिए है कि किसी एक दिन की रिपोर्टिंग के बहुत बड़े परिणाम सामने आ सकते हैं। 15 दिसम्बर को ‘द टाइम्स ऑफ इण्डिया’ का कहना था कि: “लोग सड़कों  पर निकल कर भ्रष्टाचार का मुकाबला नही कर सकते: अमर्त्य सेन”। मैंने  इस तरह का कुछ भी नहीं कहा था, जिसकी पुष्टि मेरे भाषण की ऑडियो रिकॉर्डिंग द्वारा होती है, लेकिन  इस तरह की गलत रिपोर्टिंग एक न्यूज एजेंसी की तरफ से की जा रही है।  इसका इस्तेमाल बहुत से अखबार करते हैं और वह अब सार्वजनिक क्षेत्र में है। मुझे आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर कोई मुझे मेरे इस बयान के लिए डांट दे या नैतिक सलाह पेश करे।
इस बयान को लेकर बहुत सी सलाहें मुझे दी गईं। इसमें से एक जो मुझे बेहद पसंद है उसमें कहा गया है: “मैं सोचता हूं श्री सेन को अपना मुंह बंद रखना चाहिए” –  इस मामले में असावधान प्रेस की गलत रिपोर्टिंग के कारण एक बहुत ही उत्कृष्ट सलाह दी गई। एक असावधान न्यूज एजेंसी के कारण ऐसा  हुआ,  जिस पर बहुत से अख़बार निर्भर थे।
 जो मैंने कहा वह यह था कि भ्रष्टाचार को लेकर निर्णय देने या सजा  सुनाने का काम सड़क पर नही  किया जा सकता, और इसे लोकतांत्रिक  व्यवस्था के अंतर्गत होना चाहिए। यह व्यवस्था  भारत में विद्यमान है और  लोग इसे मानते हैं।  इसके तहत संसद और कोर्ट आती है। मेरा विश्वास है कि भारत के लोग किसी और तरीके से न्याय देने के बदले लोकतांत्रिक प्राथमिकताओं  के प्रति समर्पित हैं । उनकी जो वास्तविक शिकायत है वह यह है कि भ्रष्टाचार को लेकर लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का पूर्ण रुप से, पूरे जोश से तथा सख्ती से पालन नहीं होता है। वास्तव में यह एक महत्वपूर्ण मांग है।  यह समझ सड़क पर विरोध कर रहे लोगों की भ्रष्टाचार को लेकर राजनीतिक चुनौती देने की योग्यता को नकारने से बहुत दूर है।  मैंने अन्याय के खिलाफ भारत में होने वाले बहुत से प्रदर्शनों में भाग लिया है।(हाल ही में मैं इस तरह की एक गतिविधि जो भोजन के अधिकार को लेकर लोगों के आक्रोश से जुड़ी हुई थी में सम्मिलित हुआ), मैं आम आदमी के अधिकारों के लिए जरुर खड़ा रहूंगा ताकि उनकी आवाज स्पष्ट और तेज हो।  
सच्चाई  को बढ़ाने के लिए  रिपोर्टिंग की कमियों को दूर करने के लिए मीडिया को क्या करना चाहिए? मुझे इसका उत्तर नहीं पता।  मेरा मुख्य ध्येय यहां पर प्रश्न उठाना है, लेकिन एक विचार जो मेरे मस्तिष्क में स्पष्ट है वह यह कि सभी अख़बारों को इस बात के लिए सहमत हो जाना चाहिए कि वे अपने ख़बरों से जुड़े  हुए सुधारों को एक नियमित लक्षण के रुप में प्रधानता देते हुए प्रकाशित करें। (और उन्हें सही करके ऑन-लाइन भी प्रकाशित करें) 
यह काम ‘द गार्जियन’ और ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ पहले से ही बहुत प्रभावशाली ढंग से कर रहे हैं। कुछ भारतीय अख़बारों के पास भी इस तरह के सेक्शन हैं।  ‘द हिंदू’ ऐसा पिछले कई सालों से कर रहा है। इस अभ्यास को अख़बारों के बीच और अधिक व्यापक, अधिक सक्रिय और अधिक विख्यात किया जा सकता है। 
इसके साथ  ही पत्रकारिता की ट्रेनिंग का भी मुद्दा है। जल्दबाजी  में नोट्स लेना कभी भी आसान नहीं होता। यह और भी मुश्किल हो गया है क्योंकि आज के बहुत से रिपोर्टर शॉर्टहैण्ड नहीं जानते, जैसा कि पहले के रिपोर्टर जानते थे। इस आधुनिक समय में रिकॉर्डिंग के बहुत से उत्कृष्ट उपकरण बाजार में आ गए हैं और रिपोर्टरों को अपनी यादाश्त पर निर्भर रहने के बजाय उन्हें इस तरह के उपकरणों का उपयोग व्यापक तौर पर करना चाहिए। आसावधानी वश होने वाली गलतियों  को कम करने के निश्चित रूप से और भी तरीके हैं।  इस पर और बहस होनी चाहिए।  अब मैं दूसरी समस्या की तरफ बढूंगा जिसका मैंने जिक्र किया था।  
           अगर शुद्धता  और सच्चाई मीडिया के लिए आज एक आंतरिक चुनौती है तो ऐसे  में वर्ग भेद को लेकर पूर्वाग्रहों से बचना और लड़ना एक बाहरी चुनौती है।   इसका मुकाबला करने की आवश्यकता है। इसका संबन्ध भारतीय समाज के भेदभाव से है।  “वॉल स्ट्रीट पर कब्जा करो अभियान” ने इस ओर हमारा ध्यान खींचा है जिसमें अमेरिका में सबसे ऊपर का 1 प्रतिशत और बाकी  99 प्रतिशत तबके के बीच का विराधाभास  देखा गया। मैं यहां पर अमेरिका के 1 प्र.श. और 99 प्र.श. के बीच के विरोधाभास के ऊपर बात नही करुंगा। इसी तरह के विभाजन पर अगर भारत निर्भर रहता है तो वह इसे बड़े अंतर के साथ पीछे छोड़ देगा। बेशक भारत में बहुत से विभाजन हैं – जो कुछ अख़बारो के स्वामित्व के साथ भी लागू होते हैं।  एक विभाजन भारतीय मीडिया में जातीय पक्षधरता के आधार पर है।   यह न्यूज कवरेज में भेद उत्पन्न करता है। यह उन पाठकों के हितों से जुड़ा हुआ है जो अख़बार पढ़ रहे हैं। साथ ही यह  आर्थिक प्रगति के आधार पर अच्छा प्रदर्शन कर रहे वर्ग के हितों का रखवाला है।  शेष सभी लोग पीछे छूट रहे हैं।  भारतीय जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा अल्पसंख्यक है, जो संख्या के आधार पर बहुत बड़ा है और जिसको भारत की आर्थिक वृद्धि का लाभ मिल रहा है। भारतीय मीडिया इनकी जिंदगी पर  अत्यधिक ध्यान देने और इसको बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने की कोशिश में सामान्य भारतीय के साथ होने वाली घटनाओं की सही तस्वीर प्रस्तुत नहीं करता है। न्यूज मीडिया खुशहाल लोगों  की जिंदगी को पूरा कवरेज देता है  और  उन लोगों पर कम ध्यान देता है जो हाशिए पर रह रहे हैं।  यह भारतीय मीडिया की एक ऐसी तस्वीर प्रस्तुत करता है जो एक पक्ष की तरफ से अपनी आंखे मूंदे हुए है।     
          इस तरह  के तीन दुर्भाग्यशाली तथ्यों को देखते हैं (हालांकि लिस्ट काफी लंबी हो सकती है): (1) प्रमाणित मानकों के अनुसार पूरे विश्व में कुपोषित बच्चों का प्रतिशत भारत में सर्वाधिक है; (2) भारत चीन की तुलना में अपनी सकल राषट्रीय उत्पाद (जीएनपी) का बहुत कम प्रतिशत सरकार द्वारा प्रदान की गई स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है।  यहां पर बच्चों के जीवन दर (आयु संभाविता) बहुत कम है; और (3) दक्षिण एशियाई देशों में प्रमाणिक सामाजिक सूचकांक (स्टैंण्डर्ड सोशल इंडिकेटर) में भारत का औसत दर्जा पिछले बीस सालों में बहुत गिर गया है। इस सामाजिक सूचकांक में जीवन दर तथा नवजात की मृत्यु दर की प्रतिरोधकता तथा लड़कियों का स्कूल जाना शामिल है। बीस वर्ष पहले हम अच्छे प्रदर्शन को लेकर दूसरे स्थान पर थे और आज हम इस दिशा में अपने खराब प्रदर्शन के कारण सूची में नीचे से दूसरे स्थान पर हैं। (जबकि भारत की प्रति व्यक्ति जीएनपी की दर बढ़ी है) बेशक यह समस्या मीडिया उत्पन्न नही करता है, लेकिन इस सामाजिक विभाजन को मीडिया बढ़ावा देता है जो उसके कवरेज में नजर आता है।  मीडिया भारत की हकीकत को लगातार लोगों  के सामने रखकर एक बहुत ही रचनात्मक भूमिका का निर्वाह कर सकता है। कवरेज की  पक्षधरता है पाठक को यह कभी बुरी नहीं लगती, लेकिन यह हाशिए पर रह रहे अभावग्रस्त  लोगों के प्रति राजनीतिक उदासीनता बढ़ाती  है।   खुशहाल लोगों में ना सिर्फ प्रमुख व्यावसायी और पेशेवर आते हैं, बल्कि देश का बौद्धिक तबका भी शामिल है। अनावश्यक रुप से राष्ट्रीय प्रगति से जुड़ी ख़बरों को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रुप से दिखाया जाता है। यह कथित तौर पर एक वास्तविकता का निर्माण करता है जो निष्पक्ष नहीं होती है।    
किसकी जांच की जानी चाहिए  और किसे अनदेखा करना चाहिए अपेक्षाकृत  लाभान्वित समूह और तेजी से प्रगति करते हुए संपन्न भारतीय आसानी से यह मान सकते हैं कि आर्थिक वृद्धि की ऊंची दर के कारण लोगों की जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए किसी भी प्रकार के विशेष सामाजिक प्रयास करने की आवश्यकता नही है। उदाहरण के तौर पर, जब हाल  में सरकार ने सब्सिडी के आधार पर सस्ते दाम पर भारत के गरीबों को खाद्यान्न देने की बात कही तो बड़ी संख्या में आलोचकों ने इसे लेकर राजकोष की समस्याओं की तरफ ध्यान दिलाना शुरु कर दिया।  साथ ही कुछ ने तो खाद्य सुरक्षा बिल में कथित तौर पर नजर आ रही “गैर-जिम्मेदारी” की भी बात कही। 
   
            बेशक जिस खाद्य सुरक्षा बिल को पेश किया गया उसमें बहुत सी गंभीर समस्याएं थीं और  बिल को अधिक बेहतर बनाया  जा सकता है।  हम उम्मीद भी करते हैं  कि  वह  बेहतर बनेगा। इसके अतिरिक्त राजकोषीय जिम्मेदारियां तथा खाद्दान्न पर सब्सिडी देने पर इस पर खर्च होने वाले धन निश्चित रुप से एक गंभीर मुद्दा है जिसका गहन तौर पर परीक्षण होना चाहिए।  यहां पर यह पूछा जा सकता है कि क्यों  आय संबंधित दूसरी समस्याओं  को लेकर मुश्किल से ही कोई बहस हो रही है।  सोने और हीरे पर लगने वाली कस्टम ड्यूटी में छूट देने का मामला है। वित्त मंत्रालय के अनुसार इस तरह एक बहुत बड़ी रकम का नुकसान होता है (50,000 करोड़ प्रतिवर्ष)। यह खर्च खाद्य सुरक्षा बिल पर होने वाले अतिरिक्त खर्च से कम है।  (27,000 करोड़) मंत्रालय के  एक वार्षिक प्रकाशन के आंकड़ों के अनुसार विभिन्न मदों के तहत  कुल रेवेन्यू का   जो नुकसान होता है वह चौंकाने वाला है। यह आंकड़ा प्रतिवर्ष 511,000 करोड़ का है।  यह रेवेन्यू का एक अधिमूल्यांकन है जिसे वास्तव में हासिल किया जा सकता है या बचाया जा सकता है लेकिन बहुत सा रेवेन्यू जो चला जा जाता है उसे हासिल करना बहुत ही मुश्किल होगा। इसलिए मैं इस लुभावने अनुमान को स्वीकार नही कर रहा हूं। तब भी यह समझना मुश्किल है क्यों खाद्य सुरक्षा बिल को रेवेन्यू के दूसरे विकल्पों का परीक्षण किए बिना राजकोषीय संतुलन के नाम पर अलग रखा जाए। एक सक्रिय मीडिया इस तरफ ध्यान दिला सकता है कि किसकी जांच की जानी चाहिए और किस पर बहस नहीं हो पाई है।  
 
             भारत में लाभप्राप्त और गैर-लाभप्राप्त के बीच इस विभेद के प्रभाव को राजनैतिक सत्ता में ईधन (पेट्रोल व डिजल) के उपर दी जाने वाली सब्सिडी को जारी रखने तथा बढ़ाने का समर्थन करने वाली मांगों के रूप में  भी देखा जा सकता है।  कुछ सब्सिडी तो खास तौर से अमीर तबकों को  दी जाती है (जैसे कि पेट्रोल कार मालिकों को)।   उर्वरक पर दी जाने वाली सब्सिडी प्रतिगामी तरीके से अनाज का उत्पादन करके उन्हें ही लाभ पहुंचाती है। यह संभव है कि इस राजकोषीय संतुलन की प्रक्रिया  का प्रारुप पुन: बनाया  जाए ताकि अत्याधिक आर्थिक तार्किकता, पर्यावरण को लेकर जागरुकता, तथा कार्यक्षमता  के साथ हिस्सेदारी की मांग का समावेश किया जा सके। यह सब होने देने के लिए राजनैतिक समर्थन तथा आज बेहतर तरीके  से रह रहें लोगों पर फिजूलखर्ची करने के बजाय  उन लोगों के  अधिकारों  की रक्षा की जानी चाहिए जो जरूरतमंद हैं।  जब भी गरीबों, भूखों  और  बेरोजगारों  की बात आती है तो मुद्रा-स्फीति  के नाम पर चेतावनी देने का काम शुरु हो जाता है। जिस पहली समस्या का जिक्र मैंने  किया, वह न्यूज मीडिया के प्रदर्शन को लगातार देखकर बेहतर की जा सकती है। इसी क्रम में जो मैंने दूसरी समस्या की बात कही वह बढ़ते हुए वर्ग विभेद को लेकर है। इसका संबन्ध मीडिया में रिपोर्टिंग की भूमिका तथा देश की समस्य़ाओं की चर्चा एक संतुलित तरीके से  है। भारतीय लोकतंत्र की कार्यपद्धति को सुचारु रुप से चलाने में मीडिया बहुत बड़ी मदद कर सकता है । 
मीडिया ना  सिर्फ समाज के विशेष लाभ प्राप्त तबकों बल्कि सभी लोगों को शामिल करते हुए प्रगति का एक बेहतर रास्ता ढूंढने में मदद कर सकता है। भारतीय लोकतंत्र में न्यूज मीडिया को पक्षधरता से बचते हुए निष्पक्ष होकर काम करने की आवश्यकता है। 
   भारतीय रिपोर्टिंग कुछ मायनों में बहुत ही अच्छी है। कई बार रिपोर्टरों का कौशल आश्चर्यचकित करता है, जो कई बार बहुत से तथ्यों को हमारे सामने लेकर आते हैं। कुछ ख़बरें ऐसी होती हैं जिनका पूरी तरह से सार प्रस्तुत करना मुश्किल होता है। पर वे यह काम अच्छी तरह करते हैं। 15 दिसम्बर को ‘द टाइम्स ऑफ इण्डिया’ का कहना था कि: “लोग सड़कों  पर निकल कर भ्रष्टाचार का मुकाबला नही कर सकते: अमर्त्य सेन”। मैंने  इस तरह का कुछ भी नहीं कहा था, जिसकी पुष्टि मेरे भाषण की ऑडियो रिकॉर्डिंग द्वारा होती है, लेकिन  इस तरह की गलत रिपोर्टिंग एक न्यूज एजेंसी की तरफ से की जा रही है।  भारत में लाभप्राप्त और गैर-लाभप्राप्त के बीच इस विभेद के प्रभाव को राजनैतिक सत्ता में ईधन (पेट्रोल व डिजल) के ऊपर दी जाने वाली सब्सिडी को जारी रखने तथा बढ़ाने का समर्थन करने वाली मांगों के रूप में  भी देखा जा सकता है।  कुछ सब्सिडी तो खास तौर से अमीर तबकों को  दी जाती है।

         (लेखक-अमर्त्य सेन, थोमस लेमॉन्ट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर तथा हावर्ड यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र  तथा दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर। 1998 के अर्थशास्त्र के नोबेल पुरुस्कार विजेता। 1999 में भारत रत्न से  नवाजे गए।)

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