Saturday 15 September 2012

सुभाष चन्द्र बोश: देश के निर्विवाद नायक

             मनुष्य के आदर्श महान हो सकते हैं, उनकी भावनाएं दिव्य और महान हो सकती हैं परन्तु उन आदर्शों को आदर्श रूप प्रदान करने की क्षमता विरलों में ही होती है। अपनी मात्रभूमि भारत को अंग्रेजों की सड़यन्त्रकारी नीतियों तथा दासता से मुक्त कराने की बेजोड़  क्षमता सुभाषचंद्र बोश के जीवन में देखी जा सकती है। उनका जन्म उड़ीसा प्रांत के कटक में 23 जनवरी सन 1897 को हुआ था।माँ प्रभावती बोश तथा जानकीनाथ बोश के एस सुयोग्य पुत्र की प्रारंभिक शिक्षा कटक में तथा विस्वविद्यालयी शिक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय में हुयी थी। संपन्न परिवार में जन्में नेताजी आईसीएस की तैयारी के लिए ब्रिटेन गए। उनके मेधावी व्यक्तित्व का प्रमाण यह है की वे 23 साल के आयु में ही सन 1920 में आईसीएस की परीक्षा में दूअरा स्थान प्राप्त कर उत्तीर्ण हुए। यह उनके माता-पिता के लिए अत्यंत संतोष तथा गौरव की बात थी। तमिल संत वल्लुवर ने अपने ग्रन्थ तिरुक्कुरल में लगभग 2000 वर्ष पूर्व एक कुरल (दोहा) में लिखा था। 

प्रशन-की एक पिता अपनी संतान के प्रति सबसे बड़ा उपकार क्या कर सकता है। उत्तर-विद्वानों की पंक्ति में उसे सबसे आगे बैठने योग्य बना दे इससे बड़ा उपकार एक पिता अपने पुत्र के साथ नहीं कर सकता है ?

         नेताजी ऐसे ही कर्तव्यनिष्ठ पिता की संतान थे अपने देशवाशियों की दुर्दशा तथा राष्ट्र गौरव का अभाव उन्हें हर पल पीड़ा देता था। ईसीएस की परीक्षा की गिरामी सफलता उनके जीवन का लक्ष्य नहीं थी।प्रखर राष्ट्रभक्ति से प्रेरित सुभाषचंद्र बोश ने नियुक्ति से पूर्व ही त्याग पत्र दे दिया और स्वदेश लौट आये। उनकी प्रेरणा के स्रोत के रूप में उस समय केवल दो महापुरुषों का व्यक्तित्व था। एक थे चितरंजनदास और दूसरे थे अरविन्द घोष सन 1931 में भारत लौटने के बाद उनका जीवन स्वतन्त्रता संग्राम के उस महावीर के रूप में था जिन्हें पग-पग पर अंगरेजी यातनाये सहनी पडी। भारत में भी गांधी जी तथा उनके अनेक अनुयायीयो के साथ विचारों में भिन्नता होने के कारण उन्हें अपना मार्ग अलग करना पडा। उद्देश्य एक ही था मार्ग अलग-अलग थे। सबसे बड़ी बात यह थी की नेता जी ने सदैव गांधीजी को पूज्य मानते हुए उनका आशीर्वाद चाहा था। यह एक बहुत बड़ी और अनुकर्णीय बात है कि गांधीजी जैसे महत्मा को सर्वप्रथम राष्टपिता का संबोधन देने वाले नेताजी सुभाषचंद्र बोश जी ही थे।
               उनके जीवन की द्रषित पर क्रमबद्ध रूप से द्रष्टि डालने से यह विदित होता सन 1921 में 24 वर्ष के आयु में प्रिंस उफ वेल्स के शाही दौरे पर आने का विरोध करने पर उन्हें अंग्रेजों ने पहली बार 10 सितम्बर 1931 को जेल भेजा। वे इसी वर्ष कांग्रेस में शामिल हुए थे। सन 1924 में 27 वर्ष की आयु में कलकत्ता नगर निगम का मुख्य कार्यकारी नियुक्त किया गया था। उस समय चितरंजनदास वहां के महापौर थे। ब्रिटिश सरकार ने सुभाषचंद्र बोश पर क्रांतिकारी साजिश का आरोप लगाकर उन्हें गिरफ्तार करके जेल भेज दिया। वहां वे वर्मा के मांडले लेल में रहे। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इसी जेल में इससे पूर्व लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक तथा लाला लाजपत राय को भी रखा गया था। सन 1927 में ही सुभाष बाबू जेल में बीमार हो गए। बीमारी के कारण अंग्रेजों ने उनको रिहा कर दिया। तदुपरांत  मात्र 30 वर्ष की आयु में ही वे बंगाल प्रांतीय कांग्रेस समिति के अध्यक्ष मनोनीत किये गए सन 1928 में ही कांग्रेस विशेष समिति का अधिवेशन कलकत्ता में ही आयोजित हुआ। एस अधिवेशन में गांधीजी ने ही प्रस्ताव रखा कि ब्रिटिश सरकार यदि 29 दिसंबर तक भारत को उपनिवेश का स्टार नहीं देती तो कांग्रेस असहयोग आन्दोलन करेगी। सुभाष बाबू चाहते थे की यह प्रस्ताव शंशोधित हो। वे स्वतंत्र भारत से कम कुछ भी नहीं चाहते थे। एस पर मतदान हुया। गांधीजी के वर्चस्व के कारण उनके पक्ष में 1350 तथा सुभाष बाबू के पक्ष में 973 मत पड़े। इसे उनहोंने सहर्ष स्वविकार किया।
              सन 1930 में 33 वर्ष की आयु में वे कलकत्ता नगर निगम के महापौर चुने गए उनहोंने अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन की भी अध्यक्षता की थी। इसी बीच उनकी तबियत फिर खराब हो गयी। पहले क्षय रोग हुया फिर एक ओप्रेसन कराना पडा इसके लिए वे योरोप गए। वहां पर भी कई देशों की यात्राएं कीं। लम्बी बीमारी के बावजूद वो अपने उद्देश्य से विचलित नहीं हुए। एक दूरदर्शी महानायक विदेशों की यात्रा कर अपने अनुभव तथा ज्ञान में वृद्धी करता रहा रस दौरान अनेक अधिवेशनों में उनकी सहभागिता हुयी।
             जनवरी 1938 में 41 वर्ष की आयु में नेताजी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। उन दिनों अध्यक्ष मात्र एक वर्ष के लिए चुना जाता था। कांग्रेस का हरीपुरा अधिवेशन उन्हीं की अद्याक्षता में संपन्न हुया। सन 1939 में सुभाष बाबू ने दोबारा कांग्रेस के अद्याक्ष पद का चुनाव लड़ा इसमे वे पुनः निर्वाचित हुए। यह निर्वाचन नेताजी के कुशल नेत्रत्वा का परिचय देता है। महात्मा गांधी नहीं चाहते थे की सुभाष बाबू फिर से कांग्रेस के अद्याक्ष निएवाचित हों। उनहोंने उस समय अपने प्रत्याशी  के रूप में पट्टाभि सीतारमैया को खडा किया था। महात्मा गांधी को अपने प्रत्याशी की हार अच्छी नहीं लगी। इसे उनहोंने उस रूप में नहीं लिया जैसा लेना चाहिए था। चूँकि गांधी जी के प्रति एक श्रधा और सम्मान का वातावरण का माहौल था अतः नेताजी ने सन 1939 में ही कलकत्ता में ही हुयी कांग्रेस समिति की बैठक में अद्याक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया गांधीजी के प्रति श्रृद्धा किन्तु व्यवहार में सशत्र क्रान्ति के पक्षधर नेताजी ने फारवर्ड ब्लोंक  की स्थापना उन्नाव जिले में स्वामी सहजानंद तथा तथा स्वनामधन्य पंडित विश्वम्भरदयाल त्रिपाठी तथा अनेक सहयोगियों के साथ में की। एस सम्मलेन में सुभाष बाबू को अध्यक्ष तथा विश्वम्भर दयाल जी को राष्ट्रीय महामंत्री मनोनीत किया गया था। फाएवार्ड ब्लाक के दिल्ली के अध्यक्ष के रूप में शंकरला जी चुने गए थे। वे एक चतुर कूटनीतिज्ञ तथा राष्ट्रप्रेमी थे। नकली पासपोर्ट पर श्री शंकरलाल को उन्होंने जापान भेजा था। इससे पूर्व नेताजी के विशेष विश्वसनीय व्यक्ति के रूप में थे। नकली पासपोर्ट पर उन्होंने शंकरलाल को जापान भेजा था इससे पूर्व नेताजी ने सन 1939 के अंत में चीन के तत्कालीन नेता च्यांग-काई-शेक को एक पत्र लिखकर उनसे राजनीतिक शरण की कामना की थी जबकि चीनी नेता का उत्तर नकारात्मक था।
             ब्रिटिश सरकार को नेताजी की गतिविधियाँ कांटे की तरह चुभती थीं। उनकी प्रत्येक क्रिया-कलाप पर तत्कालीन सत्ता की गहरी द्रष्टि रहती थी। 2 जुलाई, 1940 को भारतीय रक्षा क़ानून की धारा 129 के अंतर्गत उनको बंद कर दिया गया। उन पर दो आपराधिक मुकदमें चलाये गए, उनकी गिरफ्तारी की अवधि बढ़ती गयी। नेताजी ने अनुभव किया कि इस प्रकार जीवन का बहुमूल्य समय नाशत होता रहा तो माँ भारती को अंग्रेजों की दासता से मुक्ति नहीं मिल सकेगी। 26 नवम्बर, 1940 को उन्होंने बंगाल के गवर्नर को एक पत्र लिखा। इस पत्र की पंक्तियाँ कितनी महत्वपूर्ण, ओजश्वी, तथा राष्ट्रनिष्ठ हैं, इसका आकलन किया जा सकता है पत्र का आशय निम्नवत है।
          "व्यक्ति का महत्व नहीं है। देश को जीवंत रखने के लिए उन्हें म्रत्यु का वरन करना चाहिए। आज समय आ गया है जब हमें मर जाना चाहिए जिससे भारत को स्वतन्त्रता और सम्मान प्राप्त हो सके।"
           19 नवम्बर, 1940 को सुभाष बाबू ने कलकत्ता जेल में भूख हड़ताल प्रारम्भ कर दी 05 दिसंबर तक उनकी दशा गंभीर हो गयी। अंग्रेज सरकार को उन्हें विवश होकर मुक्त करना पडा। नेताजी ने अनुभव किया कि अंग्रेजों के शत्रुयों से सहयोग लेकर विदेशी शक्तियों का लाभ लेते हुए ही भारत को स्वतंत्र कराया जा सकता है। द्वितीय विश्वयुद्ध में शत्रुराष्ट्रों से संपर्क करने के लिए उन्हें अपना देश छोड़ना पडा जो की अत्यंत ही कठिन कार्य था। जिस सूझ-बूझ के साथ उन्होंने भारत की सीमा से बाहर जाने की योजना बनायी वह इतिहास का एक रोमांचकारी अध्याय है उन्होंने अपने बड़े भाई शरतचंद्र बोश तथा अपने भतीजे तथा भतीजियों का विश्वास लेकर अपनी योजना को कार्यान्वित किया। अपने अत्यंत विश्वस्त मित्रों शार्दूल सिंह, सत्यरंजन बक्शी, एन एन चक्रवर्ती से भी उन्होंने परामर्श लिया था। नेताजी ने पश्चिमोत्तर के सीमावर्ती क्षेत्रों के असंतुस्ट कांग्रेसियों तथा तत्कालीन कीर्ती किसान पार्टी के सदस्यों से भी संपर्क स्थापित कर कलकत्ते में फारवर्ड ब्लाक कार्यकारी समिति की एक बैठक आहूत की। इसमे पश्चिमोत्तर के मिर्जा अकबर शाह ने उन्हें विशेष सहायता दी। अपने भतीजों शिशिर बोश द्विजेन बोश तथा अरविन्द बोश व भतीजी इला के निष्ठापूर्ण सहयोग से वे राष्ट्रीय यज्ञ की पूर्णता हेतु घर छोड़ सकने में सफल हो सके। शिशिर बोश ने अकबर शाह के साथ कलकत्ता की बाजार से शरहदी मुसलमानों द्वारा पहने जाने वाले कपड़े खरीदे। नेताजी ने अपनी दाढी बढ़ाई, विजिटिंग कार्ड छपवाया, जिस पर शिविल लाइंस जबलपुर का पता लिखा गया तथा उनका नाम मोहम्मद जियाउद्दीन (अफगानी )ट्रेवेल इंस्पेक्टर लिखा गया। उनके चेहरे पर एक मस्सा था जिसका उल्लेख उनके पूर्ववर्ती पासपोर्ट पर पहचान चिन्ह के रूप में था। नेताजी ने बड़ी कुशलता से एस मस्से को कटवा दिया। बालों व दाढी को अनियमित तरीके से बढ़ाकर वे अंग्रेज अधिकारियों द्वारा न पहचाने जाने वाले स्वरुप में आ गए।16 जनवरी, सन 1941 में आधीरात के बीच पुलिसकर्मियों की आँख बचाकर भतीजे की कार से बिहार में बैरादी होते हुए गोमो पहुचे। गोमो से कालका मेल से दिल्ली गए। सुरक्षात्मक दृष्टि से दिल्ली रेलवे स्टेशन से एक किलोमीटर पहले उतारकर दुसरे रास्ते से दिल्ली पहुचे वहां से फ्रंटियर मेल से पेशावर  रवाना हुये। दूसरी बोगी में नेताजी के मित्र अकबरशाह भी थे। पेशावर पहुचकर तांगा लिया व एक होटल पहुंचे। उस होटल में अकबरशाह के एक आदमी ने मिलकर उनसे आगे की बातें कीं। नेताजी अत्यंत कुशल राजनीतिज्ञ थे उन्होंने उस आदमी के जाते ही वो होटल छोड़ दिया व एक अन्य स्थान पर चले गए।
          सुभाष बाबू ने पेशावर से काबुल तक की यात्रा एक गूंगे-बहरे मुसलमान बनकर की। इसमे उनका सहयोग भगतराम तलवार नामक एक देशभक्त ने की। काबुल तक कार, ट्रक, तांगा, तथा पैदल यात्रा करते हुए गोपनीयता बनाए रखना नेताजी के व्यक्तित्व का बहुत बड़ा पक्ष था। काबुल के इटली दूतावास से सहायता लेकर उन्होंने आगे की यात्रा की। मास्को होते हुए जर्मनी जाते समय उनका पासपोर्ट बना। इस पर इनका नाम "आरनाल्ड मजोटा" (जर्मन) लिखा गया। नेताजी ने द्वितीय विश्वयुद्ध में अंग्रेजों के विरोधी देशों इटली, जर्मनी तथा जापान से पूरी सहायता लेने का प्रयत्न किया यह वह समय था जब इटली में मुसोलिनी और जर्मनी में हिटलर अपनी शक्ति की पराकाष्ठा पर थे। दोनो शीर्षस्थ राजनयिकों को समानता के साथ आत्मसम्मान की रक्षा करते हुए आर्थिक और नैतिक सहयोग लेना नेताजी जैसे अद्दभुत व्यक्तित्व के लिए ही संभव था।
           सन 1941 में बर्लिन में "फ्री इंडिया सेंटर" की स्थापना की गयी। भारतीय सैन्य दल की प्रथम स्थापना भी यहीं हुयी थी। आश्चर्य की बात है की यहाँ रेडियो प्रसारण कई भाषाओं- अंग्रेजी, हिन्दी, बँगला, तमिल, तेलगू, फारसी और पश्तो में किया जाता था। इसके पीछे सम्पूर्ण भारतवासियों को अंग्रेजों के विरुद्ध उनकी अपनी भाषा में एकजुट करने का शंदेश निहित था। यह भी ध्यान देने की बात है कि नेताजी के सहयोगी राष्ट्रनिष्ठ विभिन्न भाषाओं को जानने वाले लोग थे नेताजी ने जर्मनी से जो आर्थिक सहायता ली वह स्वतंत्र भारत के नाम कर्ज के रूप में ली गयी। यहाँ भी राष्ट्र के सम्मान को उन्होंने सर्वोपरि रखा। उल्लेखनीय है की बाद में दक्षिण-पूर्व-एशिया को नेताजी ने जापान के सहयोग से अपना केंद्र बनाया जहां पर उन्होंने आजाद हिंद फौज की स्थापना की थी। भारतीय मूल के सैनिको द्वारा जुटाए गए पैसों से एक बड़ी राशि पांच लाख येन टोकियो में जर्मन राजदूत की मदद से उन्होंने जर्मनी को वापस किये। यह कार्य नेताजी की इमानदारी तथा भारत के मस्तक को सदैव उंचा रखने की शंकल्पशक्ति का परिचायक है। हिटलर से उन्होंने बोन ट्राट नामक दुभाषिये के माध्यम से बात की थी। उस बातचीत में वो झुके नहीं थे इसीलिए हिटलर से उन्हें पूरा सहयोग भी प्राप्त हुआ था।
           दक्षिण-पूर्व-एशिया में अंग्रेजों का वर्चस्व जापानी सेना द्वारा समाप्त किया गया। भारतीय सैनिकों ने जापानी सेना के सामने आत्मसमर्पण किया था और इन्हीं सैनिकों की सहायता लेकर नेताजी ने क्रांतिकारी रासबिहारी बोश के सहयोग से सिंगापुर में आजाद हिंद फौज का समुचित गठन किया था। मोहन सिंह उस भारतीय सेना के जनरल कमांडिंग ऑफीसर बनाए गए थे। कांगेस का तिरंगा झंडा आजाद हिंद फौज का ध्वज बनाया गया। बीच में उछलता हुआ चीता अंकित किया गया जो भारतीय शक्ति का प्रतीक था। उल्लेखनीय ब्बत यह है कि सुभाषचंद्र बोश को "नेता जी" संबोधन जर्मनी के "फ्युरर" तथा इयाली के "दयून" का पर्यायवाची शब्द है। इन दोनों देशों में नेता को ये संबोधन दिए जाते थे।                
          आजाद हिंद फौज के क्रियाकलापों की एक लम्बी कहानी है। पग-पग पर न जाने कितनी कठिनाइयां सहते हुए सुभाष बाबू ने सर्वप्रथम मणिपुर के 'मोरांग' में था। आजाद हिंद फौज में ब्रिगेड, नेहरू ब्रिगेड के साथ-साथ महिलायों की एक रानीलक्ष्मीबाई ब्रिगेड भी थी। समय पड़ने किशोरों को भी उन्होंने आजाद हिंद फौज में शामिल किया। बर्मा तथा दक्षिण-पूर्व-एशिया में बसे अनेक भारतवाशियों ने आजादी की लड़ाई के लिए मुक्त रूप से आर्थिक सहायता दी। ऐसे सहायकों को नेताजी ने भरपूर सम्मान दिया। वे उन्हें सदैव प्रोत्साहित करते रहे। विधि की विडंबना ने नेताजी को लौटने के लिए बाध्य किया।इसका मूल कारण यह था कि अंग्रेजों के द्वारा भारतवाशी पराजित हो चुके थे।
          लगभग मध्य अगस्त 1945 तक नेताजी के विषय में अंतिम तथ्य ज्ञात हैं। ताइवान (फारमोसा) के "ताईहोकू" हवाई अड्डे के बाद नेताजी के शरीर के विषय में कुछ भी कह सकना कठिन है। प्रतीत होता है कि  विमान दुर्घटना में ही भारत के स्वाधीनता संग्राम के इस महान सपूत का शरीरांत हो गया। ऐसे सत्शंकल्प तथा शुभ विचारों से समन्वित महान राष्ट्रभक्त को स्मरण करते हुए उनकी प्रेरणा शक्ति का संबल लेना प्रत्येक भारतवाशी का पुण्य कर्त्तव्य है।
     
                             ( लेखक- डा0 शैलेन्द्र नाथ कपूर, पूर्व प्रोफेसर तथा विभागाध्यक्ष प्राचीन भारतीय एवं पुरातत्व इतिहास विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ। "सुरेंद्रालय" ए-354, इंदिरानगर, लखनऊ-226016 )

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