Thursday 13 November 2014

बेहतर समाज के लिए ख़ुद बेहतर बनें

"समाज, राज्य, विधि और हम भारत के लोग" विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन
‘अखिल भारतीय अधिकार संगठन’ की 8वीं वर्षगांठ पर हुआ आयोजन
दीप प्रज्ज्वलन करतीं सामाजिक कार्यकर्ता अपर्णा यादव डॉ. प्रीती  मिश्रा और डॉ. आलोक चांटिया
संगोष्ठी में बोलते संगठन अध्यक्ष डॉ. आलोक चांटिया
डॉ. सी.पी. सिंह को स्मृति चिन्ह देते संगोष्ठी सचिव डॉ. अलोक चांटिया
                                                 अतुल मोहन सिंह
लखनऊ. 11-12 नवम्बर, 2014, अखिल भारतीय अधिकार संगठन की 8वीं वर्षगांठ पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी "समाज, राज्य, विधि और हम भारत के लोग" विषय पर जयशंकर प्रसाद सभागार, राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह में आरम्भ हुई. करीब 100 शोधपत्रों के माध्यम से दो-दिन तक चलने वाली इस संगोष्ठी पूर्वाह्न 11 बजे दीप प्रज्जवलन और सरस्वती वंदना से हुआ. पहली बार संगठन ने वनों के संरक्षण को ध्यान में रखते हुए कागज के न्यूनतम प्रयोग पर बल देते हुए शोध सारांश पत्रिका को ऑनलाइन ही रखा और उसका प्रकाशन नहीं किया गया. संगठन ने अपने सभी जर्नल्स को भी ऑन लाइन कर दिया है और भविष्य में वे ऑनलाइन ही उपलब्ध होंगे. संगोष्ठी के सचिव और संगठन के अध्यक्ष डॉ. आलोक चांटिया ने सभी का स्वागत करते हुए कहा कि समाज संबंधों के जाल के रूप में परिभाषित है और यही जाल सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक कारणों से बिखर रहा है जिसको बंधे रखने का काम राज्य और विधि कितना कर पा रहे है और उससे देश में लोगों को कितना लाभ हुआ है, इसी को जानने के लिए इस विषय का चयन किया गया है. संगोष्ठी की निदेशक डॉ. प्रीती मिश्रा ने विषय को समझाते हुए कहा कि आज समाज का मतलब और गतिशीलता विधि से ही परिभाषित हो रही है जिसमे हम लोग रहते हैं. संगोष्ठी के विशिष्ठ अथिति प्रतीक यादव ने विषय के सन्दर्भ में कहा कि आज संस्कृति को बचने के लिए विधि को बनाने में ही राज्य ज्यादा संदर्भित है और जिसके कारण समाज में विधि आधारित व्यवस्था ज्यादा है, मूल्य आधारित कम और यही कारण है कि लोगों के बीच मधुरता कम हुई है.
संगोष्ठी की विशिष्ट अतिथि अपर्णा यादवस्मृतिचिन्हग्रहणकरतेहुए 

संगोष्ठी में विचार व्यक्त विशिष्ट अतिथि करतीं अपर्णा यादव
संगोष्ठी के मुख्या वक्ता प्रोफेसर डी.पी.तिवारी, विभागाध्यक्ष, प्राचीन एवं पुरात्तव विज्ञान विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय ने कहा हमेशा से समाज में विधि का दखल रहा है. आरम्भ में विवाद की स्थिति में अपनी स्थानीय न्याय व्यवस्था में तुरंत न्याय मिल जाता था पर जैसे जैसे राज्य का प्रभाव बढ़ा वैसे वैसे न्याय एक सामान्य व्यक्ति के जीवन का प्रतिबिम्ब नहीं रह गया बल्कि विधि के कारण ही व्यक्ति के जीवन में सुगमता नहीं रह गयी. पर इसका मतलब ये नहीं की विधि या राज्य की गरिमा नहीं लेकिन जिस संस्कृति और समाज की बात हम करते हैं उसमे विषमता जरूर दिखाई देने लगी. संगोष्ठी की मुख्य अतिथि समाजिक कार्यकर्ता अपर्णा यादव ने अपने उद्बोधन में कहाकि ‘किसी विधि से समाज को पूर्ण नहीं बनाया जा सकता और न ही विधि बनाने के लिए पूरे समाज को आंकलित किया जा सकता है. विधि सदैव एक सामान्य स्थिति को देख कर राज्य बनता है जिसके कारण सभी लोगो को एक सामान न्याय कभी नहीं मिल पता और समाज में एक विघटन की स्थिति दिखाई देती है और इसलिए सभी को राज्य और विधि के प्रति जागरूक होना जरुरी है ताकि एक विधि सम्मत राज्य लोगों के लिए बन सके. संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे डॉ. अजय दत्त शर्मा ने कहाकि पहले विधि समाज को सुगमता से चलने के लिए बनी थी. आज विधि लोगों के निरंकुश व्यवहार को बढ़ाने के लिए ज्यादा दिखाई देती है जिसके कारण समाज और राज्य दोनों संक्रमण में है. उन्होंने समस्त प्रतिभागियों, और लखनऊ लॉ कॉलेज को भी धन्यवाद दिया. उन्होंने मीडिया बंधुओ को भी सहयोग के लिए धन्यवाद दिया. संगोष्ठी के प्रथम दिवस तीन तकनीकी सत्रों का संचालन हुआ जिसमे करीब 70 शोधपत्र पढ़े गये. संगोष्ठी का सञ्चालन डॉ. रोहित मिश्रा ने किया. संगोष्ठी में प्रोफेसर ए.पी. सिंह, प्रोफेसर राम गणेश, डॉ. विजय प्रकाश मिश्र, डॉ. माधुरी रावत, डॉ. मनिंदर तिवारी, डॉ. श्वेता तिवारी सहित सैकड़ो प्रतिभागी इस संगोष्ठी के प्रथम दिवस में उपस्थित उपस्थित थे.
13 नवंबर को दूसरे दिन राष्ट्रीय संगोष्ठी इस संकल्प के साथ समाप्त हुई कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकास का भारत और कल की मुख्य अतिथि अपर्णा यादव के आह्वान कि खुद को पहले जानों अगर समाज, राज्य और विधि को समझना है या स्थापित करना है क्योकि तभी हम भारत के लोग का वास्तविक चेहरा सामने आता है.
राष्ट्रीय संगोष्ठी अंतिम में १० शोध पत्र पढ़े गए. कुल मिलाकर दोनों दिन तरीबन 100 से ज्यादा शोधार्थितों और विशेषज्ञों ने इसमें अपने विचार व्यक्त किये. डॉ आलोक चांटिया ने अपने शोधपत्र सरकारी नौकरी में निलंबित करने के मनमानेपन और निलंबन को विधिक रूप से सजा ना माने जाने के बाद भी सामाजिक रूप से मिलने वाली पीड़ा को प्रस्तुत किया. निलंबन करने वालों को गलत विधि का प्रयोग करने पर कोई सजा नहीं दी जाती और उससे न सिर्फ निरंकुशता बढ़ती है बल्कि समाज विघटित होता है. डॉ. प्रीती मिश्रा ने घरेलू हिंसा पर अपना शोधपत्र पढ़ कर महिला को सिर्फ विधिक महिला बनाने के सच को समझने का प्रयास किया. डॉ. माधुरी रावत ने अपने शोधपत्र में समाज में होने वाले विचलन और न्याय की शून्यता में होने वाले मानसिक रोगों पर अपना शोधपत्र प्रस्तुत किया. डॉ. अज़रा बानो ने कहा कि अब जब समाज में आर्थिकी का ही जाल व्यक्तियों के जीवन को संचालित कर रहा है तो हम भारत के लोगो में समानता की बात संभव नहीं हैं.
संगोष्ठी में बोलते हुए डॉ. विजय प्रकाश मिश्र ने बैंकिंग के कारण समाज और राज्य में आने वाले परिवर्तनों को चिन्हित किया. तरुण कुमार तिवारी, संदीप कुमार सिंह, रविन्द्र कुमार दोहरे, डॉ. राशिदा अतहर, डॉ. सूफिया अहमद, मुकेश कुमार, जागेश्वर, राजीव सिंह, डॉ. राहुल पटेल ने अपने शोध पत्र पढ़े. संगोष्ठी के समापन सत्र में मुख्या वक्त प्रोफेसर सी. पी.सिंह ने कहा कि मानव ने अपनी प्रगति की कहानी में जैसे जैसे अपने को स्वतंत्र करके राज्य को अपनी शक्ति निहित की, वैसे वैसे विधि का वर्चस्व बढ़ता गया और हम जैसे शब्द समानता से ज्यादा असामनता में परिभाषित होने लगे. अध्यक्षता कर रहे प्रोफेसर ए.पी.सिंह ने कहा कि मानवशास्त्र एक ऐसा विषय है जो मानव को बेहतर तरीके से समझने में सहायक है. इसीलिए हमको उन जनजातियों को अपने शोध में देखना चाहिए जो विधि से अभी भी दूर हैं. जिनका राज्य से ज्यादा नाता नहीं है और इसके कारण आज भी उनका समाज पूर्ण है. डॉ. रोहित मिश्र ने संगोष्ठी की रिपोर्ट पढ़कर सुनाई. और सबको धन्यवाद दिया. इसके बाद संगठन के गीत आओ मिलकर करें जतन, फूलों सा प्यारा हो वतन .....के साथ संगोष्ठी इस संकल्प के साथ समाप्त हुई कि बेहतर समाज बनाने के लिए हम अपने बेहतर तरीके से समझें.

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