Thursday 18 December 2014

सांस्कृतिक साम्राज्यवाद से आज़ाद होंगे युवा?

v     अतुल मोहन सिंह
दुष्प्रवृत्तियों के चक्रव्यूह में फँसे देश के अभिमन्यु की दशा आज बहुत करुण है। अपने दम-खम से असम्भव को सम्भव बना देने वाले, साहस और उत्साह का पर्याय कहे जाने वाले युवाओं की स्थिति बहुत ही दुःख एवं चिंताजनक हो गयी है। दिशाहीन शिक्षापद्धति द्वारा भ्रमित, आदर्शहीन समाज में मार्गदर्शन के अभाव में युवा पीढ़ी दुष्प्रवृत्तियों के दलदल में धंसती जा रही है। वैचारिक शून्यता और दिशाभ्रम की इस स्थिति में पाश्चात्य अपसंस्कृति के भोगवादी हमले ने उसके भटकाव का शिकंजा और बुरी तरह कस दिया है। इस आत्मघाती चक्रव्यूह में फँसे इन युवाओं की तड़प हर संवेदनशील व्यक्ति अपने सीने में अनुभव कर सकता है। 2014 के बीतने के साथ ही इन नकारात्मक आयामों की जकड़न ढ़ीली होने के आसार साफ़ हैं वहीं 2015 निश्चित रूप से सांस्कृतिक गुलामी की बेड़ियां तोड़ते भारतीय युवा के लिए एक मील का पत्थर साबित होगा.
आज अपने देश के सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अराजकता व गिरावट का माहौल व्याप्त है। देश के प्रायः सभी संस्थान, प्रतिष्ठान, दल, संगठन इसकी आग में झुलस रहे हैं लगता है मूल्यों व आदर्शों के प्रति कहीं कोई निष्ठा शेष नहीं बची है। जीवन के प्रायः किसी भी क्षेत्र में सकारात्मक ढंग से कुछ हासिल करने की रचनात्मक तड़प नजर नहीं आती। युवाओं की निर्वाणस्थली विश्वविद्यालयों एवं शिक्षा संस्थानों की स्थिति तो और बदतर है। हमारे राष्ट्रीय एवं सामाजिक भविष्य को विनिर्मित करने वाले इन संस्थानों में अराजकता का माहौल संव्याप्त है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, बिहार के विश्वविद्यालय हों या दिल्ली विश्वविद्यालय अथवा वहीं का जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय हो सभी लगभग एक-सी स्थिति में जा पहुँचे रहे हैं।
अपने देश में लगभग ढाई सौ विश्वविद्यालय और विश्वविद्यालय-नुमा उच्च शिक्षण संस्थानों की बहुत-सी अन्य शिक्षा संस्थाएँ व विश्वविद्यालय से जुड़े लगभग सात हजार कॉलेज है। इनमें पढ़ाने वालों की संख्या करोणों में है। इनमें से प्रत्येक वर्ष 40 प्रतिशत छात्र फेल हो जाते हैं, 30 प्रतिशत तीसरे दर्जे में पास होते हैं। फेल होने वाले और कम नंबर प्राप्त करने वाले ये छात्र-छात्राएँ प्रायः आत्म-हीनता एवं कुण्ठा का शिकार हो जाते हैं। इनकी यह दशा सामाजिक समस्या का भी रूप ले लेती है। लाखों पास-फेल युवा अपने-अपने पुश्तैनी काम-काज में लग जाते हैं, जिनमें इनकी विश्वविद्यालय शिक्षा की कोई आवश्यकता नहीं होती। बहुत सारे स्नातक शहरों में ऑटोरिक्शा चलाते या फिर किसी दफ्तर में चपरासी हो जाते हैं। बहुतों को तो यह भी नसीब नहीं होता। लाखों युवक युवतियाँ हर साल सिविल सर्विस की परीक्षाओं में अपना भाग्य आजमाते हैं, पर यहाँ भी हर साल कुल सात-आठ सौ ही चुने जाते हैं। अतः स्पष्ट स्पष्टतया उच्चशिक्षा का दृश्य कोई उत्साहवर्द्धक नहीं है।
भविष्य के प्रति असुरक्षा का भाव युवाओं में आक्रोश एवं निराशा का एक बड़ा कारण है। भयावह ढंग से बढ़ से रही बेरोजगारी ने युवक-युवतियों को शिक्षा की उपादेयता के प्रति सशंकित बना दिया है। एक सर्वेक्षण के अनुसार बेरोजगार स्नातकोँ की संख्या 1980-88 के बाद 23 फ़ीसदी प्रतिवर्ष की दर से बढ़ी है, जबकि 2013-14 के दौरान यह प्रतिशत और बढ़ गया। डिग्रीधारी बेरोजगारों की संख्या सर्वाधिक पश्चिम बंगाल में पायी गयी, जो कुल बेरोजगारों का 27.21 प्रतिशत थी। इसी तरह कुल बेरोजगारों में डिग्रीधारी बेरोजगारों की संख्या बिहार, केरल, कर्नाटक, पंजाब, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, नागालैण्ड में क्रमशः 24.85 प्रतिशत, 21.100 प्रतिशत, 18.21 प्रतिशत, 13.7 प्रतिशत, 12.16 प्रतिशत, 1.16 प्रतिशत, 1.23 प्रतिशत, 7.68 प्रतिशत, 6.54 प्रतिशत, व 4.42 प्रतिशत पाई गई है। इसी तरह पिछले सालों में अलग अलग शिक्षा वर्गों में बेरोजगारी के बढ़ने की दर को इसी प्रकार पाया गया । कला 26 प्रतिशत प्रतिवर्ष बढ़ी। विज्ञान के बेरोजगार स्नातकों का प्रतिशत 12.9 प्रतिश से 33 प्रतिशत तक रहा। वाणिज्य, इंजीनियरिंग व मेडिकल में बेरोजगारों की संख्या वृद्धि दर क्रमशः 16.4 से 27.4 प्रतिशत 4.6 से से 21 प्रतिशत व 12.2 प्रतिशत से 37 प्रतिशत वार्षिक रही। इनमें पोस्ट ग्रेजुएट की स्थिति तो और भी बदतर देखी गयी। पांचवीं एवं छठी योजनाओं के दौरान दस से मात्र पाँच पोस्ट ग्रेजुएट ही रोजगार उपलब्ध कर पाए।
शिक्षित युवाओं में बेरोजगारी अनेक समस्याओं की जन्मदात्री है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार कुँठित एवं हताश युवा मन का आक्रोश उग्रवाद एवं आतंकवाद को हवा देता है, जो राष्ट्र के लिए खतरा बन जाते हैं। अगस्त-सितम्बर, 2010 में मण्डल आयोग की स्वीकृति के बाद हुआ राष्ट्रव्यापी उग्र छात्र आन्दोलन युवाओं में बेरोजगारी से जुड़ी गहरी भावनात्मक समस्याओं को समेटे था। पंजाब के रोजगार निदेशालय द्वारा बताए गए आंकड़ों के अनुसार दिसम्बर, 2004 तक पंजाब के अमृतसर जिले में 91,360 शिक्षित युवा बेरोजगार थे। इसी तरह अन्य जिलों में बेरोजगार शिक्षित युवाओं की स्थिति व्यापक बेरोजगारी की एक झलक देती है, जो शोधकर्ताओं के अनुसार पंजाब में आतंकवाद के फलने-फूलने का एक अहम कारण रही। काश्मीर में भी आतंकवाद के फलने-फूलने का एक अहम कारण बेरोजगारी रही। काश्मीर में भी गुमराह युवा शक्ति ही सक्रिय है। विश्लेषकों के अनुसार पाकिस्तान में सैन्य प्रशिक्षण के लिए जाने वाले लोगों में अधिकतर 19-24 वर्ष के युवक ही थे।
सन 2013 में देश के 236 शहरों के 2100 युवाओं पर हुए राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण के अनुसार युवाओं के भटकने, दुष्प्रवृत्तियों में फँसने की ज्यादातर कारण रोजगार के सीमित अवसर है। इनमें से 62 प्रतिशत युवाओं का यही मानना था कि रोजगार की स्थिति बदतर हो गयी है। सर्वेक्षण में भागीदारी करने वाले ज्यादातर युवक युवतियाँ न केवल अपने भविष्य व आर्थिक असुरक्षा के प्रति निराश थे, बल्कि देश के आर्थिक भविष्य व सामाजिक विकास को लेकर चिंतित थे।
वर्तमान युवा पीढ़ी में कुछ रोजगार कारणों के चलते और कुछ सही दशा के अभाव में नशे के आदी हो रहे है। इन युवाओं में नशे की लत अलग-अलग शहरों में  40 से 45 प्रतिशत तक देखी गयी है। 2014 में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार अलग-अलग शिक्षा वर्ग में इसका प्रतिशत इस तरह था। वाणिज्य में 31 प्रतिशत, कला व समाज विज्ञान में 27.2 प्रतिशत, मेडिकल 27 प्रतिशत इंजीनियरिंग 26 प्रतिशत व कानून के 17 प्रतिशत छात्र किसी न किसी नशे का शिकार थे। बढ़ते सालों में अध्ययनकर्ताओं के अनुसार इस प्रवृत्ति में भी बढ़ोत्तरी होनी है। अध्ययन में यह पाया गया हैं कि इनमें से 10 प्रतिशत युवक प्रारम्भिक प्रयोगात्मक दौर में चल रहें हैं अर्थात् सप्ताह में एक बार या इससे कम नशा लेते थे। 9 प्रतिशत सप्ताह में कई बार नियमित रूप से सेवन कर रहे थे। 30 प्रतिशत नशे के पूरी तरह शिकार हो गए थे जो बिना नशे के रह नहीं सकते हैं। इनमें से 75 प्रतिशत शराब व तम्बाकू के साथ अन्य नशों का भी सेवन करते थे जबकि 16 से 20 प्रतिशत शराब व तम्बाकू के शिकार थे।
मनोवैज्ञानिक के अनुसार आज की हताश-निराश युवा पीढ़ी में परिस्थितियों से जूझने की क्षमता चूकती जा रही ही। आत्महत्या के बढ़ते आँकड़े इस दुःखद स्थिति की गवाही दे रहे है। 2012 में राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो द्वारा तैयार किए गए आँकड़ों के अनुसार देशभर में प्रतिवर्ष 40,000 आत्महत्याएँ होती हैं आठ लाख लोग गम्भीर प्रयास करते हैं। जिसमें 25 प्रतिशत 30 वर्ष से कम आयु के युवक होते हैं। इनमें से भी 17 से 30 वर्ष के आयु वर्ग में 43.7 प्रतिशत होते हैं। गत तीन वर्षों में युवाओं में आत्महत्या की वृत्ति तेजी से बढ़ी हैं प्राप्त विश्लेषण के अनुसार युवतियों की अपेक्षा युवक अधिक आत्महत्याएँ करते हैं. आत्महत्याओं के साथ ही बढ़ते अपराध में भी युवाओं का हाथ सबसे अधिक देखा गया है। इस क्रम में 17 से 30 वर्ष आयु वर्ग में सबसे अधिक 49 प्रतिशत अपराधी पकड़े गए हैं. शिक्षा संस्थानों में बढ़ता राजनैतिक हस्तक्षेप भी युवा पीढ़ी को दुर्भावनाओं दुष्प्रवृत्तियों के चक्रव्यूह में उलझाता जा रहा हैं. राजनीति के दुष्चक्र में उलझी युवा पीढ़ी अपनी रचनात्मक शक्ति खोती जा रही हैं. शिक्षा केन्द्र पूरी तरह से राजनैतिक द्वन्द्व का अखाड़ा बनते जा रहे हैं. विश्वविद्यालय की व्यवस्था सम्बन्धी इकाइयाँ भी इससे अछूती नहीं हैं. प्रायः कुलपतियों की नियुक्ति के पीछे कोई न कोई राजनैतिक पूर्वाग्रह काम कर रहे होते हैं. इसी के साथ विभिन्न विभागों में प्राध्यापकों, विभागाध्यक्षों की नियुक्ति भी इन्हीं राजनैतिक आग्रहवश होती हैं. राजनीति के कुचक्रों से घिरे ये द्रोणाचार्य मनचाहे अर्जुनों को पालते हैं. नैष्ठिक एकलव्यों का अँगूठा कटवाते रहते हैं. सम्भवतः इसी कारण छात्रों एवं प्राध्यापकों के रिश्ते दिन प्रतिदिन बिगड़ते जा रहें हैं. यही क्यों एक समय था जब विश्वविद्यालयों में पुलिस का प्रवेश एक अनहोनी घटना मानी जाती है। कुलपति व शिक्षकों का दबाव ही विश्वविद्यालय में अनुशासन के लिए पर्याप्त माना जाता था। किन्तु आज वहाँ पुलिस एक अनिवार्य उपस्थिति बन चुकी है।
युवावस्था का प्रारम्भिक दौर शारीरिक व मानसिक परिवर्तन के कारण अत्यन्त उथल-पुथल भरा होता है. जिसके दौरान पूर्वानुमानित प्रतिमान टूटते हैं और नये बनते हैं। इन दिनों युवक अपनी अस्मिता की खोज करता है अपनी ओर से नए प्रतिमान ढूँढ़ने की तलाश में होता है। जिसके अनुरूप वह स्वयं को ढाल सके। अपने आदर्श की खोज की प्रेरणा वह पुस्तकों, फिल्मों, समाचार पत्रों व आस-पास के सामाजिक राजनैतिक माहौल की बीच करता है. पहले इनके आदर्श कोई ऐतिहासिक महापुरुष, वीर, महात्मा एवं कोई सज्जन पुरुष हुआ करते थे. आज नई पीढ़ी के आदर्श एवं प्रतिमान बहुत कुछ बदल गए है। जो टूटती परम्पराओं, मान्यताओं एवं गिरते नैतिक मूल्यों का परिणाम हैं. आज युवाओं के आदर्श टीवी एवं फिल्मों के सतरंगी पर्दों से अवतरित होते हैं, जो हिंसा, फैशनपरस्ती एवं फूहड़ता की प्रेरणा देते हैं। इन आदर्शों का अनुकरण करने वाली युवा पीढ़ी में मस्तिष्क में हिंसा, अश्लीलता की ऊल-जुलूल हरकतों, कुकल्पनाओं व दुर्भावनाओं के अतिरिक्त और क्या कल्पना की जा सकती है।
आज नई पीढ़ी का अर्थ किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनुशासन में उभारती पौध नहीं हैं, बल्कि स्वच्छन्दता की पराकाष्ठा और कृत्रिम आदर्शों की अन्धी दौड़ में शामिल कॉलेज या विश्वविद्यालय की भीड़ है. आकाश से अवतरित होने वाला अपसंस्कृति का आक्रमण स्थिति को और बद से बदतर बनाता जा रहा है। अगणित सेटेलाइट चैनलों ने हमारी लोकसंस्कृति को तोड़-मरोड़ और नंगा करके सरेआम खुली सड़क पर ला पटका है। खान, पान, वेश-भूषा, आचार-व्यवहार, गीत-संगीत सभी क्षेत्रों में युवाओं द्वारा किये जा रहे पाश्चात्य अंधानुकरण ने भारतीय समाज के समक्ष गम्भीर संकट खड़े कर दिए हैं. आज की युवा पीढ़ी भारत की बहुमूल्य साँस्कृतिक धरोहर के प्रति पूर्णतया उदासीन हैं आज के युवक-युवतियों में वेद, उपनिषदों-पुराणों को पढ़ना, उन पर चर्चा करना यहां तक कि उनका नाम लेकर पिछड़ेपन, रूढ़िवादी होने का प्रमाण मान लिया जाता है. शायद देव-संस्कृति की उपेक्षा, भारतीय पहनावे का त्याग, रैप, डिस्कों का प्रचलन इसी का परिणाम है. यही नहीं युवाओं में आदर्श व प्रेरक साहित्य के प्रति अभिरुचि में भारी कमी आयी है. गत कुछ सालों से देखने में आया है कि युवक-युवतियों अश्लील साहित्य को बेहद चाव से पढ़ने लगे हैं. छात्रावासों के प्रायः हर कमरे में डेबोनियर, फैंटसी, चेस्टिटी, पेंटहाउस जैसी ओछी और महँगी पत्रिकाएँ देखने को मिल जाएँगी। चाहे गर्ल्स हास्टल हो या फिर ब्वायज हर कहीं अश्लीलता का बखान करने वाले उपन्यास देखे जा सकते हैं. एक समय था जब कालेज-विश्वविद्यालयों के परिसर में धर्मवीर भारती, वृन्दावन लाल वर्मा, रवीन्द्रनाथ टैगोर, मुल्कराज आनन्द आदि की साहित्यिक रचनाएँ रुचि के साथ पढ़ी जाती थीं. युवकों को आज मालूम ही नहीं कि वे क्या पढ़े।
वैसे भी इन दिनों अपने देश में पत्रिकाओं के नाम पर अश्लीलता से भरी पूरी पत्रिकाओं की बाढ़-सी आ गयी है। एक मोटे अनुमान के अनुसार अकेले दिल्ली में लगभग तीन दर्जन ऐसी पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हैं। अपने नाम के अनुरूप इन पत्रिकाओं में ऐसी कोई पाठ्य सामग्री नहीं होती, जो युवा पीढ़ी को किसी दिशा में जागरुक करने में सक्षम हो या उनकी रचनात्मक क्षमताओं का विकास करें। इसके विपरीत ये तथाकथित जागरुक पत्रिकाएँ युवा पीढ़ी को नैतिक पतन के दलदल में धकेलती जा रही हैं। कहने को तो ये पत्रिकाएँ युवा पीढ़ी में यौन शिक्षा के सम्बन्ध में युवाओं को जागरुक होने का दावा करती हैं परन्तु वास्तविकता इसके ठीक विपरीत हैं इन पत्रिकाओं की कीमत आम पत्रिकाओं से दो से ढाई गुना अधिक होती है. फिर भी ये धड़ल्ले से बिकती हैं इनमें से कइयों की प्रचार संख्या लाखों के आस पास है. इनमें से अधिकाँश वार्षिकाँक भी निकालती हैं जिसका मूल्य कम से कम सौ रुपये होते है. इतना महँगा यह अंक भी बाजार में आते ही हाथो-हाथ बिक जाता है. अति आधुनिक पश्चिमी संस्कृति में रँगी अपने को मॉडल कहने वाली युवतियां कालेज छात्राएँ भी बड़ी संख्या में ऐसी पत्रिकाएँ खरीद कर ले जाती हैं. इतनी आसानी से उपलब्ध होने वाली इन पत्रिकाओं की युवा पीढ़ी में कितनी पैठ है, और उनका कितना प्रभाव पड़ रहा है इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है.
ये पत्रिकाएँ अपने अलग-अलग अंकों में अवैध सम्बन्धों यौन कुण्ठाओं, यौन समस्याओं आदि पर सर्वेक्षणानुसार आलेख भी प्रकाशित करती हैं. सर्वेक्षणों को यदि सच मान लिया जाए तो बड़े ही अफसोस के साथ कहना पड़ेगा कि आज भारतीय समाज विशेष तौर पर युवा पीढ़ी ऐसी कुसंस्कृति अपनाने के लिए अग्रसर है. जहाँ रिश्ते-नातों की पवित्रता और व्यक्तिगत जीवन में नैतिकता कोई अर्थ नहीं रखती है. उसी संस्कृति स्त्री-पुरुष के बीच कामवासना के अतिरिक्त कोई दूसरा सम्बन्ध नहीं समझती। युवाओं में इस मानसिकता और प्रवृत्ति के विकास में ये अश्लील पत्रिकाएँ खास भूमिका निभा रही है. पत्रिकाओं की अति कामोत्तेजक पाठ्य-सामग्री युवकों की यौन सम्बन्धी समस्याओं का न तो समाधान करती हैं. और न ही यौन कुण्ठाओं को शान्त करती हैं. इसके विपरीत उनकी यौनेच्छाओं को इस हद तक उभारती हैं कि वे अप्राकृतिक एवं अनुचित तरीकों से अपनी वासनाओं की पूर्ति के लिए बाधित होते हैं ऐसी स्थिति में युवा वर्ग घृणित अपराधों के चंगुल में भी फँस जाता है।
हाल ही के वर्षों में मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाओं में तेजी से वृद्धि हुई है। इन अपराधों के अभियुक्तों में युवा सबसे अधिक हैं. समाजशास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों ने भी इन घटनाओं में वृद्धि के लिए युवाओं को भ्रमित करने वाले अश्लील साहित्य को ही जिम्मेदारी माना है. अश्लीलता का प्रचार करने वाले इस साहित्य का मायाजाल इस कदर बढ़ा है कि युवतियों भी इसके नागपाश से बच नहीं पायी हैं. गतवर्ष ऐसी ही एक पत्रिका के एक संपादक ने एक टीवी कार्यक्रम में बताया कि प्रतिमाह सैकड़ों पत्र ऐसी लड़कियों के आते हैं. जो पत्रिका के लिए नग्न तस्वीर खिंचवाना चाहती हैं. यदि उक्त सम्पादक की बात सच मानी जाए तो सभी पत्रिकाओं के पास आने वाले पत्रों की संख्या लाखों में होगी। इन आँकड़ों से यह बात स्पष्ट होती है कि इन पत्रिकाओं ने लड़कियों के एक खास वर्ग को उस पश्चिमी संस्कृति में पूरी तरह ढल जाने के लिए प्रेरित किया है, जहां अपने वस्त्र उतारकर पैसा कमाना आम बात है।
देश में एक ऐसी सामाजिक अपसंस्कृति का प्रसार हुआ है, जिससे युवक-युवतियाँ आत्मघाती दुष्चक्र में उलझते जा रहे है। मध्यम व उच्चवर्गीय परिवारों की लड़कियां अपनी ऊर्जा और प्रतिभा को किसी सार्थ कार्य में लगाने के बजाय फैशन शो, सौंदर्य प्रतियोगिता व फिल्मों के प्रलोभन में अपराधी एवं बुरे लोगों के जाल में फंसती जा रही हैं. यह आश्चर्यजनक किन्तु सत्य है कि भारतीय आभूषण उतार फेंककर जिस्म की नुमाइश की होड़ में शामिल हो गयी हैं। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान दिल्ली के दो डाक्टरों ने हाल ही में दक्षिण दिल्ली के सात स्कूलों के 700 छात्र-छात्राओं को जो सर्वेक्षण किया. उससे हमारी शिक्षा व्यवस्था, सामाजिक नैतिकता सम्बन्धी कई नाजुक सवाल खड़े हो गए हैं। सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 60 प्रतिशत छात्र अश्लील गतिविधियों में लिप्त पाए, गए। आश्चर्य की बात तो यह है कि लड़के अपने सहपाठियों-मित्रों के बीच इन सम्बन्धों की खुलकर चर्चा व शेखी बघारते हैं और जो इन कुकृत्यों से दूर रहते हैं, उन्हें बड़े ही हीन व बैकवार्ड समझा जाता है. यह प्रतिशत केन्द्रीय विद्यालयों में 55 प्रतिशत था व पब्लिक स्कूलों में 60 प्रतिशत। सर्वेक्षण यदि सरकारी स्कूलों में किया गया होता तो यह प्रतिशत और कम होता।
बड़े पब्लिक स्कूलों में वीआईपी पारिवारिक-सामाजिक पृष्ठभूमि के कारण यौन उच्छृंखलता को फैशन व आधुनिकता का प्रतीक बना लिया है. कुछ परिवारों ने पिछले कुछ सालों से विदेशी टीवी चैनलों को जिस तरह अपनाया है. उससे एक विकृत अभिरुचि पनपी है. युवा इससे सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं. हमारे परम्परागत व नैतिक मूल्य का ह्रास निराशाजनक है. अपनाए जा रहे पश्चिमी मूल्यों ने युवा पीढ़ी को पतन के गर्त में धकेल दिया है। पाश्चात्य संस्कृति के जीवन मूल्य को अपनाती युवा पीढ़ी अपने देश की संस्कृति को हेय दृष्टि से देखने लगी है. यह पीढ़ी अपनी कुण्ठाओं के हल महानगरों की सड़कों पर तलाशती है. चमक-दमक वाले रेस्त्रा, नाइट क्लबों में ढूंढ़ती है. फैशन शो, सौंदर्य प्रतियोगिताओं में खोजती है। अपने आन्तरिक बिखराव के चलते नशा इस पीढ़ी का अभिन्न अंग बनता जा रहा है. भोगवादी लालसाओं से रँगे सपनों को पाने के जुनून में यह पीढ़ी किसी भी सीमा तक गिरने के लिए तैयार है. आज के युवाओं में प्रगतिशीलता के नाम पर भारतीयता का विरोध , नैतिकता के विरुद्ध उतरना, विवादास्पद हो जाना उपलब्धियों में गिना जाता है।
युवा पीढ़ी में स्वार्थपरायणता की भी बेहद वृद्धि हुई है. युवक-युवतियाँ अपने सामाजिक दायित्व बोध से कट गए हैं। उनके जीवन का प्रयोजन संकुचित हो गया है. उच्च आदर्शों एवं प्रेरणा स्त्रोत के अभाव में ये एक के बाद एक नए कुचक्रों में फँसे उलझते चले जा रहे हैं। अपनी वैचारिक शून्यता के कारण ये अभिमन्यु दुष्प्रवृत्तियों के चक्रव्यूह का बेधन कर पाने में स्वयं को असहाय पा रहे हैं.

वैचारिक शून्यता व साँस्कृतिक संकट की इस विषम घड़ी में युवाओं की शक्ति को रचनात्मक दिशा में नियोजित करने की कोशिश में त्रीवता लानी होगी. युवाओं को उनके सही पथ का दिशाबोध कराया जाय. निश्चित ही जिनमें कुछ भी चेतना बाकी हैं, जो अभी जीवन्त है वे इस आमन्त्रण को हृदय की गहराइयों में सुनेंगे. दुष्प्रवृत्तियों के चक्रव्यूह में फँसे देश के अभिमन्यु को नवयुग के प्रेरक एवं प्रवर्तक की नवीन भूमिका के लिए प्रस्तुत करने के लिए तैयार करना ही होगा। मुझे विश्वास है कि वर्ष 2015 में भारतीय तरुणाई स्थापित विद्रूपताओं को परास्त कर इस दिशा में एक निर्णायक भूमिका तय करेगी. 

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