Sunday 10 July 2011

संक्रमण काल से गुजरती पत्रकारिता

          पत्रकारिता को उदारवादी, गणतांत्रिक लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माना गया है। किसी कवि ने शायद ठीक ही कहा है ‘‘ खीचों न कमानों को, न तीर निकालो, जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो।’’ उक्त पंक्तियों पर विचार करते समय लगता है कि पत्रकारिता किसी आन्दोलन का नाम है। जिससे असम्भव जैसे दिखने वाले कार्य वाले कार्य को भी सम्भव बनाया जा सकता है। साथ ही पत्रकारिता हमारे ऊपर नैतिक दबाव भी डालती है कि उसका प्रयोग स्वस्थ, रचनात्मक एवं सकारात्मक आन्दोलन के रूप में ही किया जाए।
           पत्रकारिता ही जनगणना का काम करती है। देश दुनिया में कहां क्या हो रहा है अमुक विषय पर सरकार की नीतियां क्या हैं? देश की सरकार जनता के लिए क्या कर रही है? उसकी कमियां क्यां है? क्या होना चाहिए? क्या नहीं होना चाहिए? जनता की सरकार से अपेक्षाएं क्या हैं? किसी भी मुद्दे पर लोगों की प्रतिक्रिया क्या हैं? आदि सवालों के जवाब आम जनता एवं सरकार तक पहुंचाना सामान्यतः पत्रकारिता का आधारभूत कार्य है। पत्रकारिता ही जनता को सरकार से व सरकार को जनता से जोड़ने का कार्य करती है। वह दोनों के मध्य पुल का काम करती है।
           इसलिए पत्रकारिता का स्थान किसी भी राज्य में काफी महत्वपूर्ण हो जाता है। पत्रकारिता के अभाव में किसी स्वस्थ   लोकतांत्रिक राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती। अतः एक स्वस्थ व परिपक्व पत्रकारिता जगत व जिम्मेदार पत्रकारों का होना किसी लोकतांत्रिक राज्य व स्वस्थ समाज के लिए आवश्यक है। मौजूदा दौर में पत्रकारिता के सम्मुख गम्भीर संकट पैदा हो गया है। उसका प्रत्येक स्तर संक्रमणकाल के दौर से गुजर रहा है। भारतीय पत्रकारिता आज अनेकों चुनौतियों का सामना करने पर मजबूर है। जिस भारतीय पत्रकारिता जगत पर पहले जिम्मेदार और वैचारिक समृद्धता के धनी पत्रकारों का एकाधिकार रहता था वहीं उसी पत्रकारिता पर आज उद्योगपतियों और अश्वपतियों का कब्जा हो गया है इससे पत्रकारिता की भूमिका आम आदमी से कट गयी है। इज्जत, शोहरत, दौलत और शक्ति प्राप्त करने की उत्कट इच्छा ने जहां पत्रकारों को धन्नासेठों का दलाल बना दिया, वहीं अपराधियों, माफियाओं, देशद्रोहियों ने अपने निहित स्वार्थों के लिए पत्रकारिता को ढ़ाल के रूप में प्रयोग आरम्भ कर दिया है।
           लोकतंत्र का यह स्तम्भ एक समय में जहां आम आदमी के विश्वास का प्रतीक व लड़ने के लिए अमोघ अस्त्र हुआ करता था। वही आज आम आदमी की पहुंच से काफी दूर भाग रहा है। मौजूदा समय में पत्रकार निष्पक्ष रूप से सोचने, लिखने और जनपक्षीय मुद्दों को उठाने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं। आज हमारी सोच अखबार के स्वामी की इच्छा से पैदा होने लगी है। अखबार या चैनल पर वही समाचार प्रसारित होता है जो तथाकथित सम्पादक चाहता है। दिन भर अपना खून-पसीना बहाने वाला संवाददाता छायाकार अथवा वास्तविक पत्रकारिता का सिपाही खुद अपने समाचार को देखने अथवा पढ़ने के लिए तरस जाता है। आज खबर को इसके पीछे छिपे दबाव के आधार पर छोटा या बड़ा बनाया जाता है। वहीं टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में अवैधानिक तथा असमाजिक कार्यों से भी परहेज नहीं किया जाता है।
         इस तरह आजका पत्रकार एवं पत्रकारिता एक त्रासदी के दौर से गुजर रही है। रचनात्मक कार्यों का आज की पत्रकारिता में कोई स्थान नहीं रह गया है। अच्छे और महानतम कार्य करने वाला खबर नहीं बनाता, आज खबरें तब बनती हैं जब कोई व्यक्ति नकारात्मक कार्य करता है इसलिए आज की पत्रकारिता अपनी सृजनात्मक पहचान खोकर नकारात्मक आवरण में समाहित हो गयी है। इसका परिणाम यह निकला कि आज जनता का भरोसा और विश्वास पत्रकारिता एवं पत्रकारों से उठता चला गया है। आज पत्रकारों को श्रद्धा व सम्मान के साथ न देखकर लोग हिकारत, तिजारत, गैरत और दलाल के रूप में देखते हैं। आज की पत्रकारिता की प्राथमिकता सिनेमा, क्रिकेट, अश्लीलता और अपराध हो गये हैं। आज की सुर्खियों के नायक होते हैं माफिया, अपराधी, तस्कर। सकारात्मकता को अखबारों व चैनलों में जगह न मिलना पत्रकारिता का सबसे बड़ा अपमान है। आज का पत्रकार मूल्य, आचरण, आदर्श, सिद्धान्त एवं मर्यादा संहिताओं पर ध्यान देने के बजाय अर्थ के इर्द-गिर्द ही घूमने लगा है। पत्रकार का मूल्यांकन उसकी योग्यता, आचरण व मूल्यों से नहीं बल्कि भारी भरकम वेतन से होने लगा है। इसलिए आज पत्रकार गलत तरीकों से अर्थ अर्जन को अनुचित नहीं मानते हैं। जहां माध्यम व लक्ष्य सिर्फ पैसा कमाना होगा वहां मूल्य तो नष्ट होंगे ही लेकिन युवा पत्रकारों को इस चुनौती का सामना करना चाहिए। इस पर विचार करने की महती आवश्यकता है कि निरन्तर गिरते मूल्यों को कैसे रोका जाये। जिससे पत्रकारिता पर जनता का विश्वास बना रहे।
           आज के दौर में सबसे बड़ी त्रासदी तो यह है कि जो पूरे देश की अव्यवस्था, भ्रष्टाचार, शोषण, अत्याचार, अन्याय,  अनीति एवं असत्य के खिलाफ लड़ता है वही पत्रकार अपने पर होने वाले जुल्म एवं शोषण के खिलाफ लड़ना तो दूर आवाज तक नहीं निकाल सकता। सैकड़ों ऐसे पत्रकार हैं जिनको शोषण की वजह से आत्महत्या करनी पड़ी। जिनमें महिला पत्रकारों की संख्या अधिक है, लेकिन दुर्भाग्य! यह कभी सुर्खियां न बन सके, यह आज भी पत्रकारिता का सबसे बड़ा दोष है। वर्तमान पत्रकारिता में ग्रामीण क्षेत्रों की पूरी तरह से उपेक्षा की जा रही है। आज के पत्रकारों ने पश्चिमी संस्कृति को तो भारत में प्रसारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई पर भारत की भारतीयता, संस्कृति एवं सभ्यता से दूर होते चले गये। इसका कारण है कि ईमानदारी, सच्चाई, नैतिकता न्याय और धर्म गुजरे जमाने की बात हो गयी, आज हिंसा और अपराध को इतनी प्रमुखता दी गयी कि सफलता के लिए नकारात्मक कार्य आवश्यक माने जाने लगे। मौजूदा पत्रकारिता शक्तिशाली होने के बावजूद अपने रास्ते से भटकी हुई है यह आम जनमानस में जनजागरण करने में विफल रही है जिससे समाज विकृत होता चला गया। उसने रचनात्मकता के स्थान पर विध्वंसात्मक सोच पैदा की। इंसान बनाने के बजाय शैतान बनने की ओर प्रेरित किया। भले हम इन जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ें लेकिन वक्त हमसे इसका हिसाब जरूर मांगेगा।
          भारतीय पत्रकारिता को एक नया आयाम देने की जरूरत है। एक ऐसी सोच देने की जरूरत है जो सृजनात्मकता पर आधारित हो जिसका एक आदर्श हो मूल्यवान मापदण्ड हो। आज के युवा पत्रकारों को यह कदम उठाना ही होगा वरना पत्रकार मीडियाकर्मी ही बनकर रह जायेगा, जनता की नजरों में बिल्कुल गिर जायेगा। ध्यान रखने वाली बात यह है कि भारत को यूरोप नहीं बनाया जा सकता इसकी एक पुरातन संस्कृति है जो अब तक अनवरत चलती आ रही है इसे खत्म नहीं किया जाना चाहिए। भारत की पत्रकारिता को भारतीय ढ़ाचे में गढ़ना होगा। भारतीय आदर्शों, मूल्यों, सिद्धान्तों पर ही हमें उसकी आचार संहिता बनानी होगी। हमारे सामने चुनौती है मोहनदास करमचन्द गांधी, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, हरिभाऊ उपाध्याय, गणेशशंकर विद्यार्थी, रामवृक्ष बेनीपुरी, संत विनोबा भावे जैसे पत्रकारों को जन्म देने की जो इसे विश्व शिखर पर पहुंचा सकें क्या हम ऐसा करने का साहस कर सकते हैं तभी इस हिन्दी पत्रकारिता दिवसकी सार्थकता बनी रह सकती है।
                                                                                                                                                                               
(लेखक- राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक समाचार पत्र जन कदम के कार्यकारी सम्पादक एवं मानवाधिकार संगठन अखिल भारतीय अधिकार संगठनके राष्ट्रीय महासचिव हैं)

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