Saturday 8 September 2012

सड़ता अनाज......... भूखे लोग...........


         पिछले कुछ वर्षों में भारतीय कीसानों ने हाड़-तोड़ मेहनत कर अनाज उत्पादन में असातीत सफलता दर्ज करायी है / यह उत्पादन 2005-06 के 2080 लाख तन से बढ़कर मौजूदा कृषी सत्र में 2500 लाख तन तक पहुंचा दीया गया /यह बढ़ोत्तरी लगातार बढ़ाई जा रही नयूनतम समर्थन कीमत से प्रभावित जरूर हो सकती है मगर इसे ही अंतिम आधार मान लेना सबसे बड़ी भूल होगी। भारत का किसान खाद्य निर्यातक के रूप में उभरना चाहता है उसकी एस मह्त्वाकान्छा का स्वागत किया जाना चाहिए जहां एन 6 वर्षों में न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाकर लगभग दुगुना किया गया वहीं इसका एक दूसरा पहलू भी है जो मुद्रास्फीति में 51 फीसदी की बढ़ोत्तरी की और इशारा करता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य में एस वास्तविक वृधि के कारण ही आज आम आदमी को परेसानी में डालने वाला रास्ता मजबूत होता जा रहा है।
                एस बढी हुयी कीमत पर उपभोक्ता सभी उत्पादित अनाज को खरीदने की ताकत नहीं रखते हैं या आवश्यक नहीं समझते। सर्कार के हस्तक्षेप के कारण भारतीय खाद्य निगम, न्यूनतम समर्थन मूल्य की दरों पर बेचे जाने वाले सभी अनाज को खरीदता है यदि ऐसा हस्तक्छेप न किया जाए तो अनाज की कीमतें गिर जायेंगी उपभोक्ता ज्यादा खरीदेगे और किसान कम उत्पादन करेंगे।




 

         हमारे मुल्क की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीमकोर्ट ने एक बार फिर अनाज की बर्बादी पर सरकार को कड़ी फटकार लगाई है। गोदामों और खुले आसमान के नीचे रखे अनाज के लगातार सड़ने की घटनाओं पर सख्त रवैया अपनाते हुए अदालत ने सरकार को निर्देश दिया है कि अनाज को सड़ने देने के बजाय बेहतर होगा कि उसे मुल्क की ग़रीब जनता में बांट दिया जाए. ज़ाहिर है, सुप्रीमकोर्ट का यह निर्देश किसी भी लिहाज़ से ग़लत नहीं है। जिस मुल्क में दुनिया के सबसे ज़्यादा भूखे और कुपोषणग्रस्त लोग रहते हों, वहां यदि एक दाना भी बर्बाद होता है तो यह नाकाबिले बर्दाश्त अपराध है। लिहाज़ा, सुप्रीमकोर्ट ने यदि इसका संज्ञान लिया है तो उचित ही है। न्यायमूर्तिद्वय दलवीर भंडारी और दीपक वर्मा की दो सदस्यीय खंडपीठ ने मुल्क की सार्वजनिक वितरण प्रणाली में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज की जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए यूपीए सरकार से यह भी कहा कि वह सुनिश्चित करे कि सस्ते राशन की दुकानें पूरे महीने भर खुलें और हर एक सूबे में पर्याप्त क्षमता वाले भंडारगृह बनें, जिससे अनाज आइंदा खुले में न सड़ता रहे।
पिछले 10 सालों के दौरान गोदामों में कितना अनाज ख़राब हुआ, ख़राब होने की क्या वजह रही और ख़राब अनाज को हटाने के लिए सरकार की क्या कोशिशें और ख़र्च आया? इस संदर्भ में जनवरी 2008 में उड़ीसा के कोरापुट ज़िले के आरटीआई कार्यकर्ता देवाशीष भट्टाचार्य ने गृह मंत्रालय को एक आवेदन भेजा था।  इस आरटीआई आवेदन का जो जवाब मिला, वह चौंकाने वाला था. मालूम हुआ कि बीते 10 सालों में 10 लाख टन अनाज बेकार हो गया। जबकि इस अनाज से छह लाख लोगों को 10 साल तक भोजन मिल सकता था। सरकार ने अनाज को संरक्षित रखने के लिए 243 करोड़ रुपये ख़र्च कर दिए, लेकिन अनाज है कि गोदामों में सड़ता रहा।
ग़ौरतलब है कि हमारे गोदामों में इस महीने के शुरू में गेहूं और चावल का जितना बफर स्टॉक होना चाहिए था, उससे एक महीने पहले उसमें दोगुना गेहूं और ढाई गुना चावल पहले ही मौजूद था। सरकार ने अदालत के सामने ख़ुद यह बात स्वीकार की है कि पिछले 3 सालों में उसने गेहूं और चावल की रिकॉर्ड ख़रीद की है, जिसकी वजह से केंद्रीय पूल में एक जून को 60,428 लाख टन अनाज का भंडार मौजूद था और ज़्यादा ख़रीद की वजह से ही 178 लाख टन अनाज खुले में रखना पड़ रहा है।  अनाज के भंडारण की उचित व्यवस्था न होने और अनाज खुले में रखने का ही नतीजा है कि यह अब बारिश में सड़ रहा है. ऐसा कोई पहली बार नहीं है, जबकि बद इंतज़ामी के चलते लाखों टन अनाज सड़ गया हो, बल्कि यह कहानी हर साल एक ही तरह से दोहराई जाती है. भारतीय खाद्य निगम के अध्यक्ष मीडिया के सामने ख़ुद यह स्वीकारते हैं कि हर साल 50 हज़ार करोड़ रुपये का खाद्यान्न यानी हमारी कुल पैदावार का तक़रीबन 20 फीसदी भंडारण की कमी और रखरखाव की पुरानी हो चुकी पद्धति के कारण नष्ट हो जाता है. हालांकि इस आकलन में प्रसंस्करण, पैकेजिंग, परिवहन और विपणन के दौरान होने वाला नुक़सान भी शामिल है. फिर भी ज़्यादातर अनाज की बर्बादी भंडारण के दौरान होती है. इस बात से साफ मालूम होता है कि हमारे यहां अनाज को ह़िफाज़त से रखने की उचित व्यवस्था नहीं है.
पिछले 10 सालों के दौरान गोदामों में कितना अनाज ख़राब हुआ, ख़राब होने की क्या वजह रही और ख़राब अनाज को हटाने के लिए सरकार की क्या कोशिशें और ख़र्च आया? इस संदर्भ में जनवरी 2008 में उड़ीसा के कोरापुट ज़िले के आरटीआई कार्यकर्ता देवाशीष भट्टाचार्य ने गृह मंत्रालय को एक आवेदन भेजा था. इस आरटीआई आवेदन का जो जवाब मिला, वह चौंकाने वाला था. मालूम हुआ कि बीते 10 सालों में 10 लाख टन अनाज बेकार हो गया. जबकि इस अनाज से छह लाख लोगों को 10 साल तक भोजन मिल सकता था. सरकार ने अनाज को संरक्षित रखने के लिए 243 करोड़ रुपये ख़र्च कर दिए, लेकिन अनाज है कि गोदामों में सड़ता रहा. ख़राब अनाज नष्ट करने के लिए भी सरकार ने 2 करोड़ रुपये ख़र्च किए. एक दीगर सवाल के जवाब में सरकार ने अनाज के ख़राब होने की वजह उसे एक जगह से दूसरी जगह ले जाना, भंडारण और ख़राब वितरण प्रक्रिया बताया.
दरअसल, यदि हम दुनिया में विकसित विधियों का इस्तेमाल अपने गोदामों के लिए करें तो अनाज 4 से 5 साल तक अच्छी हालत में रह सकता है. वरना वह समय बीतने के साथ ख़राब होने लगता है. सरकारें हर साल खाद्य सब्सिडी पर हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च करती हैं, मगर उन्हें इस बात का कतई ख्याल नहीं रहता कि जो अनाज ख़रीदा गया है, उसे कैसे ह़िफाज़त से रखा जाएगा. इस समस्या का एक नीतिगत पहलू और है, जिस पर चर्चा बेहद ज़रूरी है. अक्सर बफर स्टॉक की ज़रूरत से बहुत ज़्यादा सरकारी ख़रीद कर ली जाती है. फिलव़क्त सरकारी गोदामों में 60,428 लाख टन अनाज है, जबकि अतिरिक्त स्टॉक रखने की अनिवार्यता 319 करोड़ टन अनाज की है. ज़ाहिर है, जब हम गोदामों की क्षमता से दोगुना भार उन पर डाल देते हैं तो अनाज को सड़ने से किस तरह से बचाया जा सकता है. सरकार एक तऱफ कम उत्पादन और निजी जमाखोरी को बढ़ती महंगाई की अहम वजह बताती है, वहीं दूसरी तऱफ वह ख़ुद जमाखोरी में लगी हुई है, जिसके चलते बाज़ार के मंझे हुए खिलाड़ी अनाज की एक बनावटी किल्लत पैदा कर बेजा फायदा उठाते हैं. बहरहाल महंगाई से आम आदमी परेशान है, खाद्य पदार्थों के दाम आसमान छू रहे हैं, लेकिन सरकार को यह गवारा नहीं कि जब उसके पास इफरात में अनाज का भंडार है तो वह उसे खुले बाज़ार में क्यों नहीं जारी कर देती. भले ही गोदामों में अनाज चूहे खाते रहें, अनाज पानी में पड़ा सड़ता रहे, लेकिन मजाल है कि वह अनाज भूख से तिल-तिल मरती जनता तक पहुंच जाए. सुप्रीमकोर्ट ने ठीक ही यह सवाल उठाया है कि यदि सरकार के पास इतना अनाज रखने का इंतज़ाम नहीं है तो वह उसे ज़रूरतमंदों को क्यों नहीं बांट देती. सुप्रीमकोर्ट के कड़े रुख़ के बाद सरकार ने आगामी छह महीनों में एपीएल परिवारों के लिए राशन की दुकानों से 30 लाख टन चावल और गेहूं बेचने का फैसला किया है.
भारतीय खाद्य निगम तो क्या, अनाज की बर्बादी में मुल्क की सूबाई सरकारें भी पीछे नहीं रहतीं, जो गोदामों से अपने कोटे का अनाज कभी समय से नहीं उठातीं, जिसके चलते अनाज आहिस्ता-आहिस्ता ख़राब होने लगता है. फिर दोषपूर्ण सार्वजनिक वितरण प्रणाली इस कोढ़ में खाज का काम करती है. पीडीएफ में भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन की शिक़ायतें आम हैं. पूर्व जस्टिस डीपी वाधवा की अध्यक्षता में बनी कमेटी की रिपोर्ट सार्वजनिक वितरण प्रणाली की पूरी पोल हमारे सामने खोलकर रख देती है. वाधवा कमेटी के मुताबिक़, जन वितरण प्रणाली का 53 फीसदी चावल और 39 फीसदी गेहूं ज़रूरतमंद लोगों तक पहुंच ही नहीं पाता. ज़रूरतमंदों को आवंटित अनाज कालाबाज़ारी के ज़रिए बाज़ार में बेच दिया जाता है. एक अनुमान के मुताबिक़, साल 2004-05 में 9,918 करोड़ रुपये का अनाज कालाबाज़ारी के ज़रिए बाज़ार में पहुंचा तो 2005-06 में यह लूट 10,330 करोड़ रुपये और 2006-07 में यह बढ़कर 11,336 करोड़ रुपये आंकी गई. यानी इन 3 सालों में ज़रूरतमंद ग़रीबों को आवंटित 31,500 करोड़ रुपये का गेहूं-चावल राशन डीलर, नौकरशाह एवं सियासी लीडरों ने आपस में मिल-बांटकर डकार लिया और ग़रीब मुंह ताकता रह गया. कुल मिलाकर सार्वजनिक वितरण प्रणाली में फैले भ्रष्टाचार से निजात और अनाज के भंडारण की उचित व्यवस्था जब तक सरकार की प्राथमिकता में शामिल नहीं होगी, तब तक सरकारी सब्सिडी और अनाज की बर्बादी नहीं रुक पाएगी। सुप्रीमकोर्ट ने सरकार से यदि अनाज की भंडारण व्यवस्था को विकेंद्रित करने को कहा है तो यह किसी भी लिहाज़ से ग़लत नहीं है। सरकार को इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि अनाज के सुरक्षित भंडारण के लिए वह मुल्क के सभी सूबों को अलग से वित्तीय सहायता दे। यह काम कोई ज़्यादा मुश्किल भरा नहीं है। जब हमारी सरकारें खाद्य सब्सिडी पर हर साल हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च कर सकती हैं तो उस अनाज को ह़िफाज़त से रखने के लिए क्यों पैसे ख़र्च नहीं कर सकतीं?
           

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