Wednesday 3 July 2013

सेकुलर बुद्धिजीवी गैंग का उतरता नकाब


सेकुलर बुद्धिजीवी गैंग का उतरता नकाब 

अतुल मोहन सिंह 

हाल ही में अमेरिका ने दो आईएसआई एजेंटों गुलाम नबी फाई और उसके एक साथी को गिरफ्तार किया। ये दोनों पाकिस्तान से रूपये लेकर पूरे विश्व में कश्मीर मामले पर पाकिस्तान के लिए लॉबिंग और सेमिनार आयोजित करते थे। इसमें होने वाले तमाम खर्चों का आदान प्रदान हवाला के जरिये होता था। इन सेमिनारों में बोलने वाले वक्ताओ और सेलिब्रिटीज को खूब पैसे दिए जाते थे। ये एजेंट उनको भारी धनराशि देकर कश्मीर पर पाकिस्तान का पक्ष मजबूत करते थे। अमेरिका ने उनसे पूछताछ के बाद उनके भारतीय दलालों के नाम भारत सरकार को बताए हैं। इन भारतीय "दलालों" के नाम सुनकर भारत सरकार के हाथ पांव फ़ूल गए हैं, ना तो भारत सरकार में इतनी हिम्मत है कि इन देशद्रोहियों को गिरफ्तार करे और ना ही इतनी हिम्मत है कि इन दलालों पर रोक लगाये। जो हिम्मत कांग्रेस ने रामलीला मैदान में दिखाई थी, वही हिम्मत इन दलालो को गिरफ्तार करने में नहीं दिखाई जा सकती, क्योंकि ये लोग बेहद “प्रभावशाली” हैं।

पहले जरा आप उन तथाकथित बुद्धिजीवियों, सफेदपोशो एवं परजीवियों"के नाम जान लीजिए जो आईएसआई से पैसे लेकर भारत में कश्मीर, मानवाधिकार, नक्सलवाद इत्यादि पर सेमिनारों में भाषणबाजी किया करते थे। ये लोग पैसे के आगे इतने अंधे थे कि इन्होंने कभी यह जाँचने की कोशिश भी नहीं की, कि इन सेमिनारों को आयोजित करने वाले, इनके हवाई जहाजों के टिकट और होटलों के खर्चे उठाने वाले लोग कौन हैं, इनके क्या मंसूबे हैं। इन लोगों को कश्मीर पर पाकिस्तान का पक्ष लेने में भी जरा भी संकोच नहीं होता था। हो सकता है कि इन महानुभावों में से एक-दो, को यह पता न हो कि इन सेमिनारों में आईएसआई का पैसा लगा है और गुलाम नबी फ़ई एक पाकिस्तानी एजेण्ट है लेकिन ये इतने विद्वान तो हैं ना कि इन्हें यह निश्चित ही पता होगा कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। तब भी ऐसे देशद्रोही प्रायोजित सेमिनारों में ये लोग लगातार कश्मीर के "पत्थर-फ़ेंकुओं" के प्रति सहानुभूति जताते रहते, कश्मीर के आतंकवाद को "भटके हुए नौजवानों" की करतूत बताते एवं बस्तर व झारखण्ड के जंगलों में एके 47 खरीदने लायक औकात रखने वाले, एवं अवैध खनन एवं ठेकेदारों से "रंगदारी" वसूलने वाले नक्सलियों को "गरीब", "सताया हुआ", "शोषित आदिवासी" बताते रहे और यह सब रुदालियाँ वे अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर गाते थे। 

लेखक और संपादक कुलदीप नैयर :- 

(पाकिस्तान को लेकर हमेशा नॉस्टैल्जिक मूड में रहने वाले "महान" पत्रकार)। इन साहब को 1947 से ही लगता रहा है कि पाकिस्तान भारत का छोटा "शैतान" भाई है, जो कभी न कभी "बड़े भाई" से सुलह कर लेगा और प्यार-मोहब्बत से रहेगा।

स्वामी अग्निवेश :- 

महंगे होटलों में ठहरते हैं। हवाई जहाज में सफ़र करते हैं। कश्मीर नीति पर हमेशा भारत-विरोधी सुर अलापते हैं। नक्सलवादियों और सरकार के बीच हमेशा "दलाल" की भूमिका में दिखते हैं।

दिलीप पडगांवकर :- 

(कश्मीर समस्या के हल हेतु मनमोहन सिंह द्वारा नियुक्त विशेष समिति के अध्यक्ष) यह साहब अपने बयान में फ़रमाते हैं कि मुझे पता नहीं था कि गुलाम नबी फ़ाई आईएसआई का मोहरा है। अब इन पर लानत भेजने के अलावा और क्या किया जाए? टाइम्स ऑफ़ इण्डिया जैसे "प्रतिष्ठित" अखबार के सम्पादक को यह नहीं पता तो किसे पता होगा? वह भी उस स्थिति में जबकि टाइम्स अखबार में आईएसआई कश्मीरी आतंकवादियों और केएसी (कश्मीर अमेरिकन सेण्टर) के "संदिग्ध रिश्तों" के बारे में हजारों पेज सामग्री छप चुकी है। क्या पडगाँवकर साहब अपना ही अखबार नहीं पढ़ते?


मीरवाइज उमर फारूक-

ये तो घोषित रूप से भारत विरोधी हैं, इसलिए ये तो ऐसे सेमिनारों में रहेंगे ही, हालांकि इन्हें भारतीय पासपोर्ट पर यात्रा करने में शर्म नहीं आती।

राजेंद्र सच्चर :- 

ये सज्जन ही "सच्चर कमिटी" के चीफ है, जिन्होंने एक तरह से ये पूरा देश मुसलमानों को देने की सिफ़ारिश की है। अब पता चला कि गुलाम फ़ई के ऐसे सेमिनारों और कान्फ़्रेंसों में जा-जाकर ही इनकी यह "हालत" हुई।


पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता गौतम नवलखा-

"सो-कॉल्ड" सेकुलरिज़्म के एक और झण्डाबरदार। जिन्हें भारत का सत्ता-तंत्र और केन्द्रीय शासन पसन्द नहीं है। ये साहब अक्सर अरुंधती रॉय के साथ विभिन्न सेमिनारों में दुनिया को बताते फ़िरते हैं कि कैसे दिल्ली की सरकार कश्मीर, नागालैण्ड, मणिपुर इत्यादि जगहों पर "अत्याचार" कर रही है। ये साहब चाहते हैं कि पूरा भारत माओवादियों के कब्जे में आ जाए तो "स्वर्ग" बन जाए। कश्मीर पर कोई सेमिनार गुलाम नबी फ़ई आयोजित करें। भारत को गरियाएं और दुनिया के सामने "रोना-धोना" करें तो वहाँ नवलखा-अरुंधती की उपस्थिति अनिवार्य हो जाती है।

यासीन मालिक :- 

आईएसआई का सेमिनार हो, पाकिस्तान का गुणगान हो, कश्मीर की बात हो और उसमें यासीन मलिक न जाए, ऐसा कैसे हो सकता है? ये साहब तो भारत सरकार की "मेहरबानी" से ठेठ दिल्ली में, फ़ाइव स्टार होटलों में पत्रकार वार्ता करके, सरकार की नाक के नीचे आकर गरिया जाते हैं और भारत सरकार सिर्फ़ हें-हें-हें-हें करके रह जाती है।

तात्पर्य यह है कि ऊपर उल्लिखित "महानुभावों" के अलावा भी ऐसे कई "चेहरे" हैं जो सरेआम भारत सरकार की विदेश नीतियों के खिलाफ़ बोलते रहते हैं। परन्तु अब जबकि अमेरिका ने इस राज़ का पर्दाफ़ाश कर दिया है तथा गिरफ़्तार करके बताया कि गुलाम नबी फ़ाई को पाकिस्तान से प्रतिवर्ष लगभग पाँच से सात लाख डॉलर प्राप्त होते थे जिसका एक बड़ा हिस्सा अमेरिकी सांसदों को खरीदने, कश्मीर पर पाकिस्तानी "राग" अलापने और "विद्वानों" की आवभगत में खर्च किया जाता था। भारत के ये तथाकथित बुद्धिजीवी और “थिंक टैंक” कहे जाने वाले महानुभाव यूरोप-अमेरिका घूमने, फ़ाइव स्टार होटलों के मजे लेने और गुलाम नबी फ़ई की आवभगत के ऐसे “आदी” हो चुके थे कि देश के इन लगभग सभी “बड़े नामों” को कश्मीर पर बोलना जरूरी लगने लगा था। इन सभी महानुभावों को "अमन की आशा" का हिस्सा बनने में मजा आता है, गाँधी की तर्ज पर शान्ति के ये पैरोकार चाहते हैं कि, "एक शहर में बम विस्फ़ोट होने पर हमें दूसरा शहर आगे कर देना चाहिए। 
ऊपर तो चन्द नाम ही गिनाए गये हैं, जबकि गुलाम नबी फ़ई के सेमिनारों, कान्फ़्रेंसों और गोष्ठियों में जाने वालों की लिस्ट दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है, कश्मीर में मानवाधिकार के उल्लंघन और भारत-पाकिस्तान के बीच “शान्ति” की खोज करने वालों में हरीश खरे (प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार), रीता मनचन्दा, वेद भसीन (कश्मीर टाइम्स के प्रमुख), हरिन्दर बवेजा (हेडलाइन्स टुडे), प्रफ़ुल्ल बिदवई (वरिष्ठ पत्रकार), अंगना चटर्जी, कमल मित्रा के अलावा संदीप पाण्डेय, अखिला रमन जैसे एक से बढ़कर एक “बुद्धिजीवी” शामिल हैं। चिंता की बात यह है कि इन्हीं में से अधिकतर बुद्धिजीवी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन-२ की नीतियों, विदेश नीतियों, कश्मीर निर्णयों को प्रभावित करते हैं। इन्हीं में से अधिकांश बुद्धिजीवी, हमें सेकुलरिज़्म और साम्प्रदायिकता का मतलब समझाते नज़र आते हैं, इन्हीं बुद्धिजीवियों के लगुए-भगुए अक्सर हिन्दुत्व और नरेन्द्र मोदी को गरियाते मिल जाएंगे, लेकिन पिछले दस साल में कश्मीर को “विवादित क्षेत्र” के रूप में प्रचारित करने में, भारतीय सेना के बलिदानों को नज़रअंदाज़ करके अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर बार-बार सेना के “कथित दमन” को हाइलाईट करने में यह गैंग सदा आगे रही है। ये वही “गैंग” है जिसे कश्मीर के विस्थापित पंडितों से ज्यादा फ़िलीस्तीन के मुसलमानों की चिन्ता रहती है।

इनके अलावा जेएनयू एवं कश्मीर विश्वविद्यालय के कई प्रोफ़ेसर भी गुलाम नबी फ़ई द्वारा आयोजित मजमों में शामिल हो चुके हैं। अमेरिकी सरकार एवं एफबीआई का कहना है कि गुलाम नबी के आईएसआई सम्बन्धों पर पिछले तीन साल से निगाह रखी जा रही थी, ऐसे में सवाल उठता है कि क्या अमेरिकी सरकार ने भारत सरकार से यह सूचना शेयर की थी? मान लें कि भारत सरकार को यह सूचना थी कि फ़ई पाकिस्तानी एजेण्ट है तो फ़िर सरकार ने “शासकीय सेवकों” यानी जेएनयू और अन्य विवि के प्रोफ़ेसरों को ऐसे सेमिनारों में विदेश जाने की अनुमति कैसे और क्यों दी? बुरका हसीब दत्त, वीर संघवी तथा हेंहेंहेंहेंहेंहें उर्फ़ प्रभु चावला जैसे लोग तो पहले ही नीरा राडिया केस में बेनकाब हो चुके हैं, अब गुलाम नबी फ़ई मामले में भारत के दूसरे “जैश-ए-सेकुलर पत्रकार” भी बेनकाब हो रहे हैं। 
यदि देश में काम कर रहे विभिन्न संदिग्ध स्वयंसेवी संगठनों के साथ-साथ “स्वघोषित एवं बड़े-बड़े नामों” से सुसज्जित स्वयंसेवी संगठनों जैसे एआईडी, एफओआईएल, एफओएसए, आईएमयूएसए की गम्भीरता से जाँच की जाए तो भारत के ये “लश्कर-ए-बुद्धिजीवी” भी नंगे हो जाएंगे। ये बात और है कि पद्मश्री, पद्मभूषण आदि पुरस्कारों की लाइन में यही चेहरे आगे-आगे दिखेंगे।

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