Saturday 22 June 2013

आपदा अनायास नहीं

आपदा अनायास नहीं

अतुल मोहन सिंह 

पहाड़ों पर प्रलय। भीषण वर्षा, बाढ़ और चट्टानों के खिसकने से कितने लोग मारे गए इसका सटीक आंकडा शायद कभी नहीं मिल पायेगा। वजह यह है कि बरसात ने तांडव उस वक्त किया जब यमुनोत्री, गंगोत्री और बैजनाथ धाम श्रद्धालु यात्रियों से पते पड़े थे। अभी लोग फंसे हैं, निकाले जा रहे हैं लेकिन बचे हुए लोगों की सही सलामत वापसी के बाद भी विभिन्न राज्यों से गए और गायब हुए श्रद्धालुओं की संख्या जुटाना भले ही संभव हो जाय, लेकिन उन हजारों श्रद्धालु साधुओं की संख्या का पता कैसे चल पायेगा जो पारिवारिक नहीं हैं और इन स्थानों पर हादसे के समय थे तथा पहाड़ों की तबाही में वे भी काल कवलित हो गए ?

ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। प्रकृति हमें इससे पहले कई बार चेतावनियां देती रही है। वे हादसे छोटे थे कम जनहानि हुई थी इसलिए वे बहुत अधिक चिंता का विषय भी नहीं बन पाए, लेकिन इस बार कुछ भी हुआ और जिनती विकरालता के साथ प्रकृति ने अपने गुस्से का कहर बरपाया और उससे केवल उत्तराखंण्ड ही नहीं देश के अन्य राज्यों को जितने घहरे घाव लगे क्या उन घावों की टीस को कई वर्षों बाद भी भुला पाना संभव हो सकेगा ?

उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश को देवभूमि खा जाता है। यहां पर ही हिन्दुओं के सबसे अधिक आस्था केंद्र हैं। पहाड़ों पर मार्ग दुरूह हैं लेकिन आस्था ऎसी कि युवा ही नहीं बुजुर्ग भी गंगा-यमुना तथा विभिन्न देवी देवताओं के जयकारे लगाते हुए खतरों और कठिनाइयों को ललकारते हुए अपने आराध्य और अपने आस्था स्थल तक पहुंचने को बेताब रहते हैं। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश राज्यों की आय का प्रमुख स्रोत भी   पर्यटकों की आमद है लेकिन उन पर्यटकों की सुविधा और सुरक्षा के लिए जो किया जाना चाहिए, उसकी ओर सरकार न्र कभी गंभीरतापूर्वक ध्यान नहीं दिया। कुछ वर्ष पूर्व हरिद्वार में कुम्भ के दौरान हुआ हादसा और बाते वर्ष गायत्री परिवार द्वारा आयोजित सामूहिक यज्ञ के दौरान हुआ हादसा अभी भी विस्मृत नहीं किये जा सके हैं। यद्यपि वे हादसे प्राकृतिक नहीं थे लेकिन जब आस्था का सैलाब उमड़ रहा हो, सारे देश के श्रद्धालु आ रहे हों तो क्या उनकी व्यवस्था करने और उन्हें उचित आश्रय तथा सुविधाओं की जिम्मेदारी सरकार की नहीं है। 

एक और बात उल्लेखनीय है कि प्रत्येक बारह वर्ष बाद आयोजित होने वाली चमोली की नंदादेवी यात्रा का आयोजन भी इस वर्ष अगस्त में होना है। पहाड़ों पर इस यात्रा को कुम्भ पर्व जैसा ही महत्व प्राप्त है तो राज्य सरकार भी इस भावी यात्रा का जमकर प्रचार कर चुकी है। नौटी से होमकुंड जाने वाला यह मार्ग आज भी बहुत दुर्गम ही है। 17, 500 फीट तक की उंचाई वाली इस यात्रा से पहले यात्रा मार्ग का दुरुस्त किया जाना शायद संभव ही नहीं हो सकेगा। पिछली यात्रा में पचास हजार से भी अधिक लोह शामिल हुए थे जिनमे से 10, 000 से अधिक श्रद्धालु अंतिम पड़ाव तक पहुंचे भी थे। क्या राज्य सरकार केदारनाथ धाम यात्रा के दौरान आई प्राकृतिक यात्रा और हादसे से सबक लेगी और नंदादेवी यात्रा की निर्बाधता के प्रति लोगों को आश्वस्त कर पायेगी ?

राज्य सरकार नहीं जानती कि उसके यहां देश भर से कितने श्रद्धालु केदारनाथ यात्रा पर आये थे, वजह यह कि यात्रियों के पंजीकरण जैसी यहां कोई व्यवस्था नहीं है। मौन, कहां और क्या कर रहा है शायद इस बात को जानने की आवश्यकता सरकार ने महसूस भी नहीं की। जंगलों का दोहन और पेड़ों की कटान अनवरत जारी है। वहां भी पेड़ काटे जा रहे हैं जहां मार्ग आदि नहीं बनाये जाने हैं। जड़ें मिट्टी को जकड़कर रखती हैं और वर्षा के दौरान भूस्खलन की संभावनाओं को बहुत हद तक कम कर देती है। सरकार के ढुलमुल रवैये और खनन माफियाओं की सरकार में गहरी पैठ के चलते न तो खनन पर अंकुश लग पा रहा है और न ही पेड़ों की कटान पर। इसी खनन के चलते पहाड़ों की मिट्टी में पानी प्रवेश करने के रास्ते बने और उसी के परिणामस्वरुप तेज वर्षा के दौरान पहाड़ों के फटने, चट्टानों के खिसकने तथा भूस्खलन से प्रलय जैसी स्थिति बनी और हजारों लोग मलवे में दबकर मौत का शिकार हो गए।

स्पष्ट है कि यह हादसा अनायास नहीं था। प्रकृति के साथ मनुष्यों द्वारा लम्बे कोर्स से किया जा रहा खिलवाड़ ही इतने बड़ों और भयावह त्रासदी का कारण बना। प्रकृति के साथ खिलवाड़ और प्राकृतिक सम्पदा के लगातार दोहन के कारण प्राकृतिक संतुलन गड़बड़ा गया है। देश के विभिन्न क्षेत्रों ही नहीं दुनिया भर में इस छेड़छाड़ के प्रति प्रकृति अपनी नाराजगी जाहिर कर कई बार चेतावनी दे चुकी है। यह हादसा भी ऎसी ही चेतावनियों में से एक है लेकिन क्या देश के नीति नियंता इस हादसे के बाद भी गम्भीरतापूर्वक सोचने और सबक लेने को तैयार होंगे ?

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