Monday 24 September 2012

साजिशों के पीछे सियासत

           सियासत का लक्ष्य सत्ता होता होता है। चुनावों में अरबों रूपये पानी की तरह बहाने वाले राजनैतिक दल न तो अपनी पराजय बर्दाशत कर पाते है और न ही यह कि सत्ता की कुर्सी उनके निचे से खिसककर किसी दूसरे दल के पास पहुँच जाए। जब वे सत्ता में होते हैं तो सत्ता को बचाए रखने, भविष्य में सत्ता पर काबिज रहने की साजिशें, तिकड़में किया करते हैं और जब सत्ता में नहीं होते हैं तो उसे हथियानें, सत्तारूढ़ दल को बदनाम करने की साजिशें किया करते रहतें हैं। वे अपने स्वार्थों के लिए जनता और भीड़ का, उनकी भावनाओं का इश्तेमाल करते हैं। उन्हें इस बात से कोई वास्ता नहीं होता कि उनकी हरकतों से जन-जीवन पर क्या असर पड़ रहा है अथवा देश और समाज का कितना नुकसान हो रहा है।
        उत्तर-प्रदेश के चुनाव में जिनके हाथ से सत्ता जाती रही, या अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई, आप कैसे उम्मीद करते हैं कि वे चुपचाप बैठकर आगामी चुनाव तक जनादेश की प्रतीक्षा कर सकेगें। प्रत्यक्ष भले ही कुछ न दिख रहा हो लेकिन वे आंतरिक तौर पर पूरी तरह सक्रिय हैं। आरोप-प्रत्यारोप के दौर के अलावा वे उन साजिशों में भी अवश्य शामिल हैं जिससे जनभावनाएं भड़कें और सत्ता प्रतिष्ठानों पर उन्हें तोहमतें जड़ने का उन्हें मौका मिले। एक ही माह में इत्तर-प्रदेश की राजधानी लखनऊ में प्रतिमाएं तोदानें की दो घटनाएं किस ओर इशारा
करती हैं। पहले पूर्वमुख्यमंत्री मायावती की मूर्ती का सर धड़ से अलग कर दिया गया। जब एक सिरफिरा पत्रकारों के सामने प्रतिमाएं तोड़ने की घोषणा कर रहा था तो उसे उसी समय पुलिस ने हिरासत में क्यों नहीं लिया ? और जब वह घटना घाट गए तो उससे प्रशासन भविष्य के प्रति सचेत क्यों नहीं हुआ। मायावती की मूर्ती का तोड़ा जाना आकस्मिक घटना माना भी जा सकता है लेकिन जब इंटरनेट की सोसल साइट्स पर भड़काऊ एसएमएस प्रसारित हो रहे थे तो सतर्कता एजेसियाँ और और पुलिस ने उनके संभावित परिणामों के प्रति सतर्कता क्यों नहीं बरती ?
        इसे संयोग नहीं कर सकते। राजनीति सारे देश में व्याप्त है, सारे देश को प्रभावित कर रही है। फिर प्रशासन उससे अछूता कैसे रह सकता है। वह पुलिस विभाग हो या अन्य प्रशासनिक तबका, उनकी आस्थाएं भी किसी न किसी राजनैतिक दल और विचारधारा के साथ जुडी हैं। वे दल सत्ता में हों या न हों लेकिन प्रशासन में बैठे उनके मददगार उनकी योजनाओं और साजिशों को परवान चढाने में उनके अप्रत्यक्ष मददगार  है। प्रायः देखने में आया है कि जब सत्ता बदलती है तो बेमतलब थोक के भाव प्रशासनिक अधिकारियों को इधर से उधर किया जाता है। बहुत से साक्षम अधिकारियों को लम्बे समय तक प्रतीक्षा सूची में डाल देना या उन विभागों में भेज देना या उन विभागों में बिठा दिया जाना जहां उनके लिए कोई काम ही नही है, इसका मतलब क्या है ? मतलब साफ़ है कि हर राजनीतिक दल सत्ता में आने पर अपने पूर्व के शुभचिंतक प्रशासनिक वर्ग को उपक्रत करता है और जो उसकी विचारधारा के समर्थक नहीं रहे उन्हें कम महत्व के पदों पर बिठाकर या प्रतीक्षा सूची में डालकर सजा देता है।
         17 अगस्त को लखनऊ में मीडिया-कर्मियों के साथ कथित मुसलमानों द्वारा की गयी मारपीट या गौतम बुद्ध और स्वामी महावीर की प्रतिमाओं पर पत्थरबाजी के पीछे भी निश्चित तौर पर एक बड़ी राजनैतिक साज़िश थी और यह भी निश्चित है कि उक्त घटना के बारे में प्रशासन के कुछ जिम्मेदार लोगों को पहले से ही जानकारी भी थी। छायाकारों में उन उत्पातियों के फोटो भी खीचे थे और उनमें से बहुत सारे चेहरे स्पस्ट भी है, फिर उनको हिरासत में न लिया जाना और उनसे असली षणयंत्रकारियों की जानकारी प्राप्त कर उन्हें क़ानून के हवाले न किया जाना क्या राजनैतिक रणनीति है या साज़िश ?
      राजनैतिक दलों की भी अपनी ज़रूरतें और बाध्यताएं हैं। वे भी एक दूसरे के साथ सख्ती से पेश आना नहीं चाहते कि जाने कब किसे, किसके सहयोग की दरकार हो, और यदि संबंधों में ज्यादा खटास आ गयी तो भविष्य खतरे में पद सकता है। साफ़ है कि राजनीति में भी चोर-चोर मौसेरे भाई का खेल हो रहा है। न मैं तेरी कहूं और न तू मेरी कह। बस सब मिलकर जनता को मूर्ख बना रहे हैं और जिसे जहां भी मौका मिलता है वह उसका अपने तरीके से उपयोग कर रहा है। देश के जिन शहरों में भी रमजान के महीनें में उपद्रव हुए उनकी सूत्रधार भी राजनीति थी और उसका मकसद  भी राजनैतिक हित साधन था।
         आम मुसलमान से सवाल कीजिये कि ऐसा क्यों हुआ और ऐसा किसने किया तो वह भी उन लोगों और उनके प्रयोजन के बारे में अनभिज्ञता प्रकट करता है। इसका सीधा सा अर्थ है कि मुम्बई, लखनऊ, इलाहाबाद या देश के अन्य जिन भी शहरों में उग्रपंथियों ने तांडव किया उसमें न तो आम मुसलमान की कोई भूमिका थी और न ही आम मुसलमान उसमें शामिल था। फिर यह सवाल अनुत्तरित ही रह जाता है कि जिन्होंने यह सब किया वे वे कौन थे, उनका मकसद क्या था और उनको यह सब करने के लिए प्रेरित लारने वाला कौन था। एस मामले में यदि कोई विदेशी शनयंत्र हो भी, तो भी यह कैसे माना जा सकता है कि वह बिना भारत के सियासतबाजों की साझेदारी को अंजाम दिया गया होगा। वे कौन हैं, उन्हें बेनकाब किये जाने की मांग अब मुस्लिम समुदाय के ही धार्मिक और बिद्धिजीवी वर्ग द्वारा की जानी चाहिए क्योंकि यह मसला समूची मुसलमान कौम का की प्रतिष्ठा से जुदा है।
          (लेखक- आगरा उत्तर प्रदेश में जन्में श्री सरमा पूरन सम्पादक कृषि उत्थान साप्ताहिक समाचार पत्र, वरिष्ठ पत्रकार, स्तंभकार, सामाजिक कार्यकर्ता, कुशल राजनैतिक विशलेषक तथा भारत सरकार द्वारा मनोनीत प्रतिनिधि पीसीएफ लखनऊ, सदस्य परामर्शदात्री समिति उत्तर मध्य रेलवे आगरा, सदस्य प्रबंध समिति राष्ट्रीय कृषि वानिकी केंद्र झांसी, सदस्य भारतीय चारागाह एवं चारा अनुसंधान संस्थान झांसी, सदस्य संयुक्त समिति राष्ट्रीय कृष वानिकी एवं भारतीय चारागाह अनसंधान संस्थान झांसी, सदस्य सलाहकार समिति चौधरी चरण सिंह अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट लखनऊ हैं।)

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