Monday 24 September 2012

मुसलमानों पर अराष्ट्रीयता का आरोप ?


हिन्दुस्तान की संवैधानिक पंथनिरपेक्षता और यहाँ की सामासिक साझी संस्कृति विश्व के पटल पर अद्वितीय है। उसके पीछे जितना योगदान यहाँ के हिन्दू नागरिक कर रहे हैं उतना ही योगदान अन्य धर्मावलम्बियों का भी है। इस निर्विवाद सत्य को कभी भी नकारा नहीं जा सकता। इसके बावजूद यहाँ के तथाकथित मठाधीश उन पर अक्सर अराष्ट्रीयता का आरोप लगाते हैं उसके पीछे के उनके तर्क भी सतर्क हैं साथ में वो भी अपनी कमान लेकर कि कोई तो तीर लगेगा।अरे जिसके लगेगा वही सही कम से कम एक ही सलाम कम होगी।
            कहा जाता है कि मुसलमानों का दृष्टिकोण राष्ट्रीय नहीं है वे अरब और अन्य देशों से प्रेरणा ग्रहण करते हैं। उनकी धार्मिक आस्था, प्रतिबद्धता, समर्पण, त्याग और निष्ठा खाड़ी के देशों के प्रति ही बनी रहती है। यह धारणा सर्वथा मिथ्या है इससे बढकर शायद और कोई विचारधारा नहीं हो सकती। बल्कि यह कहा जाए तो अधिक सत्य होगा कि इससे बढ़कर अनर्गल और भ्रष्ट बात कोई नहीं हो सकती। इस देश के मुसलमान जिनकी धार्मिक प्रतिबद्धता काबा के प्रति समर्पित है इसलिए वे निष्ठावान नहीं हो सकते। मगर हम उन सभ्य, सुसंस्कृत, उच्च शिक्षित और सिद्धांतों की मिट्टी खोदने वाले हिन्दुओं को क्या कहें जो खुद या अपने बच्चो को पैसे कमाने और भौतिक संपदा के सारे मजे लूटने के लिए विदेश भेज देते हैं। डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन, महा मना मदनमोहन मालवीय, स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंश, ईश्वरचन्द विद्यासागर क्या हिन्दू नहीं थे जो विदेश गए तो मगर हिन्दुस्तान की राष्ट्रीयता की जड़ें सीचनें गए थे उनको खोदने नहीं। आप उस युवा को क्या कहेंगे जिसने यहाँ की सरकारी खर्चे पर शिक्षा हासिल की जब अपने हिस्से के कर्त्तव्यनिर्वहन का सवाल आया तो अमेरिका उनकी पहली पसंद था। अराष्ट्रीयता का लांछन प्रतिभा पलायन पर भी लगना चाहिए।
        इतिहास मुसलमानों की अराष्ट्रीयता के संदेह के एकदम खिलाफ है। भारत में मुसलमानों का स्थाई शासन 712 से 1857 तक रहा तब तक तो वे भारत के लिए जिए भारत के लिए मरे। सामान्य बुद्धिवाला भी यह नहीं समझ सकता कि अराष्ट्रीय लोग किसी राष्ट्र में 1000 साल से न सिर्फ निवास करते हैं बल्कि यहाँ के साशक भी रहे हैं और अगर उस दौरान मुसलमान अराष्ट्रीय थे तो हिन्दुओं ने सामूहिक रूप से उन पर हमला क्यों नहीं कर दिया पूरे 100 दशक में ऐसी घटना कभी भी नहीं घटी।आरम्भ को छोड़कर एक भी ऐसा युद्ध नहीं हुआ जिसमे एक ओर केवल हिन्दू रहें हों और दूसरी ओर केवल मुसलमान। इसके विपरीत हिन्दुओं का रक्षक वर्ग राजपूत, मुस्लिम शासन के स्तंभ थे। काबुल पर मुग़ल साम्राज्य की विजय में मानसिंह द्वारा सेना का नेतृत्व, भारत की ही विजय समझी गयी थी। शिवाजी की सेना में भी मुसलमान थे इसके विपरीत 1857 में भारतीय शासक वर्गों के दुर्बल हो जाने पर  हिन्दू-मुस्लिम दोनों अंग्रेजी शासन के विरुद्ध अपने ढंग से लगातार विरोध करते रहे। 1857 में ही प्रथम स्वाधीनता की लड़ाई मुग़ल सम्राट बहादुरशाह ज़फर के नेतृत्व में लड़ी गयी और हिन्दुओं ने सहर्ष अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध एकमत होकर मुग़ल सम्राट का नेतृत्व स्वीकार किया। संक्षेप में प्रथम स्वतन्त्रता समर में मुसलामानों का योगदान हिन्दुओं के बराबर रहा।
          हम कभी मिट्टी से बगावत नहीं करते,
          हम कभी लाशों की तिजारत नहीं करते।
          वतन की खातिर बहा देते हैं अपना लहू,   
          रहबरों जैसी हम सियासत नहीं करते।
सन 1920-21 तक कांग्रेस की कोई भी चाल अंग्रेजों के ऊपर कामयाब नहीं हुई। उसमें खिलाफत आन्दोलन के विलय के बाद ही नवीन चेतना का संचार हुआ। 1916 में जिन्ना के प्रभाव से कांग्रेस के साथ सम्पूर्ण स्वाधीनता के लिए समझौता हुआ। भारत के स्वतंत्र होने तक विशुद्ध मुस्लिम प्रदेश सीमा प्रांत अब्दुल खान गफ्फार खान के साथ में था। सुभाष चन्द्र बोश की फौज में भी मुसलामानों का योगदान था। क्रांतिकारियों में अशफाकउल्लाह खान स्मरणीय हैं। कांग्रेस की कल्पना बिना अबुल कलाम आज़ाद तथा हिफज़ुर्ररहमान के अधूरी है। पाकिस्तान निर्माण का दायित्व अकेले मुस्लिम नेताओं पर ही नहीं है इसमें हिन्दू कांग्रेसी नेताओं की अदूरदर्शिता, गर्व और धींगा-धांगी और लूट के माल से अपने-अपने द्वारा लिए गए जोखिम और योगदान के बटवारे की जल्दबाजी तथा उसकी जिद भी जिम्मेदार थी। सौदेबाजी और घपलेबाज़ी की भी हद होती है। वस्तुतः पाकिस्तान का निर्माण न तो हिन्दुओं द्वारा हुआ और न ही मुसलमानों द्वारा हुआ। इसका निर्माण अदूरदर्शी नेताओं ने किया। चाहें वो हिन्दू राजनेता रहें हों या फी मुस्लिम, बल्कि इसके लिए कांग्रेस के वो नेता ही जिम्मेदार रहे हैं जिनको सत्ता का सुख प्राप्त करने की अधीरता थी। एक तरफ कांग्रेस अपने समस्त भारत का प्रतिनिधित्व करने की दावेदार थी दूसरी और वह हिन्दुओं का प्रतिनिधि होने का दावा अलग से करती थी अतः जो होना था वह तो हुआ ही।
        भारत ने पाकिस्तान से अब तक 4 युद्ध लडे , लेकिन क्या इसमें भारत के मुसलमानों ने पाकिस्तान का पक्ष लिया ? वीर अब्दुल हमीद का बलिदान क्या ऐतिहासिक बलिदान नहीं है ? मो इकबाल से बढ़कर राष्ट्रगान (कौमी तराना) किसने लिखा ? मालिक मोहम्मद जायसी की कृति पद्मावत साहित्योक दृष्टिकोण से किसी भी मायने में तुलसीदास कृत रामचरितमानस से कम नहीं है। रसखान, कुतबुन, शेख, कबीर, रहीम तथा हिन्दी के सर्वोपरि जनक खुसरो को हिंदी से अलग कर दिया जाए तो हिंदी का क्या महत्व रह जाएगा ? क्या मुसलमानों ने कभी स्वतंत्र भारत में कभी हिन्दी का विरोध किया ? इसके विपरीत जब दक्षिण भारत के हिन्दू एकमत से हिन्दी के विरुद्ध हुए थे तो शेख अब्दुल्ला ने हिन्दी के पक्ष में आवाज़ बुलंद की थी। इसके विपरीत आज़ाद भारत में मुसलमानों की यह उचित मांग कि उर्दू को द्वितिओय भाषा का दर्ज़ा प्रदान कर दिया जाये जो अब तक नहीं मानी गई।
         मक्का-मदीना तो मुसलमानों के तीर्थ हैं। उससे अगर मुसलमान प्रेरणा लेते हैं तो इसमें आपत्तिजनक क्या है। यदि इंग्लॅण्ड का अंग्रेज़ येरूशलम का भक्त है तो तो क्या वह इंग्लैण्ड के लिए अराष्ट्रीय हो गया। भारत में रहने वाले एंग्लोइंडियन भी तो यही करते हैं आखिर उनको मानद जन प्रतिनिधित्व देने के बावजूद उन पर अराष्ट्रीयता का प्रशन क्यों नहीं उठाया जाता है ? क्या श्रीलंका और बर्मा का बौद्ध सारनाथ के प्रति समर्पण रखने भर से ही वह बर्मा और श्रीलंका के लिए अराष्ट्रीय हो गया ? वस्तुतः बहुसंख्यकों का यह आरोप कि मुस्लिम अराष्ट्रीय हैं और अरब तथा अन्य खादी देशों से प्रेरणा ग्रहण करते हैं, इस तथ्य में ही निहित है कि भारत के अलावा किसी देश में उनके (हिंदूओं के) तीर्थ नहीं हैं। नेपाल ही ऐसा राष्ट्र है लेकिन स्वतंत्र भारत में उससे भी सम्बन्ध अच्छे नहीं रहे। क्या भारत के हिन्दू नेपाल के पशुपतिनाथ के दर्शन करने को नहीं जाते हैं ? बस उसमें हज पर जाने वालों के साथ राजनीतिक रोटियां सेकनें वालों का स्वार्थ ही उनको संदिग्धता प्रदान कर रहा है।
(लेखक- हरदोई, उत्तर प्रदेश में जन्में जो पेशे से शिक्षक, प्रखर वक्ता, लेखक, मानवाधिकार तथा सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार हैं। वर्तमान में आप अखिल भारतीय अधिकार संगठन, के राष्ट्रीय महासचिव, दैनिक जनमत न्यूज़ के समाचार सम्पादक, जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन, के राष्ट्रीय सचिव तथा महर्षि गिरधारानंद गुरुकुल ज्ञानस्थली विद्यापीठ, गोमती का दक्षिणी तट, नैमिषारण्य, हरदोई उत्तर प्रदेश के संस्थापक/प्रबंधक हैं।)

No comments: