Monday 24 September 2012

बुद्धिजीवी और धर्मगुरू अपना नज़रिया बदलें


             लोकतंत्र, मीडिया और मुसलमान अर्थात लोकतंत्र में मीडिया और मुसलामानों की भूमिका। किसी भी लोकतांत्रिक देश की व्यवस्था में वहाँ के आम लोगों और स्वतंत्र तथा निष्पक्ष मीडिया तंत्र की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जब आम आदमी की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है तो उसमें हिन्दू मुसलमान, सिख, ईसाई या किसी जाती वर्ग को प्रथक करके देखनें की बात ही कहाँ आती है ? आज की बहस में प्रमुखता से मुसलमान शब्द के प्रयोग की आवश्यकता इसलिए भी है क्योकि मुस्लिम समाज के सबसे बड़े, प्रमुख और महत्वपूर्ण त्योहार ईद से ठीक पहले देश के विभिन्न शहरों में कुछ ऐसी उग्रवादी घटनाएं हुईं जिनमें मुसलामानों की भूमिका पर उंगलियाँ उठा रहीं हैं। मुम्बई और लखनऊ में मीडियावालों से अभ्रद्ता, उनके कैमरे तोड़ देना, उनसे मारपीट करना और धार्मिक मूर्तियों पर ईंट पत्थर बरसाकर साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति पैदा करने का प्रयास करने जैसी घटनाओं से यह सवाल उठाना भी लाज़मी था कि भारतीय लोकतंत्र के प्रति मुसलामानों का नज़रिया क्या है ?
        शायद यह सवाल उठाने की जरूरत नहीं है क्योंकि यह निर्विवाद रूप से प्रमाणित है की मुसलमानों की भारत के लोकतंत्र में किसी अन्य वर्ग से निष्ठा कम नहीं है। कश्मीर जो कई दशक से अलगाववाद की आग में झुलस रहा है और जहां क़ानून व्यवस्था को नियंत्रित करने में केंद्र सरकार को लम्बे समय से ही ज़द्दोज़हद से जूझना पड़ रहा है वहाँ भी पिछले चुनावों में उग्रपंथियों की धमकी के बावजूद भारी मतदान का होना यह प्रमाणित करता है कि देश
 के मुसलामानों की देश के लोकतंत्र में पूर्ण निष्ठा है। और वे किसी भी कीमत पर अलगाववाद के पक्षधर नहीं हैं। वर्ष 2008 में मुम्बई पर हुए आतंकी हमले में पुलिस की गोली से मरे गए आतंकियों के शव जब पाकिस्तान ने लेने से इनकार कर दिया और उन्हें दफनाने की बात उठी तो भारत के मुसलामानों ने उन्हें अपने कब्रिस्तानों में जगह देने से यह कहकर मना कर दिया था की वे देश के दुश्मनों को अपने कब्रिस्तानों में दफनाकर अपनी ज़मीन को नापाक नहीं करना चाहते। क्या इसके बाद भी मुसलमानों की देशभक्ति पर कोई संदेह किया जा सकता है ?
       अब तह बात आती है कि, तो मीडिया को तो अघोषित रूप से ही चौथा स्तम्भ कहा जाता है, फिर उसकी लोकतान्त्रिक निष्ठा पर सवाल कैसे उठ सकता है। मीडियातंत्र ही तो लोकतंत्र का सच्चा प्रहरी और रक्षक है। प्रशन यह है कि बीते मग अगस्त में देश के अनेकों शहरों में जो उग्रपंथी घटनाएं हुईं उनमें मुस्लिम प्रदर्शनकारी मीडिया पर हमलावर क्यों हुए ? इस प्रशन का उत्तर तो वे ही दे सकते हैं जिन्होनें मीडिया पर हमला किया था। वे यहाँ हैं नहीं और आम मुसलमान, प्रदर्शन में अपनी भागीदारी से इनकार करता है, इसका अर्थ यह है कि जो कुछ भी हुआ वह मुसलामानों को बदनाम करने की एक साजिश थी, और यह साजिश जिन लोगों ने भी रची थी उनसे भी मुसलमान अनजान हैं। इसके बावजूद इस बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता है कि उपद्रवियों में मुसलमान शामिल नहीं थे।
        जब मुसलमान उप्रदवों में शामिल नहीं था तो फिर वे कौन से मुसलमान थे जिन्होनें यह सब किया ? सच यह है कि वे निचले तबके के अनपढ़ लोग थे और अफवाहों के कारण बिना सोचें-समझे वह सब कर डाला जो रमजान के पवित्र महीनें में आम मुसलमान भी गुनाह समझता है।अफवाहें म्यांमार और असम में हिंसक वारदातों की फैलाईं गयी। उपद्रव में शामिल 90 % लोग यह शायद जानते भी नहीं होगें कि म्यांमार कोई अलग देश है। अशिक्षित समुदाय से विवेकपूर्ण निर्णय की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती है। ऐसे समय पर समाज के प्रबुद्ध वर्ग और धर्मगुरुओं की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। वजह यह है कि आरोपों की पहली उंगली धर्मगुरुओं की ओर उठाई जाती है।
        समय परिवर्तनशील है। समय के साथ समाज भी बदलता है। नए आविष्कार, नयी जानकारियाँ, युवाओं का जिज्ञासा भरा स्वभाव, दूसरों की बराबरी करने या उनसे आगे निकलने की ललक को न तो मुस्लिम समाज नज़रंदाज़ कर सकता है और न ही मुस्लिम समाज के धर्मगुरु। हमने कई बार धर्मगुरुओं के फतवे जारी होते और फिर खुद ही उन्हें अपने फैसलों से पलटते देखा हैं। तो फी आखिर यह हठधर्मिता क्यों ? क्यों समाज को परिवर्तन से जुड़ते नहीं देखना चाहते ? क्यों उन्हें आधुनिक ज्ञान, विज्ञान  और देश-दुनिया की जानकारी से दूर रखकर कुएं का मेढ़क बनाए रखना चाहते हैं ? मानव मन स्प्रिंग के सामान होता है। वह उछलना चाहता है। तनिक सा दबाव घटा तो स्प्रिंग उछलती है और कभी-कभी तो दबाव बनाने वाले के मुह पर ही हमलावर हो जाती है। साजिश किसी ने भी रची हो और संभव है कि वर्ग विद्वेष फैलाने की योजना पर साजिशकर्ता इस समय आत्ममुग्ध भी हों, लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि उनकी साजिश से जिन हमलावरों का रुख आज मीडिया और समाज की समरसता की और था वे हमलावर ही पलटकर अपने को इस्तेमाल करने वालों पर भी आक्रामक हो सकते हैं। यदि वे इस भ्रम में हैं कि उनकी साजिशों पर से पर्दा नहीं उठेगा, लोगों को वास्तविकता का पता नहीं चलेगा, तो वे शायद सबसे बड़ी भूल कर रहे हैं।
        हम अपने मित्रों और पत्रकार साथिओं की सहिष्णुता की प्रशंसा केते हैं कि अभ्रड़ता सहकर भी उन्होंने आक्रोश की अभिव्यक्ति नहीं की। समाज को आईना दिखानेवाले और सच के लिए लड़ने वालों में यह सहिष्णुता होनी भी चाहिए। पत्रकार वर्ग शिक्षित है इसलिए विवाद नहीं बढ़ा। हम अपेक्षाएं इसीलिये मुस्लिम समुदाय के सभी बुद्धिजीवी और धर्मजीवी वर्ग से ही कर रहे हैं, और हम उनसे यह अपील करते हैं कि वे स्वयं संकीर्णताओं से उबरें और अपने समाज का सार्वजनिक और राष्ट्रहित में पथ प्रशस्त करें, क्योंकि यही उनका दायित्वा भी है।
(लेखक- डॉ हरीराम त्रिपाठी, पीटीआई से अवकाशप्राप्त,लेखक, राजनितिक विश्लेषक, समाचार एजेंसी त्रीवेणी न्यूज़ सर्विस के सम्पादक तथा चौधरी चरणसिंह महाविद्यालय बरदारी, बाराबंकी, उत्तर प्रदेश में बतौर प्राचार्य कार्यरत हैं।)

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