Monday 24 September 2012

कितनी जायज़ हैं मुस्लिमों की शिकायतें ?


           भारतीय संविधान में जहां तक अल्पसंख्यकों का जहां तक सवाल है वहा इसके अंतर्गत न तो इसकी कोई परिभाषा दी गई है और न ही उसके अंतर्गत किसी प्रकार की न तो कोई परिभाषा दी गयी है और न ही उसके सम्बन्ध में कोई विशेष प्रावधान किया गया है। केवल अनुच्छेद-29 और 30 में में ही इस शब्द का प्रयोग किया गया है। इस सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय में कहा गया था कि कोई भी समूह जिसकी संख्या 50 % से कम हो वह अल्पसंख्यक वर्ग में आता है। सामान्यतः अल्पसंख्यकों को तीन श्रेणियों में परिभाषित किया गया है। प्रथम वर्ग धार्मिक अल्पसंख्यकों का है जिसके अंतर्गत धार्मिक आस्था या मतावलंबियों की संख्या के आधार पर इसका निएधारण किया जाता है इसके अंतर्गत मुस्लिम, इसाई, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी, यहूदी तथा अन्य धर्मों के मानने वाले जो हिन्दू धर्म के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म में आस्था रखते हैं को शामिल किया गया है। द्वितीय कोटि में भाषाई आधार पर तथा तृतीय प्रकार की कोटि में जाती के आधार पर जिसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, तथा अन्य पिछड़े वर्ग को रखा गया है। यह वर्ग हिदुस्तान के संविधान की विशुद्ध उपज है।
       जनमत एक ऐसी शासन व्यवस्था है जिसमें शासन सत्ता हमेशा बहुसंख्यक वर्ग के पास गुलाम रही है। इसलिए लोकतंत्र में अल्पसंख्यकों को विकास के समुचित अवसर प्रदान करने और उनके अधिकारों को सुरक्षित रखने का विषय अत्यधिक महत्ता रखता है। जनतंत्र के अतिरिक्त किसी अन्य शासन प्रणाली में अल्पसंख्यकों का कोई भी प्रश्न नहीं उठता। जब तक जनतंत्र न होगा तब तक यह समस्या इस रूप में कभी भी नहीं उठेगी। मुस्लिमों की जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार लगभग 23 % हैं यह भारत में सबसे बड़ा धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग है। दूसरे अल्पसंख्यक वर्गों की तुलना में मुस्लिमों की शिकायतें कुछ ज्यादा संवेदनशील हो गयीं हैं। संविधान में राजनीतिक समानता के सिद्धांत को मान्यता दी है, तदनुसार देश की राजनीति में हिन्दुओं की तरह मुसलमानों को भी सक्रिय राजनीति में भाग लेने का अवसर प्राप्त होता रहा है। भारतीय संसद, राज्य विधानमंडल, मंत्रिमंडल, न्यायपालिका, कूतिनितिक, तथा प्रशासनिक पदों पर मुस्लिम सम्प्रदाय के नागरिक आसीन रहे हैं।
        संसद और राज्य विधानमंडलों में में प्रतिनिधित्व प्राप्त करने के अतिरिक्त मंत्रिमंडल तथा उच्च राजनितिक और प्रशासकीय पदों पर भी मुस्लिमों को मौका मिलता रहा है। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, विभिन्न विभागों के मंत्रालयों के प्रमुख तक के पदों पर भी पहुचने का गौरव प्राप्त किया है। तीन राष्ट्रपति डॉ जाकिर हुसैन, फखरुद्दीन अली अहमद, डॉ अबुल पाकिर जैनुद्दीन अब्दुल कलाम पदारूढ़ हुए हैं।
       इसके बावजूद मुस्लिम सम्प्रदाय संसद, मंत्रिमंडलों, राज्य विधानमंडलों मंत्रिपरिषद आदि संस्थाओं में समुचित प्रतिनिधित्व न मिलने के कारण असंतुष्ट रहा है। 1952 के प्रथम आम चुनाव से लेकर 2009 के चुनावों तक लोकसभा की 442 सीटों में से सबसे अधिक (42) 1984 के निर्वाचन में प्राप्त हुईं थी। 1999 में 30, और 2009 में कुल,,,,,,,, मुस्लिम सदस्य निर्वाचित हुए जो अपनी आनुपातक संख्या के हिसाब से काफी कम है। राज्य विधानसभाओं में इनकी स्थिति और ही खराब रही है। 1994 तक मध्य प्रदेश की विधानसभा में इस वर्ग का खाता भी नहीं खुला था। राजस्थान में 1994 तक केवल 2 मुस्लिम ही विधायक बन पाए। हहर के भय से मुस्लिमों को राजनितिक दल टिकट देनें में कभी भी दरियादिली नहीं दिखाते हैं।
      इसी तरह से उक्त वर्ग की एक और शिकायत यह रही है कि विभिन्न लोकसेवाओं में चयन के समय उनके साथ धार्मिक भेदभाव किया जाता है। इसलिए मुसलामानों को अखिल भारतीय सेवाओं में प्रतिनिधित्व का अवसर प्राप्त नहीं हो पाता है। प्राप्त आंकड़ों पर नज़र डालने पर पता चलता है कि 1948 से 1982 तक भारतीय प्रशासनिक सेवा में 3062 व्यक्तियों की प्रत्यक्ष भर्ती हुई जिसमें से सिर्फ 52 उम्मीदवार ही मुस्लिम थे। वहीँ अखिल भारतीय पुलिस सेवा में इस दौरान कुल 1615 नियुक्तियां हुईं थीं जिसमें से इनकी संख्या महज़ 48 थी। 1 जनवरी, 1948 तक इस वर्ग का प्रतिनिधित्व अखिल भारतीय सेवाओं में क्रमशः 2.14 % तथा 3% रहा। यह भी उल्लेखनीय है कि अभी हाल की नियुक्तियों में 1962-64 तथा 1968-69 में एक भी मुसलमान आईएएस नहीं बन सका। वहीँ 1975-76 तथा 1982 की नियुक्तियों में एक भी मुस्लिम आईपीएस की परीक्षा में अपनी सफलता प्राप्त नहीं कर सका।
       मुसलमानों में बहुमत समुदाय के विरुद्ध असुरक्षा की भावना बलवती होने का एक और भी महत्वपूर्ण कारण देश के विभाज़न  के बाद से होने वाले साम्प्रदायिक दंगे हैं। प्राप्त जानकारी यह कहती है कि 1968 में 346, 1969 में 519, 1971 में 521, 1984 में 556, और 1998 में 626 दंगे हुए हैं। हाल ही में घटित गुजरात में हुए साम्प्रदायिक दंगों में इस समुदाय के लोगों को ही भारी जान और माल का नुकसान हुआ है। यह दुएभाग्य की बात है कि आज़ादी मिलने से लेकर आज तक सांप्रदायिक दंगें किसी न किसी राज्य में हर वर्ष देखने को मिल रहे हैं। इतनी बड़ी संख्या में साम्प्रदायिक दंगे होने के कारण मुस्लिम समुदाय में यह भावना विकसित हुई कि इन दंगों के पीछे कहीं न कहीं तत्कालीन सरकारों का भी हाथ रहा है। इस तरह से इस समुदाय के ज़ख़्म भरने के बजाय किसी न किसी सूबे में हर वर्ष हरे हो जाना एक नियति बन चुका है।
       मुस्लिम समुदाय के असंतुष्ट रहने का एक बड़ा कारण उनकी मात्रभाषा के प्रति सरकार का तथाकथित उदासीन रवैया है। कुछ साम्प्रदायिक ज़मातों की ओर से निरंतर इस बात का ढिंढोरा पीटा जाता है कि उर्दू केवल मुसलमानों की भाषा है, इसके परिणामस्वरूप भाषा की समस्या भी एक साम्प्रदायिक समस्या बन गयी है। मुसलमानों की ओर से लगातार उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान आदि सूबों में उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा का दर्ज़ा दिए जाने की मांग की गई और इसके लिए आन्दोलन भी चलाये गए। विपक्षी सियासी ज़मातों ने इसे सियासी रूप दे दिया। परिणामतः यह हुआ की सियासत में पड़कर उर्दू भी दो टीमों के बीच खेली जा रही फ़ुटबाल बनकर रह गयी है।
       मुसलमानों की पर्सनल ला में परिवर्तन का प्रश्न भी आत्याधिक विवादास्पद विषय रहा है। संविधान के नीति दिदेशक तत्वों में सम्पूर्ण भारत के लिए एक ही नागरिक संहिता बनाए जाने के आदर्श का उल्लेख किया गया है। भारत सरकार मुसलमानों की व्यक्तिगत विधि में से कुछ परिवर्तन करना चाहती है। विशेषकर बहुविवाह, तलाक पद्धति, तथा विरासत के मामलों में महिलाओं को कुछ अधिकार देना चाहती है जैसा कि हिन्दू स्त्रियों को पहले से ही प्राप्त हैं। मुस्लिम पर्सनल ला में परिवर्तन के विषय में स्वयं मुसलमानों में भी दो वर्ग पाए जाते हैं। एक प्रगतिशीलता का जो एस परिवर्तन को आवश्यक और दूसरा रूढ़िवादी तथा धर्मानुकूलता के आधार पर इसमें रद्दोबदल करने के शख्त खिलाफ है। उसके पास इसके पीछे तर्क हैं कि मुसलमानों के व्यक्तिगत क़ानून इस्लामी शरीयत पर आधारित हैं जिसमें परिवर्तन करने धर्म के बुनियादी सिद्धांतों पर कुठाराघात के सामान है। यह वर्ग शरीयत के मान्य प्रावधानों से मौका कॉमा फुलस्टॉप भी हटाया जाना खुदा की शान में गुस्ताखी मानता है।
     मई 1965 में भारत सरकार ने एक अध्यादेश के द्वारा अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक स्वरुप का अंत कर दिया इस निर्णय के खिलाफ देशव्यापी आन्दोलन हुआ। फलस्वरूप 1981 में सरकार ने विश्वविद्यालय अधिनियम-1920 में संशोधन करके विश्वविद्यालयों के चरित्र को पुनर्जीवित करने का दावा किया। 1 फरवरी, 2005 में विश्वविद्यालय ने केंद्र सरकार की स्वीकृति से एक नई प्रवेश नीति अपनाई जिसके अंतर्गत मुस्लिम तलबा के लिए विश्वविद्यालय में 50 % सीटें आरक्षित कर दी गईं।सरकार की इस घोषणा की मुसलमानों के ओर से सराहना भी की गयी। वहीँ दूसरी ओर इस नीति के विरुद्ध उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय में एक याचिका दाखिल की गयी। जिसके तहत सितंबर 2005 में दिए गए अपने निर्णय के अंतर्गत अदालत ने यह निर्देश दिया कि अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय एक मुस्लिम संस्था नहीं है। इस प्रकार से  अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक चरित्र का मुद्दा फिर से गंभीर विवाद का विषय बन गया है।
       मुसलामानों की ओर से एक शिकायत शिक्षा, शिक्षा पाठ्यक्रमों में निर्धारित पाठ्य-पुस्तकों के विषय में रही है। शिक्षा संस्थाओं में विभिन्न स्तरों पर पढाई जाने वाली कुछ पुस्तकों में अल्पसंख्यक वर्गों, विशेषकर मुसलामानों के धार्मिक विश्वासों के विरुद्ध सामग्री पाई गयी और कई बार ऐसी पुस्तकों के खिलाफ आन्दोलन भी किये गए। 1966 में राज्यसभा ने ऐसी शिकायतों की जांच के लिए एक समिति का गठन किया, जिसने शिक्षा संस्थाओं में निर्धारित पुस्तकों का अवलोकन करने के बाद यह प्रतिवेदन दिया कि बहुत सी ऐसी पुस्तकें हैं जिनका अधिकाँश भाग हिन्दू पुराणकथाओं पर आधारित है जबकि उनमें सिर्फ हिन्दू देवी-देवताओं की उपलब्धियों पर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया है जबकि इस्लामिक मज़हब के रसूलों की उपेक्षा की गयी है। समिति के अनुसार कुछ पुस्तकों में ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख इस प्रकार मिलता है कि जिससे देश के विभिन्न सम्प्रदायों के बीच एकता उत्पन्न होने के बजाय और ज्यादा भेदभाव बढ़ता है, जो राष्ट्रीय एकीकरण के लिए आत्यधिक हानिकारक है। वर्तमान यूपीए सरकार द्वारा भी सीबीएसई के पाठ्य पुस्तकों का पुनरावलोकन कराया जा रहा है और पाठ्य पुस्तकों से आपत्तिजनक अंशों को निकाल देने का निर्णय लिया गया है।
       6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ज़मीदोज़ होने से मुसलमानों को बहुत बड़ा धक्का पहुँच है। आरएसएस तथा अन्य कट्टर संगठनों द्वारा समय समय पर दी जाने वाली धमकियों से मुसलामानों को अपने ही अपने ही अन्य धार्मिक स्थलों का अस्तित्व भी हमेशा खतरे में दिखाई देता है।

(लेखक- हरदोई, उत्तर प्रदेश में जन्में जो पेशे से शिक्षक, प्रखर वक्ता, लेखक, मानवाधिकार तथा सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार हैं। वर्तमान में आप अखिल भारतीय अधिकार संगठन, के राष्ट्रीय महासचिव, दैनिक जनमत न्यूज़ के समाचार सम्पादक, जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन, के राष्ट्रीय सचिव तथा महर्षि गिरधारानंद गुरुकुल ज्ञानस्थली विद्यापीठ, गोमती का दक्षिणी तट, नैमिषारण्य, हरदोई उत्तर प्रदेश के संस्थापक/प्रबंधक हैं।)

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