Sunday 23 September 2012

जम्हूरियत पर धब्बा है मजहबी फसादात

         
         जम्हूरियत का मतलब सरकार और सियासत में आम इंसान की बराबर की हिस्सेदारी। उस जम्हूरियत में फसादों और झगड़ों की गुंजाइस तभी होती है जब हकों पर डांका पद रहा हो और आम 
इंसान की आवाज़ सुनी न जा रही हो। अपने हक़ के लिए लड़ना चाहिए भी लेकिन वह लड़ाई दूसरों को या देश को नुक्सान पहुचाने वाली नहीं होनी चाहिए। आप जिन्हें नुक्सान पहुंचा रहे हैं, अगर वे आपके हक़ की राह में रूदा नहीं हैं तो आप गुनाह कर रहे हैं। जब आप मुल्क को नुक्सान पहुंचा रहे हैं तब आप और भी गुनाहगार हैं। 17 अगस्त को अलविदा की 
नमाज़ के बाद लखनऊ शहर में जो कुछ भी हुआ वह बेहद शर्मनाक था। ओछी हरकत कुछ सिरफिरों ने की और शर्मसार सारी कौम हो गयी। एक और आप अलविदा की नमाज़ अदा कर रहे हैं सबकी सलामती की दुआ मांग रहे हैं और दूसरी और खुद की सलामती से दुश्मनी निभा रहे हैं। अल्लाह कैसे क़ुबूल करेगा उस दुआ को ?
         मीडियावालों पर हमलावर होना और उससे भी खतरनाक वह मंज़र था जब फसादी भीड़ गौतम बुद्ध और स्वामी महावीर के बुतों पर ईंट पत्थर बरसाकर एक नए फसाद को पैदा करने पर अमादा थी। उफ़ कितना खौफनाक था वह मंज़र और एक बार तो लगा था कि शायद एस बार ईद की खुशियाँ डंडों में बदल जायेंगीं। हम शुक्रगुज़ार हैं लखनऊ कि आवाम के और सभी गैर मुसलामानों के जिन्होनें बदअमनी के लिए आम मुसलामानों को जिम्मेदार नहीं माना और ईद की खुशी में उसी तरह से शरीक हुए जैसे हमेशा होते थे। लखनऊ तहजीब का, अमन का शहर था और रहेगा। यहाँ दंगाएयों, फ़सादियों के मंसूबे आसानी से कामयाब नहीं हो सकते अब तो शायद यह बात उनकी भी समझ में आ चुकी होगी  जो शहर को दंगों में तब्दील करना चाहते थे।  
       ईद की खुशियों को मातम में बदलने की सज़ेशें रचने वाले मुसलमान नहीं हो सकते और मुसलमान ही नहीं वो इन्सान भी नहीं हो सकते। जब आप इन्सानियत को रौदने  पर अमादा हों तो आपको इंसान कहना इंसानियत की बेइज्जती करना है। कुछ लोगो को ऐसी ओछी हरकतों के पीछे विदेशी साजिश नज़र आती है। हो सकता है यह सच हो लेकिन अगर आप उन सजेशों पर नाच रहे हैं, तब तो आप मदारी के बन्दर हुए, इंसान कैसे रह गए। सुनी सुनायी अफवाहें की असं में कुछ लोगों के साथ ऐसा हुआ या म्यांमार में लोगों के साथ कुछ बेजा हुआ तो उसके लिए हिन्दुस्तान क्या करे क्या म्यांमार 
हिन्दुस्तानी हुकूमत का हिस्सा है ? असम जरूर हिन्दुस्तान का एक सूबा है, लेकिन जब आपकी बेजा हरकतों पर लखनऊ में हुकूमत फसाद न बढनें देने या यूँ कहें कि वोटों के लालच में 
सख्ती न करें तो असम की हुकूमत में भी तो वैसे ही लोग होगें जो वहाँ के बाशिंदों को वोटों के लालच में नाराज़ 
नहीं करना चाहते होंगें।   
        अल्लाहताला इंसान बनाता है, कौमें, फिरके और मज़हब नहीं। मज़हब इंसान बनाता है, अपनी पसंद और चाहत के अनुसार। जिसका जिसमे भरोसा हो, लेकिन हर मज़हब का रास्ता कहीं न कहीं आख़िरी मुकाम पर जाकर एक जरूर हो जाता होगा। इस्लाम भी कहता है कि कोई भी रिश्ता इंसानियत के रिश्ते से बड़ा नहीं होता। अगर आप रोजा- नमाज़ के अहद के बावजूद इंसानियत के खिलाफ काम कर रहें हैं तो न तो आप इस्लाम में भरोसा रखते हैं और न ही अप रोज़े और नमाज़ के बदले परवरदिगार की दया के हकदार हैं। नमाज़ से पहले नियत बाधने का मतलब होता है अपनी नियत को, अपने मन को बेजा ख्यालों से साफ़ करना, लेकिन जाब नमाज़ के बाद आप लाठी-डंडों से लैस सडकों पर हंगामा करते घूम रहे थे तो फिर उस सारे बवाल को तो आप उस वक्त भी दिमाग में लिए ही होंगे जाब आप नमाज़ पढ़ रहे थे। मतलब आपकी नियत तब भी खराब थी, फिर आप किस सबाब की और कैसे उम्मीद कर सकते हैं।
        जहां तक मेरी अपनी सोच है तो मुम्बई, लखनऊ या हिन्दुतान के जिन और भी शहरों में इस तरह की बेजा हरकतें हुईं उनकी कड़ियाँ कही न कहीं जुडी हैं और इन सारी हरकतों का मास्टरमाइंड कोई एक ही सख्श, तंजीम या मुल्क होगा। गौर करने की बात है कि जब सरकारें किन्हीं ख़ास मसायल को लेकर विपक्षी पार्टियों और आवाम के गुस्से से जूझ रही होती हैं, उसी वक्त इस तरह के बवाल और हादसे क्यों होते हैं ? बवाल किसी एक सूबे, एक शहर में नहीं हुआ। अलग-अलग शहरों में अलह-अलग दिन और सारी खुफिया पुलिस। सारा सरकारी अमला उनके बारे में पहले से कुछ जान पाने, उन्हें रोक पाने या उन्हें या उन्हें गिरफ्त में ले पाने में नाकाम रहा, इसका क्या मतलब लगाया जाना चाहियी ?
       केंद्र की सरकार भी बढ़ती कीमतों, कोयला ब्लाकों के आबंटन, भृष्टाचार के अनेकों मामलों और हिन्दुस्तान में विदेशी पूंजी निवेश के मसलों पर विपक्षी पार्टियों के निशाने पर है और उत्तर-प्रदेश की सूबाई सरकार भी अपने ही लोगों की धींगामुश्ती, क़ानून व्यवस्था को नियंत्रित नहीं कर पाने के आरोपों से चौतरफा घिरी हुई है। यह सब क्यों हुआ और किसकी साज़िश से हुआ इसके बारे में वे ज्यादा जानते हैं जो देश चलाने के ठेकेदार हैं। मेरी समझ में तो सच बस इतना भर है कि सियासतबाज़ों की मोहब्बत आवाम और मुल्क के बजाय कुर्शी से ज्यादा है और हर सियासत्बाज़ इस मुल्क को फिरकों और टुकड़ों में बांटना चाहते पर अमादा हैं।
    (लेखिका- समीना फिरदौस, स्वतंत्र लेखक, सामाजिक कार्यकत्री हैं।)

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