Monday 24 February 2014

भारतीय समाज में नारी शक्ति उपासना



डॉ अंजना सिंह

पति के लिए चरित्र, संतान के लिए ममता, समाज के लिए शील, पूरी दुनिया के लिए दया, तथा प्रत्येक जीव मात्र के लिए करुणा सजोने वाली महाप्रकृति का नाम ही नारी है. पुरातन काल से ही नारी सामाजिक, राजनैतिक, तथा आर्थिक व्यवस्था की धुरी रही है. वैदिक भारत के सम्पन्नता की मुख्य वजह समाज के विभिन्न क्षेत्रों में नारियों का अभूतपूर्व योगदान रहा है. नारी की शक्ति और उसकी क्षमता का भरपूर उपयोग करके ही भारत दुनिया का जगतगुरू कहलाया. भारत को विश्व की अनूठी संपदा बनाने में नारियों का अविस्मर्णीय योगदान रहा है. नारियों ने अपने अद्भुत पराक्रम, शौर्य, वीरता, दक्षता तथा कार्यकुशलता से भारतीय कला, संस्कृति, नृत्य, गायन, वादन, साहित्य, शिक्षा, विज्ञान, ज्योतिष, तर्क, दर्शन, खगोल, चिकित्सा, अभियांत्रिकी, सहित वेद वेदान्तों तक को गौरवान्वित कर भारत को दुनिया की नजरों में सोने की चिडि़या बनाया. संसार में जितने भी विकसित और संपन्न राष्ट्र हैं उसमें नारियों का योगदान पुरुषों के समान ही बराबर का रहा है. भारत में भी नारियों के अनेक रूप देखने को मिलते हैं उनमें से एक रूप देवी की उपासना का भी है. प्राचीन भारत से ही देवी की उपासना तथा पूजन अर्चन की प्रथा अनवरत चलती चली आ रही है. पूर्व वैदिक कालीन व्यवस्था से लेकर उत्तर वैदिककालीन व्यवस्था के समय में हो या मध्ययुगीन समय से लेकर वर्तमान काल तक मातृशक्ति की श्रेष्ठता को न सिर्फ स्वीकार किया गया है बल्कि उसको हमेशा ही श्रद्धा और विश्वास की दृष्टि से ही देखा गया है. जहां तक धार्मिक मान्यताओं का सवाल है तो हिन्दू धर्म इस मामले में कहीं अधिक उदारवादी और स्पष्ट वर्णन कारता है वहीं ईसाई सहित सिख, बौद्ध, जैन, पारसी, यहूदी, इस्लाम सहित अन्य सम्प्रदायों और मत मतान्तरों के मानने वाले शक्ति उपासना के प्रतीक रूप में नारी की महत्ता को ही स्वीकार करते हुए उसके देवी स्वरुप का ही वर्णन किया गया है. वेद, पुराण, उपनिषद, महाकाव्य, रामायण, महाभारत, की चर्चा हो या महाकवि तुलसीदास विरचित रामचरित मानस, कालिदास विरचित कुमारसंभव, शाकुंतलम, हर्षचरित, रत्नावली हो या फिर विशाखादत्त रचित मुद्राराक्षस समेत वेदांग, महाभाष्य, स्मृतियों, टीकाओं सहित ज्योतिष साहित्य में भी नारी के दैवित्व स्वरूपों के विविध आयामों का विशद चित्रण हुआ है. 
वस्तुतः सृष्टि की प्रक्रिया में नारी शक्ति का अभूतपूर्व योगदान रहा है. शक्ति को ही देवी कहा गया है और इसी शक्ति को 108 नामों से भी संबोधित किया गया है. जो इस प्रकार से हैं रू
माता वरदायनी, माता अपर्णा, जलोदरी, सत्या, परमेश्वरी, देवमाता, कांता, सर्वकष्टनाशिनी, शिवदूती, जगदम्बा, जयंति, तारिणी, सप्तशती, कल्याणी, चक्रगदेशधारिणी, प्रचंडका, दुष्टमारिनी, दुखहरनी, विश्येश्वरी, तारादेवी, वैष्णों देवी, कपालिनी देवी, त्रिनेत्री, सत्यानन्दस्वरूपिणी, बुद्धि, बलप्रदा, महिषासुरमर्दिनी, ज्ञानदाती, विमला, नवदुर्गा, खड़गधारिणी, भवप्रीता, भाव्या, पाटला, चंडमुंडविनाशिनी, क्षेत्रेश्वरी, अनूपनी, सिंहवाहिनी, शोकविनाशिनी, भगवती, भवतारिणी, कात्यायिनी, भवमोचिनी, मातेश्वरी, हिंगलाज, उत्कर्षिनी, मधुकैटभहन्त्री, क्षेमकारी, महातपा, सर्वदानवन्द्यातिनी, रत्नप्रिया, ओमसती, योगिनी, सर्वशास्त्रमयी, चक्रणी, ब्रजेश्वरी, महाकाली, दक्षयज्ञविनाशिनी, विंध्यवासिनी, पद्मावती, पिंडीरानी, ब्रह्मवादिनी, कुलेश्वरी, शूलधारिणी, पट्टाम्बरपरिधानानाम, धनुर्धरी, रक्तबीजसंहारिणी, धर्मधारिणी, यशस्विनी, भद्रकाली, कुम्बरा, महामाई, चौमुन्डी, कोटकांगनेवाली, सावित्री, निशुम्भ शुम्भ मर्दिनी, श्रद्धाधारिणी, सर्वमंत्रमयी, अनंता, चिंतपूरिणी, इन्द्ररूपिणी, चन्द्ररूपिणी, अम्बिका, भक्ततारिणी, सुखमाया, मातुसुन्दरी, सर्वरूपिणी, अष्टभुजी, चामुन्डी, सरस्वती, धन्या, विष्णुमाया, भवभंजन, भवदुर्गाभवानी, चन्द्रघंटा, रौद्रमुखा, महादेवी, तपश्विनी, शारदा, महादेवी, कुमारी, कुमेश्वरी, शाम्भवी, चक्रणी, सर्वविद्या, नयनादेवी, जगतजननी, माता, दक्षकन्या, ज्वालामुखी, नारायणी, तथा माता मंगला हैं. 
नाम चाहें कुछ भी हों मगर शक्ति का प्रारम्भिक रूप शिव की पत्नी उमा अथवा पार्वती के रूप में होती है जिन्हें आदिशक्ति या फिर जगतजननी कहा गया है. धार्मिक ग्रंथों में पार्वती का तांत्रिक तथा दार्शनिक विकास शक्ति के रूप में हुआ है और इसीलिए कहा भी गया है कि शक्ति ही शिव है और शिव ही शक्ति. शिव का अर्धनारीश्वर रूप इस कथन को सत्य सत्यापित करता है. वहीं समय परिवर्तन के साथ-साथ ही शक्ति स्वरूपा पार्वती कपिलावरण अर्थात काली व सिंहवाहिनी दुर्गा बन गईं. असीमित शक्ति संपन्न होने की वजह से उन्होंने महाकाली का स्वरुप धारणकर दानवों अर्थात असुरों की संहारक बनीं. शिव और विष्णु के बाद देवी की महिमा अपरम्पार बतलायी गई है तो वह शेषमात्र दुर्गा शक्ति है. मध्यकाल में शक्ति की उपासना का प्रचलन समाज में अत्यधिक बढ़ने के साथ शक्ति को स्रष्टि की रचनाकत्री, पालनकत्री तथा संहारकत्री तीनों स्वरूपों में मान्यता देकर उनकी बड़ी भक्ति भावना और श्रद्धा के साथ उपासना आराधना और पूजन अर्चन किया जाने लगा.
शक्ति शब्द का शाब्दिक अर्थ काफी विशद, विस्तृत व व्यापक है इसलिए शक्ति पृथ्वी और आकाश दोनों से परे है. केन उपनिषद में उमा को हेमवती अर्थात हिमालय की पुत्री रूप में भी माना गया है. ऐसा वर्णित है कि उमा का प्रादुर्भाव देवताओं को शिक्षित करने के मकसद से हुआ था ताकि वे सर्वशक्तिमान पर ब्रह्म को केवल शक्ति प्रतीक के रूप में अपने को मान सकें और अभिमान से बच सकें तथा वे परब्रह्म नियंता के निर्देशन व मार्गदर्शन में रह कर अपनी शक्ति का सदुपयोग कर सकें. देवों को शिक्षाप्रद ज्ञान व उपदेश देने की वजह से ही उमा को ज्ञान की आधिष्ठात्री देवी अर्थात सरस्वती भी कहा गया. शक्ति अपने ज्ञान व प्रभा से तीनों लोकों आकाश, पृथ्वी व पाताल को प्रकाशित करती है एक तरफ देवी दुर्गा अथवा महाकाली के रूप में असुरों की संहारक थी तो दूसरी तरफ उपासना व पूजा आराधना करने वाले प्राणियों की सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाली दैविक शक्ति भी. मार्कंडेय पुराण में उल्लिखित है की देवी ही समग्र प्राणियों में दया, शांति, तुष्टि, बुद्धि माता व शक्ति के रूप में विद्यमान है. शक्ति को ही पृथ्वी समेत सृष्टि की आधारशिला कहा गया है. शक्ति ही देवी है और वही वैष्णवी भी है. शक्ति ही जगत को तृप्त करती है और अपार बल व तेज से रक्षा करतीं हैं. जीव का बंधन व मोक्ष उन्हीं में समाहित है और जगत की समस्त विधाएं उन्हीं में से प्रस्फुटित हैं. विश्व की समस्त नारियों उन्हीं की प्रतिरूप हैं. सभी जीवशक्ति की ही परा माया में कैद है और शक्ति ही परा वाणी है. मार्कंडेय पुराण में श्रीविष्णु की योगनिद्रा लक्ष्मी जी ही महामाया है और यही समग्र विषय को विमोचित करती है. महामाया अर्थात शक्ति ही ज्ञानियों के चित्त को शक्तिवर्धक आकर्षित करके मोह में गिराती है तथा सभी जीवों को वासना की अंधी सुरंग में धकेल देती है जिससे वह पतन के गर्त में समाहित हो जाता है इसलिए ऐसा कहा गया है कि देवताओं के कार्यसिद्धि हेतु ही महामाया का अविर्भाव होता रहा है. कभी काली के रूप में तो कभी दुर्गा व महालक्ष्मी के रूप में. इतना ही नहीं पुरानों में महिषासुर राक्षस का वध करने के लिए ही शिव, विष्णु, ब्रह्मा समेत इंद्र, वरुण व सूर्यादि देवताओं के मुख से निकले तेजताप से ही शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ. महिषासुर राक्षस का वध करने के कारण ही इस शक्ति को महिषासुरमर्दिनी भी कहा गया है. पुरानों में देवी को सप्तमातृका अर्थात देवी के सात स्वरूप हैं, भी कहा गया है. सप्तमातृका का उल्लेख कुषाणकालीन स्थापत्य कला में, गुप्तकालीन कोशकार में, भी मिलता है जबकि कुमारसंभव में शक्ति व देवी को मातरः कहा गया है. गुप्तकालीन सम्राटों की विभिन्न मुद्राओं पर भी लक्ष्मी समेत दुर्गा व काली के चित्र अंकित है. देवी भागवत में कामरूपिणी देवी की उपासना शाक्त जन किया करते थे. शाक्त लोग देवी को मोह, माया व समस्त जगत से परे मानते थे. वे देवी शक्ति को आनंद भौर्वी, त्रिपुर सुन्दरी व ललिता आदि नामों से पुकारते थे. शिव, सदाशिव व महेश्वर उनके पंथ, पर्यक तथा उपवर्हण है तथा ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र व ईश्वर मंच के महज पैर ही है. इन कथनों से देवी की सर्वोच्चता प्रमाणित होती है. देवी को महाभैरव की आत्मा भी माना गया है तथा देवी के नौ व्यूहों-काल व्यूह, कुल व्यूह, नाम व्यूह, ज्ञान व्यूह, चिंता व्यूह, अहंकार व्यूह, बुद्धि व्यूह, महत्त व्यूह, व मन व्यूह की आत्मा मानी गई है.
शक्ति अखिल ब्राह्मांड से परे होने के कारण अनेक अखिल प्रभाव को न तो ब्रह्मा और न ही शिव व हरि ही जान सके हैं. शक्ति को आदि व अनंत मानते हुए स्त्री के देवी अंश को पूजनीय है, आदरणीय है, वन्दनीय है, सर्वशक्तिमान है ऐसा ही माना जाता है. वे वेदान्त प्रतिपाद्य की जन्मदात्री व ब्रह्मरूपिणी परमात्मा हैं. उनके पाद पंकज की रज को पाकर ब्रह्मा विश्व का सृजन करते हैं. विष्णु पालन करते हैं और शिव रूद्र रूप धारणकर संहार करते हैं. इसी आधार पर जो देवी शक्ति है वही परमात्मा है और जो परमात्मा है वही देवी है. उन दोनों में किंचित मात्र भी विभेद नहीं है.

(लेखिका. समाजशास्त्र विषय की अध्येता और शोध पत्रिका दिव्यांकुर की प्रधान संपादिका हैं.)

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