Tuesday 25 February 2014

वैश्विक चेतना और हिन्दी

अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी समीक्षा 

डॉ0 दिलीप अग्निहोत्री

जनसंख्या की दृष्टि से हिन्दी विश्व मंे तीसरे स्थान पर है। इस पर हम गर्व कर सकते हैं। लेकिन मातृ भाषा के अनुरूप छः दशक बाद भी हिन्दी पखवारा आयोजित करने की आवश्यकता पड़ती है। वैश्विक चेतना के सन्दर्भ में हिन्दी की स्थिति पर विचार करना पड़ता है। ऐसे प्रयास ऊपर से अच्छे लगते हैं। मूल प्रश्न अपनी चेतना का है। क्या हमारी अपनी चेतना इतनी जागृत है। क्या हम हिन्दी की वैश्विक चेतना को प्रभावी ढंग से बढ़ा सकते हैं। क्या दलित लेखन के अलावा समस्त हिन्दी साहित्य को खारिज करके लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है। क्या हिन्दी के विद्वान ही भ्रम की स्थिति नहीं बना रहे हैं। क्या महंगे आयोजनों से किसी बड़े बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। इतनी खेमेबन्दी के बल पर वैश्विक स्तर का मंसूबा पूरा किया जा सकता है। एक लाइन के सामने बड़ी लाइन खींची जाए, यह समझ मंे आता है। किन्तु एक लाइन को खारिज करके अपनी जगह बनाने के प्रयास उचित नहीं कहा जा सकता।

वैश्विक स्तर पर हिन्दी का मुकाबला किससे है, इस पर भी विचार होना चाहिए। चाइनीज और अंग्रेजी का स्थान ऊपर है। स्पष्ट है कि हिन्दी, चीनी और अंग्रेजी विश्व की प्रमुख भाषाएं हैं। लेकिन इन्हंे बोलने वालों की चेतना में बड़ा अन्तर है। ऐसा नहीं कि अंग्रेजी भाषी देशों मंे नस्लवाद  कम रहा है। वहां आज भी नस्ल के आधार पर भेदभाव होता है। साहित्य पर भी उसका प्रभाव देखा जा सकता है। मानव मात्र के प्रति सद्भावना का अभाव है। फिर भी उन्हंे अपनी भाषा बोलने मंे गर्व का अनुभव होता है। वह उसका विश्व स्तर पर प्रसार-प्रचार चाहते हैं। उस दिशा में प्रयास करते हैं। वैश्वीकरण के बाद इस दिशा में उनका अभियान चल रहा है। हम खुश हो सकते हैं कि भारत बड़ा बाजार है। यहां अपनी जगह बनाने के लिये बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के अधिकारी-कर्मचारी हिन्दी सीख रहे हैं। हिन्दी विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित हो रही है। लेकिन यह भ्रम है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां यहां अपनी अंग्रेजी भाषा और सभ्यता-संस्कृति साथ ला रही हैं। उसका व्यापक प्रचार-प्रसार हो रहा है।
हिन्दी इस मुकाबले मंे कहां है, इस पर विचार करना चाहिए। हम वैश्विक चेतना की बात कर रहे हैं, किन्तु अपने ही देश में हिन्दी कहां जा रही है। हिन्दी भाषी प्रदेशों में वैश्वीकरण के बाद क्या स्थिति है, इसे प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। किसी बाजार के एक छोर पर खड़े हो जाइए। दुकानों की नामपट्टिका पर नजर दौड़ाइए। यह नहीं लगेगा कि आप हिन्दी भाषी क्षेत्र में खड़े हैं। एक कुछ अंग्रेजीमय दिखेगा। विज्ञापनों के माध्यम से भी अंग्रेजी का प्रसार हो रहा है। वाहनों की नम्बर पट्टिका अंग्रेजी मंे होती है। यह हिन्दी भाषी क्षेत्र में चल रहा है। क्या कभी हिन्दी के किसी स्वनामधन्य विद्वान ने अंग्रेजी की इस घुसपैठ को रोकने के लिये आवाज उठाई। उनके पास अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनार आयोजित करने का समय है, धन की व्यवस्था है, लेकिन जहां रहते हैं वह क्षेत्र हिन्दी भाषी दिखाई दे, इस दिशा में उनके प्रयास शून्य है। इसको हिन्दी में हस्ताक्षर करने में शर्म लगती है। हम अपने सहयोगियों को इसके लिये प्रेरित नहीं कर सकते। हम जिस संस्थान में काम करते हैं, वहीं यह साधारण सा दिखने वाला अभियान नहीं चला सकते। यह बातें साधारण लग सकती हैं, लेकिन इसके परिणाम असाधारण हो सकते हैं। इनसे हिन्दी की प्रतिष्ठा स्थापित होगी। हिन्दी के प्रति जाग्रति उत्पन्न होगी। इसका विस्तार वैश्विक चेतना तक जायेगा। उसे समृद्ध बनायेगा। बॉलीवुड की फिल्मों ने हिन्दी के प्रसार में योगदान किया। हिन्दी फिल्मों की वजह से धन व शोहरत प्राप्त करने वाले लोगों की चेतना देखिए। अधिसंख्य लोग निजी जीवन या समारोहों में अंग्रेजी को ही वरीयता देते हैं। हिन्दी को अपनाने में गर्व का अनुभव नहीं होगा, तब तब वैश्विक चेतना के स्तर पर हम किसी अन्य भाषा की बराबरी नहीं कर सकेंगे। न हमारे साहित्य में उसके अनुकूल गौरव की अनुभूति होगी। पहले ऐसी स्थिति नहीं थी। गुलामी के दौर मंे भी अंग्रेजी का ऐसा वर्चस्व नहीं था। इसलिए उस समय के साहित्य मंे अधिक गौरव की अनुभूति थी। उस साहित्य को खारिज करना घातक होगा। यह वैश्विक चेतना को कमजोर करेगा।

चीन ने भी अपनी भाषा के प्रति गौरव को कायम रखा है। वहां तो वैचारिक क्षेत्र मंे भारी दबाव है। साहित्यकार अपनी व्यथा को कम्युनिस्ट विचारधारा के दायरे से बाहर जाकर अभिव्यक्त नहीं कर सकता। राजनीति के क्षेत्र में शोषण की दशा है। समाज पर उसका असर है। साहित्य का क्षेत्र पूरी तरह प्रभावित है। लेकिन अपनी भाषा के प्रति गर्व है। कोई भी चीनी नेता अपनी विदेश यात्रा मंे अन्य भाषा का प्रयोग नहीं करता। क्या हमारे हिन्दी के विद्वान अपने नेताओं से ऐसी अपील नहीं कर सकते। उन्हंे भी विदेशांे मंे हिन्दी गुंजानी चाहिए।
अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में विद्वान लोगों को उसी स्तर की बात करनी होती है। विदेशों मंे हिन्दी के अध्यचयन-अध्यापन पर संतोष व्यक्त किया जाता है। एक विद्वान ने बताया कि प्रवासी भारतीय हिन्दी लिखते नहीं है, लेकिन बोलते व समझते हैं। इसे दूसरे रूप में कहा जा सकता है कि अभी उन्होंने हिन्दी को लिखना भूला है।  आगे चलकर क्या होगा, अनुमान लगाया जा सकता है।

आत्ममुग्ध होने के लिये ऐसे अन्तरराष्ट्रीय सेमिनारों में बहुत कुछ होता है। लेकिन जब परत खुली है तो वैश्विक चेतना जैसे भारी-भरकम शब्द भ्रामक लगते हैं। लगता है कि यह हिन्दी के शास्त्रीय लेखन को पूरी तरह खारिज करने का अभियान है। तुलसी, प्रेमचन्द आदि सभी को खारिज किया जाता है। इनके लेखन के पूरे प्रसंग पर बात नहीं होती। एक टुकड़ा उठाकर उन्हंे वर्गवादी मानसिकता का घोषित कर दिया जाता है। घोषित करने वाले भी कौन हैं। जिन्हें आज समरसता की तरफ बढ़ता समाज दिखाई नहीं देता। वह वर्ग के आधार पर वैमनस्य बढ़ाने का काम कर रहे हैं। वह गैर दलितों की अच्छाई देखने को तैयार नहीं। इस तरह न हिन्दी साहित्य का भला होगा, न हमारे समाज का।

बात वैश्विक चेतना की होती है, लेकिन साहित्य के स्तर पर विभाजन को धार दी जा रही है। अपनी स्थापना औा दूसरे को खारिज करने का सुनियोजित अभियान चल रहा है। किसी भी साहित्य के पुर्नपाठ की संभावना सदैव हो सकती है लेकिन यह कार्य दुर्भावना से नहीं होना चाहिए। यदि हम किसी साहित्य की अच्छाई देखने को भी तैयार न हों, तो हमको समीक्षा, आलोचना या पुर्नपाठ का अधिकार नहीं हो सकता। विभाजित और दुर्भावनापूर्ण चेतना के बल पर हिन्दी को वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकता।

(यह लेख लखनऊ विश्वविद्यालय में 22-23 फरवरी, 2014 को सम्पन्न हुई अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनार पर आधारित है।)

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