Sunday 23 February 2014

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला: कभी न होगा मेरा अंत

-दीपक कुमार
लगभग 118 साल पहले हिंदी साहित्य जगत के एक नए प्रयोगधर्मी सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जन्म हुआ था। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, साहित्य की दुनिया का एक ऐसा नाम है जिसने अपने साहित्यिक रचनाओं से हिंदी जगत को या काव्य जगत को ही एक नया आयाम दिया । अक्सर उनका जन्मदिवस वसंत-पंचमी को मनाया जाता है, क्योंकि वसंत-पंचमी के दिन सरस्वती की पूजा होती है और निराला सरस्वती के वरद पुत्र थे, तो लोगों ने मान लिया है कि किसी और दिन उनका जन्म हो ही नहीं सकता था । उनका जन्म इसी दिन हो सकता है। इससे पवित्र दिन और कोई हो नहीं सकता है। शायद यही वजह है कि खड़ी-बोली हिंदी में सरस्वती पर जितनी कविताएँ निराला ने लिखी हैं अब तक किसी और कवि ने नहीं लिखी।
निराला जी एक कवि, उपन्यासकार, निबन्धकार और कहानीकार थे। उन्होंने कई रेखाचित्र भी बनाये। उनका व्यक्तित्व अतिशय विद्रोही और क्रान्तिकारी तत्त्वों से निर्मित हुआ है। उसके कारण वे एक ओर जहाँ अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तनों के सृष्टा हुए, वहाँ दूसरी ओर परम्पराभ्यासी हिन्दी काव्य प्रेमियों द्वारा अरसे तक सबसे अधिक गलत भी समझे गये। उनके विविध प्रयोगों- छन्द, भाषा, शैली, भावसम्बन्धी नव्यतर दृष्टियों ने नवीन काव्य को दिशा देने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इसलिए घिसी-पिटी परम्पराओं को छोड़कर नवीन शैली के विधायक कवि का पुरातनतापोषक पीढ़ी द्वारा स्वागत का न होना स्वाभाविक था। लेकिन प्रतिभा का प्रकाश उपेक्षा और अज्ञान के कुहासे से बहुत देर तक आच्छन्न नहीं रह सकता।
निरालारू एक परिचय
श्निरालाश् का जन्म महिषादल स्टेट मेदनीपुर (बंगाल) में था। इनका अपना घर उन्नाव जिले के गढ़ाकोला गाँव में है। निराला के पिता का नाम पं. रामसहाय था, जो बंगाल के महिषादल राज्य के मेदिनीपुर जिले में एक सरकारी नौकरी करते थे। निराला का बचपन बंगाल के इस क्षेत्र में बीता जिसका उनके मन पर बहुत गहरा प्रभाव रहा है। तीन वर्ष की अवस्था में उनकी माँ की मृत्यु हो गयी और उनके पिता ने उनकी देखरेख का भार अपने ऊपर ले लिया। निराला की शिक्षा यहीं बंगाली माध्यम से शुरू हुई। हाईस्कूल पास करने के पश्चात उन्होंने घर पर ही संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन किया। प्रारम्भ से ही रामचरितमानस उन्हें बहुत प्रिय था। वे हिन्दी, बंगला, अंग्रेजी और संस्कृत भाषा में निपुण थे, संगीत में उनकी विशेष रुचि थी। पन्द्रह वर्ष की अल्पायु में निराला का विवाह मनोहरा देवी से हो गया। रायबरेली जिले में डलमऊ के पं. रामदयाल की पुत्री मनोहरा देवी सुन्दर और शिक्षित थीं, उनको संगीत का अभ्यास भी था। पत्नी के जोर देने पर ही उन्होंने हिन्दी सीखी। इसके बाद अतिशीघ्र ही उन्होंने हिन्दी में कविता लिखना शुरू कर दिया। बचपन के नैराश्य और एकाकी जीवन के पश्चात उन्होंने कुछ वर्ष अपनी पत्नी के साथ सुख से बिताये, किन्तु यह सुख ज्यादा दिनों तक नहीं टिका और उनकी पत्नी की मृत्यु उनकी 20 वर्ष की अवस्था में ही हो गयी। बाद में उनकी पुत्री जो कि विधवा थी, की भी मृत्यु हो गयी। वे आर्थिक विषमताओं से भी घिरे रहे। ऐसे समय में उन्होंने विभिन्न प्रकाशकों के साथ प्रूफ रीडर के रूप में काम किया, इन्होंने 1922 से 23 के दौरान कोलकाता से प्रकाशित श्समन्वयश् का संपादन किया। 1923 के अगस्त से श्मतवालाश् के संपादक मंडल में काम किय, इनके इसके बाद लखनऊ में गंगा पुस्तक माला कार्यालय और वहाँ से निकलने वाली मासिक पत्रिका श्सुधाश् से 1935 के मध्य तक संबद्ध रहे। इन्होंने 1942 से मृत्यु पर्यन्त इलाहाबाद में रह कर स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य भी किया। वे जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा के साथ हिन्दी साहित्य में छायावाद के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने कहानियाँ उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति विशेषरुप से कविता के कारण ही है।
लेकिन तमाम खुशियों, गमों के तुफान में भी उन्होंने मां सरस्वती के दामन को कभी नहीं छोड़ा और शायद मां सरस्वती ने भी इसी वजह से उनपर हमेशा कृपा बनाए रखी। निराला ने मां सरस्वती को अनेक अनुपम एवं अभूतपूर्व चित्रों में उकेरा है। उन्होंने सरस्वती के मुखमंडल को करुणा के आँसुओं से धुला कहा है। यह सरस्वती का नया रूप है। जिस तरह तुलसी ने अन्नपूर्णा को राजमहलों से निकालकर भूखे-कंगालों के बीच स्थापित किया उसी तरह निराला ने सरस्वती को मंदिरों, पूजा-पाठ के कर्मकांड से बाहर लाकर खेतों-खलिहानों में श्रमजीवी किसानों के सुख-दुख भरे जीवन क्षेत्र में स्थापित किया। निराला का कवि-जीवन प्रकट करता है कि सफलता और सार्थकता समानार्थक नहीं हैं। विषम-समाज में सफल व्यक्ति प्रायः सार्थक नहीं होते। सफलता निजी जीवन तक सीमित होती है।
कवि सरस्वती की साधना करके शब्दों को अर्थ प्रदान करता है। उन्हें सार्थक बनाता है। वस्तुतः शब्द ही कवि की सबसे बड़ी संपत्ति हैं और उसी संपत्ति पर कवि को सबसे अधिक भरोसा होता है। तुलसी ने लिखा था -कबिहिं अरथ आखर बल साँचा कवि को अर्थ और अक्षर का ही सच्चा बल होता है। लेकिन शब्दार्थ पर यह विश्वास कवि को कदम-कदम पर जोखिम में डालता है। सफल साहित्यकार इस जोखिम में नहीं पड़ते। वे शब्दों की अर्थवत्ता का मूल्य नहीं चुकाते। सरस्वती के साधक पुत्र यह जोखिम उठाते हैं और शब्दों के अर्थ का मूल्य चुकाते हैं। और वही उनकी शब्द-साधना को मूल्यवान बनाता है। निराला का जीवन मानो इस परीक्षा की अनवरत यात्रा है। उसमें से अनेक से हिंदी समाज परिचित है और अनेक से अभी परिचित होना बाकी है। एक उदाहरण मार्मिक तो है ही, मनोरंजक भी है।
कहते हैं, एक वृद्धा ने घनघोर जाड़े के दिनों में निराला को बेटा कह दिया। वृद्धाएँ प्रायः युवकों को बेटा या बच्चा कहकर संबोधित करती हैं। वह वृद्धा तो निराला को बेटा कहकर चुप हो गई लेकिन कवि निराला के लिए बेटा एक अर्थवान शब्द था। वे इस संबोधन से बेचौन हो उठे। अगर वे इस बुढि़या के बेटा हैं तो क्या उन्हें इस वृद्धा को अर्थात् अपनी माँ को इस तरह सर्दी में ठिठुरते छोड़ देना चाहिए। संयोग से उन्हीं दिनों निराला ने अपने लिए एक अच्छी रजाई बनवाई थी। उन्होंने वह रजाई उस वृद्धा को दे दी। यह एक साधारण उदाहरण है कि शब्दों को महत्व देने वाला कवि शब्दार्थ की साधना जीवन में कैसे करता है।
यह साधना केवल शब्द पर ही विश्वास नहीं पैदा करती है, वह आत्मविश्वास भी जगाती है। जिन दिनों निराला इलाहाबाद में थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के यशस्वी वाइस चांसलर अमरनाथ झा भी वहीं थे। शिक्षा, संस्कृति और प्रशासकीय सेवाओं के क्षेत्र में अमरनाथ झा का डंका बजता था। उनका दरबार संस्कृतिकर्मियों से भरा रहता था। अमरनाथ झा ने निराला को पत्र लिखकर अपने घर पर काव्य पाठ के लिए निमंत्रित किया। पत्र अंग्रेजी में था। निराला ने उस पत्र का उत्तर अपनी अंग्रेजी में देते हुए लिखा-आई एम रिच ऑफ माई पुअर इंग्लिश, आई वाज ऑनर्ड बाई योर इनविटेशन टू रिसाइट माई पोयम्स एट योर हाउस। हाउ एवर मोर आनर्ड आई विल फील इफ यू कम टू माई हाउस टू लिसिन टू माई पोयम्स। (मैं गरीब अंग्रेजी का धनिक हूँ। आपने मुझे अपने घर आकर कविता सुनाने का निमंत्रण दिया मैं गौरवान्वित हुआ। लेकिन मैं और अधिक गौरव का अनुभव करूँगा यदि आप मेरे घर आकर मेरी कविता सुनें)।
निराला तो कहीं भी, किसी को भी कविता सुना सकते थे लेकिन वे वाइस चांसलर और अपने घर पर दरबार लगाने वाले साहित्य संरक्षक के यहाँ जाकर अपनी कविताएँ नहीं सुनाते थे। यह शब्दार्थ का सम्मान, सरस्वती की साधना का सच्चा रूप था।
कहते हैं, एक बार ओरछा नरेश से अपना परिचय देते हुए निराला ने कहा,श्हम वो हैं जिनके बाप-दादों की पालकी आपके बाप-दादा उठाते थे।श् यह कवि की अपनी नहीं बल्कि कवियों की परंपरा की हेकड़ी थी और निराला उस पारंपरिक घटना स्मृति का संकेत कर रहे थे, जब सम्मानित करने के लिए छत्रसाल ने भूषण की पालकी स्वयं उठा ली थी।
लेकिन निराला की रचनाओं में अनेक प्रकार के भाव पाए जाते हैं। यद्यपि वे खड़ी बोली के कवि थे, पर ब्रजभाषा व अवधी भाषा में भी कविताएँ गढ़ लेते थे। उनकी रचनाओं में कहीं प्रेम की सघनता है, कहीं आध्यात्मिकता तो कहीं विपन्नों के प्रति सहानुभूति व सम्वेदना, कहीं देश-प्रेम का जज्बा तो कहीं सामाजिक रूढि़यों का विरोध व कहीं प्रकृति के प्रति झलकता अनुराग। इलाहाबाद में पत्थर तोड़ती महिला पर लिखी उनकी कविता आज भी सामाजिक यथार्थ का एक आईना है। उनका जोर वक्तव्य पर नहीं वरन चित्रण पर था, सड़क के किनारे पत्थर तोड़ती महिला का रेखाँकन उनकी काव्य चेतना की सर्वोच्चता को दर्शाता है।
निराला जैसे कवि के व्यक्तित्व को हम आज के परिदृश्य में कैसे देखें। पहली बात तो मन में यही आती है कि राजनीतिक रूप से स्वतंत्र होने के बाद कितनी तेजी से हम सांस्कृतिक दृष्टि से पराधीन हो गए हैं। यह ऐतिहासिक विडंबना अब अबूझ नहीं रह गई है। साफ दिखलाई पड़ रही है। एक ओर देश के प्रायः सभी सांस्कृतिक मंचों पर अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवादी अपसंस्कृति का कब्जा बढ़ता जा रहा है और उससे भी यातनाप्रद स्थिति यह है कि हम उससे उबरने का कोई उद्योग नहीं कर रहे हैं। बाहरी तौर पर देखने से स्थिति बड़ी चमत्कारी और सुखद लगती है।
सब मिलाकर श्निरालाश् भारतीय संस्कृति के द्रष्टा कवि हैं-वे गलित रुढि़यों के विरोधी तथा संस्कृति के युगानुरूप पक्षों के उदघाटक और पोषक रहे हैं। पर काव्य तथा जीवन में निरन्तर रुढि़यों का मूलोच्छेद करते हुए इन्हें अनेक संघर्षों का सामना करना पड़ा। मध्यम श्रेणी में उत्पन्न होकर परिस्थितियों के घात-प्रतिघात से मोर्चा लेता हुआ आदर्श के लिए सब कुछ उत्सर्ग करने वाला महापुरुष जिस मानसिक स्थिति को पहुँचा, उसे बहुत से लोग व्यक्तित्व की अपूर्णता कहते हैं। पर जहाँ व्यक्ति के आदर्शों और सामाजिक हीनताओं में निरन्तर संघर्ष हो, वहाँ व्यक्ति का ऐसी स्थिति में पड़ना स्वाभाविक ही है। हिन्दी की ओर से श्निरालाश् को यह बलि देनी पड़ी। जागृत और उन्नतिशील साहित्य में ही ऐसी बलियाँ सम्भव हुआ करती हैं-प्रतिगामी और उद्देश्यहीन साहित्य में नहीं।

http://samwadkranti.blogspot.in/2014/02/blog-post_9191.html


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